Sunday, January 20, 2013

आदम की संतानें हैं इतनी बीमार


कितने आँसुओं का बोझ


 
एक दिन धरती फेंक देगी हमें शून्य में

नहीं सहा जाता इतना बोझ

आस्मान नहीं स्वीकारेगा हमारी यातनाएँ


कौन ब्रह्म हमें सँभालने अपनी हथेली पसारेगा


धरती के इस ओर से उस ओर

दुर्वासा के कदमों की थाप

काँप रहा गगन


एक व्यक्ति ढूँढने निकला है

आदि आदिम को

धरती और आस्मान विस्मित हैं

पूछ रहे एक दूसरे से कि किसकी गलती है

कि आदम की संतानें हैं इतनी बीमार


एक व्यक्ति योजनाएँ बना रहा है

कि वह हर बदले का बदला लेगा

बदलों की सूची बनाते हुआ वह रुक गया है

आदम तक पहुँच कर


क्यों फेंके थे पत्थर आदम ने

जब और कोई न था धरती पर उसके सिवा।

(2009; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित)

Thursday, January 17, 2013

अगड़म बगड़म


कुछ साल पहले मैंने सुकुमार राय की अनोखी कृति 'आबोल ताबोल' से अनूदित कविताएँ पोस्ट की थीं। 1988 में अशोक अग्रवाल ने संभावना प्रकाशन से मेरी अनूदित ऐसी 20 कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित की थी। ये नॉनसेंस कविताएँ हैं और इनका अनुवाद कठिन काम है। मुझमें हमेशा एक असंतोष की भावना रह गई थी कि अनुवाद ठीक हुआ नहीं है। डेढ़ साल पहले काफी मेहनत से प्रो. सुवास कुमार के साथ बैठ कर मैंने दुबारा यह काम किया और इस बार विजय गुप्त ने साम्य पत्रिका की पुस्तिका के रूप में इसे छापा है। इसकी भूमिका के लिए विजय जी ने भी लिखा और हमने भी एक लेख तैयार किया। मेरा यह लेख संक्षिप्त रूप में तीन साल पहले अंग्रेज़ी में निकलती पत्रिका 'हिमाल' में छपा था। यहाँ हिंदी में पूरे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। पुस्तिका का आवरण बनतन्वी दासमहापात्रा ने तैयार किया है। प्रति (कीमतः 30/-) के लिए लिखें:- श्री विजय गुप्त, ब्रह्म रोड, अम्बिकापुर 497001, जिला - सरगुजा, ..



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भूमिका
भारतीय उपमहाद्वीप की तमाम भाषाओं में आधुनिक काल में बच्चों के लिए लेखन की प्रचुरता की वजह से बांग्ला की अलग पहचान है। बांग्ला साहित्य में ऐसा कोई प्रतिष्ठित लेखक या कवि नहीं है, जिसने बच्चों के लिए लगातार न लिखा हो। उन्नीसवीं सदी में भारत में आधुनिक मुद्रण तकनीक के आने के थोड़े समय बाद से ही बांग्ला भाषा में बच्चों के लिए पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं। आज भी कोलकाता के सालाना 'पूजोवार्षिकी' और ढाका में ईद पर प्रकाशित संग्रहों में बच्चों को तरह तरह के लघु उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ आदि पढ़ने को मिलते हैं। ये रचनाएँ सामाजिक विषयों से लेकर जासूसी या व्यंग्य आदि हर तरह की होती हैं।
बांग्ला में बाल साहित्य की ऐसी पत्रिकाएँ हैं, जो कई दशकों से लगातार प्रकाशित हो रही हैं। इनमें से लेखक और गीतकार उपेंद्रकिशोर रायचौधरी द्वारा 1913 में आरंभ की गई 'संदेश' पत्रिका बांग्ला भाषा की धरोहर बन गई है। उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे सुकुमार राय ने संपादन का भार सँभाला। उपेंद्रकिशोर की सबसे प्रसिद्ध कृति 'गूपी गाईन बाघा बाईन' पर सुकुमार के बेटे सत्यजित राय ने इसी शीर्षक की फिल्म बनाई, जिसका भारतीय फिल्मों के इतिहास में अनोखा स्थान है। सत्यजित राय की प्रतिष्ठा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की है, फिल्मों के अलावा छोटे बड़े हर उम्र के पाठकवर्ग के लिए उन्होंने विज्ञान कथाएँ, जासूसी और अन्य रोचक कहानियाँ भी लिखी हैं; पर उनके पिता सुकुमार राय के बारे में हिंदी के पाठकों को कम ही जानकारी उपलब्ध है। सुकुमार की अभिनव कौशल से भरपूर 'नानसेंस' गद्य और पद्य रचनाओं ने बांग्ला में बाल साहित्य में नई परंपराओं का निर्माण किया।

सुकुमार राय अद्भुत प्रतिभा से संपन्न थे। उनका जन्म 1887 ईस्वी में हुआ। 36 साल की कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। दो विषयों में ससम्मान (आनर्स) कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक (बी एस सी) डिग्री के बाद अपनी मेधा के बल पर उन्हें इंग्लैंड के मैंचेस्टर कालेज में फोटोग्राफी और प्रिंटिंग टेक्नोलोजी का अध्ययन करने के लिए वजीफा (गुरूप्रसन्न स्कालरशिप) मिला। विदेश में रहते हुए वे स्थानीय साहित्यिक माहौल में सरगर्म रहे। वे एक कुशल गायक और अभिनेता भी थे। ऐसा संभव है कि उनपर लूइस कैरल ('एलिस इन वंडरलैंड – आश्चर्यलोक में एलिस' के रचयिता) का प्रभाव रहा हो। सत्यजित राय के अनुसार, “कैरल की कृति 'Jabberwocky (जैबरवोकी - एलिस इन वंडरलैंड में एक कविता)' में रचित प्राणी कल्पना लोक से आए थे, पर सुकुमार के चरित्र, जैसे भी वे हैं, हर रोज की परिचित दुनिया से आए हुए थे। और उनमें से कई सचमुच बंगाल की ही उपज थे, जैसे "हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़)"

बांग्लाभाषियों के लिए सुकुमार राय की रचनाएँ nonsense यानी 'बेतुकी' विधा में सर्वश्रेष्ठ हैं (चूँकि 'बेतुकी' शब्द का अर्थ तुक का न होना भी होता है, इसलिए यह उपयुक्त शब्द नहीं लगता। संभवतः 'अण्डबण्ड', 'ऊटपटाँग', पद्य-लफ्फाजी या 'गप्पोड़ी' जैसा कोई शब्द बेहतर हो, लेकिन हम यहाँ 'नानसेंस' का ही इस्तेमाल करेंगे) । पर इस विधा में आलोचना कर्म न के बराबर है। यह सचमुच बड़ी अजीब बात है कि हालाँकि बांग्ला में वयस्क साहित्य के लिए सचेत और उत्तम रुचि के पाठक बनाने में बाल साहित्य का बहुत बड़ा अवदान है, बच्चों के लिए लिखे गए विपुल साहित्य भंडार का आलोचनात्मक विश्लेषण बहुत कम हुआ है। इन रचनाओं के स्रोत और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। संभवतः बच्चों के लिए लिखी सामग्री को ऐसा नहीं माना गया है कि उस पर गंभीर आलोचना लिखी जाए।


असंभव के छंद
सुकुमार राय के बारे में उनके समकालीन कवि चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः - "उनका वाक्य सरस था, उनकी रचना सरस थी, उनका संग सरस था, उनका व्यवहार सरस था। उनके स्वभाव में आनंदमयता थी। इसी स्वभावसिद्ध आनंदमयता की वजह से दोस्तों की मजलिसों में वे आनंद का केंद्र होते थे और वे जो कुछ भी लिखते, वह आनंद से भरपूर होता।" स्वभाव से रसिक और विनोद प्रिय होने के साथ ही सुकुमार राय तर्कशील प्रवृत्ति के थे। उन्होंने बच्चों के लिए अंधविश्वास के खिलाफ आलेख लिखे हैं। पर उनको मुख्यतः नानसेंस कविता और गद्य रचनाओं के लिए ही जाना जाता है। उन्होंने अपनी इन रचनाओं में आधुनिक सोच से जुड़े नए खयाल और नए शब्द शामिल किए। इनमें कई शब्द अंग्रेज़ी के भी हैं, जो व्यंग्य विनोद के लिए सफलता पूर्वक प्रयुक्त हुए हैं; और कुछ तो बड़े तकनीकी किस्म के भी हैं। सुकुमार ने विशुद्ध नानसेंस में खुद को बाँध नहीं रखा, बेतुकी लगती बातों के जरिए न केवल समकालीन, बल्कि सर्वकालीन सत्य की ओर उन्होंने अक्सर संकेत किए हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने ऐसे जीव-जंतुओं को रचा, जो बच्चों और बड़ों, सबको भाते हैं। उनके रचना काल में बंगाल में साक्षरता देश के अन्य इलाकों से बेहतर थी, पर फिर भी यह काफी कम थी। इसलिए उस जमाने में उनका पाठक वर्ग मूलतः शिक्षित और संपन्न भद्रलोक समुदाय और उनके बच्चों का था। परवर्त्ती काल में साक्षरता बढ़ने पर 'आबोल ताबोल' जैसी कृतियों को घर-घर पढ़ा जाने लगा।

सुकुमार राय 'आबोल ताबोल' की काव्यात्मक 'भूमिका' में पाठकों को 'असंभबेर छंदे (असंभव के छंदों में)' प्रवेश करने का न्यौता देते हैं। संग्रह की पहली कविता से ही पाठक अद्भुत लोक से परिचित होता है। संकर जंतुओं का आश्चर्यलोक हमारे सामने है-
बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार)
बन गए 'बत्ताही' जी, कौन जाने कैसे यार!



बत्तख और साही मिलकर बत्ताही बन गए हैं। सुकुमार अच्छे चित्रकार भी थे। पाठ में मजेदार तस्वीरों का अंकन कर आमोद-विनोद को बढ़ाना उन्हें बखूबी आता था। 'टैंस गोरू' (ठसकदार गाय) जैसी कई रचनाओं में वे बर्त्तानवी व्यवस्था की लालफीताशाही (जो आज की व्यवस्था पर भी लागू होती है) पर कस कर व्यंग्य करते हैं। वे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से भी प्रभावित थे। उनकी रचनाओं में कई सामाजिक विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी दिखलाई पड़ती है।
बांग्ला समाज पर सुकुमार राय का गहरा प्रभाव है। आज बांग्ला भाषा में इस्तेमाल किए जा रहे कई (तकरीबन सौ) शब्द सुकुमार की देन हैं। पहले से प्रचलित 'छड़ा' (बच्चों के लिए लिखी गई मुकरी जैसी रचनाएँ) की विधा में उच्च-स्तरीय नानसेंस लाकर उन्होंने बाल साहित्य में एक ऐसी शुरुआत की जिसका प्रभाव आजतक है। पर स्वयं सुकुमार राय अपने समय की उपज थे। वर्ग आधारित समाज में रहते हुए किसी भी व्यक्ति में अपने समय के सभी पूर्वाग्रह मौजूद होते हैं। सुकुमार राय इससे अछूते नहीं हैं। पर उनकी रचनाएँ हमें उल्लास की ऐसी स्थिति में ले जाती हैं कि हम या तो इन पूर्वाग्रहों पर ध्यान नहीं दे पाते या उन्हें नज़रअंदाज कर देते हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता 'सोत पात्रो (सत् पात्र या अच्छा वर)' की ये पंक्तियाँ देखें -
बुरा नहीं, वर अच्छा है -
रंग का थोड़ा कच्चा है;
और लगता उसका चेहरा कैसा
थोड़ा थोड़ा उल्लू जैसा।
शिक्षा-दीक्षा? बतलाता हूँ -
अध्ययन पर उसकी आता हूँ!
उन्नीस बार घायल हो हो कर
मैट्रिक में रह गया अटक कर।
धन-संपत्ति? कुछ नहीं है भाई-
दुःख में दिन और रात बिताई।



कहना मुश्किल है कि सुकुमार यहाँ अपने समय में प्रचलित पाखंडों का, जैसे वैवाहिक संबंधों में बाधा डालने वाले पड़ोसियों का मजाक उड़ा रहे हैं, या स्वयं उनसे ग्रस्त हैं। जैसा भी है, उनके लेखन में ऐसी विसंगतियाँ अक्सर नज़र आती हैं। समकालीन मध्यवर्ग के संस्कारों और मर्यादाओं के पैमाने में उनके श्लील-अश्लील विचार को समझा जा सकता है। एक उदाहरण है - 'हैंग्ला'। इस शब्द का एक आम गाली की तरह प्रयोग होता है। सामान्य तौर पर इसका अर्थ ऐसे सस्ती प्रकृति के व्यक्ति से है, जो किसी चीज के प्रति अपने लोभ पर नियंत्रण नहीं रख पाता। सुकुमार ने ऐसे शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है। इनमें से कई मुहावरे बन गए हैं, जैसे - हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़), नोंग्रामुखो शुट्को (गंदी शक्ल और सूखी काया वाला) आदि। इसी तरह जंतुओं के प्रति आम तौर पर प्रचलित हिंसात्मक शब्दों का इस्तेमाल भी उन्होंने किया है, जैसे -
ज़िंदा ऐसे साँप दो 
ला कर मेरे पास रखो !
मार पीट डंडा,
कर  दूँगा ठंडा!

संभावना यह भी बनती है कि बच्चों पर हम बड़ों का या सामाजिक व्यवहारों पर पड़े असर को लेकर व्यंग्याभिव्यक्ति की जा रही हो! लिंगभेद के प्रसंग में भी सुकुमार के लेखन में तत्कालीन मूल्य और पूर्वाग्रह देखे जा सकते हैं। बांग्ला में क्रियापद से लिंग निर्णय कर पाना संभव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप कर्त्ता के लिंग की पहचान के लिए प्रसंग को समझना जरूरी होता है। बांग्लाभाषी पाठक को संदर्भों को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती और वह सहज ही लिंग निर्णय कर लेता है। सुकुमार राय की प्रसिद्ध गद्य रचना '----' (----- अर्थात जिसका कोई सिर पैर न हो) में कथा का नायक एक बच्चा है जो सो गया है और लूइस कैरल की फंतासी की तरह उसका आश्चर्य लोक के जंतुओं के साथ सामना होता है (जिनमें वास्तव जगत के मानवों की तरह खासियत हैं); और वह उनसे बातचीत करता है। अगर किसी बांग्लाभाषी से पूछा जाए कि उन्हें कैसे पता कि कहानी का बच्चा पुरुष लिंग का यानी लड़का है तो उनमें से अधिकतर इसका जवाब न दे पाएँगे। एक संवेदनशील मित्र का कहना है कि कहानी के अंत में जब बच्चा जग जाता है तो उसका मामा आकर उसका कान पकड़कर खींचता है, इससे पता चलता है कि वह लड़का है। आमतौर पर लड़कियों को कान पकड़कर नहीं खींचा जाएगा। कम से कम मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह बात सही है।
पूर्वाग्रहों को नज़रअंदाज़ करें तो हम पाएँगे कि सुकुमार सामान्य से हटकर अलग दिखती शक्लों का हास्य-व्यंग्य के लिए बड़ी कुशलता के साथ इस्तेमाल करते हैं। उनके एक प्रसिद्ध चरित्र, 'पागला दाशू' (पगला दासू), का विवरण देखिए -
उसकी शक्ल, बातचीत और चाल से यह स्पष्ट था कि उसका दिमाग कुछ ढीला है। उसकी आँखें बड़ी और गोल थीं, ज़रूरत से ज्यादा बड़े कान थे, सिर में बिखरे हुए बालों का जाल था।...वह जब जल्दी से चलता या हड़बड़ी में बात करता है, तब उसके हाथ-पैरों का उछलना देखकर झींगा मछली का खयाल आता है।
ऐसे विवरण को सीधे सीधे किसी के प्रति नफरत की अभिव्यक्ति कहकर खारिज करना ठीक न होगा, खासकर जब हम उस युग की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हैं। उस युग में आकृति को प्रकृति का लक्षण माना जाता था। यह भी कहा जा सकता है कि अगर हर बात को सही वैचारिक पलड़े पर रख कर ही तौला जाए तो हास्य-व्यंग्य के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। ज्यादा सही यही कहना होगा कि सुकुमार इस तरह के लेखन में जीवन की निष्ठुर सच्चाइयों की ओर संकेत कर रहे हैं। पर ऐसी सामग्री का उपयोग आज कैसे हो रहा है, इस बारे में सतर्क पहना जरूरी है। ऐसे पाठ का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उस पर मनोवैज्ञानिक शोध किया जाए तो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकल सकते हैं।
शब्दकल्पद्रुम
सुकुमार राय का शब्द- चयन का भंडार रोचक है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह बांग्ला का शब्द-भंडार भी संस्कृत, फारसी और देशज स्रोतों से समृद्ध हुआ है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में बंगाल में नवजागरण के साथ ही पुनरुत्थान-वादी प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय थीं। भाषा पर इसका प्रभाव साफ दिखता है। सदी के अंत तक बांग्ला भाषा से फारसी मूल के शब्दों को निकाल कर इसे संस्कृतनिष्ठ करने की प्रवृत्ति के बारे में कइयों ने टिप्पणी की है। इस प्रवृत्ति को सबसे अधिक बढ़ावा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने दिया। रवींद्रनाथ ठाकुर और उनके समकालीन रचनाकारों ने रुढ़ क्रियारूपों का उपयोग कम किया, पर संस्कृतनिष्ठता काफी हद तक बरकरार रही। सुकुमार राय आधुनिकतावादी थे और उनकी वाक्-विदग्धता कमाल की थी। उन्होंने संस्कृत शब्दों के ध्वन्यात्मक सौंदर्य का बखूबी इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, 'आबोल ताबोल' की कविता 'शब्दकल्पद्रुम' (शीर्षक अपने आप में बखूबी से मृदंग के बोल सा पैदा करता है) में मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने वाले आम शब्दों (चाँद का डूबना, फूल की गंध का बहना, आदि) के साथ ध्वनि बोधक शब्दों को जोड़कर अद्भुत शिल्प रचा गया है। इस कविता और ऐसी ही कई अन्य कविताओं में देशज शब्दों का बहुतायत से इस्तेमाल हुआ है। पर तत्सम शब्दों की तादाद फारसी शब्दों की तुलना में अधिक है।
सुकुमार राय ने अनेकार्थी शब्दों का उपयोग बढ़-चढ़ कर और भरपूर कुशलता के साथ किया है। 'शब्दकल्पद्रुम' में एक पंक्ति है - 'फूल फोटे? ताई बोलो, आमि भाबि पोटका!' (फूटा (खिला) फूल? ऐसा बोलो! मुझे लगा बम (पटाखा) था!)'फोटे' शब्द का बम फटना या फूल की पंखुड़ियों का खिलना दोनों अर्थों में इस्तेमाल होता है। ऐसा ही कौशल उनकी गद्य कृतियों में भी दिखता है। एक कुशल भाषाविद् की तरह वे पाठक की विनोदप्रियता को जगाते हैं। उनका 'लक्खनेर शक्तिशेल (लक्ष्मण का शक्तिवाण)' आज भी व्यंग्य रचना के रुप में बहुत पढ़ा जाता है। इसे समकालीन राजनैतिक दलों के प्रति व्यंग्य की तरह पढ़ा जा सकता है। उनकी रचनाओं में राजा जैसे चरित्र हमेशा ही बड़े दयनीय से दिखते हैं - 'गंध विचार' ऐसी ही एक कविता है। शिक्षा व्यवस्था पर भी वे बार-बार चुटकी लेते हैं। 'समझाकर कहना' और 'विज्ञान शिक्षा' जैसी कविताओं में यही अंदाज़ दिखता है, जहाँ जबरन बच्चों को पढ़ाने या उन पर ज्ञान थोपने का मजाक उड़ाया गया है।
सुकुमार राय एक ऐसे दुर्लभ मेधावी बहुप्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे, जिसे आज के जमाने का कोई वीडियोगेम और वाल्ट डिस्नी का हल्ला पछाड़ नहीं सकता। समय के साथ उनकी कई कविताएँ और अधिक प्रासंगिक बनती जा रही हैं। गंभीर स्थितियों को भी हास्य में बदलने की अद्भुत क्षमता उनमें थी। कइयों का मानना है कि 36 से भी कम उम्र में मृत्यु के ठीक पहले आसन्न मृत्यु के बारे में अपनी अंतिम रचना में उन्होंने लिखा ('आबोल ताबोल' संग्रह की इसी शीर्षक की आखिरी कविता) -
आदिम समय का चाँदिम हिम
गाँठ में रखा घोड़े का डिम*
हुईं नींद से आँखें भारी,
गीत की लड़ियाँ खो गईं सारी।
(घोड़े का डिम*= घोड़े का अंडा=शून्य, कुछ नहीं)
ऐसा कमाल का दार्शनिक व्यक्तित्व सुकुमार का था। मृत्यु के कुछ समय पहले तक, 'नींद से आँखें भारी' होने की स्थिति में भी वे अपनी संदेश पत्रिका के लिए लिखने और तस्वीरें बनाने का काम करते रहे। स्वभाव से विनोदी प्रवृत्ति के और हास्य रसिक होते हुए भी (जीवन की नश्वरता पर टिप्पणी देखिए - 'गाँठ में रखा घोड़े का डिम') सुकुमार वस्तुतः अपने काम में बहुत गंभीर थे। मानवीय मूल्यों में भी वे अतुलनीय थे। चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः- “उनके आत्मीय मित्रों की अस्वस्थता के दौरान उनके सेवाभाव से और स्वयं उनकी लंबी बीमारी के दौरान उनको जानकर उनके हृदय की महानता का परिचय हमें हुआ। मित्र अजितकुमार चक्रवर्त्ती की अंतिम पीड़ा के समय जिस तरह सपत्नीक सुकुमार बाबू ने तन-मन-धन की चिंता न करते हुए उनकी सेवा की थी, यह देखकर पति पत्नी दोनों के प्रति मेरी श्रद्धा सौगुना बढ़ गई।" मौत का सामना करते हुए भी सुकुमार को निरंतर कार्यरत देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रभावित हुए। उन्होंने लिखाः- “मौत के दरवाजे पर खड़े होकर भी वे (सुकुमार) असीम जीवन का जयगान गाते रहे। उनकी रोगशय्या के पास बैठकर और उस गान के सुर से मेरा चित्त पूर्ण हुआ।"
अनुवाद अपने आप में कठिन काम है। यह और भी भारी हो जाता है जब नानसेंस का अनुवाद करना हो। अनूदित कविता कभी भी मूल रचना के बराबर नहीं हो पाती, यह सर्वविदित है। नानसेंस कविता का अनुवाद कैसा जोखिम भरा काम है, सुधी पाठक इसकी कल्पना कर सकते हैं। खासकर सुकुमार राय का लेखन जो महज निरर्थक और बेमतलब की बातों का समूह नहीं, बल्कि सारगर्भित नानसेंस है, इसका अनुवाद कहीं से भी मूल के बराबर नहीं हो सकता। फिर भी जैसा कि इस्पानी भाषा के कथाकार गाब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़ के अंग्रेज़ी अनुवादक ग्रेगरी राबासा का कहना हैः- 'अनुवाद अपने आप में एक सर्जनात्मक काम हो सकता है' ('A translation can be creative in its own right...')। अतः साहित्यिक अनुवाद को पुनर्रचना कहना बेहतर है। खुद मार्ख़ेज़ ने राबासा के बारे में कहा हैः- 'उन्होंने मूल रचना की खूबसूरती बढ़ाई है' ('He has enhanced the beauty of the original')। सांस्कृतिक समानताओं की वजह से एक ओर तो भारतीय भाषाओं में लिखी रचनाओं का आपस में अनुवाद काफी हद तक सार्थक और सहज है, दूसरी ओर यही एक बहुत बड़ी कठिनाई भी है। अन्यथा नितांत एक ही जैसे और परिचित से लगते विषय में एक ही शब्द बांग्ला और हिंदी में अलग अलग अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। कभी कभी यह फर्क बहुत ही सामान्य होता है, पर इससे प्रसंग बदल जाता है। बांग्ला और खड़ीबोली हिंदी का एक फर्क यह भी है कि कर्त्ता के लिंग, वचन आदि के साथ जिस तरह हिंदी में क्रियापद का रूप बदलता रहता है, बांग्ला में ऐसा कम ही होता है। संस्कृत की तरह बांग्ला में शब्दों की मात्राओं से ध्वन्यात्मक लय आसानी से बनती है। खड़ी-बोली हिंदी का मिजाज और मुहावरा अलग है। क्षेत्र की व्यापकता की वजह से किसी भी शब्द के चयन को लेकर संशय रह जाता है कि वह संपूर्ण हिंदी क्षेत्र में एक ही तरह से पढ़ा जाएगा या नहीं। ध्वन्यात्मकता, लय और अर्थ में कैसे तालमेल रखा जाए, यह जद्दोजहद भी चलती रहती है। हमारी पूरी कोशिश यह है कि यह अनुवाद मूल के अधिक से अधिक करीब हो और साथ ही रस में भी कोई कमी न रह जाए। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई शब्दों का हमने इस्तेमाल किया है, जो हिंदी में कम प्रचलित हैं या वस्तुतः हिंदी के नहीं हैं, पर जिनमें से अधिकतर में बांग्ला भाषा का स्पर्श-गंध मौजूद है। भौंचकराए, किंभुत्, किच्छु, मच्छी, मरम्मात, पाछे, हाँसे, आसे-पासे, नयान, डाके, बाड़ी, मिलबे, हाड़गोड़ आदि इनके कुछ उदाहरण हैं। स्थानीय बोलियों और भाषाओं के मिजाज़ के मुताबिक पाठक इसमें जोड़ घटा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि एक ही रचना के अनेकानेक अनुवाद प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
हिंदी और उत्तर भारतीय अन्य भाषाओं के व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में लोक संस्कृति की वाचिक परंपरा में बच्चों और बड़ों सबके बीच अलग अलग किस्म की नानसेंस रचनाएँ मिलती हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बेतुकापन, उलटबाँसी और तांत्रिकों की 'संध्याभाषा' जैसी परंपराएँ लोक मानस में जीवंत हैं, क्योंकि इससे बाल-सुलभ मनोदशा में पहुँचा जा सकता है। कबीर की इन पंक्तियों को देखिएः-



कागा कापड़ धोवन लागै, बकुला किरपे दाँता
माखी मूड़ मुड़ावन लागी, हम हूँ जाव बराता।


बारात जाने के लिए कौवा कपड़े धो रहा है, बगुला दातौन कर रहा है; मक्खी केश-विन्यास कर रही है। हिंदी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों में तरह-तरह की लोरियाँ, कबीरा, जोगीड़ा, बच्चों के खेल-गीत नानसेंस वाले 'सेंस' से भरे हुए मिलते हैं। अंग्रेज़ी और दीगर भाषाओं में नानसेंस की पुरानी परंपरा है, जहाँ कई बार अभिव्यक्तियाँ इतनी स्पष्ट न होकर सचमुच ऊटपटाँग सी होती हैं। इनको साहित्यिक विधा की तरह लेने में एक दुविधा बिम्बग्रहण की समस्या की रही है। George A. Miller के आलेख 'Images and Models, Similes and Metaphors' (A. Ortony, Metaphor and Thought, Cambridge University Press, 1980) में उद्धृत यह कविता देखिएः-
One bright day in the middle of the night
Two dead boys got up to fight
Back to back they faced each other
Drew their swords and shot each other
A deaf policeman heard the noise
And came and killed those two dead boys

एक दिवस जब खिली धूप थी मध्य रात्रि को
दो मृत बच्चे उठ आपस में भिड़े हुए थे
मुँहामुँही थे वार कर रहे पीठ सटाकर
खींच कटार दाग दी गोली इक दूजे पर
सिपाही बहरा दौड़ा आया आवाजें सुनकर
दोनों मृत बच्चों का उसने दिया कत्ल कर।
(अनु० सुवास कुमार)



पंजाब में लोहड़ी के त्यौहार के दौरान गाया जाता 'सुंदरी वे मुंदरिए...' और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में 'पोसम राजा' जैसे अनेक गीतों को इकट्ठा कर उन पर काम किया जाना ज़रुरी है। पर्याप्त ध्यान के बिना ये गीत धीरे धीरे विलुप्त हो जाएँगे। हमारी उम्मीद है कि 'अगड़म बगड़म' के इस प्रकाशन से इस दिशा में जागरुकता फैलेगी। नानसेंस की अच्छी समझ गंभीर साहित्य के लेखन में प्रेरणा का काम करती है। नागार्जुन ('मंत्र' या अन्य कविताएँ), रघुवीर सहाय ('अगर कहीं मैं तोता होता' आदि कविताएँ), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ('बतूता का जूता' आदि) या अन्य कई कवियों की रचनाओं में हम यह बात देख सकते हैं। अन्यथा गंभीर या वैचारिक सामग्री को रसीले तरीके से सीधे पाठक के अंतस् तक पहुँचाने का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं है।
हिंदी में सुकुमार की कृतियों को पाठकों के सामने लाने का पहला प्रयास लाल्टू ने 1988 में किया था और 'आबोल ताबोल' की बीस कविताएँ 'अगड़म बगड़म' शीर्षक से पुस्तक रूप में कथाकार प्रकाशक अशोक अग्रवाल (संभावना प्रकाशन) के तत्वावधान में प्रकाशित हुई थीं। साथ ही गद्य कृति 'हयवरल' का अनुवाद भी प्रकाशित हुआ था। गद्य का अनुवाद तो काफी हद तक संतोषजनक था, पर 'अगड़म बगड़म' पर और काम किया जाना जरूरी था। वर्षों तक इस पर सोचते रहने के बाद संपूर्ण 'आबोल ताबोल' का अनुवाद अब पाठकों के सामने आ रहा है। सुधी पाठक आंचलिक से लेकर व्यापक स्तर तक हर तरह के शब्द, मिजाज़ और अंदाज़--बयाँ का लुत्फ उठा पाएँगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
अनुवाद पर काम करते हुए कई साथियों से हम बातचीत करते रहे और शब्दों के सही अर्थों को जानने में उनकी मदद लेते रहे। मेरे वरिष्ठ वैज्ञानिक साथी अभिजित मित्रा को हमने जब तब फोन कर तंग किया और उन्होंने हमेशा पूरी गंभीरता के साथ हमारे सवालों का जवाब दिया। भौतिक शास्त्री अशोक चैटर्जी ने एक कविता का अपने ढंग से अनुवाद कर हमें अपना काम और बेहतर करने में मदद की। इन सभी साथियों को हमारा धन्यवाद। 

                                                                                     - अनुवादक द्वय
                                                                                      हैदराबाद, 2011

Tuesday, January 15, 2013

इन जंगों में कौन मरा?

इस आलेख का एक संक्षिप्त प्रारूप आज के जनसत्ता में आया है। कुछ बातें पुरानी हैं जो 11 साल पहले जनसत्ता मेंही छपे एक आलेख में थीं, कुछ इसी ब्लॉग के पुराने चिट्ठों में थींः


लकीरें खींच कर माँ को बच्चों से जुदा करने के खिलाफ


एक सत्तर साला दादी माँ अपने परिवार के साथ रहना चाहती है; परिवार तक पहुँचने की उसकी दौड़ दो मुल्कों के बीच छोटी सी जंग की शुरूआत है। इस बात को हमें कई कई बार कहना चाहिए। हो सकता है कि बार बार कहते रहने से कभी हम समझ ही जाएँ कि देश, देश की ज़मीन, सुरक्षा आदि शब्द कितने भयानक होते हैं, जब वे हुक्मरानों और उनके सिपहसालारों का मसला बनकर पेश आते हैं।

जंग कभी भी 'छोटी' नहीं होती। एक सिपाही की मौत एक इंसान की मौत है। एक वयस्क की मौत, जिससे उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। साहिर की पंक्तियाँ हैं- 'टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें, कोख धरती की बांझ होती है'। एक सैनिक के मरने या घायल होने पर सरकार उसे पुरस्कार दे दे या उसे धन दे दे तो तो उस क्षति कि पूर्ति नहीं होती जो एक बाप, भाई या आजकल की स्त्री सिपाही, माँ या बहन के अचानक दुनिया से कूच कर जाने से या घायल होने से हुई होती है। आम तौर पर जंग का माहौल ऐसा होता है कि कोई उस पर सवाल खड़ा करे तो अपने मुल्क में उसे गद्दार घोषित कर दिया जाता है। जंग के कारणों या दो मुल्कों की सीमा पर परिस्थिति के बिगड़ने पर जंग के अलावा और क्या विकल्प हो सकते हैं, इस पर व्यापक चर्चा संभव नहीं होती। दोनों ओर से लड़ो, मारो का शोर बढ़ता रहता है। अपने पक्ष का हर मरने वाला शहीद और दूसरी ओर का मृत सिपाही जानवर होता है। दुश्मन को मजा चखा दो। एक बार अच्छी तरह उनको सबक सिखाना है। हर जंग में ऐसी ही बातें होती हैं। एक जंग खत्म होती है, कुछ वर्ष बाद फिर कोई जंग छिड़ती है। तो क्या दुश्मन कभी सबक नहीं सीखता! भारत और पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पिछले पैंसठ बरसों में चार ब़ड़ी जंगें लड़ीं। इन जंगों में कौन मरा? क्या आई एस आई के वरिष्ठ अधिकारी मरे? क्या पाकिस्तान के तानाशाह मरे? नहीं, जंगों में मौतें राजनीति और शासन में ऊँची जगहों पर बैठे लोगों की नहीं, बल्कि आम सिपाहियों और साधारण लोगों की होती हैं क्या यह बात हर कोई जानता नहीं है? ऐसा ही है, लोग जानते हैं, फिर भी जंग का जुनून उनके सिर पर चढ़ता है। लोगों को शासकों की बातें ठीक लगती हैं; वे अपने हितों को भूल कर जो भी सत्ताधारी लोग कहते हैं, वह मानने को तैयार हो जाते हैं। अगर ऐसा है, तो उन मुल्कों में लोकतंत्र पर सवाल उठना चाहिए, जहाँ ऐसी जंगें लड़ी जाती हैं।

इस बार स्थिति ऐसी है कि दोनों मुल्कों में माहौल ऐसा है कि अपनी सरकारों पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। इसलिए दोनों ओर समझदारी की बातें पहले की अपेक्षा अधिक सुनने में आ रही हैं। अंग्रेज़ी के अखबार 'द हिंदू' में परसों मुख्य पृष्ठ पर खबर छपी कि ऊरी के निकट चंदौरी गाँव की सत्तर साला दादी माँ की दौड़ से ऐसे घटनाक्रम की शुरूआत हुई जिसका परिणाम दोनों ओर से एकाधिक जानों के नुक्सान में हुआ है। एक बूढ़ी औरत सीमा पार कैसै कर गई, इस बात से परेशान भारत के सीमारक्षियों ने गोलीबारी बंद करने की दो-तरफा शर्तों को तोड़ कर बंकर बनाने शुरू किए; पाकिस्तानियों ने विरोध करते हुए घोषणाएँ कीं, फिर गोलीबारी की और भारतीय सिपाहियों ने जवाबी हमला किया। अंततः दोनों ओर जानें गईं, जानें जो बच सकती थीं। खबर को पढ़कर लगता है कि तनाव की स्थिति में भी भारतीय पत्रकारों ने स्थिति का सही जायजा लेने की कोशिश की है।

चिंता की बात यह है कि एक बूढ़ी अम्मा जिससे किसी ने कभी नहीं पूछा होगा कि वह किस ज़मीं पर रहना चाहती है, वह परिवार से अलग रहने को मज़बूर थी तो क्यों - ऐसे सवालों की जगह हुकूमतों के पास नहीं होती। अगर उसे आराम से जब मर्जी अपने परिवार के पास जाने की आज़ादी होती तो वह सीमा पार करने का ग़ैरकानूनी तरीका क्यूँकर अपनाती। आखिर किसी और को क्या हक है कि हम उस इंसान को अपने बच्चों के पास जाने से रोकें। क्या देश-प्रेम इसी को कहते हैं कि हम ज़मीं पर लकीरें खींच कर एक माँ को उसके बच्चों से जुदा कर दें! देश नामक ऐसी भ्रामक धारणा से मुक्त होने की कोई आसान राह नहीं है। व्यावहारिक रुप से देश की जो धारणा है, एक बड़े जनसमुदाय का कम से कम सिद्धांततः स्वशासन में होना या अपने चुने प्रतिनिधियों के द्वारा शासित होना - यहाँ हमारा मकसद इसके खिलाफ नारा बुलंद करना नहीं है - यह जानते हुए भी कि जन्म से पहले हममें से किसी ने भी अपना देश नहीं चुना। यह भी नहीं कि भौगोलिक रुप से परिभाषित किसी देश में बाहर के घुसपैठिए आकर गड़बड़ी करें तो हम उसका विरोध न करें। पर देश नामक उस धारणा का विरोध ज़रूरी है जो निहित राजनैतिक स्वार्थों से जुड़ी है और जिसके नाम पर सैनिकों को जान कुर्बान करनी पड़ती है। देश सचमुच जो ज़मीन, हवा या पानी है, वह कभी खिड़की से दिखने तक सीमित नहीं है, वह तो धरती से भी परे न जाने किस अनंत तक फैली है। कई लोग कहेंगे कि इस ज़मीन, हवा पानी को बचाने के लिए ही तो सेना की ज़रुरत है। इस तरह की एक कल्पना ही आज मूर्त रूप से हमारे सामने है कि इंसान इंसान के खिलाफ हिंसक है और बचने के लिए हमें सेनाओं की ज़रुरत है। इसके बनिस्बत हम चाहते हैं एक और कल्पना जो अधिक संभव होनी चाहिए कि इंसान इंसान से प्यार करता है सबको मान्य हो।

दुःख की बात यह है कि अब तक सेनाओं का उपयोग शासकों ने इंसान का नुक्सान करने के लिए ही किया है। आज के समय की ख़ास बात यह है कि एक ही घटना को लेकर कई सच निर्मित हो सकते हैं और बड़ी जल्दी ही इनमें से हर एक दूसरे से बेहतर और ज्यादा बड़ा सच बन सकता है। पर कुछ बातें शाश्वत सच होतीं हैं। आश्चर्य यह होता है कि कई लोग उनको मानते या नहीं देख सकते। सेनाएँ हिन्दोस्तान में या पकिस्तान में कहीं भी मानवता की रक्षा करने के लिए नहीं बनाई जातीं। देश नामक अमूर्त्त कुछ के लिए मरना और कुछ भी हो, आखिर है तो मरना ही। इस सत्य की भयावहता अपने आप में ही अमानवीय है - इसलिए जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही इधर का हो या उधर का हो, वह एक क्रूर दानव ही होता है। हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है। जब हम किसी एक सेना को दूसरी सेना से बेहतर मानते हैं, हमारे अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा होता है। जैसे कई लोगों को यह भ्रम है कि उनके देश की सेना में कोई ऐसी खासियत है उसे जो उसे अन्य दीगर मुल्कों की सेनाओं से ज्यादा मानवीय बनाती है। जब कि सच यह है कि सेना में कोई भी किसी महान इंसान बनने के इरादे से नहीं जाता, सैनिकों को एक ही बात समझाई जाती है कि उन्हें एक देश नामक कुछ के लिए लड़ना है। नीचे के तबके के सैनिकों को लगभग अमानवीय हालतों में रहकर और लगातार अफसरों की डाँट-फटकार सुनते रहकर काम करना पड़ता है। प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहास लेखक हावर्ड ज़िन जो यहूदी था और जर्मनी के खिलाफ लड़ा, उसने अपने एक प्रसिद्ध साक्षात्कार में कहा था 'there are no just wars' (कोई भी जंग न्याय-संगत नहीं होती)। सेनाओं की विलुप्ति में ही मानव की भलाई है।

यह आम धारणा है कि युद्ध सरदार किसी एक मुल्क के साथ जुड़े होते हैं। सच यह है कि लोगों की स्वाभाविक देशभक्ति को राजनेता अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते हैं और राजनेताओं का इस्तेमाल वे लोग करते हैं जिनके लिए पैसा और ताकत सबकुछ है। कल्पना करें कि किसी एक देश की सेना ने किसी और के हमले के जवाब में नाभिकीय मिसाइल दाग दिया। युद्ध सरदारों की प्रतिक्रिया क्या होगी? लोग मानते हैं कि आक्रोश होगा, बदले की भावना होगी। मेरा मानना है कि सचमुच व्यापक आक्रोश होगा, पर युद्ध सरदारों को नहीं, उन्हें सिर्फ मजा आएगा। लाखों लोगों का मारा जाना उनके लिए कोई बात नहीं है। उनका कोई देश नहीं है, कोई भी उनका अपना नहीं है। उन्हें बड़ी खुशी होगी कि रास्ता खुल गया है और अब आतिशबाजी शुरू।

हिंद-पाक के बीच विवाद का एक मसला है, यह है काश्मीर का मसला। काश्मीर के मसले को औसत भारतीय मुसलमानों की शरारत और औसत पाकिस्तानी हिंदुओं की शरारत मानता है, इसीलिए दोनों देशों में इस मसले पर लोकतांत्रिक बहस का गंभीर अभाव है। काश्मीरी पृथकतावादियों को फिर भी अखबारों में थोड़ी बहुत जगह मिलती है, पर काश्मीर समस्या पर कैसे विकल्प हमारे सामने हैं, इस पर मुख्यधारा के विचारकों ने लोकतांत्रिक बहस बहुत कम की है।

बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में विश्व में कई मुल्क टूटे; कई आर्थिक संबंधों में सुधारों के जरिए बहुत करीब हुए। रूस का विभाजन हुआ, चेकोस्लोवाकिया टूटा, दूसरी ओर यूरोपी संघ बना। यूरोप के दस देशों के बीच संधि के अनुसार उनकी सीमाएँ प्राय: विलुप्त हो गईं। पूर्वी तिमोर और उत्तरी सूडान नामक देश पिछले दशक में ही आज़ाद हुए। ऐसी स्थिति में भारत का `काश्मीर हमारा अविच्छिन्न अंग है' कहना और पाकिस्तान का काश्मीर को अपने में शामिल करने की रट बेमानी है। दोनों ओर आम लोगों को इसकी बेहिसाब कीमत चुकानी पड़ी है। भारत को प्रतिदिन सवा सौ करोड़ रूपए काश्मीर पर खर्च करने पड़ते हैं। दोनों मुल्कों के बीच करीब दस हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन अधिकतर बेकार पड़ी रहती है। काश्मीर से गुजरात तक सीमा पर यातायात, व्यापार, सब कुछ कहीं बंद है तो कहीं 
बहुत ही सीमित पैमाने में खुला है। विश्व-व्यापार की बदलती परिस्थितियों में यह स्थिति शोचनीय है। मानव विकास के आंकड़ों में विश्व के दो-तिहाई देशों से पीछे खड़े ये मुल्क अरबों खर्चकर आयातित तकनीकी से नाभिकीय विस्फोट करते हैं और शस्त्र बनाने वाले उन मुल्कों को धन भेजते रहते हैं, जो एक अरसे से इकट्ठे होकर अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटे हुए हैं। क्या काश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं है? क्या भारत और पाकिस्तान की जनता इतनी बेवकूफ है कि ये 'यह ज़मीन हमारी है' कहते-कहते खुद को और आनेवाली पीढ़ियों को तबाह कर के ही रहेंगीं। सोचा जाए तो विकल्प कई हैं पर क्या ये शासक आपस में बात करेंगे? क्या ये लोगों को समाधान स्वीकार करने के लिए तैयार करेंगे? क्या विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ सत्ता पाने के लिए काश्मीर के मसले से खिलवाड़ रोकेंगीं? काश्मीर पर कई बातें आम लोगों तक पहुँचाई नहीं जातीं। 

वैकल्पिक समाधान क्या हैं? पहला तो यही कि कम से कम पचीस या पचास सालों तक नियंत्रण रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और सीमा पर रोक हटा दी जाए।सांस्कृतिक और व्यापारिक आदान-प्रदान पूरी तरह चालू किया जाए नियत अवधि के बाद मतगणना के जरिए काश्मीर का भविष्य हमेशा के लिए तय हो। पूरे क्षेत्र को असामरिक (डी-मिलिटराइज़ड) घोषित किया जाए और संयुक्त राष्ट् संघ को वहां शांति बहाल करने के लिए कहा जाए। इसका दो-तिहाई खर्च भारत और एक-तिहाई पाकिस्तान दे। 
आज स्थिति ऐसी है कि मौजूदा तनाव पर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट् संघ द्वारा जाँच का सुझाव रखा है, तो इंडिया ने इस सुझाव को खारिज कर दिया है। भला क्यों? दो मुल्कों में तनाव हो तो यू एन ओ जाँच करे तो इसमें बुरा क्या है? यू एन ओ बना ही इसीलिए है कि ऐसी स्थिति में एक निर्णायक भूमिका अपनाए।  

हम वर्षों पहले यह मत प्रकट कर चुके हैं कि काश्मीर को पूरी तरह आज़ाद घोषित करना भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में हो सकता है। अगर ऐसा हो, आने वाले दशक में आर्थिक संबंधों में सुधार के साथ दक्षिण एशिया के देशों का एक महासंघ बन सकता है। ज़रा सोचिए, हमें कैसा काश्मीर चाहिए, जहाँ हम जाने से डरते हों या जहाँ खुशी से जाएं और सम्मान के साथ लौटें! एक आखिरी विकल्प है दक्षिण एशियाई व्यापार संघ की ओर तेजी से कदम उठाना। हमारा पुराना विचार है कि यह एक तरह हिंद पाक का फिर से इकट्ठा होना जैसा होगा। सोच कर देखें तो करोड़ों खर्च कर एक दूसरे की हत्या करने की तुलना में यह फंतासी भी अधिक संभव होनी चाहिए। हर युद्ध का लंबे समय तक देश की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आवश्यक सामग्रियों की कीमतें बढ़ती हैं। असुरक्षा का माहौल वर्षों तक बना रहता है। 

दक्षिण एशिया के आम आदभी का भाग्य फिलहाल तो किसी समाधान से दूर ही नजर आता है। ऐसे में देश की जनता को तय करना है कि इस जुनून में उसका क्या फायदा हो रहा है। अगर देश में लोकतंत्र है तो लोगों को सरकार से पूछना होगा कि आखिर काश्मीर मसले पर वह पाकिस्तान से बात करने में कतराती क्यों है? देशहित या सत्ता का लालच - शासकों की नीतियों की प्रेरणा का स्रोत सचमुच क्या है? अभी तो ऐसा लगता है कि जहाँ एक ओर आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान की हुकूमत के कुछ हिस्सों का सक्रिय समर्थन है, वहीं दूसरी ओर कई मामलों में भारत की सरकार का रवैया नैतिक दृष्टि से सरासर गलत है। हमें देर-सबेर यह समझना होगा कि बड़ी ज़मीन से देश बड़ा नहीं होता है। जंगखोरी किसी भी मुल्क की तबाही की गारंटी है। हमारे संसाधन सीमित हैं। काश्मीर समस्या के सभी विकल्प तकलीफदेह हो सकते हैं, पर इस भावनात्मक जाल से हमें निकलना होगा और देश की बुनियादी समस्याओं के मद्देनजर दुनिया के और मुल्कों की तरह हमें भी कुछ तकलीफदेह निर्णय लेने होंगे। इसमें जितनी देर होगी, उसमें हमारी ही हार है। 

जहाँ तक जंग का सवाल है, अनगिनत विचारकों ने यह लिखा है कि `सीमित युद्ध' या `लिमिटेड वार' नाम की कोई चीज अब नहीं है। दोनों मुल्कों के पास नाभिकीय शस्त्र हैं। दोनों ओर कट्टरपंथ और असहिष्णुता है। अगर जंग छिड़ती है तो दोनों मुल्क में लाखों लोगों को जानमाल का गंभीर खतरा है और इस बंदरबाँट में अरबों रूपयों के शस्त्र और जंगी जहाज बेचनेवाले मुल्कों को लाभ ही लाभ है। प्रसिद्ध अमेरिकी काथाकार रे ब्रेडबरी ने 1949 में नाभिकीय युद्ध के बाद की स्थिति पर एक कहानी लिखी थी, जिसमें अगस्त 2026 के बारे में कल्पना करते हुए सिर्फ एक कुत्ते को जीवित दिखाया है। इंसान की बची हुई पहचान उसकी छायाएँ हैं जो विकिरण से जली हुई दीवारों पर उभर गई हैं। बाकी उस की कृतियाँ हैं- पिकासो और मातीस की कृतियाँ जिन्हें आखिरकार आग की लपटें भस्म कर देती हैं। कहानी के अंत में कुत्ते की मौत के साथ इंसान की पहचान भी विलुप्त हो जाती है। नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल ऐसी कल्पनाएँ पैदा कर सकता है। वास्तविकता कल्पना से कहीं ज्यादा भयावह है। 
अब नाभिकीय या ऐटमी युद्ध की जो क्षमता भारत और पाकिस्तान के पास है, उसकी तुलना में हिरोशिमा नागासाकी पर डाले एटम बम पटाखों जैसे हैं। अमेरिका जैसे देशों की अर्थ-व्यवस्था शस्त्र बनाने और उनका सौदा करने पर बुरी तरह निर्भर है। भारत में भी ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो शस्त्र व्यापार को फायदा का सौदा मानते हैं। नाभिकीय शस्त्र इसी कड़ी में एक और भयंकर कदम है। मौत के सौदागरों पर किसको भरोसा हो सकता है? जो राष्ट्रभक्ति या धर्म के नाम पर दस लोगों की हत्या कर सकते हैं, वे दस लाख लोगों को मारने के पहले कितना सोचेंगे, कहना मुश्किल है। पारंपरिक युद्ध में भारत की जीतने की संभावना अधिक है। पाकिस्तान के राष्ट्रीय बजट का सामरिक खाते में जो भी अनुपात खर्च होता हो, कुल निवेशित राशि में वह भारत की बराबरी नहीं कर सकता। अगर पारंपरिक युद्ध में पाकिस्तान हारता है तो वह ऐटमी शस्त्रों का उपयोग करने को मजबूर होगा। जवाबी कार्रवाई में भारत भी ऐसा ही करेगा। इसके बाद की स्थिति में कम से कम सौ सालों तक दक्षिण एशिया क्षेत्र में जी रहे लोगों को इस भयंकर तबाही का परिणाम भुगतना पड़ेगा। आज सीना चौड़ा कर निर्णायक युद्ध और मुँहतोड़ जवाब की घोषणा करने वालों के कूच करने के बाद की दसों पीढ़ियों तक विनाश की यंत्रणा रहेगी। लिमिटेड वार की जगह हमें आलआउट यानी पूर्णतः नाभिकीय युद्ध ही झेलना पड़ेगा।  

इसलिए भारत पाक तनाव के बारे में हर समझदार व्यक्ति को गंभीरता से सोचना होगा। मीडिया की जिम्मेदारी इस मामले में कहीं ज्यादा है। आम लोगों को भड़काना आसान है। देश की मिट्टी, हवा पानी से हम सबको प्यार है। वतन के नाम पर हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं। इस भावनात्मक जाल से लोगों को राजनेताओं ने नहीं निकालना। यह काम हर सचेत व्यक्ति को करना है। जहाँ पाकिस्तान में सभ्य समाज का नारा दे रहे कुछ लोग जंग के विरोध में खड़े हुए हैं, उसी तरह हमें भी समझना होगा कि इस वक्त सबसे वड़ा संकट जंगखोरों द्वारा हम और आनेवाली पीढ़ियों को निश्चित विनाश की ओर धकेला जाना है। इसी लिए अरस्तू से लेकर आइंस्टाइन तक हर जागरुक चिंतक ने संकीर्ण अर्थों में देशभक्ति को लिए जाने के खिलाफ कहा है। आइंस्टाइन का कहना था - 'देशभक्ति के नाम पर आदेश मिलते ही बेमतलब की हिंसा, सीनाजोरी, और ऐसी तमाम जघन्य मूर्खताओं से मुझे घोर नफ़रत है।' रे ब्रैडबरी की अगस्त 2026 की कल्पना को साकार करना भी हमारे हाथों में है, जब उसी कहानी में शामिल सेरा टीसडेल की एक कविता की पंक्तियाँ मानव विहीन दुनिया को यूँ बयाँ करती हैं - हम न होंगे, बहार होगी, फुहारें होंगी। यह भी काश्मीर समस्या का एक विकल्प है। जंगखोरों के पास काश्मीर समस्या का यही एक समाधान है। न्यूक्लीयर बटन यानी नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल और कुछ ही मिनटों में कहानी खत्म। क्या यही विकल्प हम चाहते हैं? 

नहीं, सीमा के दोनों ओर जंग का विरोध करने वालों की भी एक फौज है और वह छोटी नहीं बहुत भारी फौज है। लोग शांति चाहते हैं। हम शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ जीवन चाहते हैं। इसलिए काश्मीर समस्या के समाधान के लिए जंग के खिलाफ हम खड़े होंगे। बहुत दीवानगी है, लोग जान पर खेल कर प्यार की बात करने को मैदान में उतरे हुए हैं। काश्मीर के लोगों को भी यह अधिकार मिले कि वे सुरक्षित जीवन बिता सकें और अपने बच्चों को पढ़ते लिखते और खेलते देख सकें - जंग विरोधी मुहिम में यह भी हमें कहना है। बच्चों से मिलने के लिए रेशमा बी को छिप कर सीमा पार न करनी पड़े, कोई भी खुले आम आसानी से सीमा के आर पार आए जाए, यह हमारी माँग है।
 
हम उम्मीद करते रहेंगे कि और अधिक लोग इस अमन की फौज में शामिल हो जाएँ।