Friday, December 02, 2005

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख।
पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं?
चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी।
'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब....
पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है,
धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही....

हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया,
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वो आईं गाड़ियाँ

वो आईं गाड़ियाँ !
वो आईं गाड़ियाँ !

बत्ती जो हो गई हरी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी खिड़की पे खड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी बदमाश बड़ी
खींच लाई कुर्सी
खिड़की पे जा चढ़ी

ओ हो हू हा
ऊँची मंज़िल से चीखे
पुलकी बार बार
नीचे हल्ला गुल्ला
दौड़ें खुल्लम खुल्ला
रंग रंग की कार

बहुत कहा मत करो शोर
पुलकी न मानी न मानी
रही अड़ी की अड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

अब बत्ती हो गई लाल
कैसा हुआ कमाल
छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी
लाल गाड़ी पीली गाड़ी
हल्की गाड़ी ट्रक भारी
रुक गईं सारी सारी की सारी

मन मसोस पुलकी ने की उतरने की तैयारी
कुर्सी पर उतारे पैर, फिर छलाँग मारी
तब तक हुई बत्ती हरी फिर से
और फिर ....

वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !
***********************************************१९९२ (चकमक १९९३)

प्रत्यक्षा, आप को इतना बढ़िया चिट्ठा लिखने के लिए धन्यवाद! बच्चों की सोचें तो मेरे जैसा नास्तिक भी प्रार्थना करने लगता है
हे ईश्वर ! बच्चों को सँभाले रख।
मेरी बेटी ने जब चलना ही सीखा था, उन दिनों यह कविता लिखी थी।
इन दिनों मुझसे बहुत दूर कहीं है। शायद यह चिट्ठा पढ़े।
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मिर्ची, इलाके की एक और खबर।
करनाल के पाश पुस्तकालय में एन एस डी यानी नैशनल स्कूल अॉफ ड्रामा की कार्यशाला चल रही है। मैं तो नहीं जा पा रहा।
तुम्हारा मूड हो तो उड़कर आ ही जाओ।
पंजाबी के क्रांतिकारी कवि (अवतार सिंह) पाश के नाम पर बनी यह लाइब्रेरी पुलिस विभाग के अधीन है और इसका संचालक एक पुलिस का कर्मचारी है - है न मज़ेदार बात।
दूसरी बात, अंबाला भी इतना बुरा नहीं, घर आओ तो हिन्दी साहित्य की बड़ी हस्ती स्वदेश दीपक से कभी ज़रुर मिलना। युवा कवि समर्थ वशिष्ठ से भी।

3 comments:

Pratyaksha said...

आपकी कविता बहुत अच्छी लगी, सरल और मासूम.
अगर आपकी बेटी अभी इसे पढे तो यकीनन उसे बहुत अच्छा लगेगा. बचपन की कई बातें कहीं बहुत अंदर घर कर जाती हैं, बाद में हम याद करते हैं, स्वाद लेकर.

मिर्ची सेठ said...

अगले साल तो पक्का आना है। स्वदेश दीपक व समर्थ वशिष्ठ अम्बाला के ही हैं क्या।

पंकज

मसिजीवी said...

पाश ने ही कहा:
पुलिस की मार बुरी तो होती है
लेकिन सबसे खतरनाक....