Wednesday, November 09, 2005

कुछ फ्रांस, कुछ अपना दुःख

फ्रांस में जो कुछ हो रहा है, इस पर कितना सच हमें पता चल रहा है और कितना नहीं! हमारी पीढ़ी तक के लोग कालेज के दिनों में अल्जीरियाई मनःश्चिकित्सक और सैद्धांतिक चिंतक फ्रांत्स फानों की पुस्तकें, खास कर 'रेचेड आफ द अर्थ' पढ़ा करते थे। उत्पीड़ित की हिंसा, इन्कलाबी हिंसा और आतंकवादी हिंसा या जिसे मोटिवलेस हिंसा कहते हैं, इनमें फर्क क्या है, यह समझना ज़रुरी है और पहली दो किस्म की हिंसाओं को समझने में फ्रांत्स फानों की पुस्तक मदद करती है। दुनिया में जितना कुछ गलत है, उसको देखते हुए आश्चर्य होता है कि सचमुच चारों ओर हिंसा इतनी कम कैसे है। फिर भी, जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, 'है दुःख, है मृत्यु, विरह दहन लागे, फिर भी शांति, फिर भी आनंद, अनंत... ' ।
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इतनी उम्र हो गई, अब भी यहाँ की लालफीताशाही पर गुस्सा आता है। सरकारी एजेंसी का पैसा, उन्हीं की मीटिंग, फिर भी तीन महीनों से टी ए बिल पास नहीं हुआ। क्या हुआ कि वी सी साहब ने दरखास्त पर 'ऐज़ पर रुल्स' लिख दिया है। आखिर इसमें क्या समस्या है, हर चीज़ ही ऐज़ पर रुल्स होनी चाहिए। पर यहाँ इसका मतलब होता है कि क्लर्क बाबू जी समझ लें साहब को कोई गरज़ नहीं कि पैसा पास होता है या नहीं। जब मैं शिक्षक संगठन का अध्यक्ष था, एक बार उन्हें बतलाया था, तो बोले मैं तो हमेशा ही ऐज़ पर रुल्स लिखता हूँ। मैंने बतलाया कि मैं ऐसे मामलों से वाकिफ हूँ जब विश्वविद्यालय के पैसे लेकर कभी शोध कार्य न करने वाला और पदोन्नति में रुका हुआ व्यक्ति भी हवाई जहाज से उड़कर दूर शहरों में घूम आया है। साहब को क्या फर्क पड़ना था, साहब तो साहब हैं, अपने पराए का एक हिसाब है तो है।
बहरहाल इन बातों से दिमाग नाहक परेशान ही रहता है।
इसलिए दोस्तो, हमारे जैसे बिंदास लोग भी विश्वविद्यालयों में दुखी ही रहते हैं। कह सकते हैं कि दुःख नंबर एक सौ दो आपने आज जाना। धीरे-धीरे बाकी पाँच सौ छियासठ भी जान जाएंगे। इसलिए बड़े दुखी मन से ही मैं भी यहाँ से चलने की तैयारी में हूँ। वैसे भी अपने विभाग में कभी भी अपने आप को वांटेड महसूस नहीं किया। जब आया था, तब शोधकार्य में वैसे ही कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी, मतलब जो भी होगा ठीक है मानकर प्रिंसटन से सीधा यहाँ आया था। दस-बारह साल तक तो पूरा गैंग बनाकर कुछ लोग परेशान करते रहे। बिंदास था, बेहतर दुनिया देखी थी, इसलिए लगातार परेशानी के बावजूद ज़िंदा रहा। जब करने को कुछ था ही नहीं तो दो साल मध्य प्रदेश में 'एकलव्य' संस्था में रहा। फिर मुख्यतः पारिवारिक कारणों से ही थोड़ी देर के लिए अमरीका वापस गया। विज्ञान, साहित्य, पत्रकारिता, थोड़ी बहुत सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ, सब कुछ साथ साथ चलता रहा। छात्रों की तीन-चार पीढ़ियों के साथ अलग-अलग तरह के काम किए।
नागरिक अधिकारों के लिए, लोगों में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के लिए, साक्षरता आंदोलन, कुछ न कुछ करते ही रहे। अब यहाँ से मुक्त होने का समय आ रहा है, तो तकलीफ होती ही है।

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