Tuesday, November 19, 2013

ऐ वे मैं चोरी चोरी


करीब पंद्रह दिनों पहले मैंने नीचे के तीन पैरा लिखे थे। पोस्ट नहीं कर पाया था। उसके बाद एक-एक कर हिंदी के दो बड़े साहित्यकार गुजर गए। विजयदान देथा और ओमप्रकाश बाल्मीकि। और फिर मेरी प्रिय लेखिका डोरिस लेसिंग। मौत तो सबकी होनी है. ये सभी बड़ी उम्र में ही गुजरे, पर इनका जाना एक वर्तमान का इतिहास बन जाना है।

बापू साधारण मजदूर था। सरकारी गाड़ी चलाता था। कभी कभी दारू पीकर लौटता तो एक संदूक में पड़ी पोथियाँ निकालकर हमें हीर-राँझा, नल-दमयंती आदि गाकर सुनाता। हम उसे 'तुसीं' यानी आप कहते थे, पर माँ को 'तू' कहते थे। अब स्मृति में वह अपना ऐसा हिस्सा लगता है कि उसके लिए आप नहीं सोच पाता। बड़े होकर जाना था कि बापू के गाए कई गीत पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत हैं और इनके गानेवालों में जमला जट, आलम लोहार और रेशमा आदि हैं। विदेश में पढ़ते हुए एकबार न्यूयॉर्क के जैक्सन हाइट्स की दूकानों में हिंदुस्तानी संगीत के कैसेट ढूँढ रहा था तो किसी बुज़ुर्ग ने रेशमा का कैसेट पकड़ाया। अब भी मेरे पास है, पर अरसे से प्लेयर खराब है तो बजाया नहीं जाता। रेशमा को याद करना बापू को याद करना है, उससे सीखी पंजाबी भाषा को याद करना है।

तीनेक साल पहले जब कोक-स्टूडियो पाकिस्तान के गीतों को सुनने की खुशी में यू-ट्यूब से और संगीत ढूँढता रहा, तो मीशा सफी का गाया 'ऐ वे मैं चोरी चोरी' के कई गायन ढूँढ निकाले। तभी यू-ट्यूब पर ही रेशमा को लंदन के एक प्रोग्राम में यह गाते देखा। नम्रता के साथ यह कहते हुए कि लता बहन ने भी इसी सुर का गाना गाया, उसने पहले 'यारा सिल्ली सिल्ली' के दो लाइन सुनाए, फिर 'ऐ वे मैं चोरी चोरी'

तब से कई बार मुड़ मुड़ कर रेशमा के गीत यू-ट्यूब पर सुने और औरों को सुनाए। रेशमा को जाना तो था ही; अरसे से बीमार थी; सब को कभी न कभी जाना है ही। पर मुझे लगा जैसे कि एक बार फिर बापू की मौत हो गई। रेशमा अपनी पीढ़ी के उन गायकों में थी, जिन्होंने फ्यूज़न नहीं गाया - गाया हो तो मुझे नहीं मालूम। शायद लंबी बीमारी से वह इस फितूर में शामिल नहीं हो सकी। इसलिए उसका गाया खालिस पुराने किस्म का लोकगायन रह गया। और वह क्या खूब है, यह तो जो जानते हैं वे जानते हैं।

Sunday, November 03, 2013

मुक्ता दाभोलकर


पिछले एक पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि हमलोगों ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के खिलाफ दुख और रोष प्रकट किया था। साथी भूपेंद्र ने उनकी बेटी मुक्ता के साथ संपर्क किया और 25 अक्तूबर को हमने उनका व्याख्यान रखा। साथ ही अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति की ओर से प्रशांत ने कुछ प्रयोग भी दिखलाए। मुक्ता बहुत ही अच्छा बोलती हैं। उनकी बातों में जेहनी प्रतिबद्धता झलकती है और साथ ही अपनी तकरीर में वह सहिष्णुता का अद्भुत नमूना पेश करती हैं। उस दिन हॉल खचाखच भरा हुआ था और चूँकि मैंने मंच सँभालने की जिम्मेदारी ली थी, आज तक कई साथी आ-आकर मुझे धन्यवाद कह रहे हैं कि यह कार्यक्रम आयोजित किया गया। आखिर क्या वजह है कि लोगों ने इसे इतना पसंद किया। प्रतिबद्धता और सहिष्णुता ही दो बातें हैं जो अलग से दिखती हैं। कुछ लोग दुख साझा करने के मकसद से आए होंगे और मैंने मुक्ता से आग्रह भी किया था कि वह अपने पिता के मानवीय पक्ष पर बोले। पर मुक्ता ने निजी संदर्भों के साथ आंदोलन के पहलुओं को जोड़ कर लोगों को गहराई तक प्रभावित किया। सवाल जवाब देर तक चला। एक बात कई बार आई कि स्वयं नास्तिक होते हुए भी अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वालों को लोगों की धार्मिक आस्थाओं से आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि अगर किसी को आध्यात्मिक जीवन से बेहतर इंसान होने की प्रेरणा मिलती है तो वह अच्छी बात है। मूल बात धर्म या आस्था के नाम पर होते शोषण का विरोध है न कि आस्था मात्र का विरोध। 

मुझे ये बातें खास तौर पर अच्छी लगीं क्योंकि हम लंबे अरसे से यह कहते आए हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि और चेतना एक बुनियादी मानवीय प्रवृत्ति है। इसमें और आस्था-जनित विश्वासों में भेद समझना ज़रूरी है। पर हर वक्त हर चीज़ को वैज्ञानिक दृष्टि से ही देखने की माँग रखना ठीक नहीं। विज्ञान या तर्कशीलता से इतर किसी सोच से जब संकट की स्थिति पैदा हो, जब किसी को चोट पहुँचती हो, तो वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कशीलता के आधार पर चीज़ों को परखा जाना चाहिए। जैसे अगर किसी की आस्था का फ़ायदा उठाकर कोई ढोंगी व्यक्ति उसे लूटता है, तब हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसका विरोध करे। अपने विरोध को सार्थक बनाने के लिए यह समझाना पड़ेगा कि आस्था के नाम पर कैसे ग़लत बातें कही जा रही हैं। यानी कि अंधविश्वास जो एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के प्रति अन्याय करने का तरीका बन जाता है, वहाँ यह वैज्ञानिक तर्कशीलता से ही समझाना पड़ेगा कि यह ग़लत है। सवाल जवाब के दौरान मुक्ता ने ठोस उदाहरणों के साथ इस बात को समझाया। जैसे कोई बाबा उँगलियों से शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का दावा कर लोगों से पैसे लूट रहा था तो अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति ने इसका खुलासा किया और बाबा का भंडाफोड़ किया। यह ज़रूरी नहीं कि सामान्य धर्मभीरु लोगों को धर्म के खिलाफ कहा जाए, बस इतना कि उन्हें जागरुक किया जाए कि उनकी धार्मिकता का फ़ायदा उठाकर कुछ लोग कैसे उनका शोषण करते हैं।

 यह सवाल ज़रूर रह जाता है कि कैसे तय करें कि कोई भी मान्यता वैज्ञानिक दृष्टि के साथ संगति रखती है या नहीं। इसके लिए यह जानना होगा कि विज्ञान क्या है; इसलिए हर किसी को ज्ञान प्राप्ति के साधनों के बारे में जानना सीखना चाहिए। सामान्य तर्कशीलता मात्र ही विज्ञान नहीं है। हर तरह की आस्था की अपनी तर्कशीलता होती है। ईश्वर की धारणा अक्सर उपयोगी होती है, पर यह क्यों वैज्ञानिक धारणा नहीं है, इसे समझने के लिए विज्ञान की कुछ बुनियादी विशिष्टताओं के बारे में जानना ज़रूरी है। इस पर फिर कभी। और यह भी कि विज्ञान नामक संस्था भी धर्म जैसी संस्थाओं की तरह शोषण और विनाश का औजार होती रही हैं। कई लोग, खास तौर पर समाज विज्ञान में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में मुखर हुए उत्तर-आधुनिक  विद्वान इसे विज्ञान की संरचनात्मक सीमा मानते हैं, पर मैं इस बात से असहमत हूँ। मेरी नज़र में विज्ञान की एकमात्र सीमा भावनात्मकता यानी emotion को ज्ञान प्राप्ति के साधन के बतौर इस्तेमाल न कर पाना है। वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना और वैज्ञानिक पद्धति भावनात्मकता को कोई जगह नहीं देती। यह विज्ञान की ताकत भी है और सीमा भी।