रोते हो, इसलिए लिखते हो
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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप
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फेबु पर सुस्मिता की टिप्पणी पढ़कर यह पोस्ट:- कमाल कि सुकुमार राय ने औपनिवेशिक दौर
में यह लिखा था, जबकि हमें लगता है कि यह तो आज की बात है। यह कविता उनके संग्रह
'आबोल ताबोल' के हिंदी अनुवाद 'अगड़म बगड़म' में संकलित है।
इक्कीसी कानून
शिव ठाकुर के अपने देश,आईन कानून के कई कलेश।
कोई अगर गिरा फिसलकर,
ले जाए प्यादा उसे पकड़।
काजी करता है न्याय-
इक्कीस टके दंड लगाए।
शाम वहाँ छः बजने तक
छींकने का लगता है टिकट
जो छींका टिकट न लेकर,
धम धमा दम, लगा पीठ पर,
कोतवाल नसवार उड़ाए-
इक्कीस दफे छींक मरवाए।
अगर किसी का हिला भी दाँत जुर्माना चार टका लग जात
अगर किसी की मूँछ उगी
सौ आने की टैक्स लगी -
पीठ कुरेदे गर्दन दबाए
इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए।
कोई देखे चलते-फिरते
दाँए-बाँए इधर-उधर
राजा तक दौड़े तुरत खबर
पल्टन उछलें बाजबर
दोपहर धूप में खूब घमाए
इक्कीस कड़छी पानी पिलाए।
लोग जो भी कविता करतेउनको पिंजड़ों में रखते
पास कान के कई सुरों में
पढ़ें पहाड़ा सौ मुस्टंडे
खाताबही मोदी का लाए
इक्कीस पन्ने हिसाब करवाए।
वहाँ अचानक रात दोपहर
खर्राटे कोई भरे अगर
जोरों से झट सिर में रगड़
घोल कसैले बेल में गोबर
इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर
इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।
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