आइए हाथ उठाएँ हम भी

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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, December 07, 2015

रोते हो, इसलिए लिखते हो


पटना गया था। भाषा और शिक्षा पर साउथ एशिया यूनिवर्सिटी के एक सेमिनार में बोलने के लिए। इसके पहले पटना होकर कई बार गुजरा हूँ, पर यह पहली बार एक रात रुका। सुबह सवा चार बजे उठा था तो सिर दुख रहा था। जैसे तैसे भाषण देकर और सवाल जवाब से फारिग होकर कालिदास रंगालय पहुँचा कि साथियों को सलाम कह दूँ, पर वहाँ फिल्म चल रही थी और फिल्म में बैठने लायक हालत में नहीं था। तो अपने होटल आ गया। अगले दिन बड़ी मुश्किल से तीन-तीन घंटे के देर से चली फ्लाइट्स से वापस पहुँचा। गाँधी मैदान का इलाका देखकर लगा कि असली भारत में आ गए हैं। पर असली भारत को बदलना भी है न!


बहरहाल 'चकमक' में 'लाल्टू से बातचीत' शृंखला का एक हिस्सा सही चित्र न बन पाने से छूट गया है, अगला हिस्सा दिसंबर अंक में निकल चुका है, यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।


रोते हो, इसलिए लिखते हो


राधिका की ओर देखते ही मेरी नज़र दरवाजे के ऊपर दीवार पर गई। वहाँ एक मकड़ा था। लगा जैसे वह छलाँग मारने को है। मैंने कहा, 'अरे! देखना, ऊपर एक मकड़ा है।'

राधिका घबराती सी जल्दी आगे को बढ़ आई। उसने सँभलते हुए चाय नीचे रखी। फिर हम सब मकड़े की ओर देखने लगे। मकड़ा भी शायद हमें देख रहा था। वह उछला नहीं। मैंने कहा, 'देखो! कैसे देख रहा है! हमें डरा कर खुश हो रहा है?'

सुनते ही, लाल्टू तुरंत बोला, 'आपको कैसे मालूम कि वह खुश हो रहा है?'

मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ। लाल्टू आगे बढ़ कर दरवाजे तक गया और उछलकर मकड़े से कहा, 'हलो, मकड़ू-वकड़ू।' और वह उछलता रहा।

मैंने कहा, 'अरे, ऐसे क्यों कर रहे हो?'

उसने कहा, 'तुम्हें एक बात बतलाऊँ?'

- 'हाँ, बतलाओ।'

-'इस मकड़े की न, मम्मी नहीं है।'

-'तुम्हें कैेसे मालूम?'

उसने मेरी ओर ऐसे देखा कि मैं कैसा आदमी हूँ, जिसे इतनी सी बात भी नहीं मालूम है! -'मम्मी होती तो उसको ऐसे अकेले-अकेले यहाँ आने थोड़े देती?'

वाजिब बात थी। मैंने कहा, 'पर वह बच्चा थोड़े ही है। वह तो बड़ा मकड़ा है।'

वह सोच में पड़ गया और फिर बोला -'तुम्हें एक बात बतलाऊँ?'

- 'हाँ, बतलाओ।'

-'अनि पता है क्या कहता है?'

-'अनि कौन?'

राधिका दूसरे कमरे चली गई थी, वहीं से हमारी बातें सुन रही होगी। उसने दूर से ही कहा, 'अनि इसके स्कूल में पढ़ता है।'

'तो, क्या कहता है अनि?'

वह अचानक हँसने लगा था और दरी पर हँसते हँसते लोट रहा था। 'अनि ने ना, मैम से पूछा कि बच्चों की देखभाल तो बड़े करते हैं, पर जो बड़े होते हैं, जो बूढ़े हो जाते हैं, उनकी देखभाल कौन करता है?'

-'तो इसमें हँसने की क्या बात है? सही सवाल है। तो मैम ने क्या कहा?'

पर उसने मेरे सवाल पर ध्यान नहीं दिया। झल्लाते हुए उसने पूछा, 'बड़ों की भी कोई देखभाल करता है? बड़े लोग क्या रोते हैं?'

'तो तुम्हें क्या लगता है सिर्फ उन्हीं की देखभाल करते हैं, जो रोते हैं। तुम्हारी देखभाल क्या तभी होती है, जब तुम रोते हो?'

पर वह वहीं अटक गया था। - 'बड़े लोग रोते नहीं हैं।'

-'अरे हाँ भाई, बड़े भी रोते हैं।'

-'तुम रोते हो?'

-'हाँ, रोता हूँ।'

-'कहाँ रोते हो, मैंने तो देखा नहीं!'

मैंने नकली रोने का नाटक किया। थोड़ी देर वह भौंचक था। फिर चिल्ला कर बोला,'तुम ऐसे ही कर रहे हो, तुम रो नहीं रहे हो।' वह पास आकर मेरे कंधे पर मुक्के मारने लगा।

अचानक मुझे एक बात सूझी। मैंने कहा, 'तुम उस दिन पूछ रहे थे न कि मैं लिखता क्यों हूँ? मैं इसलिए लिखता हूँ कि मैं रोता हूँ।'

अब तो वह चुप हो गया। उसे समझ नहीं आया कि मैंने क्या कहा था। फिर वह धीरे-धीरे बोला, 'तुम रोते हो, इसलिए लिखते हो?'

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Monday, November 23, 2015

लिखो, छुओ

लाल्टू से बातचीत

लाल्टू के माता-पिता उसे लेकर मेरे घर आए। मैंने दरवाजा खोला तो लाल्टू के पापा ने उससे कहा, 'लाल्टू जी को नमस्कार कहो।'
लाल्टू थोड़ी देर चुप मेरी ओर देखता रहा। फिर कहा, 'अरे! लाल्टू तो मैं हूँ।' हम सब हँस पड़े। अदंर आते हुए लाल्टू के पापा ने कहा, 'तुम्हें बतलाया तो था कि इनका नाम भी लाल्टू है।'
लाल्टू को यह जानकर अचरज हुआ कि मेरा नाम भी लाल्टू है।
वह सिर घुमा कर कहता रहा - 'नहीं, तुम्हारा नाम लाल्टू नहीं है।'
देर तक मेरा 'हाँ, है' और उसका 'नहीं, है' चलता रहा। कभी वह धीरे से कहता, 'नहीं, है', तो मैं धीरे से कहता, 'हाँ, है।' कहते हुए उसका सिर धीरे से हिलता। कभी वह तेजी से कहता, 'नहीं, है', तो मैं भी तेजी से कहता, 'हाँ, है।' वह नाराज़ होता तो मैं नाराज़ होता, वह हँसकर कहता तो मैं हँसकर कहता। आखिरकार उसने जीभ निकालकर मुझे चिढ़ाते हुए कहा, 'दो लोगों का एक नाम भी होता है!'
मैं थोड़ी देर तो समझ नहीं पाया कि कैसे उसे जवाब दूँ। फिर मैंने कोशिश की, 'क्यों, तुम अपनी मम्मी को कैसे पुकारते हो?' उसने कहा, 'मम्मा!'
मैं अपनी माँ को 'माँ' कहता हूँ, पर मैंने उससे झूठ कहा, 'मैं भी अपनी मम्मी को 'मम्मा' कहता हूँ, तो तुम्हारी मम्मी और मेरी मम्मी दोनों का एक नाम हुआ कि नहीं?'
उसने कहा, 'मम्मा तो छोटे बच्चे कहते हैं, बड़े थोड़े ही कहते हैं?'
- 'मैं तो कहता हूँ,' मैं अड़ गया।
वह मेरे पास आया और उसने धीरे से कहा, 'मेरी मम्मी का एक और नाम भी है?'
मैं झुककर अपना कान उसके पास ले गया और फिसफिसाते हुए पूछा, 'क्या नाम है तुम्हारी मम्मी का?'
वह घूमकर इधर-उधर देखने लगा, फिर यह कहते हुए बैल्कनी की ओर भाग गया, 'मैं नहीं बतलाता।'

लिखो, छुओ

मैं कुछ लिख रहा था और वह पास आकर बैठ गया।
उसने पूछा, 'तुम लिखते क्यों हो?'
मैंने कहा कि मैं लिखता हूँ, क्योंकि मैं औरों को छूना चाहता हूँ।
उसने जैसे सही सुना कि नहीं तय करने के लिए पूछा, तो लिख कर तुम औरों को छू लेते हो?
- 'हाँ, मेरा लिखा जब वे पढ़ते हैं तो प्रकाश की किरणें उनकी आँखों तक मेरी छुअन ले जाती हैं।
जब मैं बोलता हूँ, मेरी आवाज़ सुनने वालों को मैं छू लेता हूँ, आवाज़ मेरे होठों को उनके कानों तक ले जाती है।'
यह सुनकर उसने अपने कानों को हाथों से छुआ। फिर वह आगे बढ़कर मेरे पास आया और मेरा दाँया हाथ पकड़कर उसे अपने बाँए कान तक ले गया।
वह थोड़ी देर सोचता रहा। फिर पूछा, 'पर हर कोई तो तुम्हारा लिखा पढ़ता नहीं है?'
-'तो?'
वह सोच रहा था। मैंने कहा, 'कभी-कभी मैं बस खुद को छूने के लिए लिखता हूँ।'
वह हँस पड़ा। कहा, 'खुद को छूने के लिए लिखने की क्या ज़रूरत? उंगलियों से छुओ न?'
- 'उंगलियों से भी छूता हूँ, पर कभी-कभी लिख कर छूता हूँ।'
-'
प्रकाश की किरणें तुम्हारा लिखा तुम्हारी आँखों तक ले जाती हैं?'
- 'हाँ, पर कभी-कभी बिना पढ़े भी मैं अपने लिखे से खुद को छू लेता हूँ।'
वह फिर सोच में पड़ गया। फिर वह दौड़कर सोफा पर चढ़ गया और कूदने लगा। कूदते हुए वह गा रहा था -'लिखो, छुओ, लिखो, छुओ, लिखो, छुओ...'। साथ में मैं भी गाने लगा, 'लिखो, छुओ, लिखो, छुओ, लिखो, छुओ...'                  (चकमक - नवंबर 2015)

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Thursday, April 02, 2015

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब

विज्ञान की बात हो तो आशंकाएँ साथ चलती हैं। मैंने चार दिन पहले श्री अणु 
कविता पोस्ट की तो  Pragnya Joshi ने फेबु पर लिखा - 'और उस 
परमाणु के विस्फोट में बिखर जाती लाखों हड्डियां ...'
इसलिए 'भैया ज़िंदाबाद' से ही यह एक और कविता पोस्ट कर रहा हूँ,  
जिसमें आधुनिक सभ्यता पर सवाल है। यह शायद बीस साल पहले 'चकमक' 
में आई थी और दिल्ली से प्रकाशित आठवीं की एक पाठ्य-पुस्तक में भी 
शामिल हुई।

 
मिट्ठू

मिट्ठू अब पेड़ों पर कम

तस्वीरों में अधिक दिखता है

अधकटे पेड़

नंगे पहाड़

सूखी ज़मीन

तस्वीरों के मिट्ठू जैसे बेजान हैं

ये हमेशा ऐसे तो न थे!


जहरीली गैसें

गंदगी सड़कों नालों की

नदियों में रासायनिक विष

आज हर ओर

कहाँ गए जंगल

साफ हवा-पानी

किस सभ्यता में खो गए

मिट्ठू और हमारे सरल जीवन!


मिट्ठू तंग आ गया है

पहाड़ों की नंगी दीवारें
 
बचे-खुचे पेड़

चाहते हैं, हम पूछें

हम सोचें

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब?

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Wednesday, April 01, 2015

इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर


 फेबु पर सुस्मिता की टिप्पणी पढ़कर यह पोस्ट:- कमाल कि सुकुमार राय ने औपनिवेशिक दौर 
में यह लिखा था, जबकि हमें लगता है कि यह तो आज की बात है। यह कविता उनके संग्रह  
'आबोल ताबोल' के हिंदी अनुवाद 'अगड़म बगड़म' में संकलित है। 
 इक्कीसी कानून

शिव ठाकुर के अपने देश, 
आईन कानून के कई कलेश।
कोई अगर गिरा फिसलकर,
ले जाए प्यादा उसे पकड़।
काजी करता है न्याय-
 इक्कीस टके दंड लगाए।

शाम वहाँ छः बजने तक 
छींकने का लगता है टिकट
जो छींका टिकट न लेकर,
धम धमा दम, लगा पीठ पर,
कोतवाल नसवार उड़ाए-
 इक्कीस दफे छींक मरवाए।

अगर किसी का हिला भी दाँत
जुर्माना चार टका लग जात
अगर किसी की मूँछ उगी
सौ आने की टैक्स लगी -
पीठ कुरेदे गर्दन दबाए
 इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए।

कोई देखे चलते-फिरते
दाँए-बाँए इधर-उधर 
राजा तक दौड़े तुरत खबर
पल्टन उछलें बाजबर
दोपहर धूप में खूब घमाए
 इक्कीस कड़छी पानी पिलाए।
 
लोग जो भी कविता करते
उनको पिंजड़ों में रखते
पास कान के कई सुरों में
पढ़ें पहाड़ा सौ मुस्टंडे
खाताबही मोदी का लाए
 इक्कीस पन्ने हिसाब करवाए।

वहाँ अचानक रात दोपहर
खर्राटे कोई भरे अगर
जोरों से झट सिर में रगड़
घोल कसैले बेल में गोबर
इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर
 इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।


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कैसे कैसे नॉनसेंस!


यह नॉनसेंस कविता “भैया ज़िंदाबाद" से:- एक बार किसी को सुकुमार राय 

की नॉनसेंस कविताओं के बारे में कहा तो वे उत्तेजित होकर बोले - हमारे यहाँ 

कुछ नॉनसेंस नहीं होता। कैसे कैसे नॉनसेंस! एक आजकल स्यापा-

ए-आआपा भी है! दो साल पहले मैंने चंडीगढ़ में व्याख्यान में कहा था कि मैं 

मानता हूँ केजरीवाल बेईमान है। कई टोपीधारी नाराज़ हो गए थे।


कहानी परमाणुनाथ जी की

ज्ञान के प्यासे परमाणुनाथ पहुँचे एक्वाडोर

पुच्छल तारा गिरा वहाँ पर, बड़ा मचा था शोर

किया निरीक्षण परमाणु जी ने मोटी ऐनक चढ़ाए

परमाणुयम तत्व निकाला, नए प्रयोग दिखलाए

सवाल उठा परमाणुयम के परमाणु कहाँ से आए

भौंहें तान परमाणुनाथ तब जोरों से चिल्लाए

ऐसे टेढ़े प्रश्नों पर मैं अम्ल गिरा दूँगा

भून खोपड़ी सबकी मैं भस्म बना दूँगा

वैज्ञानिकों की महासभा ने रखा यह प्रस्ताव

परमाणुनाथ को जल्दी वापस घर भिजवाओ

लौटे वापस परमाणुनाथ हरदा अपने घर

वहाँ बैगन की चटनी पर हैं शोध रहे वे कर।

 

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Tuesday, March 31, 2015

पॉज़ीट्रॉन वह पाजी हरजाई


और "भैया ज़िंदाबाद" से विज्ञान से जुड़ी यह तीसरी कविता:-





श्रीमान इलेक्ट्रॉन



मैं हूँ श्रीमान इलेक्ट्रॉन


बिन मेरे तुम हो बेजान



हर परमाणु में जुड़वें मेरे


फैले हैं नाभि को घेरे



घूम रहे क्या चारों ओर


ऐसा कभी मचा था शोर



'गर पूछो कि मैं हूँ किधर


मैं बतलाऊँ इधर-उधर



मत पूछो कि मैं हूँ किधर


पूछो कि हो सकता कितना किधर



एक है मेरा दुश्मन भाई


पॉज़ीट्रॉन वह पाजी हरजाई



अगर मिल जाऊँ कभी मैं उससे


हो जाऊँ खत्तम फिस्स से



प्रकाश-ताप बन जाऊँ फिर


खूब खपाए मैंने लोगों के सिर।


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Monday, March 30, 2015

बात बड़ी ग़जब यार


पिछली पोस्ट में 1995 में प्रकाशित बच्चों की कविताओं के संग्रह "भैया 

ज़िंदाबाद" का जिक्र था। उसी में से विज्ञान विषय की एक और कविता -
 
 
श्री अणु

छोटा-सा मेरा अँगूठा

उससे छोटा नख जो टूटा

सौ-सौ टुकड़े नख के करके

उससे भी छोटे कण पाउडर के

छोटे से छोटा पाउडर का कण

उस से छोटा करे कौन जन

पर ऐसा है दोस्त मेरे

उस कण के टुकड़े बहुतेरे

जो कर दो उसके टुकड़े लाख

तब जानो जी अणुओं को आप

है अणुओं का बना संसार

बात यह बड़ी ग़जब है यार

जो हम भी इतने छोटे हो पाते

हम भी शायद अणु कहलाते

और श्री अणु के हाथ पैर?

वो हैं परमाणु - उनकी तो छोड़ो खैर।



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Friday, March 27, 2015

ला मैं गिन दूँ

बीस साल पहले प्रकाशित बच्चों के लिए लिखी कविताओं के संग्रह 'भैया ज़िंदाबाद' में कुछ कविताएँ विज्ञान से जुड़ी हैं। यहाँ उनमें से एक पोस्ट कर रहा हूँ। तीन कविताओं की शृंखला में यह पहली कविता है, जिसमें सूक्ष्म स्तर पर मापन के पैमाने की समझ की कोशिश है।


बहुत से बिंदु

एक बात मैंने यह सोची

पेन में कितनी स्याही होती

लगाया बूँदों में हिसाब

पचास, सोचकर मिला जवाब

एक बार जो भर ली स्याही

बीस पन्नों की करी तबाही

एक पन्ने में लाइन बीस

लाइनवार अक्षर भी बीस

हर अक्षर में कितने बिंदु

मुन्नी बोली ला मैं गिन दूँ

एक सौ गिनकर वह चीखी - चिन्तू

बोल एक बूँद में कितने बिंदु

बहुत से बिंदु बहुत से बिंदु
 
ला मैं गिन दूँ, ला मैं गिन दूँ।

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Thursday, November 13, 2014

बात कहो जो बादल बादल हो


 बच्चों के लिए लिखी यह कविता 'चकमक' के ताज़ा अंक में आई है। 

बात कहो

एक बात कहो जो धरती जितनी बड़ी हो
एक बात कहो जो बारिश जैसी गीली हो
एक बात कहो जो माँ जैसी सुंदर हो
एक बात कहो जो संगमरमर हो

एक बात कहो जो आग जैसी गर्म हो
एक बात कहो जो पानी जैसी नर्म हो
एक बात कहो जो बादल बादल हो
एक बात कहो जो बिल्कुल पागल हो

बात जो दिन हो रात हो
बातों की बात बेबात हो
एक बात कहो एक बात कहो।
                                                 (चकमक - 2014)

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Tuesday, November 04, 2014

गो ग बा ब - 4


(पिछली किश्त से आगे - आखिरी किश्त) 

आखिर उन्होंने गोपी से कहा, "गोपी! बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूँ, पता नहीं क्या होगा। शुंडी का राजा मेरा राज्य छीनने आ रहा है।" शुंडी का राजा वही था, जिसने गोपी और बाघा को जलाकर मारना चाहा था। उसका नाम सुनते ही गोपी के दिमाग में एक चाल सूझी। उसने राजाजी से कहा, "महाराज ! आप इसकी चिंता न करें, आप इस गुलाम को हुक्म दें, मैं इसे एक मजाक बनाकर छोडूंगा।" राजा ने हँसकर कहा, "गोपी, तुम गवैये-बजैये हो, जंग-लड़ाई के पास नहीं फटकते, इसके बारे में तुम क्या समझोगे? शुंडी के राजा की बहुत बड़ी सेना है, मैं उसका क्या बिगाड़ सकता हूँ?" गोपी बोला,"महाराज, आदेश दें तो एक बार कोशिश कर सकता हूँ। कोई नुकसान तो नहीं है।" राजा बोले, "जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, तुम कर सकते हो।" यह सुनकर गोपी फूला न समाया, उसने बाघा को बुलाया और सलाह-मशविरा शुरू किया। 
 
गोपी और बाघा उस दिन बड़ी देर तक सोच-विचार करते रहे। बाघा उत्साह से भरपूर था। वह बोला, "भैया, हम कुछ न कुछ करके ही रहेंगे। मुझे बस एक बात का डर है, अगर अचानक जान बचाकर भागने की ज़रुरत हो, तो शायद मैं जूतों की बात भूलकर आम लोगों कि तरह दौड़ने लगूँगा और फिर मुझ पर बुरी तरह मार पड़ेगी। इसी तरह उस बार हमारे गाँव के मूर्खों ने मेरा हुलिया ही बिगाड़ दिया था!" 
 
खैर, गोपी के समझाने पर बाघा का डर कम हुआ। दूसरे दिन से उन्होंने काम शुरू किया। कुछ दिनों तक वे रोज़ रात को शुंडी जाते रहे, और राजाबाड़ी के आसपास घूमकर वहाँ की खबरें इकट्ठी करते रहे। जंग का इंतज़ाम उन्होंने देखा, वह बड़ा भयंकर था; ऐसा इंतज़ाम लेकर अगर हाल्ला में जा पहुँचें, तो बचना मुश्किल है। राजा के मंदिर में रोज़ धूमधाम से पूजा हो रही है। दस दिनों तक इस तरह पूजा करने के बाद भगवान को खुश कर वे हाल्ला को रवाना होंगे। 
 
गोपी और बाघा ने यह सब देखा; फिर एक दिन अपने कमरे में बैठ, दरवाज़ा बंद कर, भूतों की दी हुई उस थैली से कहा, "नए किस्म की मिठाइयाँ चाहिए, खूब स्वादिष्ट।" इस पर उस थैली से जो मिठाइयाँ निकलीं, वह कहकर समझाया नहीं जा सकता। ऐसी मिठाइयाँ पहले किसी ने कभी नहीं खाईं, आँखों से भी नहीं देखी इन मिठाइयों को लेकर बाघा और गोपी शुंडी के राज के बड़े मंदिर के शिखर पर जा बैठे। नीचे खूब पूजा की धूम थी--बेहद धूप-धूनी शंख-घंटा शोरगुल चल रहा था, आँगन लोगों से खचाखच भरा हुआ था। उन सब लोगों के सिर पर धड़ाम से सारी मिठाइयाँ डालकर, बाघा और गोपी भी मंदिर के शिखर पर जमकर बैठ तमाशा देखने लगे। अँधेरे में उस धू-धूनी और प्रकाश के धुँए में कोई उन्हें देख न पाया। 
 
मिठाइयाँ आँगन में गिरते ही शोरगुल रुक गया। कई लोग कूद पड़े, कोई-कोई तो चीख कर दौड़ भी लिए। उसके बाद दो-चार साहसी लोग कुछ मिठाइयाँ उठाकर, डरते-डरते रोशनी के पास ले जाकर उन्हें देखने लगे। अंत में उनमें से एक ने आँखें बंद कर थोड़ा सा मुँह में डालते ही -फिर क्या था -- वह दोनों हाथों से आँगन से मिठाइयाँ उठाकर मुँह में डाले नाचने लगा और ख़ुशी से चीखने लगा। तब उस आँगन पर सभी लोग मिठाइयाँ खाने के लिए पागलों की तरह छीना-झपटी कर हो-हल्ला करने लगे। 
 
इसी बीच कुछ लोगों ने दौड़कर जाकर राजाजी से कहा, "महाराज! ईश्वर ने आज पूजा से संतुष्ट होकर स्वर्ग से प्रसाद भेजा है। वह इतना बढ़िया प्रसाद है कि हम बतला भी नहीं सकते।" यह बात सुनते ही राजा चड्ढी पहनते-पहनते लम्बी-लम्बी साँसें लेते जी-जान से दौड़ते मंदिर आए।

पर हाय! तब तक सारा प्रसाद ख़त्म हो गया था। सारे आँगन में झाड़ू लगाकर भी राजाजी के लिए प्रसाद का ज़रा सा चूरा भी नहीं मिला। तब उन्होंने बड़े गुस्से में कहा, "तुम लोग बड़े जाहिल हो! मैं पूजा करूँ और प्रसाद खाकर ख़त्म करते हो तुम! मेरे लिए ज़रा सा चूरा भी नहीं रखा! तुम सबको पकड़कर शूली पर चढाऊँगा!" यह सुनकर सबने डरते-डरते हाथ जोड़कर कहा, "दुहाई हो महाराज! हम आपका प्रसाद खाकर भला क्यों ख़त्म करें? अजीब बात है! हमने खाने की कोशिश भर की थी, पता नहीं कैसे झट से ख़त्म हो गया! आज हमने जो प्रसाद खाया, उसके लिए आप हमें माफ़ कर दें, कल जो भी प्रसाद मिलेगा वह महाराज अकेले ही खाएँगे। तब राजा ने कहा, "अच्छा, ऐसा ही होगा। खबरदार! भूल मत जाना।"

अगले दिन राजाजी प्रसाद खाएँगे, इसीलिए पहले पहर से ही वे मंदिर के आँगन में बैठकर आकाश की ओर ताककर बैठे थे। बाकी सब लोग डरे हुए थोड़ी दूर बैठकर उनको घेरकर तमाशा देख रहे थे। आज पूजा का ड़ं और दिनों की अपेक्षा सौ गुना अधिक था। सब सोच रहे थे कि भगवान खुश होकर राजाजी को और भी बढ़िया प्रसाद देंगे। 
 
आधी रात के वक़्त गोपी और बाघा और भी बढ़िया किस्म की मिठाइयाँ लिए मंदिर के शिखर पर आ बैठे। आज उन्होंने और भी बढ़िया कपड़े पहन रखे थे, सर पर मुकुट, गले में हार, हाथों में कड़े, कानों में कुंडल; वे देवता बनकर आये थे। 
 
धुएँ की वजह से कुछ दिखलाई नहीं पड़ रहा था, फिर भी राजाजी आकाश की ओर ताकते हुए बैठे हुए थे। इसी वक़्त्त गोपी और बाघा ने हँसते-हँसते उनके ऊपर उन मिठाइयों को फेंक दिया। इस पर पहले तो राजाजी चीखकर तीन हाथ ऊँचाई तक कूद पड़े, फिर जल्दी ही सँभलकर वे दोनों हाथों से मिठाइयाँ मुँह में डालने लगे, फिर झूम-झूम कर वाह कैसा नाच उन्होंने नाचा!
ठीक उसी वक्त गोपी और बाघा अचानक मंदिर के शिखर से उतर कर राजा के पास आ खड़े हुए। उनको देखकर सब 'भगवान आए' कहकर कौन पहले प्रणाम करे, सोचकर तय नहीं कर पा रहे थे। राजाजी तो लम्बे होकर ज़मीं पर लेट ही गए और केवल सिर ठोकते जा रहे थे। गोपी ने उनसे कहा, "महाराज! तुम्हारा नाच देखकर हम संतुष्ट हुए हैं; आओ अब ज़रा गले मिल लें।" राजा ने यह सुना क्या, उन्हें तो जैसे हाथों में स्वर्ग मिल गया, देवता के साथ गले मिलना, यह कोई कम सौभाग्य की बात थी!

गले मिलना शुरू हुआ। सभी लोग 'जय हो, जय हो' कहकर चीखने लगे। तभी मौका पाकर गोपी और बाघा ने राजाजी को अच्छी तरह बाँहों में जकड़कर कहा, "तो अब अपने कमरे में चलें!" ऐसा कहते ही वे लोग उनको साथ लिए अपने कमरे में आ उपस्थित हुए। मंदिर के आँगन में लोग काफी देर तक मुँह खोले आकाश की ओर ताकते रहे। इसके बाद राजाजी और लौटकर नहीं आए, तब वे अपने-अपने घर लौट आए और बोले, "कितने आश्चर्य की बात देखी ! राजाजी जिंदा स्वर्ग चले गए! देवता लोग खुद उन्हें लेने आए थे!"

इधर राजाजी गोपी और बाघा की गोद में बेहोश पड़े हुए थे। उनके कमरे में आकर भी बहुत देर तक उनको होश नहीं आया। जब भोर हुई तो उनकी आँखें खुलीं, और उन्होंने देखा कि वे दो भूत उनके सिर पर बैठे हुए हैं। वे झट उनके पैरों पर गिर पड़े और काँपते-काँपते बोले, "तुमसे प्रार्थना करता हूँ! मुझे मत खाना। मैं दो सौ भैंसे बलि चढ़ाकर तुम्हारी पूजा करूँगा।" गोपी बोला, "महाराज, आपके डरने की कोई बात नहीं है। हम भी भूत नहीं हैं, आपको खाने की भी कोई मंशा हमारी नहीं है।" राजाजी को इससे ज़रा भी भरोसा नहीं हुआ। वे और कुछ न कहकर सिर छिपाकर काँपने लगे। 
 
इधर बाघा ने आकर हाल्ला के राजा से कहा, "कल रात हमलोग शुंडी के राजा को पकड़ लाए हैं। अब आपका क्या आदेश है?" हाल्ला के राज बोले, "उन्हें ले आओ!"

जब दोनों राजाओं की मुलाक़ात हुई तो शुंडी के राजा को पता चला कि उनको पकड़ कर लाया गया है। हाल्ला को जीतना तो उनके भाग्य में रहा ही नहीं, अब जान पर भी बन आई है। पर हाल्ला के राजा ने उनको जान से नहीं मारा, सिर्फ उनका राज्य छीन लिया। इसके बाद गोपी और बाघा से बोले, "तुम्हीं लोगों ने मुझे बचाया है, नहीं तो मेरा राज्य भी जाता और जान भी जाती। मैं तुम्हारा क्या भला कर सकता हूँ? शुंडी-राज्य का आधा तुम्हें दे रहा हूँ और अपनी दो बेटियों की शादी तुम्हारे साथ करना चाहता हूँ। 
 
फिर खूब धूम मची। गोपी और बाघा हाल्ला के राजा के दामाद होकर और शुंडी का आधा राज्य पाकर परम आनंद के साथ संगीत-चर्चा करते रहे। तब गोपी के माँ-बाप जैसा सुख और किसे मिल सकता था?



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