Sunday, December 23, 2007

चार कविताएँ: 7 दिसंबर 2007

सुंदर लोग

एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे
हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ

हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने
जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा
रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास
कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम
हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें
पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ

हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके
रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर
कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे
जो हमने उनको दिए हैं
जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ
सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ।

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कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है
कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है
हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है
व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं

साँड़ की नज़रों में
मौत महज कोई घटना है
इसलिए वह दनदनाता आता है
जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं
सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ

इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका

जीवनलाल जी
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।

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दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है

चिंता खाए जा रही है
जो रह गया प्लांक उसकी नियति क्या होगी

अनगिनत समीकरण सापेक्ष निरपेक्ष छूट रहे हैं
उन्मत्त साँड़ चीख रहा कि वह साँड़ नहीं शेर है
किशोर किशोरियाँ आतंकित हैं
प्रेम के लिए अब जगह नहीं
साँड़ के पीछे चले हैं कई साँड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार

आतंकित हैं वे सब जिन्हें जीवन से है प्यार
बार बार पूर्वजों की गलतियों को धो रहे हैं
ड्रेस्डेन के फव्वारों में

दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है।

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ये जो लोग हैं
जो कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं

अत्याचारी राजाओं के दरबारी सुंदर होते हैं
दरबार की शानोशौकत में वे छिपा रखते हैं
जल्लादों को जो इनके सुंदर नकाबों के पीछे होते हैं

धरती पर फैलता है दुःखों का लावा
मौसम लगातार बदलता है
सुंदर लोग मशीनों के पीछे नाचते हैं
अपने दुःखों को छिपाने की कोशिश करते हैं

सड़कों मैदानों में हर ओर दिखता है आदमी
फिर भी सुंदर लोग जानना चाहते हैं कि मनुष्य क्या है
सुंदर नकाब के पीछे छिपे जल्लाद से झल्लाया प्राणी
हर पल बेचैन हर पल उलझा
सच और झूठ की पहेलियाँ बुनता

ये सुंदर लोग हैं
ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं।

                      - (जनसत्ता 2008, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ - वाणी प्रकाशन 2012)

Wednesday, December 12, 2007

गानों का धक्का

गानों का धक्का

गर्मियों में गाने लगे भीष्मलोचन शर्मा -
वाणी उनकी हल्ला बोले दिल्ली से बर्मा!
लगा जान की बाजी गाए, जी जान लगा के गाए,
भागें लोग चारों ओर, भन भनन सिर चकराए।
मर रहे कई जख्मी हो, कई तड़पें हो आहत
चीख रहे, "गई जान, रोको गान फटाफट।"
बंधन तोड़े, भैंसे घोड़े, सड़क किनारे गिरे;
भीष्मलोचन तान ताने, नज़र न उनको पड़े।
उलट चौपाए जन्तु सारे, गिर रहे हो मूर्छित,
टेढ़ी दुम, होश गुम, बोले गुस्से में "धत् छिः।"
जल के प्राणी, हो हैरानी, गहरे डूबे चुपचाप,
वृक्ष वंश, हुए ध्वंस, बेशुमार झपझाप।
खाएँ चक्कर, मारें कुलाटी, हवा में पक्षी सारे,
सभी पुकारें, "बस करो दादा, थामो गाना प्यारे।"
गाने की दहाड़, आस्माँ को फाड़, आँगन में भूकंप,
भीष्मलोचन गाए भीषण, दिल खुशी से हड़कंप।
उस्ताद मिला टक्कर का, इक बकरा हक्का बक्का,
गीत के ताल में पीछे से, मारा सींग से धक्का।
फिर क्या था, एक बात में, पड़ा गान पर डंडा,
"बाप रे", कहकर भीष्मलोचन हो गए बिल्कुल ठंडा।
- मूलः सुकुमार राय (आबोल ताबोल)

Tuesday, December 11, 2007

ये लोग न हों तो मेरा जीना ही संभव न हो।

हड्डियाँ चरमरा रही हैं। कल जबकि औपचारिक रुप से मैं बूढ़ा हो गया, उसी दिन संस्थान को अपना स्पोर्ट्स डे करना था। ज़िंदगी में पहली बार शॉटपुट, रीले रेस और ब्रिस्क वाक रेस में हिस्सा लिया। और जिसका अंदाज़ा था वही हुआ। लैक्टिक अम्ल के अणुओं ने तो जोड़ों में खेल दिखाना था, सारे बदन में बुखार सा आया हुआ है। वैसे कल मानव अधिकार दिवस भी था और कल ही के दिन नोबेल पुरस्कार भी दिए जाते हैं।

मेरी एक मित्र जो हर साल बिला नागा मुझे इस दिन बधाई देती है, जब उसका संदेश नहीं आया तो चिंता हुई कि कुछ हुआ तो नहीं। हमउम्र है। अकेली है। नितांत भली इंसान है, धार्मिक प्रवृत्ति की और सोचकर यकीन नहीं होता, तीन बार तलाक शुदा है। तो संक्षिप्त मेल भेजी -क्या हुआ, कहाँ हो। तुरंत जवाब आया - टेलीपैथी से बधाई भेज तो दी थी।

जानकर अच्छा लगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। अब इस पड़ाव पर आकर यही सहारा होगा। जब भी अवसाद आ घेरेगा, तो खुद को याद दिलाऊँगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। यह अलग बात है कि दिल जो है चोर, हमेशा ही माँगे मोर।

हद यह कि मुझे बिल्कुल याद नहीं रहता कि किसी को कभी बधाई भेजनी है। इससे नुकसान भी बहुत हुआ है। ऐसे लोगों को जिनको अपनी तरक्की के लिए बीच बीच में बधाई भेजते रहना चाहिए, उनको अनचाहे ही दूर कर लिया है।

पर ये लोग भी अजीब हैं। इन्हें कोई फिक्र नहीं कि यह बंदा ऐसा खड़ूस है कि हमें कभी बधाई नहीं भेजेगा। ये लोग न हों तो शायद मेरा जीना ही संभव न हो।

हर साल इस दिन खुद से कहता रहता हूँ अब से सबके नाम और सही दिन डायरी में नोट कर लो, एक दो बार दो एक जनों के किए भी हैं, पर पता नहीं कहाँ गायब हो जाती हैं ऐसी डायरियाँ!

Monday, December 03, 2007

स्ज़ाबो वायदा

हैदराबाद फिल्म क्लब के शो अधिकतर अमीरपेट में सारथी स्टूडिओ में होते हैं। मुझे वहाँ पहुँचने में वक्त लगता है, इसलिए आमतौर पर फिल्में छूट ही जाती हैं। इस महीने किसी तरह तीन फिल्में देखने पहुँच ही गया। इनमें एक हंगरी के विख्यात निर्देशक इस्तवान स्ज़ाबो की '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' थी और दूसरी पोलैंड के उतने ही प्रख्यात निर्देशक आंद्रस्ज़े वायदा की 'प्रॉमिज़ड लैंड'। मुझे वायदा की फिल्म हमारे समकालीन प्रसंगों में, खासतौर पर वाम दलों की राजनीति के संदर्भ में सोचने लायक लगी। हालांकि कहानी पूँजीवाद के शुरुआती वक्त की है, न कि आधुनिक पूँजीवाद की, पर मूल्यों के संघर्ष की जो अद्भुत तस्वीर वायदा ने पेश की है, उसमें बहुत कुछ समकालीन संदर्भों से जुड़ता है। कहानी में कारोल नामक एक अभिजात पोलिश युवा अपने एक जर्मन और एक यहूदी मित्र क साथ मिल कर अपनी फैक्ट्री बनाने के लिए संघर्ष करता है। एक शादीशुदा औरत के साथ संबंध की वजह से अंततः उसकी फैक्ट्री में आग लगा दी जाती है। एक के बाद एक समझौते करता हुआ वह शहर का प्रतिष्ठित संपन्न व्यक्ति बन ही जाता है। फिल्म के अंत में दबे कुचले श्रमिकों के संगठित विद्रोह और पूँजीवादी वर्ग और सत्ता द्वारा एकसाथ मिलकर किए दमन की ओर इंगित है। आखिरी दृश्य में एक मजदूर लाल झंडा उठाता हुआ दौड़ रहा है और उस पर गोली चलाई जा रही है। मजदूर वर्ग के संगठित विरोध और भयंकर दमन के उस युग को दुबारा देखते हुए यह सोचने को हम मजबूर होते हैं कि क्या कुछ बदला है और क्या अभी भी वैसा ही है।
लाल झंडे का इतिहास बड़ा ही गौरवमय है। इस पर नज़र डालनी चाहिए।

वायदा ने यह फिल्म सत्तर के दशक के बीच के वर्षों में बनाई थी। बाद में उसने साम्यवादी सरकार के साथ जुड़ी लालफीताशाही का विरोध करती 'मैन आफ आयरन' जैसी फिल्में बनाईं।


स्ज़ाबो की 'मेफिस्टो' पच्चीस साल पहले देखी थी, तब से उस की फिल्में मौका मिलते ही देखता हूँ। '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' बर्गमैन के अंदाज़ में सपनों, फंतासी और विडंबनाओं का नाटक है। अपनी कोशिश में स्ज़ाबो अतिरेक कर बैठे हैं, ऐसा मुझे लगा। बहरहाल।

Friday, November 23, 2007

चुल्लू भर पानी में डूबने लायक भी नहीं

याद यही था कि फैज़ का लिखा है, पर जब 'सारे सुखन हमारे' में ढूँढा तो मिला नहीं, मतलब मिस कर गया।
आखिर जिससे पहली बार सुना था, मित्र शुभेंदु, जिसने इसे कंपोज़ कर गाया है, उसी से दुबारा पूछा। शुभेंदु ने यही बतलाया कि फैज़ ने लिखा है और शीर्षक है 'दुआ'।
अब सही लफ्ज़ के लिए घर से 'सारे सुखन...' लाना पड़ेगा, फिलहाल जो ठीक लगता है, लिख देते हैं:

आइए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

तो यह तो उस जनाब के लिए जिसे आइए हाथ उठाएँ हम भी पर जरा पता नहीं इतराज है क्या है, उसे पैर उठाने की चिंता है। क्या कहें, अच्छा ज्ञान बाँटा है।
बहुत पहले जब एम एस सी कर रहा था, क्लास में शैतान लड़कों में ही गिना जाता होऊँगा; एक बार अध्यापक के किसी सवाल का जवाब देने बोर्ड पर कसरत कर रहा था। कुछ लिख कर उसे मिटाने के लिए हाथ का इस्तेमाल किया तो अध्यापक ने चिढ़ के साथ कहा था - ... जल्दी ही मिटाने के लिए पैरों का भी इस्तेमाल करने लगोगे।

यह बतलाने के लिए कि बोर्ड पर लिखे को मिटाने के लिए डस्टर उपलब्ध है, सर ने व्यंग्य-बाण चलाया था। तो वह बाण अब भी चला हुआ है।

इसी बीच धरती कुछ दूर हिल चुकी है। सी पी एम वाले चुल्लू भर पानी में डूबने लायक भी नहीं रहे, तस्लीमा को जयपुर भगाकर शांति मना रहे हैं। गुजरात के लोग नात्सी जर्मनी की याद दिलाते हुए नरेंद्र मोदी को जितवाने को जुटे हैं। मैं अपने दुःखों में खोया हाथ-पैर दोनों ही उठाने में नाकामयाब होकर बैठा रहा। अरे नहीं, सचमुच नहीं, फिगरेटिवली स्पीकिंग। भले मित्रों का हो भला, जिन्होंने जिंदा रखा है, नहीं तो हमारा खुदा तो कोई है ही नहीं, याद तो फिर कहाँ से आएगा।

Friday, October 12, 2007

स्मृति में प्रेम

पच्चीस साल से मैं इंतज़ार कर रहा था, जाने कितने दोस्तों से कहा था कि डोरिस लेसिंग को नोबेल मिलेगा। आखिरकार मिल ही गया। 'चिल्ड्रेन अॉफ व्हायोलेंस' शृंखला में तीसरी पुस्तक 'लैंडलॉक्ड' से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। जाने कितनों को वह किताब पढ़ाई। अब फिर पढ़ने को मन कर रहा है, पता नहीं मेरी वाली प्रति किसके पास है। वैसे तो किसी भी अच्छी किताब में कई बातें गौरतलब होती हैं, पर स्मृति में मार्था और एक पूर्वी यूरोपी चरित्र था, जिसका नाम याद नहीं आ रहा, उनका प्रेम सबसे अधिक गुँथा हुआ है। मुझे अक्सर लगा है कि डोरिस ने हालाँकि साम्यवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ काफी कुछ कहा लिखा है, 'लैंडलॉक्ड' में क्रांतिमना साम्यवादिओं के गहरे मानवतावादी मूल्यों की प्रतिष्ठा ही प्रमुख दार्शनिक तत्व है। शायद इसी वजह से डोरिस को पुरस्कार मिलने में इतने साल भी लगे।

Thursday, October 04, 2007

मंगल मंदिर खोलो दयामय

गाँधी जी के जन्मदिन से दो दिन पहले एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में साबरमती आश्रम में गाए गीतों का गायन सुना। हमारे सहयोगी संगीत शिक्षक वासुदेवन ने खुद ये गीत गाए। बड़ा मजा आया। वैष्णो जन और रघुपति राघव जैसे आम सुने जाने वाल गीतों के अलावा छः सात गीत और भी थे, जिनमें मुझे सबसे ज्यादा 'मंगल मंदिर खोलो दयामय' ने प्रभावित किया। मेरा अपना कोीई खुदा नहीं है, पर संगीत के जरिए मैं भक्तिरस में डूब पाने वालों का सुख समझता हूँ। यानी मेरे लिए संगीत का जो भी अनपढ़ आनंद है, वह, और कविता का आनंद, यही बहुत है। ईश्वर की धारणा से जिनको अतिरिक्त सुकून मिलता है, वे खुशकिस्मत होंगे।

ऊपर की पंक्तियाँ लिखने के बाद दो दिन बीत गए। इस बीच कैंपस में एक बड़ी दुःखद घटना हो गई। हमारे कैंपस में युवा विद्यार्थी बहुत संयत माने जाते हैं। पिछले आठ सालों में, जब से संस्थान बना है, ऐसी कोई दुःखद घटना नहीं हुई थी। हम सब लोग मर्माहत और उदास हैं।

कल अॉस्ट्रेलिया वाला क्रिकेट मैच है और शहर में लोगों को खेल का बुखार चढ़ा हुआ है। पर शहर तो शहर है, बुखार हो या खुमारी, सीधा टेढ़ा चलता ही रहता है। बहुत ही खराब ट्रैफिक का यह शहर आज एक मुख्य इलाके मेंहदीपटनम में हुई किसी दुर्घटना से परेशान रहा।

विज्ञान के अलावा एक साहित्य के कोर्स में भी शामिल हूँ। आम तौर पर इन क्लासों में कुछ रचनाएँ पढ़ी जाती हैं और उनपर चर्चा होती है। आज पाश की 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना' पंजाबी में पढ़ी और फिर हिंदी में अनुवाद कर सुनाया। बाद में हबीब तनवीर के नाटक 'चरनदास चोर' का पाठ शुरु करवाया। सूचना प्रौद्योगिकी के छात्र साहित्य में रुचि लेने लग जाएँ, यही खुशी हमारी। और वे वाकई रुचि ले भी रहे हैं।

Monday, September 17, 2007

माई मेरे नैनन बान परी री

मज़ा गालियों का आना था, पर बहुत दिनों के बाद मैं भरपूर रोया। वैसे तो गाली गलौज़ से मुझे चिढ़ है, पर कहानी कविताओं में सही ढंग और सही प्रसंग में गालियों का इस्तेमाल हो, तो कोई दिक्कत नहीं, बिना गालियों के कई बार बात अधूरी लगती है या कहानियों में चरित्र अधूरे लगते हैं। तो गालियों के सरताज राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'ओंस की बूँद' पढ़ रहा था। 'आधा गाँव' और 'टोपी शुक्ला' कई साल पहले पढ़े थे। 'ओंस की बूँद' खरीदे भी कई साल हो गए, पर पढ़ा नहीं था। पढ़ने लगा तो आँसू हैं कि रुकते नहीं। भेदभाव की राजनीति से आम इंसानी रिश्तों में जो दरारें आती हैं, शायद ऐसी सभी विड़ंबनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मुझे सांप्रदायिक कारणों से उपजी स्थितियाँ करती हैं। 1979 में रामनवमी के दिनों में जमशेदपुर में दंगे हुए, एक जगह थी जिसका नाम था 'भालोबासा'; बांग्ला का शब्द है, अर्थ है प्यार। वहाँ ऐम्बुलेंस में छिपा कर ले जाए जा रहे बच्चों औरतों को दरिंदों ने निकाल कर मारा था। अपने एक मित्र को इस बात का जिक्र कर खत लिखते हुए मैं यूँ रो पड़ा था कि खत भीग गया था। रोने की पुरानी आदत है। विदेश में था तो टी वी पर भारत के बारे में कोई प्रोग्राम आता तो देखते देखते रो पड़ता।

सांप्रदायिक राजनीति की वजह से अनगिनत साधारण लोगों को बेहद तकलीफ उठानी पड़ी है। मेरा इससे कुछ करीब का वास्ता है, पर वह कहानी फिर कभी। फिलहाल 'ओंस की बूँद' के जो कुछेक पन्ने पढ़े हैं, उस पर बात करें। राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में जौनपुर, गाजीपुर के आसपास बोली जाने वाली बोलियों (भोजपुरी) का लाजवाब इस्तेमाल होता है। अद्भुत लय के साथ उनकी वानगी चलती है। अक्सर गीत भी होते हैं। विड़ंबनाओं को तीखेपन के साथ जतलाने के लिए भाषा का ऐेसा उपयोग बहुत कम लेखक कर पाते हैं। पाकिस्तान के लिए लड़ने वाला वज़ीर हसन ईमानदार है, इसलिए कांग्रेस में तो नहीं आ सकता, उसका बेटा अली वाकर पाकिस्तान बनने के खिलाफ था, पर वह अपने माँ-बाप, पत्नी बेटी को छोड़ के पाकिस्तान चला गया है। बेटी शहला गाती है, 'माई मेरे नैनन बान परी री।। जा दिन नैनां श्याम न देखों बिसरत नाहीं घरी री।।....

अनपढ़ दादी हाजरा मीराबाई को 'बाई' या कोठेवाली समझती है। उसका दिमाग बेटे के ग़म में संतुलन खो बैठती है और वह खुदा से लड़ती रही है कि पाकिस्तान क्यों बनने दिया। अपने हिंदू पुरखों के बनाए मंदिर की देखभाल का जिम्मा वज़ीर हसन नहीं छोड़ सकता और सूरदास गुनगुनाता हुआ पुजारी रामअवतार अपने जनसंघी भाई दीनदयाल को छोड़कर उस मंदिर में अर्चना का काम सँभालता है। हिंदू युवकों द्वारा हिंसा की आशंका से रामअवतार शंख कुँए में फेंक देता है और वज़ीर हसन सुबह के अँधेरे में कुँए से निकाल कर शंख बजाता है। मान लिया जाता है कि वह मूर्ति तोड़ने की कोशिश में था और दंगे छिड़ जाते हैं।

अभी मैं यहीं पर हूँ - एक चौथाई से भी कम - और सचमुच अभिभूत हूँ। राही जैसे लेखक को पढ़ते हुए हमें पता चलता है अपनी बोली में लिखना क्या मायना रखता है। आज के टुटपुँजिया अँग्रेज़ी में लिखकर अचानक प्रसिद्ध हो जाने वाले लेखक जितना भी सुर्खियों में छाए रहें, भारतीय भाषाओं में लिखे गए ऐसे अद्भुत लेखन के सामने उनकी कोई बिसात नहीं है। भाषा पर राही की टिप्पणीः "... वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, परंतु 'नैनन बान परी री' का अर्थ जानती थी। यह उसकी अपनी भाषा थी, वह लिखना जानती थी, परंतु यह भाषा बिलकुल उसी तरह उसकी थी, जैसे हाजरा उसका नाम था, और मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारों वाला यह घर उसका घर था। घर और नाम की तरह मातृभाषा की कोई लिपि नहीं होती। वास्तव में तो भाषा और लिपि का संबंध कोई अटूट संबंध नहीं होता। लिपि तो भाषा का वस्त्र है। उसका बदन नहीं है - आत्मा की बात तो दूर रही। मातृभाषा की तरह कोई मातृलिपि नहीं होती, क्योंकि लिपि सीखनी पड़ती है और मातृभाषा सीखनी नहीं पड़ती। वह तो हमारी आत्मा में होती है। और हवा की तरह साँस के साथ हमारे अंदर जाती रहती है। साँस लेने की तरह हम मातृभाषा भी सीखते नहीं। बच्चे को जैसे दूध पीना आता है, उसी तरह मातृभाषा भी आती है। माँ के दूध और मातृभाषा का मज़ा भी शायद एक ही होता है; परंतु लिपि एक बाहरी चीज़ है! शब्द वही रहता है, शब्द का अर्थ भी वही होता है; चाहे उसे जिस लिपि में लिख दिया जाए। कैसे मूर्ख हैं यह लोग, जो लिपि को भाषा से बड़ा मानते हैं।....'

इससे मुझे याद आया - भगत सिंह ने अपने कालेज के दिनों में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने पंजाबी भाषा को देवनागरी में लिखने का आह्वान किया था। अब तो यह बात सोची नहीं जा सकती, पंजाबी भाषा गुरमुखी और शाहलिपि में लिखी जाती है। पर युवा भगतसिंह की दूरदर्शिता का अंदाजा इससे लगता है। हमारे मित्र प्रो. हरकिशन मेहता ने हाल में एक लेख में गाँधीजी और भगत सिंह के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि गाँधीजी को भगतसिंह की फाँसी रुकवाने के लिए पहल करनी चाहिए थी - समय के साथ धर्मों के प्रति भगतसिंह का विचार बदलता और आज़ाद भारत को सही दिशा में ले जाने की काबिलियत उस क्रांतिकारी में सबसे ज्यादा होती। आज भगतसिंह की शतवार्षिकी मनाते हुए हम इस तरह के सवाल तो नहीं पूछ सकते कि भगत सिंह ज़िंदा रह गए होते तो क्या होता, पर मैं हरकिशन मेहता की इस बात से मैं सहमत हूँ कि अपने चिंतन में भगत सिंह गाँधी की तुलना में ज्यादा लचीले थे। हिंसा के बारे में भगत सिंह का कहना था '...use of force justifiable when resorted to as a matter of terrible necessity: non-violence as policy for all mass-movements’. यह मत गाँधी से भिन्न न था।

भगत सिंह को फाँसी हो गई, इस पर रोना बेमतलब है, पर गाँधीजी ने इस मसले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर देश को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया, इसमें कोई शक नहीं। भगत सिंह पर पढ़ने की अच्छी सामग्री यहाँ है।

Saturday, September 15, 2007

इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी

मेरा औपचारिक नाम मेरे पैतृक धर्म को उजागर करता है। मेरे पिता सिख थे। बचपन से ही हम लोगों ने सिख धर्म के बारे में जाना-सीखा। विरासत में जो कुछ भी मुझे सिख धर्म और आदर्शों से मिला है, मुझे उस पर गर्व है। माँ हिंदू है तो घर में मिलीजुली संस्कृति मिली। अब मैं धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता और वैज्ञानिक चिंतन में प्रशिक्षित होने और विज्ञान-कर्मी होते हुए भी सचमुच के धार्मिक लोगों का सम्मान करता हूँ। हाल में तीन सिख छात्र मेरे पास आए और उन्होंने गुजारिश की कि मैं होस्टल में एक कमरा उन्हें दिलवाने में मदद करुँ, जहाँ सिखों के धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहब जी' से जुड़ी कुछ साँचियाँ रखी जा सकें। मुझे चिंता हुई कि यह बड़ा मुश्किल होगा, होस्टल में कमरा मिलना कठिन है, फिर एक धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐेसा हो तो औरों के लिए भी करना होगा। सभी के लिए कमरा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर किसी की सँभाल में जरा भी गफलत हुई तो समस्या हो सकती है। मैं जिस संस्थान में अध्यापक हूँ, वह भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के शीर्षतम शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। स्वाभाविक है, कागजी तौर पर हमारे छात्र देश के सबसे बेहतरीन छात्र कहलाते हैं। मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उन्होंने अपनी इस माँग की वजह यह बतलाई कि अपने घरों से दूर होने की वजह से वे अपनी धार्मिक परंपराओं से कटा हुआ महसूस करते हैं। माँग यह नहीं थी कि सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाएँ जिसमें उनकी संस्कृति भी झलकती हो। बहरहाल, हमारे संस्थान में तकरीबन सभी लोग उदारवादी हैं, मैंने कुछ साथी अध्यापकों से इस पर चर्चा भी की, किसी ने भी यह नहीं कहा कि माँग नाजायज है, सबका रवैया यह था कि यह कैसे संभव हो सोचा जाए - कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था।

शाम को दूरदर्शन पर रामसेतु पर विवाद और विश्व हिंदू परिषद की गुंडागर्दी आदि देखा। अचानक मुझे लगा कि बस बहुत हो गया मैं उन लड़कों से यही कहूँगा कि धर्म निजी बात है, संस्थान के साथ इसका कोई संबंध नहीं। आज कुछ छात्र हमारे गेस्ट हाउस में विनायक चतुर्थी मना रहे हैं। कायदे से मुझे वहाँ कुछ समय जाकर उनका साथ देना चाहिए, पर मैं इतनी चिढ़ लिए बैठा हूँ कि पैर उस तरफ जाने से नाराज़ हैं। साथ में यह सोचकर तकलीफ भी हो रही है कि ये छात्र तो कोई दंगा-फसाद तो नहीं कर रहे, इनके ऊपर गुस्सा क्या? आखिर जो सिख छात्र मेरे पास आए थे वे तो सचमुच की धार्मिक भावनाओं के साथ ही आए थे।

मुझे पता है बीमार लोगों की एक जमात है जो अपने हीरो प्रकाश जावड़ेकर या क्या तो नाम है के साथ यह कह रहे होंगे कि हिम्मत है हजरतबाल के बारे में वैज्ञानिक सोच दिखाने की - ये लोग बस यही करते रहते हैं - देखो देखो मुसलमान के बारे में तुम कुछ नहीं कहते, हाय हाय.......! जबकि हमारे लिए फालतू की गुंडागर्दी करनेवाले लोग महज बेहूदे गुंडे हैं, वे हिंदू, मुसलमान, सिख नहीं। वे तस्लीमा पर हमला करें या किसी और पर।

बहरहाल, हर कोई यह कहने पर लगा हुआ है कि पुरातत्व विभाग को पौराणिक चरित्रों की अस्लियत के बारे में कुछ कहने की क्या ज़रुरत थी - पर मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि उन्होंने गलत क्या कहा। किसी ने भगवान श्री राम के बारे असभ्य बात तो नहीं की। हो सकता है, हलफनामे में ऐसा कुछ लिखा है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं है। चूँकि बहुत पुराने धर्मग्रंथों में वर्णित चरित्रों के बारे में वैज्ञानिक तरीकों से अनुसंधान कर अभी तक कुछ मिला नहीं और ग्रंथों के विविध रुप में पाए जाने की वजह से आगे भी कुछ मिलने की संभावना कम है, इसलिए जो कहा गया है, उससे किसी की आस्था को क्यों चोट पहुँचती है, मैं नहीं समझ सकता। आखिर जो आस्था पर आधारित है, उसका अपना सौंदर्य है, उसमें विज्ञान को लाने की क्या ज़रुरत। संभवतः यह कहा जा सकता है कि पुरातत्व विभाग को कम शब्दों में काम चला लेना चाहिए था।

पता नहीं कब यह देश इस पिछड़ेपन से निकलेगा जब धर्मों के नाम पर सार्वजनिक गुंडागर्दी को कोई जगह नहीं नहीं दी जाएगी और धर्मों और परंपराओं को मानव-चिंतन और सभ्यता के महत्वपूर्ण पड़ावों की तरह देखा जाएगा, जब हम सबको अपने सभी धर्मों के लिए गर्व होगा; उनको बेमतलब तर्क का जामा पहनाने के लिए विज्ञान को न घसीटा जाएगा। यह देखते हुए आज भी धर्मों के बारे में सबसे सटीक बात मार्क्स की पौने दो सौ साल पुरानी टिप्पणी ही लगती हैः

“Religion is the general theory of that world, its encyclopaedic compendium, its logic in a popular form, its spiritualistic point d’honneur, its enthusiasm, its moral sanction, solemn complement, its universal source of consolation and justification … Religious distress is at the same time the expression of real distress and also the protest against the real distress. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, just as it is the spirit of the spiritless conditions. It is the opium of the people. To abolish religion as the illusory happiness of the people is to demand real happiness.”

उत्पीड़ितों की आह - जो धर्म है - इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी। आज वे मदमत्त हो लें, लोगों की भावनाएँ भड़का लें, आज लोग गरीब हैं, पिछड़े हैं, पर ये हमेशा तो ऐसे न रहेंगे।

Thursday, September 06, 2007

सात कविताएँ: 1999

यह भी।



सात कविताएँ


वह जो बार बार पास आता है
क्या उसे पता है वह क्या चाहता है

वह जाता है
लौटकर नाराज़गी के मुहावरों
के किले गढ़
भेजता है शब्दों की पतंगें

मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ
क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ

जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है
वैसे ही लिखनी है उस पर भी
मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की
चाँदनी में लौटते हुए
एक चाँद उसके लिए देखता हूँ

चाँदनी हम दोनों को छूती
पार करती असंख्य वन-पर्वत
बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों
को पार करती चाँदनी

उस पर कविता लिखते हुए
लिखता हूँ तांडव गीत
तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो।


कराची में भी कोई चाँद देखता है
युद्ध सरदार परेशान
ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं

चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि
वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है
चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है।

आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है
चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे
बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा
अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे।


चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ
चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं
फिर भी कहता हूँ
और चाँद का हाथ
अपने बालों में अनुभव करता हूँ

चाँद ने कागज कलम बढ़ाते हुए
कविताएँ लिखने को कहा है

सायरेन बज रहा है।


मेरे लिए भी कोई सोचता है
अँधेरे में तारों की रोशनी में उसे देखता हूँ
दूर खिड़की पर उदास खड़ी है। दबी हुई मुस्कान
जो दिन भर उसे दिगंत तक फैलाए हुए थी
उस वक्त बहुत दब गई है।

अनगिनत सीमाओं पार खिड़की पर वह उदास है।
उसके खयालों में मेरी कविताएँ हैं। सीमाएँ पार
करते हुए गोलीबारी में कविताएँ हैं लहूलुहान।

वह मेरी हर कविता की शुरुआत।
वह काश्मीर के बच्चों की उदासी।
वह मेरा बसंत, मेरा नवगीत,
वह मुर्झाए पौधों के फिर से खिलने सी।


वह जो मेरा है
मेरे पास होकर भी मुझ से बहुत दूर है।
पास आने के मेरे उसके खयाल
आश्चर्य का छायाचित्र बन दीवार पर टँगे हैं,
द्विआयामी अस्तित्व में हम अवाक देखते हैं
हमारे बीच की ऊँची दीवार।

ईश्वर अल्लाह तेरे नाम
अनजान लकीर के इस पार उस पार
उँगलियाँ छूती हैं
स्पर्श पौधा बन पुकारता है
स्पर्श ही अल्लाह, स्पर्श ही ईश्वर।


मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?
मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण।
ग्रहों को पार कर मैं आया हूँ
एक भरपूर जीवन जीता बयालीस की बालिग उम्र
देख रहा हूँ एक बच्चे को मेरा सीना चाहिए

उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँ
मेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरंभ है
मेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता है
सुनता हूँ बसंत के पूर्वाभास में पत्तियों की खड़खड़ाहट
दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास में
आश्चर्य मानव संतान
अपनी संपूर्णता के अहसास से बलात् दूर
उँगलियाँ उठाता है, माँगता है भोजन के लिए कुछ पैसे।


मुड़ मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
सन् २००० में मेरी दाढ़ी खींचने पर धू धू लपटें उसे घेर लेंगीं।
मेरी नियति पहाड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं।
उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ।
उड़नखटोले पर बैठते वक्त वह मेरे पास होगा।

युद्ध सरदारों सुनो! मैं उसे बूँद बूँद अपने सीने में सींचूँगा।
उसे बादल बन ढक लूँगा। उसकी आँखों में आँसू बन छल छल छलकूँगा।
उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा।
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा।

(साक्षात्कार - मार्च २०००)

Sunday, August 26, 2007

सब्र की सीमाएँ तोड़ने की हर कोशिश होगी - आखिरकार दरिंदों की हार होगी

हैदराबाद के धमाके सुर्खियों में हैं।

बचपन में कोलकाता में नक्सलबादी आंदोलन के शुरुआती दिनों में जब सुनते थे कि दूर कहीं कोई बम फटा है, तो दिनभर की चहल-पहल बढ़ जाती थी। मुहल्ले में लोगबाग बातचीत करते थे। बाद में बांग्लादेशी छात्रों से सुना था कि ढाका में शहर में मिलिट्री टैंकों के बीच में लोगों का आम जीवन चलता होता था। और भी बाद में बम-धमाकों की खबरें सुनने की आदत हो गई। इसकी भी आदत हो गई कि हमारे समय में एक ओर हिंसा के विरोध में व्यापक सहमति बनी है तो वहीं दूसरी ओर कुछ असहिष्णु लोगों की जमातें भी बन गईं हैं। इसलिए कल जब बेटी सवा आठ बजे अपने एक दोस्त के साथ लिटल इटली रेस्तरां में खाने के लिए निकली और इसके तुरंत बाद एन डी टीवी पर चल रहा बी जे पी के रुड़ी और सी पी आई के राजा की बहस का कार्यक्रम रोक कर ताज़ा खबर में शहर में धमाकों की खबर घोषित हुई तो भी झट से बेटी को फोन नहीं किया। जब तक किया तब तक वह रेस्तरां पहुँच चुकी थी। और फिर डेढ़ घंटे बाद ही लौटी।

यह ज़रुर है कि सुबह मेल वगैरह देखने दफ्तर आया और बिल्डिंग के ठीक सामने एक बड़ा सा मांस का टुकड़ा फिंका दिखा तो तुरंत सीक्योरिटी को बुलाकर दिखाया। किसी लापरवाह बेवकूफ ने सड़क पर कूड़ा फेंक दिया है।

ऐसे दुखदायी समय में भी यह सोचकर राहत मिलती है कि आम लोगों ने समझ लिया है कि दुनिया में असहिष्णु बीमार लोग बार बार इस कोशिश में हैं कि चारों ओर तबाही हो - लोगों में नफ़रत फैले, और लोग अब इतनी जल्दी भड़कते नहीं। नहीं तो इसके पहले कि हम जो हुआ उसकी तकलीफ से उबरें, यह चिंता सताने लगती थी कि अब कहीं कोई दंगा न फैल जाए। अभी भी मौत के सौदागरों की कोशिश रहेगी कि लोगों को भड़काया जाए, कुछ लोग मृतकों की तस्वीरों को अधिक से अधिक भयंकर बनाकर यह बतलाएँगे कि एक संप्रदाय के सभी लोगों ने ऐसा करते रहना है। धमाके भी और होंगे। सब्र की सीमाएँ तोड़ने की हर कोशिश होगी। फिलहाल ये षड़यंत्र नाकामयाब हैं - और हम जानते हैं कि आखिरकार दरिंदों की हार होगी। जिस तरह आम लोगों ने घायल लोगों को जल्दी जल्दी अस्पताल पहुँचाया - एकबार यह सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और गर्व से आँसू बहने को होते हैं।

नईम के एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैंः हर पराजय मुझे नित्य गढ़ती गई, औ ऊँचाई खजूरों सी बढ़ती गई। आज के समय में हर अम्नपसंद आदमी को यही सोचना है।

Wednesday, August 15, 2007

एक दिन

एक दिन

जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे

साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक

भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ

गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)

Friday, August 10, 2007

हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं

बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर कल हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।

तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।

निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर


मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे

पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में

जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से

देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर

एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।

(१९९५; समय चेतना १९९६)



तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।

Saturday, July 28, 2007

पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था

पहाड़-


पहाड़ को कठोर मत समझो
पहाड़ को नोचने पर
पहाड़ के आँसू बह आते हैं
सड़कें करवट बदल
चलते-चलते रुक जाती हैं


पहाड़ को
दूर से देखते हो तो
पहाड़ ऊँचा दिखता है


करीब आओ
पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा
पहाड़ के ज़ख्मी सीने में
रिसते धब्बे देख
चीखो मत


पहाड़ को नंगा करते वक्त
तुमने सोचा न था
पहाड़ के जिस्म में भी
छिपे रहस्य हैं।



पहाड़-


इसलिए अब
अकेली चट्टान को
पहाड़ मत समझो


पहाड़ तो पूरी भीड़ है
उसकी धड़कनें
अलग-अलग गति से
बढ़ती-घटती रहती हैं


अकेले पहाड़ का जमाना
बीत गया
अब हर ओर
पहाड़ ही पहाड़ हैं।



पहाड़-


पहाड़ों पर रहने वाले लोग
पहाड़ों को पसंद नहीं करते
पहाड़ों के साथ
हँस लेते हैं
रो लेते हैं
सोचते हैं
पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई
बाकी भी गुज़र जाएगी।

(1988; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित - आधार)

Friday, July 27, 2007

बीमारी

कल पेट खराब था, आज गला खराब है। हो सकता है, दोनों एक ही बीमारी की पहचान हों। हमारे यहाँ साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं, इसलिए एक फिल्टर लगा रखा है। बाल्टी में पानी भर के उसे पंप से फिल्टर से पास कर साफ करते हैं। उसपर भी बहुत ध्यान देते नहीं, सुस्ती मार जाती है। इसलिए कहीं से मौसमी जीवाणु शरीर में घुस गए हैं। वैसे मुझे लगता है कि कुछेक ऐसे भाई लोग हमेशा से मुझसे मुहब्बत कर बैठे हैं। जब जब भी किसी वजह से शरीर पर ज्यादा बोझ पड़ता है और शरीर थक कर अँगड़ाइयाँ लेता है, ये लोग उछल कूद मचाने लगते हैं। दिन को घर से चालीस किलो मीटर दूर विज्ञान व प्राद्यौगिकी विभाग की सभा में था, शाम लौटे तो सिर, पेट दुख रहा था। बदन में थकान और बीमारी का अहसास। रात को कुछ खाया नहीं और दुखते पेट को सहलाता रहा। सुबह पेट से जरा राहत मिली तो गला खराब है। बदन भी लेटना चाहता है। चलो, यह भी सही। आमतौर से दवा लेता नहीं हूँ, शायद इस बार लेनी पड़े। कई बार मुझे लगता है कि ऐसी बीमारियाँ बीच बीच में होती रहनीं चाहिए। इससे व्यस्त जीवन से अलग कुछ करने का मौका मिलता है; और कुछ नहीं तो लेटे लेटे आदमी कुछ कहानी कविताएँ ही पढ़ लेता है। कल के भाषण की तैयारी में कई दूसरे काम दरकिनार किए हुए थे, अब उनपर हमला करना था। पर बीमारी के बहाने चिट्ठागीरी पर लग गए।

हाल में हिंदी चिट्ठों की दुनिया में काफी तीखापन आया है। पहले मुझे यह बात तंग करती रही कि ज्यादातर सामग्री एक छोटी सी दुनिया में केंद्रित है। फिर हाशिया पर असीमा भट्ट की आलोक धन्वा को तबाह करने के मकसद से लिखी आत्म कथा पढ़ी। पढ़ कर बहुत परेशान हुआ। यह परेशानी जल्दी जानेवाली नहीं। इस पर कोई लंबा विवाद नहीं हुआ, जैसा कि नया ज्ञानोदय प्रसंग में हुआ था। यह कहा जा सकता है कि पाठ को हम कैसे पढ़ते हैं, वह हमारे अपने पूर्वाग्रहों पर निर्भर करता है। असीमा के तीन लेखों के केंद्र में आलोक है, इसको देखने के अलग नज़रिए हो सकते हैं। एक तो सिर्फ यह कि चूँकि हममें से (यानी कि हिंदी में लिखने वालों में से) ज्यादातर लोग सामंती परिवारों से आए पुरुष हैं, इसलिए हम इसे एक नारी का हताश आक्रोश मान रहे हैं। दूसरा यह कि चूँकि हममें से कई लोग नारी अधिकारों के लिए चल रहे आंदोलनों से या तो जुड़े हैं या उनसे सहानुभूति रखते हैं, इसलिए यह लाजिमी है कि हम इस विवाद में आलोक को अपराधी मानकर असीमा के पक्ष में खड़े हों।

मैं उन लोगों में हूँ जो आजीवन किसी न किसी वजह से जीने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। मतलब यह नहीं कि हमें भर पेट खाने को नहीं मिला - उस स्थिति से तो बहुत पहले ही निकल चुके थे - पारिवारिक समस्याएँ ऐसी रहीं कि कहीं भी पैर जमा पाना संभव नहीं हुआ। मैं अपने चारों ओर देखता हूँ तो पाता हूँ हमारे जैसे लोग, जो यथास्थिति का विरोध और सामाजिक परिवर्त्तन की किसी परंपरा में जुड़ने की ईमानदार कोशिश में लगे रहे हैं, विवाह उनके लिए तबाही का माध्यम रहा है। अनुभवी लोग ये बात समझते हैं; इसे स्वीकारना काफी ईमानदारी की अपेक्षा रखता है। इसलिए मुझे तकलीफ यह हुई कि असीमा के लेख पोस्ट करने वालों ने यह नहीं सोचा कि आलोक और असीमा कोई ऐरे गैरे नहीं हैं, जिनकी निजी तकलीफों को यूँ उछाला जाए। इसके पहले कि इन्हें पढ़कर सैंकड़ों पाखंडी लोग 'हाय, हाय' करें, हो सकता था कि भले लोग असीमा को कुछ समय दें और अच्छी तरह सोच-विचार कर ही असीमा ये लेख पोस्ट करें। संभव है यह प्रक्रिया हुई हो। हाशिया का मकसद अगर यह था कि लोग इनको पढ़कर समाज में नारी की स्थिति पर कुछ और जागरुक हो जाएँ तो मुझे शक है कि ऐसा वाकई हुआ है। हुआ महज यह है कि अधिकतर लोगों को मजा आ रहा है कि बड़ा क्रांतिकारी कवि बनता था, छोकरी ने खुले बाज़ार नंगा कर दिया। हिंदी का आम बुद्धिजीवी और लेखक इसी मानसिकता से ग्रस्त है। विड़ंबना यह भी है कि हिंदी चिट्ठागीरी में शामिल अधिकतर लोग तो पहली बार आलोक धन्वा का नाम सुन रहे होंगे। यही हिंदी का दुर्भाग्य है - इससे पहले कि हम पाठक को 'ऊपर नील आकाश / नीचे हरी घास' से खींच कर आधुनिक साहित्य तक लाएँ, हम एक दूसरे के कपड़े उतारने लग जाते हैं। ऐसे में दुविधाग्रस्त पाठक भागकर कामायनी और गोदान ढूँढता फिरे तो गलती किसकी?

Sunday, July 15, 2007

वापस कविता आदि

हिंदी में टाइप करने की दिक्कत को लेकर सुझाव आए हैं|
मैं आमतौर पर लीनक्सवादी हूँ| मामला बडा सीधा है| बिल गेट्स को और धनी बनाने की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अपने दफ्तर में लीनक्स और फेदोरा पर इंटर/इंटरानेट इनपुट मेथड से फोनेटिक हिंदी की आदत बना ली| हालांकि टंकन की गति अंग्रेजी की तुलना में कम है| कहीं और जाते हैं, तो विंडोज वाला सिस्टम थमा देते हैं तो ले लेता हूँ| स्वभाव का मारा हूँ| ज्यादा माँग नहीं रखता| पर फिर किसी नए फांट की आदत डालनी पड़ती है|
अब फायरफाक्स के ऐड आन का इस्तेमाल कर रहा हूँ| इसमें ड़ ढ़ नहीं हैं| हर बार ड़ ढ़ लिखते हुए कहीं से कापी पेस्ट करना पड़ता है|

इस बारे में कोई शक नहीं कि हिंदी में टाइप करने की आदत रही होती तो काफी लिखते|

बहरहाल, हाल में हिंदी कविता पर जो बहस चल रही है, वह कुछ लोगों पर केंद्रित है और निश्चित रुप से दु:खदायी है| कुछ बातें जो सामान्यत: कही जा सकती हैं, उन्हें लिख रहा हूँ:

१. आज की कविता का उद्गम पारंपरिक कविता है, पर अपने स्वरुप और मिजाज में वह बिल्कुल अलग है| जिस तरह हमारी मध्य वर्गीय जिंदगी में परंपरा की जगह कम होती जा रही है, कविता में भी परंपरा को हम या तो यांत्रिक रुप से या महज पाखंड की तरह निभाते हैं| इसलिए जबरन परंपरा से जुडने की कोशिश में कविता में पाखंड रह जाता है| कविता जीवन से अलग नहीं हो सकती| हिंदी का आम पाठक और रचनाकार इस वजह से परेशान है| सबसे बड़ी समस्या है कि लिखने वाले ज्यादातर ऊँची जाति के पुरुष हैं और चूँकि आधुनिक समय में लिखना विरोध का ही एक पर्याय सा (पहले से कहीं ज्यादा) बन चुका है, जीवन और लेखन में विरोधाभास हर ओर है| इस बात को हर कोई मान ले तो बहुत सारी बहस यूँ ही खत्म हो जाएगी|

*********************

ऊपर लिखी पंक्तियाँ पंद्रह दिन पहले की हैं|अब वापस हैदराबाद में अपने लीनक्स मशीन पर gedit का इस्तेमाल कर लिख रहा हूँ| फिर से इस ध्वन्यात्मक इनपुट को उँगलियों में ढालने में थोड़ा समय लगेगा। एकबार सोचा कि ऊपर का अपूर्ण प्रसंग ठीक नहीं लग रहा। फिर लगा कि नहीं अपूर्ण सही - हम कौन सा कोई थीसिस लिख रहे हैं। पड़े रहने देते हैं। फिर से पढ़ते हुए बहुत पुरानी एक बात याद आ गई। कोई पचीस साल पहले प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मृणाल सेन को एकबार अपनी फिल्मों के बारे में बोलते सुना था। उन दिनों उन्होंने अलग किस्म की फिल्में बनानी शुुरु की थीं। मृणाल का मानना था कि पहले वाली फिल्में (जैसे कोलकाता ७१) जिनके लिए बनाई गईं थीं, वे लोग फिल्में देखते नहीं या देखने के काबिल नहीं (आर्थिक विपन्नता, निरक्षरता आदि की वजह से)। जो देख रहे थे उन लोगों के लिए वे फिल्में थीं नहीं। इसलिए अपनी दिशा बदलते हुए नई किस्म की फिल्में (जैसे खंडहर, खारिज) बनाईं, जो मध्य वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रख कर बनाई गईं थीं, जिनमें मध्य वर्ग के विरोधाभासों पर जोर था।

बहरहाल पुरानी बात को जरा खींचूँ। यानी कि एक और बिंदु जोड़ दूँ।

२. कविता में शाश्वत सिर्फ संवेदना होती है। कथ्य देश-काल सापेक्ष होता है। संवेदना के शाश्वत स्वरुप की वजह से कविता में प्रतिबद्धता निहित होती है।

बहुत पहले मैंने लिखा थाः

सबने जो कहा
उससे अलग
सच सिर्फ धुंध

शब्द उगा
सबने कहा
गुलाब खूबसूरत

शब्द घास तक पहुँचा
किसी ने देखी
हरीतिमा घास की
किसी ने देखी
घास पैरों तले दबी

धुंध का स्वरुप
जब जहाँ जैसा था
वैसे ही चीरा उसे शब्द ने।
- (कविता-१; एक झील थी बर्फ की; आधार प्रकाशन, १९९०)

इसलिए मुझे रुप और प्रतिबद्धता की बहस निरर्थक लगती है। रुप का बोध गहन चिंतन और मंथन की अपेक्षा रखता है। जो लोग समझते हैं कि कविता महज शब्दों का सौंदर्यपूर्ण विन्यास है, और जो समझते हैं कि प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा ही कविता को सार्थक करती है, दोनों ही मुझे गलत लगते हैं। कथ्य के जरिए संवेदना संप्रेषित होती है। यह कविता की सीमा है। अक्सर हमलोग 'पोएटिक टेंशन' की बात करते हैं। आधुनिकता एक ओर जीवन की अनगिनत जटिल और परतों में छिपी सच्चाइयों के साथ हमारा मुठभेड़ कराती है, दूसरी ओर इन सच्चाइयों का बयान करने में हमें पहले से ज्यादा असहाय बनाती है। इसका असर आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कविता में दिखता है। कविता के इस पक्ष से वाकिफ हो जाने पर जो कुछ भी स्पष्ट है, वह खोखला और गद्यात्मक लगता है, क्योंकि जीवन में स्पष्टता कम है। तब 'पोएटिक टेंशन' ही हमें कविता लगती है। मुसीबत यह है कि इस स्थिति में कई स्थूल सच्चाइयों के प्रति हमारी संवेदना मर चुकी होती है। जैसे भारत में रहने वाले लोगों को यह नज़र नहीं आता कि हमारी रेलवे की लाइनें और सार्वजनिक शौचालय एक दूसरे का पर्याय हैं। आधुनिक अमूर्त्त कला की दुनिया में नए नए आए लोगों को पुरानी यथार्थ वादी कला बेकार लगती है।

3. अनुभव और परिपक्वता से हम वापस कला के व्यापक आयामों से अवगत होते हैं।

4. न तो हर कही बात कविता है और न ही हमारी पसंद से इतर हर कविता-कर्म खोखला है।

5. अंत मेंः- लगातार पढ़ने लिखने से हम कविता या साहित्य की किसी भी विधा में जो नया है, उसे समझते हैं और कभी कभी उससे प्रभावित भी होते हैं। हिंदी की दुनिया में एक दूसरे पर कीचड़ फेंकना ज्यादा और पढ़ने लिखने की कोशिश कम दिखती है।

Saturday, June 30, 2007

ढंग का कुछ लिखो|

आखिर हिंदी में लिखना चाहते हुए भी हिंदी टाइप करने से चिढ़ता क्यों हूँ? दफ्तरी काम में सारे दिन कीबोर्ड चलाते हुए इतनी बोरियत होती है कि फिर मन की बातें अलग इनपुट से टाइप करने में दिक्कत आती है| समय लगता है| सिर्फ इतना ही है क्या?

हिंदी में लिखना कभी भी आसान नहीं रहा| एक तो हिंदी क्षेत्र में न रहने और दिन भर अंग्रेजी की वजह से भाषा पर नियंत्रण कठिन है| फिर अलग अलग फांट की समस्या| कई बार लगता है कि अंग्रेजी में लिखना शुरु करें| एक दो बार कोशिश भी की, पर मजा नहीं आया|

पर सबसे बड़ी समस्या शायद हिंदी क्षेत्र के सांस्कृतिक विरोधाभासों की है| इन दिनों अचानक कविता और साहित्य को लेकर भयंकर मारामारी है और ऐसे में हर कोई 'holier than thou' कहता उछलता नजर आता है| इसी बहाने मुझे कई नए पुराने चिट्ठे पढ़ने का मौका मिला और अच्छा यह लगा कि इतने सारे ब्लाग हिंदी में हैं|

तकलीफ यह कि खुद कैसे इस दंगल में कोई सार्थक पहल करें समझ में नहीं आता| अंतत: एक साथी कवि के साथ खुद से भी यही कह रहा हूँ - समय मिले तो ढंग का कुछ लिखो|

कल लंदन और दो दिनों बाद भारत लौट रहा हूँ|

Saturday, June 23, 2007

सिर्फ फोटू




युवा कवि मोहन राणा के साथ| मोहन बाथ में रहता है और ये तस्वीरें उसने अपने मोबाइल फोन के कैमरे पर लीं|

स्टैचू नाविक जान कैबट है - १४९७ में ब्रिस्टल से चला और उत्तरी अमरीका जा पहुँचा|

पीछे इमारत ब्रिस्टल के कला और संस्कृति के केंद्र आर्नोलफीनी की है| आर्नोलफीनी मध्यकालीन पश्चिमी कला में काफी विवादित नाम है| मेरे हाथ में लिफाफे में मोहन के दो कविता संग्रह हैं, जिनमें एक ताजा 'पत्थर हो जाएगी नदी' है|

Saturday, June 16, 2007

सुनील के ताजा चिट्ठे की प्रतिक्रिया में एमा गोल्डमैन

वैसे तो छुट्टी पर हूँ| पर सुनील के ताजा चिट्ठे की प्रतिक्रिया में पेश है, मेरी प्रिय अराजक चिंतक एमा गोल्डमैन की १९०८ की स्पीच:





What Is Patriotism?
by Emma Goldman
1908
San Francisco, California
Men and Women:
What is patriotism? Is it love of one's birthplace, the place of childhood's recollections and hopes, dreams and aspirations? Is it the place where, in childlike naivete, we would watch the passing clouds, and wonder why we, too, could not float so swiftly? The place where we would count the milliard glittering stars, terror-stricken lest each one "an eye should be," piercing the very depths of our little souls? Is it the place where we would listen to the music of the birds and long to have wings to fly, even as they, to distant lands? Or is it the place where we would sit on Mother's knee, enraptured by tales of great deeds and conquests? In short, is it love for the spot, every inch representing dear and precious recollections of a happy, joyous and playful childhood?
If that were patriotism, few American men of today would be called upon to be patriotic, since the place of play has been turned into factory, mill, and mine, while deepening sounds of machinery have replaced the music of the birds. No longer can we hear the tales of great deeds, for the stories our mothers tell today are but those of sorrow, tears and grief.
What, then, is patriotism? "Patriotism, sir, is the last resort of scoundrels," said Dr. [Samuel] Johnson. Leo Tolstoy, the greatest anti-patriot of our time, defines patriotism as the principle that will justify the training of wholesale murderers; a trade that requires better equipment in the exercise of man-killing than the making of such necessities as shoes, clothing, and houses; a trade that guarantees better returns and greater glory than that of the honest workingman...
Indeed, conceit, arrogance and egotism are the essentials of patriotism. Let me illustrate. Patriotism assumes that our globe is divided into little spots, each one surrounded by an iron gate. Those who have had the fortune of being born on some particular spot consider themselves nobler, better, grander, more intelligent than those living beings inhabiting any other spot. It is, therefore, the duty of everyone living on that chosen spot to fight, kill and die in the attempt to impose his superiority upon all the others. The inhabitants of the other spots reason in like manner, of course, with the result that from early infancy the mind of the child is provided with blood-curdling stories about the Germans, the French, the Italians, Russians, etc. When the child has reached manhood he is thoroughly saturated with the belief that he is chosen by the Lord himself to defend his country against the attack or invasion of any foreigner. It is for that purpose that we are clamoring for a greater army and navy, more battleships and ammunition...
An army and navy represent the people's toys. To make them more attractive and acceptable, hundreds and thousands of dollars are being spent for the display of toys. That was the purpose of the American government in equipping a fleet and sending it along the Pacific coast, that every American citizen should be made to feel the pride and glory of the United States.
The city of San Francisco spent one hundred thousand dollars for the entertainment of the fleet; Los Angeles, sixty thousand; Seattle and Tacoma, about one hundred thousand... Yes, two hundred and sixty thousand dollars were spent on fireworks, theater parties, and revelries, at a time when men, women, and children through the breadth and length of the country were starving in the streets; when thousands of unemployed were ready to sell their labor at any price.
What could not have been accomplished with such an enormous sum? But instead of bread and shelter, the children of those cities were taken to see the fleet, that it may remain, as one newspaper said, "a lasting memory for the child."
A wonderful thing to remember, is it not? The implements of civilized slaughter. If the mind of the child is poisoned with such memories, what hope is there for a true realization of human brotherhood?
We Americans claim to be a peace-loving people. We hate bloodshed; we are opposed to violence. Yet we go into spasms of joy over the possibility of projecting dynamite bombs from flying machines upon helpless citizens. We are ready to hang, electrocute, or lynch anyone, who, from economic necessity, will risk his own life in the attempt upon that of some industrial magnate. Yet our hearts swell with pride at the thought that America is becoming the most powerful nation on earth, and that she will eventually plant her iron foot on the necks of all other nations.
Such is the logic of patriotism.
...Thinking men and women the world over are beginning to realize that patriotism is too narrow and limited a conception to meet the necessities of our time. The centralization of power has brought into being an international feeling of solidarity among the oppressed nations of the world; a solidarity which represents a greater harmony of interests between the workingman of America and his brothers abroad than between the American miner and his exploiting compatriot; a solidarity which fears not foreign invasion, because it is bringing all the workers to the point when they will say to their masters, "Go and do your own killing. We have done it long enough for you."
...The proletariat of Europe has realized the great force of that solidarity and has, as a result, inaugurated a war against patriotism and its bloody specter, militarism. Thousands of men fill the prisons of France, Germany, Russia and the Scandinavian countries because they dared to defy the ancient superstition...
America will have to follow suit. The spirit of militarism has already permeated all walks of life. Indeed, I am convinced that militarism is a greater danger here than anywhere else, because of the many bribes capitalism holds out to those whom it wishes to destroy...
The beginning has already been made in the schools... Children are trained in military tactics, the glory of military achievements extolled in the curriculum, and the youthful mind perverted to suit the government. Further, the youth of the country is appealed to in glaring posters to join the Army and the Navy. "A fine chance to see the world!" cries the governmental huckster. Thus innocent boys are morally shanghaied into patriotism, and the military Moloch strides conquering through the nation...
When we have undermined the patriotic lie, we shall have cleared the path for the great structure where all shall be united into a universal brotherhood -- a truly free society.

Thursday, June 07, 2007

छुट्टी

कुछ निजी कारणों से फिर एकबार चिट्ठागीरी से छुट्टी ले रहा हूँ।
कुछ समय बाद फिर हाजिर होंगे।


कारण?
समय, अवस्था - कुछ भी तो कारण हो सकते हैं।
शायद, ...

शायद वैसे गलत शब्द है। मेरे युवा दोस्तों को पता है कि मैं
शायद या पर फिर यहाँ तक कि और आदि से भी चिढ़ता हूँ।

शायद कुछ नहीं होता। जो होता है वही होता है।

Sunday, June 03, 2007

१२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर

फिल्मों पर लिखना यानी टिप्पणियों की भरमार। एक शिकायत यह रही कि मैंने अपनी समझ के बारे में ज्यादा नहीं लिखा। भई, हिंदी में स्याही से तो लिख लेता हूँ, पर टाइप करने में अभी भी रोना आता है।

बहरहाल, उत्तर भारत में हिंदी क्षेत्रों में फिर आग भड़क उठी है। आरक्षण विरोधी दोस्त फिर से खूब बरस रहे होंगे। सचमुच स्थिति बड़ी जटिल है और बेचैन करने वाली है। बिल्कुल सही है कि आरक्षण की राजनीति को कहीं तो रुकना ही होगा। अगर गंभीरता से देखें तो इसी बेचैनी में ही आरक्षण नीति की जरुरत समझ में आती है। गैर बराबरी की व्यवस्था को बदलने के दो ही उपाय हैं - या तो संगठित विरोध से आमूल परिवर्त्तन या सरकार द्वारा उदारवादी नीतियों से परिवर्त्तन। अगर सरकार ईमानदार हो तो परिवर्त्तन में देर होने का कोई कारण नहीं है। पर मानव विकास सूची में पिछले दस सालों में १२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर पहुँचने वाली देश की सरकार को कोई कैसे ईमानदार कहे। जहाँ आधी जनता प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित है, वहाँ जनता के ऊपर आरक्षण जैसे जटिल विषय पर अपने आप सही निर्णय लेने का सवाल नहीं उठता। जबकि सुविधाएँ पाने की लड़ाई में सही निर्णय ऊपर से नहीं, अब तक दरकिनार और अब लड़ रहे लोगों से ही आए, तभी विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा हो सकता है।

दुर्भाग्य यह है कि भारत में सबसे पढ़े लिखे लोगों की पार्टी का नेतृत्व भी इस साधारण सी बात को समझने में बुरी तरह नाकाम है। इसलिए नांदीग्राम में विकास का निर्णय जन-प्रतिनिधियों ने नहीं, निहित स्वार्थों से प्रभावित पार्टी नेतृत्व ने करने की कोशिश की। पर वाम संस्कृति में फले फूले लोगों ने संगठित होकर लोगों को ताकत दी। पर राजस्थान और हिंदी क्षेत्र के दीगर इलाकों में, जहाँ निरक्षता आज भी व्यापक है, नेतृत्व अपेक्षाकृत भ्रष्ट और संकीर्ण सोच के लोगों के हाथों में है, इंसान की कीमत कितनी है? इसलिए मीणा और गुज्जर जो भी हों, उनके साथ काम कर रहे स्वैच्छिक संस्थाओं के साथियों पर (जो कि हजारों की तादाद में हैं) इस वक्त बड़ी जिम्मेवारी है कि वे भ्रष्ट राजनीति से लोगों को बचाएँ।

Wednesday, May 30, 2007

मरने से पहले जो पचास फिल्में जरुर देखनी हैं

मरने से पहले जो पचास फिल्में जरुर देखनी हैं - रविवार की रात टी वी पर यह प्रोग्राम था|
तकरीबन आधी मैंने देखी हैं| शुकर है कि चयनकर्त्ताओं से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ, नहीं तो चैन से न मर पाने की चिंता होती|

मैंने जो देखी हुईं थीं, उनमें एक दो को छोड़ बाकी सारी नब्बे से पहले की हैं| चूँकि चयनकर्त्ता आलोचक ब्रिटेन और अमरीका के थे, इसलिए ज्यादातर फिल्में पश्चिम की थीं|
सारी याद नहीं, इसलिए नेट से ढूँढ कर सूची निकाली है:
1 Apocalypse Now 2 The Apartment 3 City of God 4 Chinatown 5 Sexy Beast 6 2001: A Space Odyssey 7 North by Northwest 8 A Bout de Souffle 9 Donnie Darko 10 Manhattan 11 Alien 12 Lost in Translation 13 The Shawshank Redemption 14 Lagaan: Once Upon A Time in India 15 Pulp Fiction 16 Touch of Evil 17 Walkabout 18 Black Narcissus 19 Boyzn the Hood 20 The Player 21 Come and See 22 Heavenly Creatures 23 A Night at the Opera 2 4 Erin Brockovich 25 Trainspotting 26 The Breakfast Club 27 Hero 28 Fanny and Alexander 29 Pink Flamingos 30 All About Eve 31 Scarface 32 Terminator 2 33 Three Colours: Blue 34 The Royal Tenen-baums 35 The Ladykillers 36 Fight Club 37 The Searchers 38 Mulholland Drive 39 The Ipcress File 40 The King of Comedy 41 Manhunter 42 Dawn of the Dead 43 Princess Mononoke 44 Raising Arizona 45 Cabaret 46 This Sporting Life 47 Brazil 48 Aguirre: The Wrath of God 49 Secrets and Lies 50 Badlands.


कमाल यह कि कोई इतालवी (फेलिनी से बेनिनी तक), हंगेरियन (इस्तवान ज्हावो). ईरानी (मखमलबाख) फिल्म नहीं|
चीन की एक, भारत की 'लगान' (! , ऋत्विक घटक से लेकर गोविंद निहलानी सारे फेल) - यह चयन है|
और क्रम भी अजीब है - मेरी अपनी पसंद से इनमें व्हर्नर हर्त्सोघ की 'आगीरे: द रैथ आफ गाड' सबसे बढ़िया है| उसके बाद '२००१: अ स्पेस आडीसी' (आर्थर सी क्लार्क ने कहानी में कंप्यूटर का नाम हैल - HAL रखा था - उन दिनों IBM कंप्यूटर की सबसे बडी़ कंपनी थी - H I A B L M) और फिर वूडी ऐलन की 'मैनहाटन' होगी| इसके बाद मैं चायनाटाउन को रखूँगा| वैसे कई बार देश काल ज्यादा महत्तवपूर्ण होते हैं| इस तरह से पश्चिमी आलोचकों के नजरिए से 'अपोकैलीप्स नाऊ' को सबसे ऊपर रखना समझ में आता है| इसी तरह अफ्रीकी मूल के अमरीकीओं के संदर्भ में 'बायज इन ड हूड' अच्छी संवेदनशील फिल्म है| इस फिल्म की खूबी यह थी कि इसका निर्देशक जान सिंगलटन महज तेईस साल का था, जब उसने यह फिल्म बनाई थी|

मैंने 'लगान' के कुछ हिस्से देखे हैं| चयनकर्त्ताओं में से कुछ का कहना था कि ऐसी फिल्में जो नए सवाल उठाएँ, देखी जानी चाहिए| स्पष्ट है कि चयनकर्त्ता भारतीय फिल्मों से नावाकिफ ही होंगे|
'अपोकैलीप्स नाऊ' अच्छी फिल्म है, पर तकनीकी साधनों पर इतनी ज्यादा निर्भर है कि कहीं कहीं कला का गला घोंटती सी लगती है|
चायनाटाउन में जैक निकोलसन का अभिनव कमाल का है; पर अपने समय में 'मैनहाटन' ने जो तहलका मचाया था, उसकी तुलना नहीं है| स्त्री पुरुष के संबंधों को लेकर आधुनिक शहरी मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों के पाखंड पर यह फिल्म एक अनोखा बयान है - इसलिए इसे बहुत ऊपर रखा जाना चाहिए|

Sunday, May 27, 2007

दो बढ़िया फिल्में

पिछले दो दिनों में दो बढ़िया फिल्में देखीं| पहली आलेहांद्रो गोन्सालेज इनारीतू की 'आमोरेज पेरोस (प्रेम एक कुतिया है)' और दूसरी जाक्स देरीदा पर किर्बी डिक और एमी त्सियरिंग कोफमान का वृत्तचित्र|

पहली फिल्म मेक्सिको की समकालीन परिस्थितियों पर आधारित तीन अलग-अलग किस्मत के मारे व्यक्तियों की कहानी है| शुरू से आखिर तक फिल्म ने मुझे बाँधे रखा - जो कि इन दिनों मेरे साथ कम ही होता है| प्रेम, हिंसा और वर्ग समीकरणों का अनोखा मिक्स, जो अक्सर मेक्सिको व दक्षिण अमरीका की फिल्मों में होता है, इसमें है| इंसानी जज्बातों और अंतर्द्वंदों को दिखलाने के लिए कुत्तों का बढ़िया इस्तेमाल किया गया है|

देरीदा पर बनी फिल्म भी बहुत अच्छी लगी| खूबसूरती यह है कि देरीदा जो कहता है उसमें अब नया कुछ नहीं लगता - लगता है यह सब तो हम लंबे अरसे से सोच रहे हैं, पर धीरे धीरे बातें जेहन तक जाती हैं और अचानक ही लगता है कि ये बातें ठीक ऐसे कही जानी चाहिए; पर पहले किसी ने इस तरह कहा नहीं| देरीदा की सबसे बडी सफलता भी यही है कि सुनने वाले को उसकी बातें सहज सत्य लगें| डीकंस्ट्रक्सन की धारणा पर देरीदा बार बार कहता है कि यह कोई बाहरी औजार नहीं जिसे किसी संवाद या कथानक पर इस्तेमाल करते हैं, कथ्य में ही विखंडन की प्रक्रिया मौजूद है| इसी को जरा और खींचें तो हम देख सकते हैं कि हमारी सोच में वह सब छिपा है जो यह महान दार्शनिक हमें बतलाता है|

महान लोगों की महानता उनकी साधारणता में है - हम जैसे साधारण होते हुए भी वे ऐसी बातें कह जाते हैं जो हमने कही नहीं है| यह 'कहा जाना' कोई चमत्कार नहीं, हमारे ही जैसे एक साधारण व्यक्ति की वर्षों की मेहनत, अध्ययन और शोध से उपजी बातें हैं| फिल्म में मुझे ऐसी बातें ज्यादा अच्छी लगीं, जिनमें हम देरीदा की साधारणता देख पाते हैं, घरेलू माहौल, उसका यह कहना कि जिस दिन घर से बाहर नहीं निकलना हो, उस दिन पाजामा पहने ही काम निकालता है, आदि|


इस प्रसंग में कह दूँ कि साधारणता को रेखांकित करना महानता के खिलाफ मेरी पुरानी लड़ाई है| बुजुर्गियत के लिए छोड़ कर किसी एक व्यक्ति के लिए 'वे' और इसके समांतर क्रियारुप से मैं परहेज करता हूँ| कईबार अटपटा लगता है, पर कोशिश यही रहती है कि 'देरीदा कहते हैं' की जगह 'देरीदा कहता है'लिखूँ| यह बात कहानियों के चरित्रों की उक्तियों के लिए लागू नहीं होती, पर चर्चा या आलोचना में यह कोशिश रहती है|

Thursday, May 24, 2007

हा, हा, भारत दुर्दशा देखी न जाई!

पुरानी ही सही, कुछ बातें अद्भुत ही होती हैं।

चेतन ने गाँठ या गाँठों पर यह लिंक भेजी है। रमण बतलाएगा कि लिंक भेजा जाता है या भेजी। मेरे भेजे में फिलहाल गाँठ पड़ी हुई है।


शुक्र है कि यह गाँठ ऐसी नहीं है, जैसी ये है :

देखिये जी, कलाकार माने क्या यह होता है कि वह हरिश्चद्र होते हैं या आम आदमी से ज्यादा अधिकार उनके होते हैं? आप सारी अपने मन माफिक हुकूमतों को गिना सकते हैं जहां सुख चैन है - किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होता.

या जैसा कि (साभार: युवा मित्र प्रणव) चंदन मित्रा के भेजे में है: बंदा किसी दक्षिणपंथी दल का नेता नहीं है, अंग्रेजी पायनीयर अखबार का संपादक है। जैसा कि हम देखेंगे, धर्म निरपेक्षता से लबालब भरा हुआ है। भाषा का संस्कार देखें:

The disinformation machinery of the Indian Left is probably more ruthlessly efficient than anything wartime Nazi propagandist Goebbles could have dreamed of. The effortless ease with which they disseminate half-truths and thereafter construct gigantic myths around these is something to be marvelled at. Despite their disdain for all things Indian, such as our age-old epics, they have picked up significant lessons from the Ashwathama story and are busy putting it into practice virtually every day. That they diabolically employ sympathetic TV channels for multiplier effect besides infiltrating the English-language print medium through the JNU route adds to the efficacy of their political message....

But there is a larger issue that goes beyond the arrest of an art student, vandalisation of movie halls screening Deepa Mehta's films (which are gigantic flops anyway) or the supposed persecution of Hussain. It is disturbing that the vocal Left-liberal media manipulators have succeeded in bestowing such people iconic status, which in turn results in the proliferation of perverted art. Hindu gods and goddesses, age-old social customs and other things revered by most Indians have become targets of vilification and desecration. The aim is to make a mockery of the Hindu social structure, Hindu systems of worship and systematically erode the foundations of the Hindu faith. To put a veneer of secularism on this objective, Jesus Christ is periodically dragged in as a smokescreen to hide the true purpose. Left-wing plotters assume that the usually law-abiding Christian community will not raise Cain, be it the staging of the controversial 'Jesus Christ Superstar' or scandalous portrayals in works of art by Vadodara students. Interestingly, the Left-liberals never put forward the "right to creativity" argument over depiction of Islamic motifs. Would somebody at Vadodara dare paint a likeness of the Prophet? Even during the latest controversy deafening silence was maintained on the issue of the Danish cartoons that, rightly, outraged Muslim opinion throughout the world.

Is there a way in which this conspiracy to blaspheme the Hindu faith can be countered? I believe there is a pressing need to enact a stern law against blasphemy in India that penalises all efforts to disparage religion and religious icons, irrespective of faith. Nobody, not even the tallest intellectual or celebrated artist, has the right to purposely hurt anybody's religious sentiment by exhibiting nude or copulating gods. None stops them from painting voluptuous women or male hunks in various disagreeable forms and enough models are available to serve their purpose. But, for God's sake, don't use our gods to satiate your intellectual perversions.

कइओं को फिकर होगी कि मैं ऐसा दक्षिणपंथी माल क्यों पसोर रहा हूँ| इसलिए कि जिनकी गाँठें खुलने की संभावना है, वे पढ़ें और विलाप करें - हा, हा, भारत दुर्दशा देखी न जाई! या सिकंदर सा कहें: सच सेल्यूकस! विचित्र यह देश!

Saturday, May 19, 2007

वन्देमातरम!

इंस्टीटिउट आफ फिजिक्स में प्रोफेसर माइकेल बेरी का भाषण सुनने गया था। एक बुजुर्ग मिले। पूछा कहाँ से आया हूँ। इंडिया और हैदराबाद सुनकर कहा मैं कभी इंडिया गया नहीं हूँ| थोडी देर बातचीत के बाद पूछा, आपका इलाका पीसफुल है?

पीसफुल?! आधुनिक समय में भारत का दुनिया को एक अवदान है - एक नारा - ओम् शांति।

कल मेरे शहर में बम फटा. पिछले कुछ दिनों से पंजाब में दंगे हो रहे थे। एम एस यू बडोदा के बवाल पर किसी का कहना है:

लाल्टू जी ये "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" वाले ऐसे ही जूते खाने लायक हैं, इनके लिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मतलब हिन्दुओं के देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाना, सरस्वती वन्दना का विरोध करना आदि है, इन्हें तो अभी अभी ही मारना शुरु किया है, ऐसे लोग अभी और-और पिटेंगे।

यह चिट्ठाकार उज्जैन का है। पिछले साल वहाँ छात्रों के चुनाव के दौरान एक प्रोफेसर की हत्या कर दी गई थी। यह चिट्ठाकार मेरी तरह सरस्वती वन्दना कर सकता है। मैं और वह भारत की उस आधी जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो स्कूल नहीं जा पाए।

इंग्लैंड की एक तीन साल की बच्ची मैडलीन गायब हो गई है, दुनिया भर के लोग तलाश में हैं, होना भी चाहिए। मेरे शहर हैदराबाद में बच्चे अमूमन गायब होते रहते हैं। अभी हाल में पुलिस ने एक महिला को पकडा था। किस को खबर है!

वन्देमातरम!

Thursday, May 17, 2007

औक्यूपेशनल हैजर्ड.

पहले कभी सुना लगता है, हाल में बच्चों के लिए लिखी एक किताब में पढा. जैकलिन रे की पुस्तक 'प्लेयिंग कूल' में नानी के 'तुम बडी हो गई हो' कहने पर बच्ची ग्रेस का जवाब है: 'चिल्ड्रेन ग्रो! इट्स ऐन औक्यूपेशनल हैजर्ड.'

Wednesday, May 16, 2007

अभी तक किसी को मारा नहीं है.

एम एस यू बडोदरा में बवाल मचा है. क्यों? भई बी जे पी का राज है. नरेंद्र मिल्सोविच मोदी की दुनिया है.
हमला कलाकारों पर है. अभी तक किसी को मारा नहीं है.
कला संकाय के डीन सस्पेंड हो गए हैं. क्यों? उसने एक छात्र की प्रदर्शनी रुकवाने का विरोध किया. इसलिए.

Thursday, April 19, 2007

यह भी अश्लील ही

प्रत्यक्षा की मेल आई कि हंस में कहानी आई है और कि ब्लॉग शांत पड़ा है। घर जाकर प्रत्यक्षा की कहानी पढ़ेंगे। फिलहाल चिट्ठागीरी की जाए। बेचैनी तो रहती है कि यह लिखें ओर वो लिखें पर ..........। होता यह है कि इसके पहले कि जरा सा वक्त निकाल पर कुछ लिखने की शुरुआत करें, उसके पहले ही कहीं कुछ और हो जाता है। पहले के खयाल इधर उधर भटकने लगते हैं और दूसरी चिंताएँ दिमाग में हावी हो जाती हैं। अब दो हफ्तों से सोच रहा था कि विज्ञान और मानविकी के इंटरफ़ेस यानी ये कहाँ जुड़ते हैं और कहाँ टूटते हैं पर हमारे यहाँ एक सम्मेलन हुआ, उस पर लिखें।

उस पर क्या उसमें जम कर हुई बकवास पर लिखें, पर इधर अमरीका के वर्जीनिया टेक में हुई दुर्घटना ने उस बेचैनी को इस बेचैनी से विस्थापित कर दिया। छिटपुट बेकार बातें, जैसे बी जे पी वालों का सीडी (इस शब्द को अंग्रेज़ी में पढ़ें) प्रकरण या धोनी ने धुना नहीं तो धोनी को धुन दो जैसी जाहिल बातें तो इस महान मुल्क में चलती ही रहती हैं, उनके बारे में सही बातें लिखकर अंजान भाइयों को दुःखी कर क्या लाभ! बहरहाल, थोड़ा सा पहले की चिंता पर लिखता हूँ।

विज्ञान के बारे में संशय और चिंता किसको नहीं होगी। एक राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में विज्ञान पर भारी भरकम लोगबाग आएँ तो उत्सुकता होती है कि चलें सुनें कि क्या पक रहा है, कुछ सीखें। एक जमाने में हम भी विज्ञान की दशा और दिशा पर बुनियादी सवाल कर कर अपने पंडित शिक्षकों को बड़ा परेशान किया करते थे। थोड़ा बहुत वैकल्पिक विज्ञान और विज्ञान के विकल्पों के बारे में बोलते लिखते भी रहे हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकों के सामाजिक स्तर पर जनविरोधी और निजी स्तर पर जीवनविरोधी पक्षों को लेकर काफी शोरगुल मचाते ही रहे हैं। पर पिछले कई सालों से समाजशास्त्रियों ने मुझे हताश किया है। ऐसा लगता है कि सैद्धांतिक स्तर पर विज्ञान की पिटाई किए बगैर कोई समाजशास्त्रीय सम्मेलन नहीं हो सकता।

यह नहीं कि विज्ञान की आलोचना नहीं होनी चाहिए। भई जब जमाना ही विज्ञान का कहलाता है तो यह तो बहुत ज़रुरी है कि विज्ञान की आलोचना सबसे अधिक होनी चाहिए। पर उस आलोचना के मानदंड क्या हों, इस बारे में लगता है कि कम से कम भारतीय समाजशास्त्रियों के पास कोई मसाला नहीं है। इसलिए आज भी वही बातें चलती रहती हैं, जो हमलोगों ने तीस साल पहले की हैं। बातों का एक समूह होता है कि विज्ञान की ऐसी तैसी - मसलन, देखो पुस्तक में लिख दिया कि कक्षा तीन में प्रयोग का निष्कर्ष यह है कि जब कि प्रयोग यूँ किया जाए तो यह दिखा - विज्ञान का घमंड देखो कि पुस्तक में यह लिखा ही नहीं। दूसरा समूह होता है कि कौन कहता है कि यह विज्ञान नहीं है और वो विज्ञान नहीं है; बैगन की चटनी बड़ी वैज्ञानिक है, हम कहते हैं; देखो अमरीकी वैज्ञानिकों की सभा ने प्रार्थना पर शोध के लिए साढ़े तीन हजार डालर दिए हैं, अब बोलो मियाँ कि प्रार्थना वैज्ञानिक प्रक्रिया कैसे नहीं है। अद्भुत बात यह कि इन अलग लगने वाली बातों के दोनों समूहों में शामिल लोग एक ही समूह के होते हैं। अब मेरे जैसा व्यक्ति यह सोचकर बैठा है कि कुछ ऐसी भी बातें होंगी कि भौतिक प्रक्रियाओं को आधार मानकर पद्धति की जो संरचना विज्ञान की मूलभूत नींव है, कुछ उसपर दार्शनिक आलोचना हो और मानविकी में कौन से पक्ष हैं जहाँ मानव की सृजनशीलता के नए आयाम हैं आदि आदि तो बैठे रहो लाल्टू। किस ने कहा था कि तुम्हें बैठना ही है।

एक जनाब हैं, हालैंड में पी एच डी की है। हम जब कालेज में थे, इलस्ट्रेटेड वीकली में उसका लिखा पढ़ते थे, बहुत कुछ सोचने की सामग्री होती थी - तो पहली बार जनाब का चेहरा देखा। बड़े आग्रह के साथ बैठा रहा कि सुनेंगे। लगभग संतावन साल के इस व्यक्ति ने बोला तो क्या बोला - अबे तबे की बोली में हमें यह जता दिया कि उसने हीगल, कांट, वांट सब पढ़ा है और उसे इस बात से बहुत नाराज़गी है कि बाकी लोग उनको पढ़ रहे हैं। मैं आधे घंटे तक यह अद्भुत दृश्य देखता रहा। वह व्यक्ति बोल रहा था। उसने कम से कम एक बार 'आसहोल' शब्द का प्रयोग किया, बाकी सभी शब्द अपेक्षाकृत कम अश्लील थे। कोई बात नहीं, मेरे एक चिट्ठे में 'अश्लील' शीर्षक कविता है, इसलिए यह तो हर कोई समझ सकता है कि आसहोल शब्द अपने आप में अश्लील मानूँ, ऐसा बेवकूफ मैं नहीं हूँ। पर वह व्यक्ति जब यह शब्द बोल रहा था, तो उसके बोले बाकी शब्दों की तरह यह भी अश्लील ही लगा। मैंने बाद में धीरे से पूछा कि महोदय आपको सचमुच बड़ी चिंता है कि इस देश के अकादमिक लोग जनविरोधी हैं (यानी कि वे उन सभी विचारकों को पढ़ना चाहते हैं जिनको आपने हमें जताया कि आप पढ़ चुके हैं), तो सर आप तो गोआ के हैं, आप वहाँ के लोगों की बोली यानी कोंकणी या अन्य प्रचलित भाषाओं में कुछ लिखते होंगे। गंभीरता से जवाब आया कि मैं कोंकणी में नहीं लिखता, पर अंग्रेज़ी में बोलना मैंने बंद कर दिया है। मैंने याद दिलाना ठीक नहीं समझा कि अब तक वह सिर्फ अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी के अलावा और कुछ नहीं बोल रहा था। मुझे सचमुच बहुत दुःख हो रहा था क्योंकि वहाँ मौजूद सभी लोग उस व्यक्ति से नया कुछ सुनना सीखना चाहते थे, पर वे सभी हताश हुए। पढ़ने के खिलाफ उसका एक वक्तव्य था कि साठ साल का व्यक्ति झोला लिए किताब की दुकान में क्यों जाता है, आखिर साठ साल के व्यक्ति ने नया क्या सीखना।

विज्ञान की पिटाई पर अपना बौद्धिक अस्तित्व बनाए रखने वाले लोग ऐसे ही होते हैं, बंद दिमाग, बंद खयाल। एक जनाब, दिल्ली वाला। अंग्रेज़ी में लिखता है, लोक संस्कृति पर चोटी का काम है, राष्ट्रीय समितियों में है। विज्ञान पर बड़े सवाल हैं उसके (साथ ही भरपूर अकादमिक संस्कृति लबालब -'मेज की दूसरी ओर बैठे मेरे परम मित्र उच्च कोटि के वैज्ञानिक और फलाँ फलाँ राष्ट्रीय समितियों में मुझे सत्य की दिशा में प्रेरणा देने वाले ....' - आ हा हा! सुन कर जी भर आता है); मसलन, त्सुनामी के दौरान अंदमान में जारवा जनजाति के लोग दौड़कर पहाड़ों में चले गए, इसके बारे में विज्ञान कुछ कयों नहीं कहता - वैज्ञानिक इसका अध्ययन क्यों नहीं करते? मैंने चायपान के वक्त बंदे को समझाने की कोशिश की - विज्ञान की संरचना और वैज्ञानिकों की राजनीति में बहुत कुछ तालमेल होता भी है पर सारा कुछ ही आपस में जुड़ा हुआ हो, ऐसा नहीं है। और यह मानना ठीक नहीं कि जनजातियों पर या उनके सदियों से संचित ज्ञान-भंडार पर कोई वैज्ञानिक शोध (भले ही कम या अपूर्ण) नहीं हुआ। पर मैं कौन? मेरा अनुभव यह है इस तरह के लोग जैसे ही यह जान जाते हैं कि इक्की - दुक्की बड़ी समितियों में मैं भी कभी कभी गलती से बैठता हूँ और मैंने भी हालैंड से नहीं, पर किसी ऐसे ही मुल्क से कभी कोई कागज़ का पुरदा आमद किया है, जिसके बल पर टका दो टका कमा लेता हूँ, तो इनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल भिन्न होती है।

एक बार जे एन यू के एक प्रोफेसर साहब ने तंग आकर मुझे कहा था कि इतना पैसा वैज्ञानिक शोध पर लगता है - क्या दिया है विज्ञान ने इस देश को? सब कुछ तो यहाँ बाहरी मुल्कों से आया हुआ है। सही संदर्भ में यह बात अर्थपूर्ण है - सही संदर्भ में । पर जब संदर्भ यह हो कि अब बोल क्या बोलेगा तो भई वह पंडित मुझे एक बच्चे से भी ज्यादा भोला लग रहा था। और क्या कहूँ - बार बार बेवकूफ शब्द का इस्तेमाल अच्छा नहीं लगता। खासकर जब यह तकलीफ होती है कि पैसा तो उधर के मुशर्रफ और इधर के जगजाहिर उसीके भाई बिरादर ले गए और बंदे को यह चिंता सता रही है कि वैज्ञानिक शोध पर पैसा क्यों! विज्ञान पढ़ना सीखना ज़रुरी हो - यह कहना मुश्किल है, पर अगर विज्ञान पढ़ना सीखना है, तो बंधु पैसे तो लगेंगे। अंग्रज़ी साहित्य पढ़ने से तो थोड़े ज्यादा ही लगेंगे।

सच यह है कि जमाना विज्ञान का कहने पर जो बोध होता है कि हर ओर विज्ञान हावी है - वह ठीक नहीं है। अगर बौद्धिक स्तर पर इस देश में कुछ हाशिए पर है तो वह विज्ञान है।
अभी अभी मैंने एक सौ अस्सी युवाओं को एक भौतिक विज्ञान का कोर्स पढ़ाना खत्म किया है। प्रसंगवश, पढ़ाते हुए कई बार 'बोस-आइन्स्टाइन स्टैटिस्टिकस' का जिक्र आया, जिससे जुड़े कुछ प्रयोगों के लिए हाल के वर्षों में दोबार नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं। बोस भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस था, जिसके मौलिक पर्चे को सुधार कर आइन्स्टाइन ने जर्मन भाषा में प्रकाशित करवाया था। परीक्षा में यूँ ही मैंने एक छोटा सा सवाल यह भी पूछ लिया कि क्वांटम स्टैटिस्टिकस के साथ जुड़े किसी भारतीय वैज्ञानिक का नाम लिखो। शायद एक बच्चे ने एस एन बोस लिखा है, कइयों ने सुभाष चंद्र बोस लिखा है। कुछेक ने चंद्रशेखर बोस भी लिखा है।

तो? तो यह कि ये आज के नेट सैव्ही हाई फाई तकनीकी संस्थानों में पढ़ रहे युवाओं के दिमागों में भी विज्ञान और वैज्ञानिक कम और बिग बी और संतोषी माँ ज्यादा हावी होते हैं।

Wednesday, March 21, 2007

जो सुधरेंगे, सो सुधरेंगे

क्या बड़ी कक्षाओं को यानी जिनमें छात्रों की संख्या एक हद से ज्यादा हो, ढंग से पढाया जा सकता है?

शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रति शिक्षक जैसे जैसे बच्चों की संख्या बीस से ज्यादा बढ़ती है शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहता है। मेरा अपना अनुभव यह है कि तथाकथित अच्छे कान्वेंट स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का कारण स्कूल का बेहतर होना नहीं, बल्कि पालकों का अधिक सचेत होना है। स्कूल सिर्फ अनुशासन सिखाता है, जो स्व-शिक्षा में मदद नहीं करता, बाधक ज़रुर होता है। शिक्षा शास्त्री 'विंडोज़ अॉफ लर्निंग' की बात करते हैं, जिनमें उम्र के विभिन्न पड़ावों में सीखने के अलग-अलग मानदंड माने गए हैं। क्या सीखना है, कैसे सीखना है, इन सब बातों पर पिछली सदियों में बहुत शोध हुआ है, बहस भी बहुत हुई है।

कालेज विश्वविद्यालय स्तर पर आने तक, व्यक्ति सीखने की खिड़कियों को पार कर चुका होता है। अब समय है खुद यह जानने का कि मुझे क्या पढ़ना सीखना है। परीक्षा इसलिए नहीं कि स्कूल का डंडा है, इसलिए कि मुझे अपनी काबिलियत की समझ होनी चाहिए और दूसरों को भी मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि मैं कितना काबिल हूँ, ताकि मुझे सही काम मिल सके, जिससे मैं न केवल अपनी जीविका उपार्जन कर सकूँ, बल्कि आनंदपूर्ण जीवन भी व्यतीत कर सकूँ। यह बात समझ में आ जाए तो अध्यापक को किसी की उपस्थिति दर्ज़ करने की ज़रुरत नहीं। जिसने तय किया है कि मुझे सीखना है और उसे लगता है कि कक्षा में रहकर मैं कुछ सीख सकता हूँ, वह आएगा। कक्षा में बैठकर वह फालतू की बात नहीं करेगा, ध्यान से अध्यापक की बात सुनेगा। भारत में इस वक्त स्थिति यह है कि सुविधासंपन्न संस्थानों में अधिकतर छात्र इसलिए मौजूद हैं कि वे सुविधासंपन्न हैं। उनके माँ-बाप को चिंता होती है कि वह पढ़ लिख जाएँ और अपनी सुविधाएँ बढ़ाएँ और इस प्रयास में शिक्षा संस्थान जुट जाते हैं। इसलिए स्कूल का डंडा वाला दर्शन विराजमान रहता है। बाकायदा उपस्थिति दर्ज़ की जाती है। मुसीबत यह है कि कई युवा छात्र मजबूरी में कक्षा में बैठे होते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि उन्हें जो पढ़ाया जाता है, वह सीखना क्यों है।

बेहतर शिक्षक रोते रहते हैं कि कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए। उच्च शिक्षा में यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि सरकारें स्वयं आपसी मारकाट यानी हिंदुस्तान पाकिस्तान में पैसा खर्च करने में लगी रहती हैं; शिक्षा के लिए पैसे नहीं हैं; शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है, वगैरह वगैरह। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक यह यानी छात्रों की संख्या कम होनी न केवल वांछित है, बल्कि ज़रुरी है औेर चूँकि हमलोग निहायत पिछड़े हुए लोग हैं, इसलिए हमारी सरकारें हमारे संसाधनों को इस दिशा में न लगाकर ग़ोरी-अग्नि मिसाइलों वगैरह में लगाती रहती हैं। कोई तहलका की लूट खा लेता है, कोई बोफोर्स की।

बहरहाल विश्वविद्यालयों में माँ-बाप के पैसे खर्च कर कुछ मुश्टंडे मटरगश्ती करने आते हैं। ऐसी विभूतियों को पढ़ा पाना कठिन काम है। खासतौर पर ऐसे मुल्क में जहाँ करोड़ों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है, इन परजीवियों को पढ़ाने की नैतिक जिम्मेवारी किसी की भी नहीं हो सकती। इसलिए बेहतर अध्यापकों को मान लेना चाहिए कि उच्च स्तरीय पठन-पाठन में ब्राह्मणी बू यानी कि जिसे मैं अंग्रेज़ी में elitist exclusivity कहूँगा, से बचा नहीं जा सकता। हर कोई आइन्स्टाइन बनने की काबिलियत लेकर धरती पर आता है, पर हर कोई आइन्स्टाइन बन नहीं सकता। बिगड़ैल मुश्टंडों को बौद्धिक कर्म में लगा पाना बेकार की कोशिश है। मतलब यह नहीं कि ये सुधर नहीं सकते, जो सुधरेंगे, सो सुधरेंगे, और कहीं न कहीं हमारी भूमिका उसमें होगी। पर इसको ध्येय मानकर चलने में बेवकूफी हमारी। कोशिश करनी ही है तो हमें उनके लिए करनी चाहिए, जिन्हें जन-विरोधी व्यवस्थाओं ने दरकिनार रखा है, जो हम तक पहुँच नहीं पाए हैं।

Tuesday, March 13, 2007

चार लाइनें

मसिजीवी ने दो बार याद दिलाया कि चिट्ठों की दुनिया से छूट चुका हूँ। बिल्कुल छूटा नहीं हूँ। पढ़ता रहता हूँ। खुद लिख नहीं पा रहा था। चलो तो चार लाइनें कुछ लिखा जाए।

उत्तरी भारत के दीगर इलाकों में जब लोग बसंत की आवभगत में जुटे होते हैं, हैदराबाद और बंगलूर जैसे दक्खनी शहरों में गर्मी का कहर बरपने लगता है। हम भी इसी दौर में हैं। पता नहीं कैसे वर्षों से खोया धूप का चश्मा ढूँढ निकाला है। बड़े काले शीशों वाली ऐनक।

पानी की समस्या है। नगरपालिका मंजीरा बंध से पानी सप्लाई करती है। पर इसका कोटा है। और जिस तरह चारों ओर धड़ाधड़ मकान बनते जा रहे हैं, पानी बँट रहा है और कुल सप्लाई खपत की तुलना में बहुत कम है। इसलिए बोर वेल का इस्तेमाल हर घर में होता है। बोर वेल के पानी में लवणों की मात्रा अधिक है और पानी का स्वाद अच्छा नहीं है। तो क्या किया जाए? नगरपालिका टैंकरों में पानी बेचती भी है। मंजीरा के अलग रेट और बोर के पानी के अलग। तो जिसके पास पैसे हैं, उसे बढ़िया पानी और जिसके पास नहीं उसे नहीं।

सोचने की बात है। किसानों को पानी चाहिए। झोपड़ियों में रह रहे गरीब लोग घंटों इंतज़ार कर पानी लेते हैं। हमें जो पानी मिलता है, हम उससे खुश नहीं हैं। खास बात नहीं। हजार बार सोची गयी बात। पर फिर भी फिर फिर से सोचने वाली बात।

Sunday, January 28, 2007

नेवला

आज मैंने मकान के पीछे के जंगल में एक नेवला देखा। छत में खड़ा शाम की आखिरी उछल-कूद मचाती लंबी पूँछ वाली मैनाएँ देख रहा था, तभी उसे देखा। चलते चलते बीच बीच में जैसा खतरा भाँपते हुए रुक रहा था। मैं छत से नीचे उतर बेटी को बुलाने आया। वह कंप्यूटर पर फिल्म देख रही थी। मैं वापस ऊपर गया। तब तक वह बहुत दूर पहुँच गया था और मेरे उसे ढूँढ निकालते ही वह झट से एक गड्ढे में घुस गया। तभी कहीं से वहाँ एक मोर आ गया। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि यहाँ पहला मोर देखा। लगा जैसे ये सब यहीं थे और मुझे पता ही नहीं था। इतनी जानें मेरे पास और मैं खुद को अकेला ही समझता रहा।

पिछले कई हफ्तों से लगातार हो रही निठारी की दर्दनाक वारदात पर लिखने की कोशिश करते हुए लिख न पा रहा था। हर बार जैसे अंदर से पित्त भरा गुबार उमड़ आता था।
इस नेवले की चाल देख कर लिखने का मन हो आया।

कई साल पहले मध्य प्रदेश में हरदा शहर के सिंधी कालोनी में एक मकान में कुछ समय के लिए ठहरे थे। वहाँ एक नेवला अक्सर घर के अंदर आ जाता था। मेरी पत्नी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह नेवला क्या बला है - तो एक दिन मैं कह ही रहा था और उसने पूछा कि आखिर कैसा होता है यह नेवला और तभी श्रीमान साक्षात् खिड़की पर आ मौजूद हुए। आज वह घटना याद हो आई।