Skip to main content

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख।
पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं?
चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी।
'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब....
पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है,
धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही....

हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया,
****************************************************

वो आईं गाड़ियाँ

वो आईं गाड़ियाँ !
वो आईं गाड़ियाँ !

बत्ती जो हो गई हरी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी खिड़की पे खड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी बदमाश बड़ी
खींच लाई कुर्सी
खिड़की पे जा चढ़ी

ओ हो हू हा
ऊँची मंज़िल से चीखे
पुलकी बार बार
नीचे हल्ला गुल्ला
दौड़ें खुल्लम खुल्ला
रंग रंग की कार

बहुत कहा मत करो शोर
पुलकी न मानी न मानी
रही अड़ी की अड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

अब बत्ती हो गई लाल
कैसा हुआ कमाल
छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी
लाल गाड़ी पीली गाड़ी
हल्की गाड़ी ट्रक भारी
रुक गईं सारी सारी की सारी

मन मसोस पुलकी ने की उतरने की तैयारी
कुर्सी पर उतारे पैर, फिर छलाँग मारी
तब तक हुई बत्ती हरी फिर से
और फिर ....

वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !
***********************************************१९९२ (चकमक १९९३)

प्रत्यक्षा, आप को इतना बढ़िया चिट्ठा लिखने के लिए धन्यवाद! बच्चों की सोचें तो मेरे जैसा नास्तिक भी प्रार्थना करने लगता है
हे ईश्वर ! बच्चों को सँभाले रख।
मेरी बेटी ने जब चलना ही सीखा था, उन दिनों यह कविता लिखी थी।
इन दिनों मुझसे बहुत दूर कहीं है। शायद यह चिट्ठा पढ़े।
*******************************************************************************
मिर्ची, इलाके की एक और खबर।
करनाल के पाश पुस्तकालय में एन एस डी यानी नैशनल स्कूल अॉफ ड्रामा की कार्यशाला चल रही है। मैं तो नहीं जा पा रहा।
तुम्हारा मूड हो तो उड़कर आ ही जाओ।
पंजाबी के क्रांतिकारी कवि (अवतार सिंह) पाश के नाम पर बनी यह लाइब्रेरी पुलिस विभाग के अधीन है और इसका संचालक एक पुलिस का कर्मचारी है - है न मज़ेदार बात।
दूसरी बात, अंबाला भी इतना बुरा नहीं, घर आओ तो हिन्दी साहित्य की बड़ी हस्ती स्वदेश दीपक से कभी ज़रुर मिलना। युवा कवि समर्थ वशिष्ठ से भी।

Comments

Pratyaksha said…
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी, सरल और मासूम.
अगर आपकी बेटी अभी इसे पढे तो यकीनन उसे बहुत अच्छा लगेगा. बचपन की कई बातें कहीं बहुत अंदर घर कर जाती हैं, बाद में हम याद करते हैं, स्वाद लेकर.
अगले साल तो पक्का आना है। स्वदेश दीपक व समर्थ वशिष्ठ अम्बाला के ही हैं क्या।

पंकज
पाश ने ही कहा:
पुलिस की मार बुरी तो होती है
लेकिन सबसे खतरनाक....

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

- 'अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

मुझे अरुंधती से ईर्ष्या है

मैं उन करोड़ों लोगों में से हूँ, जो इस वक़्त अरुंधती के साथ हैं. ये सभी लोग अरुंधती के साथ जेल जाने की हिम्मत नहीं रखते, मैं भी डरपोक हूँ. पर इस वक़्त मैं अरुंधती का साथ देने के लिए जेल जाने को भी तैयार हूँ. अरुंधती ने जो कहा है वह हम उन सब लोगों की तरफ से कहा है, जो निरंतर हो रहे अन्याय को सह नहीं सकते. देशभक्ति के नाम पर मुल्क के गरीबों के खून पसीने को कश्मीरियों के दमन के लिए बहा देना नाजायज है और यह कभी भी जायज नहीं हो सकता. कश्मीर पर सोचते हुए हम लोग राष्ट्रवाद के मुहावरों में फंसे रह जाते हैं. जब इसी बीच लोग मर रहे हैं, कश्मीरी मर रहे हैं, हिन्दुस्तानी मर रहे हैं. करोड़ों करोड़ों रुपए तबाह हो रहे हैं. किसलिए, सिर्फ एक नफरत का समंदर इकठ्ठा करने के लिए. यह सही है कि हमें इस बात की चिंता है की आज़ाद कश्मीर का स्वरुप कैसा होगा और हमारी और पकिस्तान की हुकूमतों जैसी ही सरकार आगे आजादी के बाद उनकी भी हो तो आज से कोई बेहतर स्थिति कश्मीरियों की तब होगी यह नहीं कहा जा सकता. पर अगर यह उनके लिए एक ऐतिहासिक गलती साबित होती है तो इस गलती को करने का अधिकार उनको है. जिनको यह द...