Saturday, July 28, 2012

लगभग स्फटिक, इसरायली नोबेल विजेता और इस्लामी शिल्प



सीरीज़ का दूसरा आलेखः 'समकालीन जनमत' के अप्रैल 2012 अंक में प्रकाशित

लगभग स्फटिक, इसरायली नोबेल विजेता और इस्लामी शिल्प


मानव समाज और राजनीति में तरह-तरह की शत्रुताएँ हैं। पर प्रकृति को इससे क्या लेना !  कलासाहित्यविज्ञान और अन्य विधाओं में मानव की सृजनात्मकता शिखर पर तभी पहुँचती है,   जब वह संकीर्ण वैमनस्य से परे हटकर व्यापक फलक पर अपनी छाप बना सके। कभी कभी ऐसा भी होता है कि अंजाने ही ज्ञान के छोर अलग अलग समुदायों से इस तरह जुड़े होते हैंजिसके बारे में आम तौर पर हम सोच नहीं पाते। वर्ष  2012 के रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार इसरायल के डैनिएल शेख़्तमान को दिया गया। शेख़्तमान टेक्नीआन विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं।उनके शोध का विषय क्वासी -क्रिस्टल यानी लगभग स्फटिक जैसे मिश्र धातुओं को लेकर है। यह रोचक बात है कि इस्लामी कहे जाते मुल्कों में एक हजार साल से भी पहले से इमारतों या मीनारों की दीवारों में सजावट के लिए क्वासी-क्रिस्टल इस्तेमाल में लिए जाते रहे हैं। और इसरायल तथा इस्लामी मुल्कों में संबंध कैसे हैं,   यह तो हर कोई जानता है।
क्रिस्टल या स्फटिक ऐसे ठोस पदार्थ को कहते हैंजिसमें परमाणु जाली या लैटिस में सजे होते हैं। लैटिस का मतलब है ऐसा ढाँचा जिसमें एक ही जैसी आकृति को नियमित आवर्त्ती  (periodic) रूप से रखा जाता है। जैसे शतरंज के खाने अगर अनंत तक चलते रहें तो वह एक द्वि-आयामी लैटिस होगा। स्पष्ट है कि यह सजावट कई तरह से बन सकती है। जैसे नीचे तस्वीर में सामान्य द्वि-आयामी षड्कोणीय (hexagonal) लैटिस हैजिसमें हर शीर्षबिंदु पर एक परमाणु रख दिया जाए तो एक क्रिस्टल बन जाएगा। 


 चित्र 1 : द्वि-आयामी षड्कोणीय (hexagonal) लैटिस

आम क्रिस्टल त्रि-आयामी होते हैं और अलग-अलग दिशाओं में लैटिस का आवर्त्ती स्वरुप अलग अलग प्रकार का हो सकता है । 
1970 के पहले तक यह माना जाता था की इस तरह के लैटिस यानी आवर्त्ती  ढांचों में कहीं भी पंचभुजाकर आकृति नहीं हो सकती शेख्त्मान ने यह सिद्ध कर दिया की मिश्रधातुओं में लैटिस के ऐसे नक़्शे हैं, जिनमें पंचभुज आकृतियाँ भी हैं इस तरह लैटिस के बने क्रिस्टल को क्वासी-क्रिस्टल कहते हैं
प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ भौतिकशास्त्री रोज़र पेनरोज़ ने सत्तर के दशक में इस्लामी मुल्कों में इमारतों पर नक्शों का गहराई से अध्यन किया 1980 के आस-पास अपने कई व्याख्यानों में उन्होंने इन नक्शों की तस्वीरें दिखलाई, जिनमें क्वासी-क्रिस्टल पैटर्न का इस्तेमाल हुआ था हाल के एक ताज़ा शोधपत्र में अमरीका के टेक्सास टेक यूनिवर्सिटी की रीमा अज़्लूनी ने यह दिखलाया है की 12वीं सदी में साधारण औजारों का इस्तेमाल कर भवन निर्माता कारीगरों ने क्वासी-क्रिस्टल नक़्शे बनाए। 



 चित्र 2 -->मरघ में गुम्बद--काबूद मीनार पर क्वासी-आवृति नक़्शे 
क्वासी-क्रिस्टल को पूरी तरह आवृत्ति नहीं कहा जा सकता, हालांकि उनमें मौजूद परमाणु एक ख़ास श्रृंखला में बंधे होते हैं शेख्त्मान ने 1984 में अल्युमिनियम और मैंगनीज़ के मिश्रधातु में सबसे पहले यह नक्शा देखा था जब उन्होंने इस पर पर्चा लिखा तो इसका बड़ा विरोध हुआ एक प्रतिष्ठित पत्रिका, जर्नल ऑफ़ एप्लाइड फिजिक्स, ने तो यह पर्चा प्रकाशित न कर वापस लौटा दिया था ।  दरअसल एक क्रिस्टल की सही पहचान मात्र आवर्त्ती नक़्शे में नहीं बल्कि दूर तक मौजूद श्रृंखला में होती है पहले ये माना जाता था की बिना आवर्त्ती नक़्शे के ऐसी दूरगामी श्रृंखला बन ही नहीं सकती आम तौर पर आणविक स्तर पर ऐसी संरचना को एक्स-रे  किरणों के विवर्तन (diffraction) द्वारा जाना जाता है । एक्स-रे  किरणें पदार्थ की सतह पर और सतह के नीचे अणुओं की तहों से प्रतिफलित होकर जब मिलतीं हैं तो तरंगों की दशाएँ आमतौर पर एक जैसी नहीं होती अगर वे बिलकुल एक जैसी हों, तो उनके विस्तार जुड़कर और अधिक हो जाएंगे इसके विपरीत अगर दशाएं एक दूसरे के बिलकुल विपरीत हों, यानी एक उभरी हुई और दूसरी दबी हुई हो तो विस्तार न्यूनतम हो जाएगा अणुओं की तहों में दूरी के अनुसार प्रतिफलित तरंगों की दशाओं में अंतर होता है तरंगों को परदे पर देखने पर कम या अधिक विस्तार के विश्लेषण से क्रिस्टल में परमाणुओं की आवर्त्ती स्थिति को जाना जाता है ज्यामिति के नज़रिए से आवर्त्ती लैटिस में चक्रीय समरूपता होती है, जो विवर्तित तरंगों की दशाओं में भी दिखती है चक्रीय समरूपता का मतलब है की एक निर्धारित अक्ष पर 360/2=180 , 360/3=120, 360/4=90 या 360/6=60 डिग्री घूमने पर भी लैटिस की संरचना एक जैसी दिखती है इसे क्रमश: 2 गुनी ,3 गुनी, 4 गुनी या  गुनी चक्रीय समरूप कहा जाता है शेख़्तमान ने पाया कि अल्युमिनियम - मैंगनीज़ मिश्रधातु पदार्थ में 10 गुनी चक्रीय समरूपता है शेख्त्मान पदार्थ की आणविक संरचना देखने वाले यन्त्र इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप के उपयोग में दक्ष थे वे साल भर की छुट्टी लेकर अमरीका के वाशिंगटन शहर स्थित राष्ट्रीय मानक ब्यूरो (अब राष्ट्रीय मानक और तकनीक संस्थान ) में काम करने आये थे वे वहां अल्युमिनियम - मैंगनीज़ मिश्रधातु के सूक्ष्म फीतों की संरचना पर काम कर रहे थे बाद में अपने सहकर्मियों की सहायता से शेख्त्मान ने अपने अवलोकनों की व्याख्या के लिए उपयुक्त माडल बनाए, जिनमें पेनरोज़ के गणितीय सिद्धान्तों का भी समावेश हैहालांकि शेख्त्मान को पहले से पेनरोज़ के काम के बारे में कुछ पता न था
पेनरोज़ ने अणुओं को नहीं, बल्कि टाइलों (पटिया या खपरे) को सजाने पर काम किया था सामान्यतः पेनरोज़ के बनाए नक्शों को पेनरोज़ टाइलिंग कहा जाता है टाइलों को भी क्रिस्टल के परमाणुओं की तरह आवर्त्ती ढंग से सजाया जा सकता है एक सामान्य उदाहरण के लिए एक जैसे वर्गाकार टाइलों को जोडती सजावट की कल्पना कर सकते हैं
पेनरोज़ ने दिखलाया कि मात्र दो तरह की टाइलों - दो समचतुर्भुजाकार (rhombus) किस्म की टाइलों से ऐसा नक्शा बनाया जा सकता है जिसमें कोई आवर्ती गुण नहीं होगा, पर अनंत दूरी तक वे एक दूसरे के साथ जुड़ते चले जा सकते हैं स्थानीय स्तर पर समरूपता दिखती है, जैसे पंचशीर्षक तारकों जैसे स्थानीय एकरूप अकार दो भिन्न समचतुर्भुजीय टाइलों को जोड़कर बनाए नक़्शे में पाए जाते हैं (यहाँ पांच गुनी चक्रीय समरूपता है ) ब्रिटिश क्रिस्टल विशेषज्ञ ऐलेन मैके ने पेनरोज़ टाइलिंग और सघन (मुख्यतः ठोस) पदार्थों में क्वासी - क्रिस्टल संरचना की धारणा में सम्बन्ध स्थापित किया था इसके लिए 1982 में उन्होंने एक द्विआयामी ठोस की कल्पना की थी , जहां हर एक परमाणु को पेनरोज़ टाइलिंग के शीर्षबिंदु पर रखा ऐसे नक़्शे को दोहराते हुए उन्होंने एक संरचना बनायी, जिसमें प्रकाश के विवर्तन से दस गुनी चक्रीय समरूपता पाई जा सकती है । 
क्वासी - क्रिस्टल मिश्रधातुओं के कुछ विशेष गुणधर्म पाए गए हैं हालांकि वे आसानी से टूट सकते हैं, पर वे इस्पात से भी ज्यादा सख्त होते हैं (यानी उनकी पत्तियां आसानी से तोड़ी जा सकती हैं, पर उन्हें आसानी से मरोड़ा नहीं जा सकता या वे जल्दी पिघलते नहीं हैं) ब्लेड या शल्य-चिकित्सा में काम आने वाले औजारों में ऐसे मिश्रधातुओं का इस्तेमाल किया जाता है इनपर आसानी से कोई चीज़ चिपकती नहीं है, जिसकी वजह से टर्बाइन आदि में इनका उपयोग उपरी सतह को ढंकने के लिए किया जाता है । 
वैज्ञानिक अनुसंधान का फायदा देर सबेर अंततः टेक्नोलोजी में दिखता है, पर एक वैज्ञानिक अपना काम करते हुए यह सवाल पूछे कि उसके काम से व्यापक मानव समाज को क्या फायदा होने वाला है, यह ज़रूरी नहीं है यह विज्ञान-कर्म की सीमा है, पर मूलतः वैज्ञानिक शोध प्रकृति के रहस्यों को अनावृत्त करने के लिए ही होता है । 
क्वासी-क्रिस्टल के आविष्कार से भी मूलतः ठोस पदार्थों की संरचना के बारे में ही पहले से अधिक जानकारी मिली है

Tuesday, July 24, 2012

सीरीज़ का पहला आलेखः लगातार फैलता ब्रह्मांड




'समकालीन जनमत' में पिछले कुछ महीनों से नियमित रूप से विज्ञान के आलेख लिख रहा हूँ। जून अंक में प्रकाशित आलेख को पिछले चिट्ठे में डाला था। यहाँ इस सीरीज़ का पहला आलेख (जनमत के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित) पेस्ट कर रहा हूँः



लगातार फैलता ब्रह्मांड
- लाल्टू

समाज विज्ञान में विरला ही कोई सैद्धांतिक काम ऐसा होता है, जिसका सरोकार विज्ञान की आलोचना से न हो। अक्सर विज्ञान के बारे में सीमित समझ के साथ ही आलोचक बहुत सारी बातें कह जाते हैं। वैसे भी वैज्ञानिक शोध और उससे निकली जानकारी को समझ पाना विज्ञान की औपचारिक शिक्षा के बिना कठिन है। प्राकृतिक घटनाओं को समझ कर उनको संचालित करने वाले नियमों को जान लेने की अदम्य इच्छा मानव की बुनियादी प्रवृत्ति है। आधुनिक विज्ञान (या जो पश्चिम से आया है) की आलोचना का मुख्य बिंदु यही होता है कि मानव की इस जीवनोन्मुखी आध्यात्मिक या मूलतः सौंदर्य परक प्रवृत्ति को एक हिंसक प्रवृत्ति बनाने का काम आधुनिक विज्ञान ने किया है। यह बात सही है या नहीं, इसे फिलहाल छोड़ दें और समकालीन वैज्ञानिक शोध की दशा-दिशा पर कुछ जानने की कोशिश करें। एक सामाजिक-राजनैतिक-साहित्यिक मुद्दों पर केंद्रित पत्रिका में विज्ञान संबंधित सामग्री कैसी हो, एक नियमित स्तंभ की शुरुआत करते हुए यह सवाल मन में आना स्वाभाविक है। चलिए पिछले साल नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भौतिक-विज्ञानियों के काम से ही शुरू करें। नोबेल पुरस्कारों को लेकर विवाद तो चलते रहते हैं, पर विज्ञान की विधाओं में जिन्हें यह पुरस्कार मिलता है, उनके काम के स्तर और आने वाले समय में वैज्ञानिक शोध पर उसके प्रभाव के बारे में आम तौर पर कोई शंका नहीं होती है।

जब से मानव अस्तित्व में आया है, ब्रह्मांड और अंतरिक्ष के बारे में उसके मन में सवाल उठते रहे हैं। सृष्टि क्या है और कहाँ से आई है, आगे कहाँ जा रही है, ऐसे सवालों के जवाब ढूँढता मानव कभी मन ही मन, कभी क्रमबद्ध तरीके से सृष्टि का खाका या माडल बनाता रहा है। माडल बनाने की यह प्रक्रिया विज्ञान-कर्म का अहम हिस्सा है। अब यह बात मान ली गई है कि सृष्टि की शुरूआत एक बड़े धमाके (बिग बैंग) से हुई, जिसके बाद से ब्रह्मांड लगातार फैलता जा रहा है। करीब 13.7 अरब सालों पहले ब्रह्मांड बहुत ही घना और कल्पनातीत तापमान की गर्मी लिए हुए था। धमाका हुआ तो जैसे एक गुब्बारे को फैलाने पर उस पर का हर बिंदु आकार में फैलता है, वैसे ही ब्रह्मांड का प्रसार शुरू हुआ। इस तरह के माडल के पीछे हजारों लोगों द्वारा कई कई वर्षों तक किया गया कठिन श्रम होता है। क्रमबद्ध तरीके से अवलोकन लिए जाते हैं, उनका विश्लेषण किया जाता है और स्तरीय पत्रिकाओं में आँकड़ों के साथ निष्कर्ष प्रकाशित किए जाते हैं। न केवल माडल के सफल बिंदुओं पर सामुदायिक बहस होती है, उसकी सीमाओं को भी परखा-निरखा जाता है।

बड़े धमाके के बाद से प्रकाश सभी दिशाओं में चलता चला है। जहाँ जहाँ तक प्रकाश गया है, कम से कम वहाँ तक की जानकारी यह है कि हर दिशा में ब्रह्मांड का स्वरूप एक जैसा है। ऐसा क्यों? इसका जवाब ब्रह्मांड के प्रसार में निहित है। एक बिंदु समान छोटे आकार से शुरू हुआ यह प्रसार स्वतः दिगंत तक होता चला है। ऐसा नहीं कि सूक्ष्म स्तर पर ब्रह्मांड में कोई विविधता नहीं। विकिरण और पदार्थ दोनों के ही घनत्व में शुरू से ही घट-बढ़ होती रही है। इसी घट-बढ़ के नतीज़तन नक्षत्रमंडल बने।

लगातार फैलते ब्रह्मांड का इतिहास जानने के लिए ज्योतिर्विज्ञानी एक मानक बत्ती की कल्पना करते हैं। इस बत्ती की चमक हर दिशा में एक जैसी है। इसकी चमक की तीव्रता से हमें इसकी दूरी का पता चलता है और इससे आ रही प्रकाश तरंगों की तरंग-दैर्घ्य में हो रही कमी से इसकी गति का पता चलता है। इस तरह मानक बत्ती के लगातार निरीक्षण से ब्रह्मांड के इतिहास का पता चलता है। इसकी चमक का हम तक पहुँचना और चारों ओर एक ही जैसा तीव्र होना ज़रूरी है, ताकि ब्रह्मांड के बारे में सामान्य निष्कर्ष निकाले जा सकें।

1980 के बाद के वर्षों में टाइप वन ए (Type Ia) सुपरनोवा को ऐसी एक मानक बत्ती चिह्नित किया गया।

नक्षत्रों में कुछ कारणों से होने वाले विशेष नाभिकीय विस्फोरणों को 'नोवा' कहते हैं। सुपरनोवा नाम से ही पता चलता है कि यह अतिकाय विस्फोटों से होता है। इसकी चमक नक्षत्रमंडलों के सभी तारों से अधिक होती है और कई हफ्तों तक बनी रहती है। इसके बनने की प्रक्रिया ऐसी है कि चमक हर दिशा में एक जैसी होती है। टाइप वन ए सुपरनोवा ऐसे युग्म (binary) नक्षत्रों से बनता है, जिनमें से एक श्वेत वामन (white dwarf) कहलाता है। श्वेत वामन की सतह पर अधिक से अधिक संख्या में हाइड्रोज़न परमाणु इकट्ठे होते रहते हैं। जब हाइड्रोज़न परमाणुओं की संख्या चंद्रशेखर सीमा नामक राशि से अधिक हो जाती है, तो श्वेत वामन अपने ही वजन तले नाभिकीय विस्फोटों से खत्म होकर सुपरनोवा बन जाता है। किसी एक नक्षत्रमंडल में ऐसे युग्म नक्षत्रों का सुपरनोवा में बदलना एक हजार साल में औसतन एक बार ही हो पाता है। पर खुले आकाश में नक्षत्रमंडलों की संख्या इतनी ज्यादा है कि हर दो चार पलों में सुपरनोवा देखे जा सकते हैं।

टाइप वन ए सुपरनोवा की पहचान करना, उससे आ रहे प्रकाश (विद्युतचुंबकीय तरंगों) को लगातार देखते रहना और अवलोकनों का विश्लेषण करना - यह सब कई वर्षों का कठिन काम है। यू एस ए की लारेंस बर्कली प्रयोगशाला के सॉल पर्लमुटर के नेतृत्व में ज्योतिर्विज्ञानियों के एक दल ने तीन दशकों तक लगातार इस तरह शोध कर 1998 में अपने निष्कर्ष प्रकाशित किए। साथ ही स्वतंत्र रूप से अमरीका के ही जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के ऐडम रीस और आस्ट्रेलिया के कैनबरा स्थित राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के ब्रायन श्मिट ने भी ऐसे ही निष्कर्ष निकाले। उनका काम भी 1998 में ही प्रकाशित हुआ। इन तीनों को ब्रह्मांड में हो रहे प्रसार में निरंतर त्वरण के आविष्कार के लिए वर्ष 2011 का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। उनकी खोज से महाविश्व के बारे में पिछले चार दशकों से प्रचलित सैद्धांतिक माडल की पुष्टि हुई है।

ब्रह्मांड के प्रसार में त्वरण का कारण डार्क एनर्जी या अँधेरी ऊर्जा को माना जाता है। ब्रह्मांड का तीन चौथाई हिस्सा इसी तमसीय ऊर्जा से भरा है। करीब पाँचवाँ हिस्सा अँधेरा पदार्थ कहलाता है। बाकी हिस्से का अधिकांश नक्षत्रमंडलों के बीच की गैसों का है। आधे प्रतिशत से भी कम मात्रा नक्षत्रों आदि की है। यह जानकारी इंसान को अपनी क्षुद्रता जानने के लिए काफी होनी चाहिए बशर्ते कि वह अपनी खासियत को भी समझता हो, जो उसे हर दूसरे इंसान के बराबर खड़ा करती है - एक ही जैसी वैज्ञानिक जिज्ञासा से संपन्न प्राणी मात्र।

अँधेरी ऊर्जा का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं है। इसके होने के क्या परिणाम हैं, यह समझ भी अधूरी है। पर इसका होना निश्चित है। 2011 के नोबेल विजेताओं के काम से यही निश्चित हुआ है। इन तीनों वैज्ञानिकों और उनके सहयोगियों ने अलग अलग स्रोतों से प्रमाण इकट्ठे किए। सुपरनोवा को विश्वसनीय तौर पर पहचानना, विशाल आकृतियों, नक्षत्रमंडलों के समूहों और खगोलीय पृष्ठभूमि में निरंतर मौजूद माइक्रोवेव विकिरण (cosmic radiation) जैसे प्रमाणों का गहन अध्ययन किया गया।

पहले यह माना जाता था कि अंतरिक्ष में मौजूद ग्रह तारे परस्पर आकर्षण विकर्षण से एक दूसरे से दूर जा रहे हैं। पर 1990 के बाद से अंतरिक्ष के बारे में जो मानक माडल बना है, इसके अनुसार सभी नक्षत्रमंडल त्वरित गति से (हालांकि पहले की अनुमानित गति की अपेक्षा धीमी गति से) एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। यह त्वरण ऐसे होता है, मानो अंतरिक्ष का शून्य ही इसे पैदा करता है। यानी अंतरिक्ष के तीन चौथाई हिस्से में मौजूद अँधेरी ऊर्जा ही नक्षत्रमंडलों को धकेल रही है। कम से कम पिछले 10 अरब वर्षों से यह तमसीय ऊर्जा इसी तरह मौजूद है। अगर ऐसा नहीं होता तो अब तक सारा पदार्थ नक्षत्रमंडलों में घनीभूत हो गया होता।

अगर आगे भी (यानी आगामी अरबों वर्षों तक) अँधेरी ऊर्जा ऐसे ही रही तो ब्रह्मांड क्रमशः फैलता ही रहेगा। पदार्थ का घनत्व कम होता ही जाएगा। यानी फिर से एक सृष्टि की शुरूआत हो पाना असंभव ही लगता है।

निरंतर प्रसारित हो रहे ब्रह्मांड पर वैज्ञानिक शोध का इतिहास बहुत पुराना है। ऐल्बर्ट आइंस्टाइन से लेकर अब तक हजारों वैज्ञानिक इससे जुड़े हैं, जिनमें कई भारतीय वैज्ञानिक भी हैं। अभी जिस माडल को व्यापक मान्यता मिली हुई है, उसे लैंबडा सी डी एम ( ΛCDM ) कहा जाता है। 'लैंबडा ( Λ)' ग्रीक भाषा का अक्षर है और इस माडल में एक नियतांक के लिए इसका इस्तेमाल होता है। सबसे पहले आइंस्टाइन ने इसका इस्तेमाल एक स्थिर ब्रह्मांड की प्रस्तावना करते हुए किया था। बाद में (1998 में सिद्ध) प्रसार में त्वरण के आविष्कार के साथ इसकी पुनर्व्याख्या हुई है। सी डी एम - अंग्रेज़ी के ये तीन अक्षर कोल्ड (शीतल), डार्क (अँधेरा) और मैटर (पदार्थ) के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

ΛCDM माडल शुरूआती बड़े धमाके के बाद सृष्टि के विकास की अब तक की सबसे संतोषजनक व्याख्या पेश करता है। इस माडल में परमाणुओं और हल्के वजन के तत्वों का बनना, पृष्ठभूमि में खगोलीय विकिरण, छोटी-छोटी (सूक्ष्म) से लेकर बड़ी संरचनाओं का उद्भव – ये सारी बातें काफी हद तक स्पष्ट समझ आती हैं। 'लैंबडा' की भूमिका डार्क मैटर या अँधेरे पदार्थ को समझने में आती है। यह अँधेरा पदार्थ शीतल है यानी अन्य पदार्थ की तुलना में बहुत ही कम गति से चलमान है।

बुनियादी वैज्ञानिक शोध में हर बात ऐसी नहीं होती, जिसे तुरंत मानव के उपयोग में लगाया जा सके। उसके फायदे दूरगामी होते हैं। एक ऐसे समय में, जब वैज्ञानिक सोच दरकिनार दिखती है (हालांकि आलोचकों का शोर इसके विपरीत होता है), मानव की इस बेहतरीन प्रवृत्ति को जगह देना एक राजनैतिक काम बन जाता है। आज न केवल दकियानूसी ताकतें विज्ञान के खिलाफ सक्रिय हैं, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने हितों के लिए वैज्ञानिक तथ्यों को सामने ला रहे वैज्ञानिकों के खिलाफ आक्रामक रूप से सरगर्म हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम विज्ञान-कर्म को सतही तौर पर नहीं, जहाँ तक बन पड़े, गहराई तक जाकर जानने की कोशिश करें। जैसा आइंस्टाइन ने कहा था - वास्तव जगत को जानने में विज्ञान महज बचकानी हरकत सा लगता है, पर यही हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी है।

Sunday, July 01, 2012

मशीनी दिमाग का विज्ञान

अंग्रेज़ी में विज्ञान पढ़ाना, शोध पर्चे लिखना, यह मेरा पेशा है। इसलिए हिंदी में विज्ञान लेखन की ज़रूरत का अहसास होते हुए भी लिखने का मन नहीं करता। वैसे भी टाइप करने में जान निकल जाती है। फिर भी अक्सर लिख ही लेता हूँ। इधर 'समकालीन जनमत' में पिछले कुछ महीनों से नियमित लिख रहा हूँ। जून अंक में जो आलेख आया उसमें मुद्रण की कई गलतियाँ हैं। मैं यूनिकोड इनपुट और लोहित हिंदी में टाइप करता हूँ। भेजते हुए पी डी एफ फाइल के अलावा जीमेल में पेस्ट भी कर देता हूँ। फिर भी फोंट बदलते हुए अक्सर गलतियाँ रह जाती हैं। बहरहाल, वह आलेख यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ ताकि अगर किसी ने पढ़ा हो और त्रुटिओं की वजह से बातें समझ न आई हों तो अब सही सही पढ़ लें।



मशीनी दिमाग का विज्ञान
                            

वैज्ञानिकों के बारे में आम धारणा है कि सृष्टि की शुरूआत जैसे धमाकेदार विषयों या चमत्कारी नई दवाओं आदि पर वे शोध करते रहते हैं। पर सचमुच ज्यादातर वैज्ञानिक शोध निहायत ही सामान्य से सवालों पर केंद्रित होता है, जो कभी कभी बहुत महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों या उपयोगी यंत्रों को बनाने में सहायक सिद्ध होता है। हमारे चारों ओर दुनिया तेज़ी से बदल रही है। यह बदलाव किसी धमाके के साथ नहीं (विज्ञापन कंपनियों के शोर के अलावा) हो रहा। देखते ही देखते हमारे जीवन में तकनीकी साधनों की भरमार हो गई है। देश में मोबाइल फोन की तादाद शौचालयों की तादाद से ज्यादा हो गई है। यह राजनैतिक सच है। दूसरी ओर सूचना क्रांति और सामाजिक मीडिया के साथ तहरीर चौक जैसी ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों का हश्र क्या होगा, यह राजनैतिक बात है। पर सही ग़लत जैसा भी है, हर तरह की टेक्नोलोजी का जन्म वैज्ञानिक शोध से ही होता है। मसलन आई टी (इनफॉर्मेशन टेक्नोलोजी) - या सूचना प्रौद्योगिकी में कोई भी बड़ी बात ऐसी नहीं हुई है, जिसका संबंध बुनियादी वैज्ञानिक सवालों के साथ न हो। चाहे वह ई-मेल हो, इंटरनेट हो, हर ऐसी बात वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक शोध की ज़रूरतों से पैदा हुई है।

इस आलेख में हम सूचना की कारीगरी के विज्ञान पर चर्चा करेंगे। एक तरह से सूचना की प्रोसेसिंग ही जीवन को परिभाषित करता है। हर क्षण हम नया कुछ देख और सीख रहे हैं। जो भी सूचना हमारे पास है, हमारी हर क्रिया-प्रक्रिया उस पर आधारित है। सूक्ष्म से स्थूल, हर स्तर पर यह खेल चल रहा है। जब हम इसी खेल को मशीन की मदद से करते हैं, उसे हम सूचना प्रौद्योगिकी कहते हैं। आज की सूचना प्रौद्योगिकी की बुनियाद सिलिकॉन के अर्द्धचालक गुणधर्म में है। सिलिकॉन में अल्प मात्रा में आर्सेनिक या गैलियम डालकर क्रमशः n-टाइप और p-टाइप अर्द्धचालक बनाए जाते हैं। अगर इनको एक साथ जोड़ा जाए और एक छोर से दूसरे छोर तक विद्युत प्रवाहित की जाए तो दोनों छोरों के बीच वोल्टेज बदलने के साथ नीचे दिखलाए चित्र 1की तरह करेंट (विद्युत प्रवाह) में बदलाव होगा। इसमें विशेष बात यह है कि एक दिशा में (चित्र में दायीं ओर फारवर्ड दिशा) वोल्टेज बढ़ाने पर करेंट बढ़ता जाय़गा पर दूसरी दिशा (रीवर्स) में वोल्टेज बढ़ाने पर तब तक करेंट में नहीं के बराबर बढ़त होगी, जब तक कि वोल्टेज बहुत बढ़कर एक नियत मान से अधिक न हो जाए। यानी यह एक स्विच की तरह है - एक ओर तो करेंट चलेगा, दूसरी ओर (कम वोल्टेज पर ) करेंट नहीं चलेगा। इसे गणना या किसी भी तरह की सूचना पर काम के लिए बाइनरी (binary) या द्विक पद्धति की इकाई की तरह काम में लिया जाता है।
(चित्र 1)

एक खेल की तरह इसे समझ सकते हैं। आप सवाल करें और हम हाँ या ना में उसका जवाब देंगे। या बाँया या दाँया हाथ उठाकर जवाब देंगे। यानी फारवर्ड या रीवर्स वोल्टेज लगाकर करेंट के बहने या न बहने से हम सूचना की प्रोसेसिंग या प्रसरण कर सकते हैं। यह सूचना की सबसे छोटी इकाई है। इस तरह से n-टाइप और p-टाइप अर्द्धचालकों को जोड़कर जो यंत्र बनता है, उसे डायोड कहते हैं। इसी डायोड की अगली कड़ी ट्रांज़िस्टर (transistor) है, जिसमें p-n-p तीन छोर होते हैं। सभी आधुनिक इलेक्ट्रानिक यंत्रों में ट्रांज़िस्टर का इस्तेमाल एक बुनियादी इकाई की तरह होता है। पचास साल पहले एक जमाना था जब ट्रांज़िस्टर के आविष्कार को क्रांतिकारी माना जाता था। पुराने किस्म के रेडियो की जगह ट्रांज़िस्टर सेट ने ले ली, जिसमें डायोड की जगह कुछेक ट्रांज़िस्टर इस्तेमाल में लिए गए थे और घर घर तक यह पहुँचने लगा। इसे चलाने के लिए बहुत कम ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है और सेट बैटरी से भी चलाया जा सकता था। इन्हीं ट्रांज़िस्टरों से आधुनिक कंप्यूटर बने। आज जो डेस्कटॉप कंप्यूटर आम दफ्तरों में इस्तेमाल में आता है, इससे बहुत कम क्षमता का पहला इलेक्ट्रानिक कंप्यूटर एनीयाक (ENIAC - इलेक्ट्रानिक न्यूमेरिकल इंटीग्रेटर ऐंड कंप्यूटर) आकार में आज के डेस्कटॉप से सौगुना से भी बड़ा था। उसे रखने के लिए बड़े कमरे की ज़रूरत पड़ती थी। यह बस साठ साल ही पहले की बात है।
(चित्र 2)
ऊपर चित्र 2 में यह दिखलाया गया है कि एनीयाक से भी काफी पहले जो कंप्यूटर होते थे, उनमें पुराने किस्म के गीयरों (gears) का इस्तेमाल कर ( चित्र में बायीं ओर) कुछेक सवाल हल किए जाते थे, फिर एनीयाक में ट्रांज़िस्टर आए; अब एनीयाक के कुछेक ट्रांज़िस्टर्स की जगह आज अरबों ट्रांज़िस्टर्स (चित्र में दायीं ओर) से बने चिप (IC या integrated chip) ने ले ली है। अठन्नी से भी बहुत छोटा यह चिप कल्पना से भी अधिक मात्रा में सूचना की कल्पनातीत द्रुत गति से प्रोसेसिंग की क्षमता रखता है। जाहिर है कि अगर इतने छोटे चिप में अरबों ट्रांज़िस्टर्स हैं तो एक ट्रांज़िस्टर का आकार तो बहुत ही छोटा होगा। आज के नव्यतम डेस्कटॉप में जो ट्रांज़िस्टर काम में लाया जाता है, उसकी लंबाई 20 नैनोमीटर (nm) है। एक मीटर में एक अरब नैनोमीटर होते हैं। पिछले पचास सालों में ट्रांज़िस्टर के आकार में कमी और सूचना के प्रोसेसिंग की गति में बढ़त – यह तकरीबन हर दो साल दुगुनी रफ्तार से हुई है। इसे मूर का नियम कहते हैं। चिप बनानेवाली प्रमुख कंपनी इंटेल का दावा है कि वह नीचे दिखाए रोडमैप (चित्र 3) पर चल रही हैः
(चित्र 3)

शुरूआत में कंप्यूटर में सूचना स्टोर कर यानी संचित कर नहीं रखी जा सकती थी। बाद में जब यह भी संभव हुआ तो जैसे जैसे ट्रांज़िस्टर छोटे होते गए, उतनी ही अधिक स्टोरेज की क्षमता भी बढ़ती गई। साथ ही प्रोसेसिंग की गति भी बढ़ती गई। प्रोसेसिंग का मतलब समझने के लिए हम एक उदाहरण ले सकते हैं। जैसे 4 और 5 का गुणनफल निकालना है। हमारे पास दो संख्याएँ हैं। इनको बदलकर हमें एक और संख्या (4 X 5=)20 बनाना है। यानी एक दी हुई सूचना को बदलकर एक और नई सूचना बनानी है। दशमलव प्रणाली में स्थानीय मान 10 के घात से तय होता है। द्विक प्रणाली में स्थानीय मान 2 के घात से तय होगा। इसे लिखेंगेः 00100 X 00101 = 10100. [22X(22+20)=24+22]. यहाँ 0 और 1 को इलेक्ट्रॉनिक मशीन में नियत मान के करेंट का बहना या उससे कम करेंट का बहना से दिखलाएँगे। या वोल्टेज के नियत मान (जैसे 5 मिली वोल्ट) से कम या ज्यादा।

द्विक प्रणाली में सबसे कम मान के स्थान (20) से जो न्यूनतम सूचना मिलती है (0 या 1 – हाँ या ना), उसे 1 बिट कहते हैँ। अधिक सूचना के लिए बिटों की संख्या अधिक चाहिए – जैसे (4 X 5=)20 के लिए कम से कम पाँच बिट (24, 23 , 22 , 21, 20) चाहिए। ऐसे आठ बिटों से 1 बाइट बनता है। जाहिर है कि जैसे जैसे सूचना की मात्रा और जटिलता बढ़ती जाएगी, कुल बाइटों की संख्या भी बढ़ानी पड़ेगी। समकालीन जनमत के किसी अंक में एक पन्ने पर जो सूचना है, अगर हम केवल पाठ (टेक्स्ट) मात्र को लें, तो वह तकरीबन 10 -20 किलो बाइट यानी 10000-20000 बाइट के बराबर है। 1 किलो बाइट 1024 बाइट के बराबर होता है। तस्वीरों के लिए और ज्यादा बाइट चाहिए – रंगीन हो तो और भी ज्यादा। इस तरह पूरे एक अंक के लिए तकरीबन 1-10 मेगा बाइट चाहिए. (1 मेगा बाइट (MB) =1024 किलो बाइट (kB) ; 1 गिगा बाइट(GB) =1024 मेगा बाइट ; 1 टेरा बाइट (TB) = 1024 गिगा बाइट)। आज के डेस्कटाप में 1 टेरा बाइट तक सूचना जमा की जा सकती है। श्रव्य (ऑडियो) या दृश्य (वीडियो) सूचना के लिए सामान्य पाठ से काफी ज्यादा बाइट्स चाहिए। जमा सूचना एक तरह की स्मृति है, इसलिए इसे हम मेमरी (अंग्रेज़ी में) कहते हैं। कंप्यूटर में जिस तरीके से सूचना जमा होती है, उस पर विस्तार से यहाँ चर्चा नहीं करेंगे, पर यह अब आम बोली में आ गया है कि सूचना को एक डिस्क (चकती) में जमा रखा जा सकता है - इसे ही हार्ड डिस्क कहते हैं। आजकल मेमरी कहने का मतलब रैंडम ऐक्सेस मेमरी (RAM) से होता है, जिसका इस्तेमाल द्रुत गति से सूचना की प्रोसेसिंग के लिए होता है। डेस्कटाप में सामान्यतः 4 GB तक का RAM कार्ड मिलता है।
ट्रांज़िस्टर के छोटे होते रहने की सीमाएँ हैं। 20 nm की लंबाई में 200 से भी कम हाइड्रोज़न परमाणु लाइन में खड़े किए जा सकते हैं। यानी कि छोटे होते होते ट्रांज़िस्टर अणुओं के स्तर तक पहुँच गए हैं। ऐसी स्थिति में अर्द्धचालकों की भौतिकी बदल जाएगी यानी कि जो नियम इससे बड़े अर्द्धचालकों के लिए लागू होते थे, अब वे लागू नहीं होंगे। एक समस्या यह भी है कि सूचना के प्रोसेसिंग की प्रक्रिया में जो बिजली इधर उधर होती है, उससे बहुत सारा ताप निकलता है, और अगर यह सारा ताप एक सूक्ष्म आकार के प्रोसेसर पर केंद्रित रह गया तो वह जल जाएगा। तो क्या मूर का नियम अब लागू नहीं होगा?
इस सवाल का जवाब हाँ है अगर हम सिलिकॉन आधारित ट्रांज़िस्टरों से ही कंप्यूटर बनाना चाहें। पर कंप्यूटर सिलिकॉन और अर्द्धचालक की भौतिकी के बारे में हमारी समझ बनने के पहले से मौजूद हैं। पहले कंप्यूटर सिर्फ 'कंप्यूट' यानी गणनाएँ करते थे। यह पिछले पचास सालों में ही संभव हुआ है कि केवल गणितीय नहीं, हर तरह की सूचना (टेक्स्ट या पाठ, आडियो या श्रव्य, और वीडियो या दृश्य) की प्रोसेसिंग के लिए कंप्यूटर का इस्तेमाल होने लगा है। सिलिकॉन आधारित अर्द्धचालक की भौतिकी की सीमा है कि हम नैनोमीटर पैमाने पर सूचना की प्रोसेसिंग नहीं कर सकते। इस सीमा से आगे बढ़ने का एक तरीका है कि हम एक साथ कई प्रोसेसर्स को काम में लाएँ। जैसे सवाल करते हुए हम अक्सर हाशिए पर कुछ लिखते हैं, जिस पर अलग से काम किया जाता है, उसी तरह हम एक ही 'टास्क' या काम को अलग अलग टुकड़ों में बाँटकर हर टुकड़े के लिए अलग प्रोसेसर का इस्तेमाल कर सकते हैं।
इसे पैरेलल या समांतर प्रोसेसिंग कहते हैं। आजकल के डेस्कटाप में आम तौर पर एक से ज्यादा प्रोसेसर होते हैं। इसलिए इन्हें डुअल कोर (दो प्रोसेसर) या क्वाड कोर (चार प्रोसेसर) कहते हैं। और भी कई तरीके हैं, पर इन सबकी सीमाएँ हैं। तो आखिर प्रोसेसिंग की गति बढ़ाने का उपाय क्या है? इसके लिए हमें नया विज्ञान ढूँढना पड़ेगा। ऐसी संभावनाएँ डी एन ए कंप्यूटिंग और क्वांटम कंप्यूटिंग में हैं। इस पर अगले अंक में चर्चा करेंगे।