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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, May 11, 2018

साम्यवाद में लोकतांत्रिक स्वरूप विज्ञानधर्मी माँग है।


मार्क्सवाद और विज्ञान : कुछ समकालीन सवाल
-'समकालीन जनमत' में आ रहा लेख

मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी कार्ल पॉपर ने विज्ञान क्या है और क्या नहीं है, इसमें फ़र्क करने को विज्ञान के दर्शन का बड़ा सवाल माना। कुदरत में हो रही एक ही घटना को कई तरह के सिद्धांतों से समझाया जा सकता है, पर इनमें से कौन सा सिद्धांत सही है, इसे कैसे तय करें? पारंपरिक तरीका यह है कि किसी एक घटना से जुड़ी और दूसरी घटनाओं को हम किस हद तक समझ पाते हैं, आगे हो सकने वाली और घटनाओं के बारे में क्या कुछ पहले से कह पाते हैं, प्रयोगों द्वारा वह सही दिखता है या नहीं, इससे पता चलता है कि सही वैज्ञानिक सिद्धांत कौन सा है। पॉपर ने फॉल्सिफिकेशन की प्रस्तावना की। फॉल्स यानी ग़लत और फॉल्सिफिकेशन यानी किसी बात को ग़लत दिखाना। कोई सिद्धांत तभी वैज्ञानिक हो सकता है जब उसे ग़लत साबित करने लायक परिस्थितियों और अवलोकनों की कल्पना की जा सके। मसलन गुरुत्व-आकर्षण का सिद्धांत वैज्ञानिक है, क्योंकि खिड़की से कूदने पर नीचे जाने की बजाय अगर ऊपर जा पाते तो यह सिद्धांत ग़लत साबित हो जाता। ईश्वर के होना वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है, क्योंकि ऐसी कोई स्थिति सोची नहीं जा सकती, जिससे हम इसे ग़लत साबित कर सकें।

जब यूरोप में मार्क्सवाद उरूज पर था, पॉपर ने विरोध करते हुए कहा कि मार्क्स के निष्कर्षों से असंगत किसी घटनाचक्र को मार्क्सवादी चिंतक इस तरह समझाते हैं कि वह मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ नहीं जाता। इसलिए ईश्वर की धारणा की तरह मार्क्सवाद भी वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है, क्योंकि किसी भी स्थिति में मार्क्स के निष्कर्षों को ग़लत नहीं माना जाएगा। स्तालिन-काल के दौरान रूस में जो ज्यादतियाँ हुईं, उसे सही ग़लत जैसा भी बतलाया गया, उससे एक बात बड़े पैमाने पर फैली कि वैज्ञानिक हो या न हो, मार्क्सवाद पर आधारित समाज-व्यवस्था में मानव के सर्वांगीण विकास की संभावना नहीं है। जाहिर है कि पूँजीवाद के दलालों को यह तर्क ठीक लगना ही था। अमेरिका में मैकार्थी-युग में वाम- और तरक्कीपसंद कलाकारों, साहित्यकारों और दीगर चिंतकों को प्रताड़ित करने के लिए इस तर्क का बखूबी से इस्तेमाल किया गया।

पॉपर की आलोचना से मार्क्सवादियों को परेशान नहीं होना चाहिए। परेशानी की जड़ यह हसरत है कि हमें भी वैज्ञानिक मान लिया जाए। जब यह हसरत तीखे तेवर के साथ पेश आती है तो मार्क्सवाद और धार्मिक कट्टरता में फ़र्क नहीं रह जाता है। धर्मांध लोग इस कोशिश में लगे रहते हैं कि उनकी आस्था और मान्यताओं को वैज्ञानिक माना जाए। महज तर्कशील होना ही वैज्ञानिक होने की कसौटी नहीं होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता या साइंटिफिक रेशनालिटी खास तरह की तर्कशीलता है, जिसकी अपनी सीमाएँ और ताकतें हैं। मार्क्स ने आधुनिकता के ढाँचे में रहते हुए तर्क और युक्ति के आधार पर मानव के विकास में आर्थिक संबंधों और वर्ग-संघर्ष की मुख्य भूमिका कोे समझते हुए प्रखर आलोचना तैयार की थी। अंतिम निष्कर्ष वह सपना था जिसमें उन्होंने दुनिया भर के मजदूरों से एक होकर सरमाएदारों की शोषण पर आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। यह सपना हमारा सपना है, इसलिए मार्क्सवाद हमारे लिए मानव के विकास का बुनियादी सिद्धांत है। अगर विज्ञान की हर विशेषता को मार्क्स के निष्कर्षों में ढूँढ पाना आसान नहीं है, तो नहीं है, यह परेशानी का सबब नहीं होना चाहिए। ऐतिहासिक संदर्भ यह है कि अपने समकालीन दूसरे चिंतकों की तरह (जैसे आउगस्ते कोम्ते) मार्क्स ने भी समाजवादी समाज के निर्माण पर सोचते हुए विज्ञान पर काफी गहराई से सोचा था और उनके लेखन में विज्ञान का उल्लेख गाहे-बगाहे आता है। सिर्फ इतना ही नहीं, विज्ञान के समाजशास्त्र और जिसे आज एस-टी-एस (विज्ञान और तक्नोलोजी अध्ययन) कहा जाता है, उसके विकास में मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव रहा है।

वैज्ञानिक सिद्धांत का बनना एक लंबी यात्रा है, जिसकी शुरूआत अनुमानों से होती है और अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग वक्तों पर बार-बार दुहराए गए प्रयोगों के द्वारा समझे गए नियमों के बाद सामूहिक सहमति से वैज्ञानिक सिद्धांत तक हम पहुँचते हैं। यह संभव नहीं है कि मानव समाज की एक जैसी प्रतिकृतियाँ बनाकर उन पर प्रयोग कर सकें, इसलिए समाज के बारे में वैज्ञानिक सिद्धांत के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए।

पॉपर को मार्क्सी चिंतन में आलोचनात्मक सोच का अभाव दिखता है। उसे लगा कि मार्क्स महज एक सूत्र गढ़ रहे हैं, जिसमें इतिहास को पिरोते जा रहे हैं। पॉपर आइंस्टाइन के प्रशंसक थे, इसलिए उन्हें हर विवेचन में गणित-भौतिकी (मैथेमेटिकल फिज़िक्स) जैसा खाका चाहिए था। पॉपर को मार्क्स की भविष्य-दृष्टि में वैज्ञानिक विशेषताएँ दिखीं, पर जब घटनाएँ मार्क्स के कहे मुताबिक नहीं हुईं तो मार्क्सवादियों ने नई प्रस्तावनाओं के साथ उन्हें उचित ठहराया, इससे पॉपर को लगा कि मार्क्सवाद वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है।

मार्क्सवाद विज्ञान-धर्मी सोच है। यह अंधविश्वासों या अलौकिक ताकतों की कल्पना पर आधारित सोच नहीं है। मार्क्सवाद का विज्ञान-धर्मी होना हमें बदलते वक्त के साथ उस सपने की ओर बढ़ा ले जाता है, जहाँ इंसान बराबरी के आधार पर समाज में जीते हुए अपनी हर तरह की काबिलियत का भरपूर इस्तेमाल कर पाता है। अगर हम माँग करें कि मार्क्स का हर निष्कर्ष वैज्ञानिक हो तो हमें इंसानी जज्बात को भूलना पड़ेगा, क्योंकि विज्ञान का मकसद समाज की बेहतरी भले हो, इंसानी जज्बात की कोई जगह उसमें नहीं है। यह एक ही साथ विज्ञान की सीमा और ताकत है।

मार्क्स के वक्त से अब तक जो सबसे बड़ा बदलाव आया है, वह यह कि हम पहली बार धरती को कई बार तबाह करने के काबिल हो गए हैं। नाभिकीय विस्फोटों को भूल जाएँ, तो रासायनिक प्रदूषण, मौसम का लगातार ग़र्म होते रहना, ओज़ोन की परते में छेद आदि कई ऐसी विनाशक स्थितियाँ हैं, जिनसे हम रूबरू हैं। साथ ही सूचना-विज्ञान में इंकलाबी तरक्की से पीढ़ियों का फ़र्क पहले की तुलना में आज कहीं ज्यादा है। अनपढ़ लोगों के पास मोबाइल फ़ोन का पहुँचना और ह्वाट्स-ऐप जैसे माध्यमों से फासीवादी ताकतों का पूरी ताकत के साथ फिर से उभरना - ये बातें मार्क्स के जमाने में सोची भी न जा सकती थीं।

रूस और चीन जैसे मुल्कों में जहाँ केंद्रीय योजनाओं के तहत समाज-निर्माण पर जोर दिया गया, तकनीकी तरक्की तेजी से हुई और फिर एक हद तक जाकर उसकी रफ्तार कम हो गई (क्यूबा इसका अपवाद है) , जबकि पूँजीवादी मुल्कों में आलमी स्तर पर हुए शोषण और जंग-लड़ाई पर निर्भर फौजी-असलाह की सौदागरी से इकट्ठा हुए पूँजी की मदद से तकनोलोजी में नवाचार को बढ़ावा मिला। स्पुतनिक युग में रूस में अंतरिक्ष विज्ञान में हुई तरक्की से घबराकर अमेरिका ने विज्ञान की तालीम का बजट कई गुना बढ़ा दिया। बड़े वैज्ञानिकों ने किताबें लिखीं। बुनियादी शोध के लिए माली खपत कई गुना बढ़ी। ग़रीब मुल्कों से शोधार्थियों को बड़ी तादाद में आयात किया गया। नतीजतन पूँजीवादी मुल्कों में तेजी से वैज्ञानिक तरक्की हुई। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि न केवल सैद्धांतिक विज्ञान में, बल्कि तकनोलोजी में नवाचार में भी रूस और पूर्वी यूरोप के मुल्कों में साम्यवाद के शुरूआती दौर में कमाल की बढ़त हुई। दूसरी आलमी जंग तक दुनिया के सबसे बेहतरीन सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री रूस और पूर्वी यूरोप में ही थे। बाद के दशकों में कंप्यूटर नेटवर्क आदि में भी बुल्गारिया जैसे मुल्कों में तेजी से तरक्की हुई। विज्ञान के दर्शन में भी निकोलाई बुखारिन और दीगर रूसी चिंतकों का गहरा प्रभाव रहा है। गौरतलब बात है कि केंद्रीय योजनाओं को अपनाने से स्थानीय स्तर पर नवाचार को उस तरह का हौसला नहीं मिल पाया जैसा कि पूँजीवादी मुल्कों में दिखा। साथ ही स्तालिन के दौर में बुनियादी विज्ञान में भी हो रहे बदलावों को शक की नज़रों से देखा गया और विज्ञान के इतिहास पर काम कर रहे मार्क्सवादी दार्शनिकों के लिए कठिन परिस्थितियाँ रहीं। लाइसेंको नामक वैज्ञानिक ने जीनेटिक्स की खोजों को मानने से इनकार कर दिया और सोवियत रूस में जीनेटिक्स पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को तरह-तरह से दंडित किया गया। बुखारिन के विचारों ने क्रिस्टोफर कॉडवेल और बर्नाल जैसे प्रखर चिंतकों को प्रभावित किया, पर वे खुद रूस में अपनी प्रतिष्ठा खोते रहे। भारत में कोसांबी और डी पी चट्टोपाध्याय जैसे दार्शनिक इस प्रभाव में रहे।

ऐसी स्थितियों में साम्यवादी मुल्कों में वैज्ञानिक समुदाय का बड़ा हिस्सा पूँजीवादी मुल्कों में मिलने वाली सुविधाओं और आज़ादी के लिए लालायित हो गया। बड़ी तादाद में वैज्ञानिक भागकर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के मुल्कों में बसने लगे। इसका फायदा उन मुल्कों को मिलना ही था। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस को आर्थिक दलदल में फँसाने की चालें चली गईं। अफग़ानिस्तान में तालिबान जैसी ताकतों को बनाना और उनकी आर्थिक मदद करना इसी षड़यंत्र का हिस्सा था। जल्दी ही रूस और (चीन में भी) साम्यवादी ताकतें कमजोर पड़ने लगीं। अस्सी के दशक में रेगन-थैचर के जमाने में पूँजीवादी मुल्कों में विज्ञान को पीछे धकेलना शुरू हो गया। पर सरमाया और तकनोलोजी में रिश्ते पहले से भी ज्यादा मजबूत हुए। तकनोलोजी में पूँजीवादी प्राथमिकताओं को सामने रखकर हुई तरक्की का लब्बोलुबाब यह निकला कि आज एक ओर आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (ए आई) यानी कृत्रिम मेधा और क्वांटम कंप्यूटर की बात हो रही है, वहीं बेरोजगारी शिखर पर है और धरती का कुछ पता नहीं कि कब तक रहे।

पूँजीवादी मुल्कों में बीसवीं सदी के बीचोबीच वैज्ञानिक शोध के जो ढाँचे (संस्थान आदि) बने, तमाम संकटों के बावजूद उनकी अपनी एक गति रही है और आज ज़हनी साइंस, कंप्यूटर साइंस जैसे कई मोर्चों पर विज्ञान बुलंदी पर है। ऐसा साम्यवादी मुल्कों में बराबर रफ्तार से क्यों नहीं हुआ, यह सोचना ज़रूरी है। दुनिया के दीगर और मुल्कों में तो साम्यवादी आंदोलन परचम गाड़ नहीं पाया है, और छोटी सी जनसंख्या वाले क्यूबा में आखिर कब तक शमा जली रह सकती है, इसलिए सवाल रूस, पूर्वी यूरोप के मुल्क और चीन पर ही आता है। क्या यह सवाल बुनियादी तौर पर मार्क्सवाद और विज्ञान के रिश्ते का सवाल है? जैसे वैज्ञानिक तर्कशीलता की अपनी सीमाएँ हैं, वैसे ही तेजी से बदलते सामाजिक समूहों और उनमें उभरते नए द्वंद्वों पर तुरत-फुरत समझ की अपेक्षा विज्ञानधर्मी मार्क्सवाद से नहीं होनी चाहिए। फिर भी हम अक्सर ऐसी अपेक्षा रखने की ग़लती करते हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत में ही यह साफ हो गया था कि विज्ञान में हो रहे क्रांतिकारी बदलावों का असर मानव-मूल्यों पर कैसा होगा, यह जटिल सवाल है और इससे जूझने के लिए हमें भौतिकवाद के बारे में नए ढंग से सोचने की ज़रूरत है। फ्रेडरिख़ एंगेल्स ने 'लुडव्हिघ फॉयरबाख़ और शास्त्रीय जर्मन दर्शन का अंत' लेख में यह लिखा है कि विज्ञान में युगांतरकारी खोज के साथ भौतिकवाद का स्वरूप बदल जाता है। लेनिन ने अपने विरोधियों की भौतिकवाद को पूरी तरह तिलांजलि देने की कोशिश के बरक्स एंगेल्स के इस उद्धरण का इस्तेमाल करते हुए लिखा कि मार्क्सी चिंतन यह माँग करता है कि नई वैज्ञानिक खोजों के साथ भौतिकवाद पर नए सिरे से सोचा जाए। सौ साल बाद जब सूचना क्रांति से दुनिया भर में उथल-पुथल नज़र आती है, यह बात और महत्वपूर्ण हो गई है। लेनिन के शब्दों में 'एंगल्स के भौतिकवाद के फार्म का संशोधन’(revision), उसके स्वाभाविक-दार्शनिक प्रस्तावों का संशोधन न केवल संशोधनवाद’ के मान्य अर्थों में संशोधनवाद नहीं है बल्कि इसके उलट, यह मार्क्सवाद की मांग है।'
मार्क्स को उद्धृत कर वैचारिक विमर्श में लगातार दरारें बढ़ाते वामपंथी बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि मार्क्सी सोच मूलतः एक गतिशील विज्ञानधर्मी मानवतावादी सोच है। विज्ञान के दर्शन में यह माना गया है कि अधिकतर वैज्ञानिक प्रचलित या प्रतिष्ठित मान्यताओं के वर्चस्व में ही काम करते हैं। कभी-कभार ही होता है कि ऐसे अवलोकन जो मान्यताओं से संगति नहीं रखते हैं, उन पर विचार करते हुए कुछ वैज्ञानिक इंकलाबी बदलावों की ओर बढ़ पाते हैं। मार्क्स के जीवनकाल में उन तमाम संकटों के बारे में कोई जानकारी या तो उपलब्ध न थी या बहुत ही कम थी, जो बीसवीं सदी में ही पूरी तरह उजागर हुए हैं। पर्यावरण के संदर्भ में विज्ञान की सीमाएँ, लिंगभेद, नस्ल और जाति विषयक समझ, ये तमाम बातें बीसवीं सदी में ही गहराई से सोची समझी गई हैं। पहले जो कुछ सोचा गया था, उस विचार जगत में मार्क्सवाद सबसे अग्रणी भूमिका में था। कई ऐसी बातें मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में हैं जिनको आज कहीं बेहतर समझा जा सकता है।
जैसा वैज्ञानिक पद्धति के बारे में माना जाता है, वैसे ही मानव समाज के विकास का एक निश्चित आख्यान गढ़ते हुए मार्क्स ने जिस दर्दनाक उदासीनता की माँग रखी थी, उसके बारे में फिर से सोचना ज़रूरी है। भारत के बारे में सीमित सामग्री पर आधारित अपने महत्त्वपूर्ण आले में मार्क्स ने यह मानते हुए भी कि 'इस बारे में कोई शक नहीं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से हिंदुस्तान को पहले की अपेक्षा भिन्न और बेइंतहा गुना कष्ट झेलना पड़ा है', अंततः यह कहा कि 'इंग्लैंड ने जो भी अपराध किए, ऐसा करते हुए उसकी अचेत भूमिका … क्रांति के कर्णधार की रही'। गोएठे की कविता उद्धृत करते मार्क्स ने कहा कि हम पीड़ाओं से दबकर रोते नहीं रह सकते और भविष्य के सुख का ध्यान रखते हुए हमें इस तकलीफ से गुजरना होगा, वह कितनी भी असहनीय क्यों न हो। इस कथन को सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों ने सीमित अर्थ में इस तरह पढ़ा कि मार्क्स भारतीय मानस को यूरोपी ढाँचे में ढालने को बेचैन थे, पर मार्क्स की असली बेचैनी समाजवादी क्रांति लाने की थी। यह देखते हुए कि पूँजीवादी कुविकास का शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक हिस्सा है, हमें यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर के सनम जैसी उदासीनता से कैसे निकलें। अराजकतावाद के प्रति मार्क्सवादी असहिष्णुता को कम करना होगा। सांस्कृतिक पटल पर सरलीकृत मडल काम नहीं करेंगे, सृजनात्मक अराजकता को भरपूर जगह देनी होगी। क्या विज्ञान ऐसी अराजकता को जगह देता है? अगर दार्शनिक फेयराबेंड की सुनें तो अराजकता ही विज्ञान को आगे बढ़ाती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तक मार्क्स की यात्रा की शुरूआत भी अराजक मानवतावादी चिंतन से ही हुई थी। सही है कि इस सोच को बेमतलब खींचा जाए तो सौ साल पहले तक विज्ञान के बारे में जो द्वंद्वात्मक समझ बनी थी, उसे बिल्कुल नकारने का खतरा रहता है, और सब कुछ उत्तर-आधुनिक गड्ढे में गिरता हुआ दिखता है, पर इतनी परेशानी की सचमुच कोई वजह नहीं है। विज्ञान के बारे में द्वंद्वात्मक सोच और सामाजिक-राजनैतिक विश्लेषण आज भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
जहाँ तक विज्ञान के पेशे की बात है, नस्ल, जाति और स्त्री प्रश्न पर साम्यवादी मुल्कों में काफी हद तक बेहतर स्थिति रही है। क्यूबा इस मायने में तक़रीबन जन्नत रहा है। पश्चिमी मुल्कों की तुलना में विज्ञान से जुड़े पेशों में रूस और चीन में स्त्रियों की बड़ी भागीदारी रही है। साम्यवाद आने के पहले इन मुल्कों में स्त्रियों की स्थिति बेहद खराब थी। दीगर और मुल्क जहाँ साम्य के विचार का प्रभाव रहा है, केवल पश्चिमी यूरोप ही नहीं, यहाँ तक कि लीबिया, सीरिया और ईराक तक में इन मुद्दों पर काफी तरक्की हुई थी, जिसे हाल की साम्राज्यवादी तबाही ने मटियामेट कर दिया है। सही सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्सी पद्धति में इन सवालों से जूझने की कैसी संभावना है। मार्क्सवादियों को यह समझने में लंबा वक्त लगा है कि ये सवाल महज सांस्कृतिक बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये बुनियादी द्वंद्व हैं।
साम्यवाद में लोकतांत्रिक स्वरूप की माँग विज्ञानधर्मी माँग है। वैज्ञानिक शोध तब तक मायने नहीं रखता जब तक कि शोध-पद्धति और निष्कर्षों को वैज्ञानिक समुदाय की स्वीकृति न मिले। सरमाएदार ढाँचों के बीच रहकर काम करने की वजह से जैसी भी इसकी सीमाएँ हों, वैज्ञानिक समुदाय के बड़े तबके ने इसे मान लिया है। साम्यवादी ढाँचे में विज्ञान ही नहीं, साहित्य, कला, सिनेमा, यहाँ तक कि खान-पान और पहनावों तक में भी लोकतांत्रिक राजनीति को स्पेस मिलना चाहिए। एक ही मंच में परस्पर ईमानदारी पर आस्था रखते हुए लगातार बातचीत का माहौल तैयार करना और हाशिए पर पड़े को बीच में लाना, यह करना है। पूँजीवादी विज्ञान और विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो मार्क्सवाद के लिए चुनौती है कि निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। इस नए मुहावरे के साथ ही हमें समझना और समझाना होगा कि दुनिया कैसे बुनियादी रूप से बदल चुकी है। सोशल मीडिया और सामान्य रूप से सूचना क्रांति को कैसे समझा जाए, इस पर खुली बहस ज़रूरी है। बदलाव तेजी से हो रहे हैं, पर सही समझ बनाने में काफी वक्त लगेगा।
आखिर में यह बात कि आज कोई भी विचार स्थानीय तौर पर सीमित रह कर मायने नहीं रख सकता। जब धरती विनाश के कगार पर है और जालिम ताकतें वैश्विक तौर पर विज्ञान और तक्नोलोजी का फायदा उठा रही हैं, हमें राष्ट्रवाद पर सीधी चोट पहुँचाती मार्क्स की चिंता को हमेशा सामने रखना पड़ेगा कि - दुनिया के कामगारो, एक हो जाओ। बदलती परिस्थितियों में हमें इसे 'दुनिेया के मजलूमो एक हो जाओ' कह कर आलमी पैमाने पर संघर्ष और निर्माण का ऐसा दर्शन रचना होगा, जिसमें विज्ञान का अराजक मानवीय पक्ष ही सबसे ऊपर हो। तर्कशीलता को छोड़े बिना भी खुलापन हो सकता है, यही कोशिश होनी चाहिए। इसी दिशा में विज्ञान और तक्नोलोजी का भरपूर इस्तेमाल हो। इस खुलेपन को पॉपर के 'खुले समाज' के बनिस्बत तकरीर करते हुए मॉरिस कॉर्नफोर्थ ने 'खुला (स्वच्छंद) दर्शन' कहा है।                 (समकालीन जनमत -2018)

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Monday, February 18, 2013

छिटपुट खयाल और दो कविताएँ

('समयांतर' के मार्च 2013 अंक में 'मार्क्सवाद का औचित्य' शीर्षक से प्रकाशितः- अंतिम से पहले पैराग्राफ में एक कविता है, जो 'समयांतर' में प्रकाशित आलेख में नहीं है।)
बाईस साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी और सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में विघटन की प्रक्रिया की शुरूआत हुई तो पूँजीवाद के पक्षधरों को लगा कि अंतिम फैसला हो चुका। साम्य की लड़ाई खत्म हो गई और पूँजीवाद का झंडा हमेशा के लिए बुलंद हो गया। 1992 में योशीहीरो फ्रांसिस फुकुयामा की प्रसिद्ध पुस्तक 'द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन' आई, जिसमें औपचारिक रूप से घोषणा की गई कि मानवता के सामाजिक सांस्कृतिक विकास का अंत हो गया और मुक्त बाजार प्रणाली पर आधारित तथाकथित पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक संरचनाएँ ही अब सारी दुनिया में फैल जाएँगी। फुकुयामा स्वयं जापानी मूल के हैं (उनके दादा जापान से आए थे), संभवतः इसीलिए यह समझने में उन्हें देर न लगी कि सांस्कृतिक विकास का मामला जटिल है और इसे आर्थिक संरचनाओं से बिल्कुल अलग नहीं किया जा सकता। 1995 में ही अपनी एक और किताब में इस पर उन्होंने विस्तार से लिखा। पर सामाजिक राजनैतिक विकास पर अपनी मूल धारणा पर वे टिके रहे, हालांकि विश्व राजनीति में तेजी से हो रहे बदलाव और पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में विश्व-स्तर पर आई मंदी से घबराकर उन्होंने खुद को नव-संरक्षणशील आंदोलन से अलग कर लिया। लंदन से प्रकाशित 'द गार्डियन' पत्रिका में डेढ़ साल पहले एक आलेख में यह दावा किया गया कि विश्व-स्तर पर मार्क्सवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। चूँकि मार्क्स की पहली चिंता मानव को लेकर है, इसलिए सामाजिक बराबरी के लिए जहाँ भी संघर्ष चल रहे हैं, चाहे अनचाहे मार्क्सवाद का प्रभाव उन संघर्षों पर है। फुकुयामा या मार्क्सवाद के अन्य विरोधी इस बुनियादी बात को या तो समझते नहीं या उनके विचार बुनियादी तौर पर गुलाम और मानव विरोधी मानसिकता से पनपे हैं। मार्क्सवाद को चुनौती पूँजीवाद से नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में उभरे विचारों के समूह से ही मिल सकती है।
जब तक समाज में व्यापक गैरबराबरी रहेगी, मार्क्सवाद का औचित्य बना रहेगा। उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवाद की ज़मीन पश्चिमी मुल्कों में बेहतर मेहनताना और श्रम की बेहतर शर्तों के लिए लड़ाई थी। बीसवीं सदी में यह लड़ाई चलती रही और उपनिवेशों में वह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा बन गई। आज भी न पश्चिमी मुल्कों में स्थिति पूरी तरह सुधरी है (सं. रा. अमेरिका में संपन्न 10% े पास कुल दौलत का 80% और बाकी 90% े पास कुल दौलत का मात्र 20% है) और न ही बाकी दुनिया के बारे में कहने लायक कोई आर्थिक तरक्की हुई है। मैंने अपनी कविता 'लड़ाई की कविता' में इसे कहने की कोशिश की है - '2010 में आदमी लड़ रहा है 1850 की लड़ाई। एक दिन में आधा दिन माँग रहा है अपने लिए।/ आधी रात को मकान की छत बना रहा है आदमी। जिसे मकान में रहना है, वह 2010 में आदमी को देखता है जैसे 1890 को आने में अभी और कई साल लगेंगे।/आदमी सोचता है कि वह इस ग्रह का वासी नहीं है। अपने ग्रह में उसे दो-तिहाई दिन अपने लिए मिल सकता है। अपने ग्रह में बच्चों के साथ खेलने के अलावा वह सपने भी देख सकता है। यहाँ इस ग्रह में वह इंतज़ार में है कि 2020 या 2030 तक वह 1890 से आगे चल पाएगा। इस तरह वह फुकुयामा को बतलाता है कि इतिहास और खगोल, सब गड्डमड्ड हैं।/छत बनाते हुए उसे देखते लगता है कि वह रात के अँधेरे में नहीं लड़ सकता। सभी फुकुयामा इस खयाल में पूरी उन्नीसवीं सदी बिता देते हैं।/पर वक्त है कि चलता रहेगा। ग्रह चलेंगे, नक्षत्र चलेंगे।/आदमी है कि लड़ता रहेगा।
पूँजीवाद मानव के विकास की धारणा लिए हुए नहीं आता। पूँजी का एकमात्र धर्म पूँजी को ही पैदा करना है। पर पूँजीवाद के पक्षधर इसके साथ विकास की धारणा को जोड़ते हैं। यूरोप में नवजागरण, आधुनिकता और प्रबोधन का समय पूँजीवाद के अभ्युदय का समय है। उन्नीसवीं सदी तक यूरोप और अमेरिका में पूँजी के पैदा होने में आधुनिक शहरी सभ्यता का सीध संबंध रहा। इसलिए सरमायादारों की बात करते हुए फ्रांसीसी शब्द 'बुर्ज़ुआ' (शहरी) का उपयोग होता है। पूँजीवाद के साथ जुड़ा विकास इसी बुर्ज़ुआ वर्ग का विकास है, जिसमें बेशक बौद्धिक, ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि का विकास सम्मिलित है। मार्क्स के अध्ययन और कृतियों में इसी विकास की पहली और अब तक की सबसे अधिक प्रभावी आलोचना है। मार्क्सवाद सकारात्मक आधुनिक चिंतन की पराकाष्ठा है; यह मानव समाज के बारे में एक नया आख्यान पेश करता है। अगर इस पद्धति में कोई संरचनात्मक संकट है तो यह मार्क्सवाद के लिए चुनौती है।
जहाँ एक ओर पूँजीवादी विकास से बुर्ज़ुआ वर्ग को फायदा पहुँचता है (सीमित अर्थ में), वहीं समाज का बाकी बड़ा हिस्सा इसी विकास से पहले से बदतर स्थिति में पहुँच जाता है। इसे हम अंडरडेवलपमेंट या कुविकास कह सकते हैं। अफ्रीकी मूल के प्रसिद्ध गायानीज़ चिंतक वाल्टर रॉडनी ने अपनी पुस्तक 'हाऊ यूरोप अंडरडेवलप्ड आफ्रीका' में इसे विस्तार से समझाया है।1 इसी के आधार पर अफ्रीकी अमेरिकी अर्थशास्त्री मैरेबल मैनिंग ने 'हाऊ कैपिटलिज़्म अंडरडेवलप्ड ब्लैक अमेरिका' लिखी, जिसमें पूँजीवाद के विकास का अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय पर जो असर पड़ा, उसका ब्यौरा लिया गया है।2 रॉडनी ने अफ्रीका के इतिहास से उदाहरण लेकर यह विस्तार से समझाया कि यूरोप में पूँजीवादी विकास को अफ्रीका में हुए कुविकास से अलग कर नहीं देखा जा सकता। इसी तरह अफ्रीकी अमेरिकी कामगारों की दुर्दशा को समझे बिना हम श्वेत अमेरिका में पूँजी की बढ़त को नहीं समझ सकते। यह पूँजीवादी विकास की विड़ंबना है। मुनाफे के लिए जो वाजिब दिखता है, वह मानव के सर्वांगीण विकास के पक्ष में है या नहीं यह सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता, जैसा भी है, भला या बुरा, मुनाफा है तो वह पूँजीवादी विकास का भी एजंडा है। जब तक मुनाफा ठीक हो रहा है, मानव पूँजीवादी एजंडे में नहीं है, उल्टा कहीं वह पिस रहा है तो पिसता रहे। बराबरी, स्वच्छंदता - ये मानव की नैसर्गिक माँगें हैं। मानव और प्राकृतिक संपदा का पूरी तरह से शोषण होता है तो हो, जिन्हें फायदा हो रहा है, वे बौद्धिक विकास की दुहाई देते रहेंगे - एक हद तक पूँजीवादी विकास यह भ्रम पैदा करने में सक्षम होता है कि यह उदार समाज की ओर बढ़ने का जरिया है। कोई शक नहीं कि उन्नीसवीं सदी की तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक अमेरिका और यूरोप में उदारवादी लोकतांत्रिक सोच का वर्चस्व निरंतर बढ़ा। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाएँ अधिकतर लोगों को मिलीं। यह पूँजीवादी विकास के एजंडे से नहीं, लगातार हुए लोकतांत्रिक संघर्षों और साम्राज्यवाद के जरिए बाकी दुनिया से हड़पे संसाधनों के जरिए हुआ। उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में उत्तरी क्षेत्रों में औद्योगिक पूँजीवाद के भौगोलिक प्रसार के लिए दक्षिणी क्षेत्रों में कपास की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था को हटाना ज़रूरी था। यह गृहयुद्ध का कारण बना। इतिहास में इसे दासप्रथा उन्मूलन की लड़ाई कहा जाता है। दक्षिणी संघ को निर्णायक रूप से हरा कर नई जो नई व्यवस्था बनी, उसमें धीरे-धीरे अफ्रीकी मूल के लोगों के सारे अधिकार छीन लिए गए, जिन्हें फिर से पाने के लिए उन्हें सौ साल तक कठिन संघर्ष करना पड़ा। इन सौ सालों के दौरान अमेरिकी बुर्ज़ुआ वर्ग में अफ्रीकी मूल के लोगों का न केवल कोई प्रतिनिधित्व न था, उन्हें सख्त नस्लवादी तरीकों से दबा कर रखा गया। मैनिंग इसी विकास को कुविकास कहते हैं। निसंदेह अफ्रीका का जो शोषण यूरोपी और अमेरिकी व्यापारिओं ने किया, उस दौरान अफ्रीका का कुविकास ही हुआ। हाल के वर्षों में भारतीय समाज विज्ञान में भी इस दिशा में शोध बढ़ा है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से किस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों का स्वाभाविक विकास रुक गया और यह क्षेत्र कुविकास का शिकार हुआ। इसमें बहुत कुछ पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति से किया गया काम है, पर गंभीर तथ्यात्मक खोज की भी कमी नहीं है। मानव विरोधी प्रवृत्तियों से समझौता कर और उनके सहयोग से पूँजी की बढ़त कोई आश्चर्य की बात नहीं, बल्कि यही पूँजी का धर्म है। इसलिए जब तक पश्चिमी 'लोकतांत्रिक सरकारों' को हिटलर या फ्रांको जैसी अन्य जनविरोधी शासन-व्यवस्थाओं से समझौता करने में फायदा था, उन्होंने ऐसा किया। जब जंग पूँजी के हितों पर चोट पहुँचाने लगी, तभी विरोध शुरू हुआ।
मार्क्स ने अपने विश्लेषण में पूँजीवादी विकास के बुनियादी कारणों से होनेवाले संकट की बात की है। खपत न हो सकने लायक अतिरिक्त उत्पादन, श्रम के मूल्य में ह्रास, अलगाववाद आदि कई मुद्दों को रेखांकित करते हुए मार्क्स ने सिद्ध किया कि पूँजीवादी विकास कभी संकट मुक्त नहीं हो सकता। राज्य या अन्य एजेंसियों के हस्तक्षेप से इस संकट को कुछ समय तक टाला जा सकता है, पर वह बार बार लौट आता है। इसलिए उन्नीसवीं सदी से लेकर अब तक कई बार विश्व-स्तर पर आर्थिक मंदी आई है। यह बात इतनी पुरानी हो गई है कि इस पर चर्चा करने का कोई तुक नहीं है। हमें अपना ध्यान मार्क्सवाद के लिए चुनौतियों पर केंद्रित करना चाहिए।
पहली साधारण चुनौती तो यही है कि पूँजी का कुतर्क जिस सरल ढंग से पेश किया जाता है, मार्क्स का चिंतन उतना ही कठिन लगता है। हालाँकि हमारी आम भाषा में वर्ग, बुर्ज़ुआ, सर्वहारा आदि शब्द बोलचाल में आ गए हैं, मार्क्सवाद के बारे में आम समझ मानवतावादी या अराजकतावादी समझ मात्र है। समाज में गैरबराबरी के खिलाफ कोई भी समझदारी से बात कर रहा हो तो उसे मार्क्सवादी मान लिया जाता है। इसलिए जहाँ एक ओर तो दक्षिणपंथी पाखंडी यह ढूँढने में लगे रहते हैं कि किस वामपंथी के पास कितनी संपत्ति है, दूसरी ओर मार्क्स को उद्धृत कर वैचारिक विमर्श में लगातार दरारें बढ़ाते वामपंथी बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि मार्क्सी सोच मूलतः एक गतिशील विज्ञानधर्मी मानवतावादी सोच है। मार्क्स के जीवनकाल में उन तमाम संकटों के बारे में कोई जानकारी या तो उपलब्ध न थी या बहुत ही कम थी, जो बीसवीं सदी में ही पूरी तरह उजागर हुए हैं। पर्यावरण के संदर्भ में विज्ञान की सीमाएँ, लिंगभेद, नस्ल और जाति विषयक समझ, ये तमाम बातें बीसवीं सदी में ही गहराई से सोची समझी गई हैं। पहले जो कुछ सोचा गया था, उस विचार जगत में मार्क्सवाद सबसे अग्रणी भूमिका में था। कई ऐसी बातें मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में हैं जिनको आज कहीं बेहतर समझा जा सकता है। लुंपेन या लंपट श्रेणी और इससे जुड़ी संस्कृति पर जिस तरह आज सोचा जा सकता है, वह उन्नीसवीं सदी में कतई संभव न था।
मानव समाज के विकास का एक निश्चित आख्यान गढ़ते हुए मार्क्स ने जिस दर्दनाक उदासीनता की माँग रखी थी, उसके बारे में फिर से सोचना ज़रूरी है। हम कह सकते हैं कि रॉडनी, मैनिंग या फानों(3) कहीं न कहीं इसी बात को रेखांकित करते हैं। भारत के बारे में सीमित सामग्री पर आधारित अपने महत्त्वपूर्ण आलेख(4) में मार्क्स ने यह मानते हुए भी कि 'इस बारे में कोई शक नहीं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से हिंदुस्तान को पहले की अपेक्षा भिन्न और बेइंतहा गुना कष्ट झेलना पड़ा है', अंततः यह कहा कि 'इंग्लैंड ने जो भी अपराध किए, ऐसा करते हुए उसकी अचेत भूमिका … क्रांति के कर्णधार की रही'। गोएठे की कविता उद्धृत करते मार्क्स ने कहा कि हम पीड़ाओं से रो नहीं सकते और भविष्य के आनंद का ध्यान रखते हुए हमें इस पीड़ा से गुजरना होगा। इस कथन को सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों ने सीमित अर्थ में इस तरह पढ़ा है कि मार्क्स भारतीय मानस को यूरोपी ढाँचे में ढालने को बेचैन थे, पर मार्क्स की असली बेचैनी विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी समाजवादी क्रांति लाने की थी। फिर भी, यह देखते हुए कि पूँजीवादी कुविकास का शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक हिस्सा है, हमें यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर के सनम जैसी उदासीनता से कैसे निकलें। इसके लिए हमें अराजकतावाद के प्रति मार्क्सवादी असहिष्णुता को कम करना होगा। सांस्कृतिक पटल पर सरलीकृत माडल काम नहीं करेंगे, सृजनात्मक अराजकता को भरपूर जगह देनी होगी।
एक ओर तो वैचारिक स्तर पर आम लोगों तक पहुँचने की सीमा है (साथ ही प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता के अवांछित अहं को भी समझने की बात है), दूसरी ओर सतही वैचारिक समझ से उपजी लंपट और गुंडा संस्कृति और बुर्ज़ुआ हितों से समझौतों से जूझने की बात है। जहाँ मार्क्सवादी वाम की ताकत कम हुई है, वह इन्हीं कारणों से हुई है। नस्ल, जाति और स्त्री प्रश्न पर मार्क्स की अपनी समझ को लेकर काफी कुछ कहा जाता है, पर सही सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्सी पद्ति में इन प्रश्नों से जूझने की कितनी संभावना है। मार्क्सवादियों को यह समझने में लंबा वक्त लगा है कि ये महज सांस्कृतिक बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये बुनियादी द्वंद्व हैं। समझ सिद्धांतों को पढ़ने मात्र से नहीं आती, बल्कि जीवन के अनुभव भी इसके लिए ज़रूरी हैं। भारत में अभी तक मार्क्सवादी आंदोलनों में नेतृत्व सवर्ण जातियों के पुरुषों के हाथ है। इसे देखते हुए लगता है कि मार्क्सवादी नेतृत्व की जन में आस्था नहीं है। स्पष्ट है कि यह बड़ी चुनौती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ के प्रसार में मार्क्सवादियों की भूमिका स्वोपरि होनी ही है, और जैसे जैसे यह समझ व्यापक हुई है, जाति और स्त्री प्रश्न और उभर कर सामने आए हैं। पर नेतृत्व इन सवालों के उभार को उसी गति से स्वीकार नहीं कर पाया है।
चुनावी राजनीति के दाँवपेंच और उनकी वजह से किए गए समझौते मार्क्सवादी आंदोलनों की बड़ी समस्या रही है। समझौतों की वजह से सही लाइन की परिभाषा बिगड़ती गई है और अक्सर यह समझ पाना मुश्किल होता गया है कि मार्क्सवाद का नाम लेने वाली पार्टियाँ सचमुच किस हद तक मार्क्सी सोच को साथ लिए हैं। सही है कि जैसे जैसे परिस्थितियाँ बदलती हैं, लाइन भी बदलती है। ऐसा है तो भिन्न इलाकों में भिन्न स्थितियों को देखते हुए रणनीति भी अलग अलग होनी चाहिए। कहीं चुनावी समझौते, तो कहीं सशस्त्र संघर्ष साथ चलना चाहिए। अलग अलग रणनीतियों को अपनाती प्रवृत्तियों में आपसी समझ होनी चाहिए। होता यह है कि हर प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति को गलत मानकर चलती है। आपसी संघर्ष अक्सर हिंसक और सामंती या बुर्ज़ुआ व्यवस्थाओं के खिलाफ संघर्ष से भी ज्यादा तीखा होता है। हर स्तर पर, नेतृत्व से लेकर काडर तक, अपनी ऊर्जा का अधिकांश इसी संघर्ष में बर्बाद कर देते हैं। ऐसे लगता है कि अभी भी ज़ारशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है और हर प्रवृत्ति अपनी साख स्थापित करने की जद्दोजहद में जुटी है। यह एक तरह का इनर्शिया है, जिससे छूटे बिना मार्क्सवादी आंदोलन एक सीमा के आगे नहीं बढ़ सकते। विश्व-स्तर पर स्थितियाँ बदल चुकी हैं। स्टालिनवाद या माओवाद और स्पेन, इटली के यूरोपी मार्क्सवाद के सैद्धांतिक मुठभेड़ भी अब पुराने पड़ गए हैं। यहाँ तक कि भारत में माओवाद को मात्र आदिवासियों के हितों में सशस्त्र आंदोलन कह दिया जाता है। दूर दराज़ के इलाकों तक और अनपढ़ ग़रीबों को भी संप्रेषण की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इस तकनीकी और सूचना क्रांति का सेहरा पूँजीवाद को पहना दिया जाता है, पर इसके सही दावेदार लोकतांत्रिक आंदोलन रहे हैं, जिनमें मार्क्सवादी सोच की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। मार्क्सवादी नेतृत्व इस बात से वाकिफ होते हुए भी इसका फायदा उठाने में और इस समझ के अनुसार ज़रूरी बदलाव लाने में अक्षम दिखता है। इस वक्त मार्क्सवादी नेतृत्व के लिए जनमानस में अपना लोकतांत्रिक चरित्र स्थापित करना ज्यादा ज़रूरी है। इसके लिए पहले मार्क्सवादी नेतृत्व में एक बड़ा मंच बनना ज़रूरी है, जहाँ न केवल मार्क्सवादी, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में जुटा हर कोई शामिल हो सके, जहाँ अलग अलग रणनीतियों और समझौतों पर परस्पर सम्मान के साथ बात हो सके। यह एक ऐतिहासिक क्षण है जब पूँजीवाद एक बार फिर अपने चरम संकट पर है। रीगन-थैचरवाद और मनमोहनी वैश्वीकरण-उदारीकरण की पोल पूरी तरह खुल चुकी है। इस वक्त यह लाजिमी है कि मार्क्सवादी और अराजकतावादी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानें और एक बृहत् मंच बनाने में जुट जाएँ। साथ ही जन में आस्था होनी ज़रूरी है। जो दरकिनार रहे हैं, उनको आगे लाना होगा। इतना ही नहीं, नम्रता के साथ उनके नेतृत्व में काम करने के लिए खुद को तैयार करना होगा। यह विश्वास बनाए रखना होगा कि इतिहास का अंत नहीं हुआ है, उसकी अपनी गतिकी है। चिंतकों को प्रतिबद्ध और गंभीर विश्लेषण में लोकतांत्रिक तत्वों को और अधिक जगह देनी होगी।
यह लोकतांत्रिक स्वरूप समय की माँग है। न केवल पार्टी, बल्कि श्रमिक संगठनों से लेकर सांस्कृतिक मंचों तक हर स्तर पर यह संकट समूचे वाम आंदोलन में है। साहित्य, कला, सिनेमा, यहाँ तक कि खान-पान और पहनावों तक में लोकतांत्रिक राजनीति को स्पेस चाहिए। तात्पर्य यह नहीं कि हर किसी को वैचारिक समझौता करना है। एक ही मंच में परस्पर ईमानदारी पर आस्था रखते हुए लगातार बातचीत का माहौल तैयार करना और हाशिए पर पड़े को बीच में लाना, यह करना है। पूँजीवादी विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो हम निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। शर्त सिर्फ यह हो कि इसमें सब की भागीदारी हो, हर किसी को निर्णय का हक हो। अपनी एक कविता से इस बात को दुबारा कहूँगा - चुप्पी के खिलाफ/किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए/खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है/लाल या सफेद/आँखें ढूँढती हैं रंगों के अर्थ/लगातार खुलना चाहते बंद दरवाजे/कि थरथराने लगे चुप्पी/फिर रंगों के धक्कमपेल में/अचानक ही खुले दरवाजे/वापस बंद होने लगते हैं/बंद दरवाजों के पीछे साधारण नजरें हैं/बहुत करीब जाएँ तो आँखें सीधी बातें कहती हैं/एक समाज ऐसा भी बने/जहाँ विरोध में खड़े लोगों का/रंग घिनौना न दिखे/या विरोध का स्वर सुनने की इतनी आदत हो/कि न गोर्वाचेव न बाल ठाकरे /बोलने का मौका ले ले/साथी, लाल रंग बिखरता है/इसलिए बिखराव से डरना क्यों/हो हर रंग का झंडा लहराता/लोगों के सपने में यकीन रखो दोस्त/लोग पहचानते हैं आसमान का रंग/जैसे वे जानते हैं दुःखों का रंग/अंत में लोग ही चुनेंगे रंग।
आज के मार्क्सवाद को इस नए मुहावरे के साथ ही हमें समझाना होगा कि यह दुनिया कैसे बुनियादी रूप से बदल चुकी है। आम आदमी जानना चाहता है कि चुनावी दंगल ने कैसे मार्क्सवादी दलों का चरित्र बदला। वह यह भी जानना चाहता है कि कब तक जंगलों में छिप कर साथी लड़ते रहेंगे। क्या सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन और खाड़कू लड़ाकू हमेशा ही एक दूसरे के खिलाफ काम करते रहेंगे या बदली हुई परिस्थितियों में हाथ मिलाकर अपने अपने क्षेत्र में संघर्ष करेंगे।
संदर्भः-
1. How Europe Underdeveloped Africa, Walter Rodney, Howard University Press; Revised edition, 1981
2. How Capitalism Underdeveloped Black America, Marable Manning, South End Press, 1983
3. The Wretched of the Earth, Franz Fanon, Grove Press; Reprint edition, 2005
4. The British Rule in India, Karl Marx, June 1853, New York Daily Tribune (http://www.marxists.org/archive/marx/works/1853/06/25.htm)

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