Wednesday, April 22, 2015

जो तूने दिया गायब नहीं हो सकता


धरती सीरीज़ की और कविताएँ - 

3. उन मुहल्लों में

चलो उन मुहल्लों में घूम आएँ
वहाँ कोई नहीं सो रहा

वहाँ बादलों में बारूद की गंध है
बारिश की बूँदें मर रहीं हैं जहर में घुल कर

यहाँ इंतज़ार में क्यों बैठे हो
चलो उन मुहल्लों में देख आएँ
कैसे अपने ही खून से नहा सकते हैं
परस्पर गला घोंट कर गा सकते हैं
हाल-चाल अपनी लाशों से पूछ सकते हैं

यहाँ मुहल्ला शांत है
किसको खबर कि

लग सकती है आग यहाँ भी भीगी घास पर
हवाएँ साँय-साँय सुना सकती हैं बच्चों की आखिरी साँसें

इसके पहले कि दस्तक सुनाई पड़े
इसके पहले कि प्यार का आखिरी लफ्ज़ होने चले ज़मींदोज़
चलो उन मुहल्लों में घूम आएँ।

4. नहीं मानता

मैं नहीं मानता कि
तेरे आखिरी लम्हों को जी रहा हूँ

किसी के कहने से
अब तक जो तूने दिया
गायब नहीं हो सकता
बचपन के ऐसे गीले दिनों में फुटबॉल खेलते गिर गिर कर
मिट्टी से जो रँगा शरीर
अँधेरे में आज भी देखता हूँ चाँद-तारों के करीब

अनगिन रातों में सुनी पुकार से जो लिया
किसी के कहने से
गायब नहीं हो सकता

कितने हमलों में कितनी बार जलाएँगे
मैं नहीं मानता कि
कोई भी छीन सकता है

मेरी चाहत कि मैं हर शिशु को जी भर चूमूँ
हर स्त्री से प्यार करूँ

तुझे कोई मुझसे छीन नहीं सकता।
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पिछले साल अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच की ओर से आयोजित शिक्षा संघर्ष यात्रा का महापड़ाव 3-4 दिसंबर में भोपाल में हुआ था। अरसे बाद जुलूस में नारे लगाने और शाम को सास्कृतिक मंच का संयोजन करने में मज़ा आया था। अब उसका दृश्य-दस्तावेजीकरण चल रहा है। इसी सिलसिले में पूना गया था और अगली चार मई को फिर जाना है। साहित्य से जुड़े साथी मिल सकें तो खुशी होगी। 

Monday, April 20, 2015

कम सही ताकत भर उठाओ मुट्ठियाँ


आखिर सेमेस्टर के कोर्स खत्म हुए। बस कल एक मानव-मूल्यों वाली क्लास 

बची है। हाँ, विज्ञान के अलावा मानविकी की खुराफातों से अलग यह भी एक 

जिम्मेदारी सर पर है। इस बार सचमुच थक गया हूँ। एक तो अब मूल्यांकन का 

सिलसिला शुरू होगा, जिसमें सबसे दर्दनाक उन टर्म पेपर्स को देखना है,  

जिनमें से कुछ चुराई सामग्री से भरे होंगे। पर इस बार की थकान एक और 

कारण से भी है। इस सेमेस्टर पहली बार मैंने अटेंडेंस न लेने का निर्णय लिया 

था, और नतीज़तन विज्ञान और मानविकी दोनों कोर्स में अधिकतर छात्रों की 

शक्ल नहीं देख पाया। इससे क्लास बेहतर रही, पर अब करें क्या कि 

ईमानदारी का ठेका जो ले रखा है। सोचते ही अवसाद घेर लेता है कि ये जो 

ऊँची जाति, संपन्न वर्गों वाले युवा हैं, जो आपको सोशल मीडिया में हर तरह 

की बहस में उलझा सकते हैं, उनको यह नहीं रास आता कि पढ़ने आए हैं तो 

नियमित क्लास आया करें। पर यह भी कहना होगा कि कुछ हैं जो नियमित 

आते रहे और मन लगाकर सुनते देखते रहे कि मैं क्या कहता दिखलाता हूँ। यह 

सुख है।


बहरहाल मुक्ति तो अभी नहीं मिली, पर इतनी छूट का अहसास तो है कि कुछ 

कविताएँ पोस्ट कर दें। लंबे समय से 'संवेद' पत्रिका में धरती से जुड़ी कुछ 

कविताएँ अटकी पड़ी थीं; जो पिछले साल के अंत में प्रकाशित हो गईं। उन्हीं 

में से पोस्ट कर रहा हूँ। प्रियंकर पालीवाल का कहना है कि इन पर रावींद्रिक 

प्रभाव है। हो ही सकता है, आखिर मैं बंगाल में जन्मा पला हूँ।

1. अधिकार है मेरा

नहीं जाऊँगा तुझे छोड़ कर


तेरी साँझ-बेला में यह मेरा प्रण



वे लाखों बार तुझे तबाह कर लें


साथ मिट कर उतारूँगा ऋण


तेरी ऊबड़-खाबड़ देह पर जिया


हर कोमल अहसास अपना तुझ से ही लिया



जितना भी किया प्यार है वह तेरा


नहीं जाऊँगा


तेरी गोद में पड़ा तड़पूँगा तेरे साथ

साथ चीखूँगा कि विलुप्त हो गए पाखी सब



कि रसायन जिनको होना था प्राण


जहर बनते चले पहाड़ समंदर देह पर घाव पीप

सहलाता रहूँगा



यह अधिकार है मेरा।




2. तो क्या


बारिश कम हुई है तो क्या

धरती प्रांजल हुई है फिर से


यादें हरी-भरी

प्रीत भरी नदियाँ उमड़ रहीं


हवाएँ विभीषिकाओं की सूचनाएँ हैं तो क्या

आओ


थोड़ा सही बाँट लो प्यार आपस में

सारे कपड़े उतार लो

देह प्रांजल होना चाहती


कम सही ताकत भर उठाओ मुट्ठियाँ

ढँक लो धरती को आस्माँ को

खालिस प्यार से।

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इसी बीच पूना गया था, फिर जाना है 4 मई को। इस बार चार दिन ठहरना है।




Thursday, April 02, 2015

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब

विज्ञान की बात हो तो आशंकाएँ साथ चलती हैं। मैंने चार दिन पहले श्री अणु 
कविता पोस्ट की तो  Pragnya Joshi ने फेबु पर लिखा - 'और उस 
परमाणु के विस्फोट में बिखर जाती लाखों हड्डियां ...'
इसलिए 'भैया ज़िंदाबाद' से ही यह एक और कविता पोस्ट कर रहा हूँ,  
जिसमें आधुनिक सभ्यता पर सवाल है। यह शायद बीस साल पहले 'चकमक' 
में आई थी और दिल्ली से प्रकाशित आठवीं की एक पाठ्य-पुस्तक में भी 
शामिल हुई।

 
मिट्ठू

मिट्ठू अब पेड़ों पर कम

तस्वीरों में अधिक दिखता है

अधकटे पेड़

नंगे पहाड़

सूखी ज़मीन

तस्वीरों के मिट्ठू जैसे बेजान हैं

ये हमेशा ऐसे तो न थे!


जहरीली गैसें

गंदगी सड़कों नालों की

नदियों में रासायनिक विष

आज हर ओर

कहाँ गए जंगल

साफ हवा-पानी

किस सभ्यता में खो गए

मिट्ठू और हमारे सरल जीवन!


मिट्ठू तंग आ गया है

पहाड़ों की नंगी दीवारें
 
बचे-खुचे पेड़

चाहते हैं, हम पूछें

हम सोचें

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब?

Wednesday, April 01, 2015

इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर


 फेबु पर सुस्मिता की टिप्पणी पढ़कर यह पोस्ट:- कमाल कि सुकुमार राय ने औपनिवेशिक दौर 
में यह लिखा था, जबकि हमें लगता है कि यह तो आज की बात है। यह कविता उनके संग्रह  
'आबोल ताबोल' के हिंदी अनुवाद 'अगड़म बगड़म' में संकलित है। 
 इक्कीसी कानून

शिव ठाकुर के अपने देश, 
आईन कानून के कई कलेश।
कोई अगर गिरा फिसलकर,
ले जाए प्यादा उसे पकड़।
काजी करता है न्याय-
 इक्कीस टके दंड लगाए।

शाम वहाँ छः बजने तक 
छींकने का लगता है टिकट
जो छींका टिकट न लेकर,
धम धमा दम, लगा पीठ पर,
कोतवाल नसवार उड़ाए-
 इक्कीस दफे छींक मरवाए।

अगर किसी का हिला भी दाँत
जुर्माना चार टका लग जात
अगर किसी की मूँछ उगी
सौ आने की टैक्स लगी -
पीठ कुरेदे गर्दन दबाए
 इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए।

कोई देखे चलते-फिरते
दाँए-बाँए इधर-उधर 
राजा तक दौड़े तुरत खबर
पल्टन उछलें बाजबर
दोपहर धूप में खूब घमाए
 इक्कीस कड़छी पानी पिलाए।
 
लोग जो भी कविता करते
उनको पिंजड़ों में रखते
पास कान के कई सुरों में
पढ़ें पहाड़ा सौ मुस्टंडे
खाताबही मोदी का लाए
 इक्कीस पन्ने हिसाब करवाए।

वहाँ अचानक रात दोपहर
खर्राटे कोई भरे अगर
जोरों से झट सिर में रगड़
घोल कसैले बेल में गोबर
इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर
 इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।


कैसे कैसे नॉनसेंस!


यह नॉनसेंस कविता “भैया ज़िंदाबाद" से:- एक बार किसी को सुकुमार राय 

की नॉनसेंस कविताओं के बारे में कहा तो वे उत्तेजित होकर बोले - हमारे यहाँ 

कुछ नॉनसेंस नहीं होता। कैसे कैसे नॉनसेंस! एक आजकल स्यापा-

ए-आआपा भी है! दो साल पहले मैंने चंडीगढ़ में व्याख्यान में कहा था कि मैं 

मानता हूँ केजरीवाल बेईमान है। कई टोपीधारी नाराज़ हो गए थे।


कहानी परमाणुनाथ जी की

ज्ञान के प्यासे परमाणुनाथ पहुँचे एक्वाडोर

पुच्छल तारा गिरा वहाँ पर, बड़ा मचा था शोर

किया निरीक्षण परमाणु जी ने मोटी ऐनक चढ़ाए

परमाणुयम तत्व निकाला, नए प्रयोग दिखलाए

सवाल उठा परमाणुयम के परमाणु कहाँ से आए

भौंहें तान परमाणुनाथ तब जोरों से चिल्लाए

ऐसे टेढ़े प्रश्नों पर मैं अम्ल गिरा दूँगा

भून खोपड़ी सबकी मैं भस्म बना दूँगा

वैज्ञानिकों की महासभा ने रखा यह प्रस्ताव

परमाणुनाथ को जल्दी वापस घर भिजवाओ

लौटे वापस परमाणुनाथ हरदा अपने घर

वहाँ बैगन की चटनी पर हैं शोध रहे वे कर।