Sunday, December 11, 2005

महीने भर की छुट्टी

'लाल्टूजी अपना सारा पुराना स्टाक छापे दे रहे हैं नेट पर भी।' - चिट्ठा चर्चा

चिट्ठे में नई कविताएँ इसलिए नहीं डाल सकते कि कहीं प्रकाशन के लिए भेजनी होनी होती हैं।
अधिकतर जो कविताएँ डाली थीं, वे प्रासंगिक थीं और ज्यादातर चिट्ठाकारों के लिए तो नई ही होंगी। पुराने होने का विवरण साथ में देते हैं कि जिसने प्रकाशित किया उनका भी जिक्र होना चाहिए। कुछेक पुरानी कविताएँ पहले से कंप्यूटर पर पड़ी हैं,....

अब महीने भर की छुट्टी ले रहा हूँ। दस दिनों के बाद बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान जाना है, वहाँ ढाई हफ्ते।
जाने से ठीक पहले यहाँ विभाग में एक अंतर्राष्ट्रीय सिंपोज़ियम में भाषण देना है।

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पहली तारीख को हमारे एक साथी के अवकाशनिवृत्त होने पर हमलोगों ने उच्च शिक्षा पर एक गोष्ठी आयोजित की। उसी प्रसंग में बातें जो दिमाग में हैं (भारत को महान बनाने और बताने वालो, कुछ इस पर भी सोचो) -

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

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चार दिन पहले कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ओरिएंटेशन कोर्स में विचार-गोष्ठी का विषय था - अध्यापकों का मूल्यांकन।
मैं जब एम एस सी छात्र था, तो अध्यापकों का मूल्यांकन हमने किया था, जब टी ए (टीचिंग असिस्टेंट) था तो हमारा मूल्यांकन छात्रों ने किया। इसलिए जब यहाँ आया तो स्वाभाविक था कि उसी तरह अपना मूल्यांकन करवाते। पर कुछ शुभ चिंतकों ने रोका। पाँचेक साल के अनुभव के बाद मैंने शुरु कर ही दिया। तकरीबन पंद्रह साल हर कोर्स के अंत में मूल्यांकन करवाने के बाद आखिर पिछले साल बंद कर दिया। कारण - आजकल जो एन आर आई सीट के छात्र आते हैं, उनकी संख्या नियत नहीं होती, इसलिए शिक्षक के लिए औसत छात्र समझ पाना मुश्किल होता जा रहा है। मेरी एक भयंकर समस्या यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसे छात्र आने लगे हैं जिन्होंने हाई स्कूल के बाद गणित नहीं पढ़ी। हाई स्कूल में जो पढ़ा भी वह भूल गए। इसलिए मूल्यांकन का अर्थ ही नहीं रहता।
बहरहाल, मेरा मानना है कि मूल्यांकन न केवल अध्यापक की अपनी बेहतरी के लिए ज़रुरी है, शिक्षक और छात्र के बीच बेहतर और लोकतांत्रिक संबंध बनाने के लिए भी बहुत ज़रुरी है। पर मैं यह भी मानता हूँ कि छात्र भले ही मूल्यांकन के निष्कर्षों पर चर्चा करें, प्रशासन में व्यापक भ्रष्टाचार और गुटबाजियों को देखते हुए मूल्यांकन को प्रशासनिक हथकंडा बनाने के खिलाफ लड़ते रहना ज़रुरी है।

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एक महीने बाद फिर लिखेंगे। सबको नए साल की शुभकामनाएँ।

1 comment:

अनूप शुक्ल said...

लाल्टूजी ,सफाई की कोई जरूरत नहीं थी। हम कविताओं का आनन्द उठा रहे हैं। काम लंबा है लेकिन कुछ कहानियां भी पढ़ायें या लिंक दे दें- अगर नेट पर हों। जहां जा रहे हैं वहां भी कम्प्यूटर
होगा सो लेखन जारी रखें।