Sunday, February 28, 2016

ज़रूरत है ऐसे अदब की

 https://www.brainpickings.org/2016/02/24/walt-whitman-democratic-vistas/
(अनुवाद मेरा है)
जैसे हालात आज देश में हैं, समाज के कुछ हिस्सों को औरों से लकीर खींच कर अलग रखना - उन्हें औरों की तरह सुविधाएँ न देना, उन्हें बिला-वजह अपमान और निचले स्तर पर रखना - इससे अधिक बड़ा खतरा किसी राष्ट्र के लिए और कुछ नहीं हो सकता।
ह्विटमैन कहते हैं कि बेहतर बराबरी की ओर बढ़ने के लिए सबसे अच्छा औजार अदब है - ऐसा अदब जो छूटे हुओं की आवाज़ सामने लाता है, जो उनकी छटपटाहट को उरूज की ओर ले जाता है, उसे फैलाता है और उसमें ऐसी उमंग भर देता है जो उनके लिए समाज में अपनी अमिट भागीदारी का अधिकार दिखलाते अक्स बन कर आती है।
...
ज़रूरत है ऐसे अदब की - नई ज़मीन पर खड़े अदब की, जो मौजूदा पैमानों में बसी ज़मीन की नकल नहीं है, या कि वाहवाही के पीछे भागता नहीं है... बल्कि ऐसे अदब की जो ज़िंदगी के बुनियाद से जुड़ा हो, जिसमें नैतिकता हो, जो विज्ञान-संगत हो, जो काबिलियत के साथ सभी बुनियादी मसलों और ताकतों से जूझ सके, लोगों को इल्म दे और उन्हें प्रशिक्षित करे - और, जिसके अंजामों में शायद सबसे बड़ी बात यह निकले कि वह स्त्री को पूूरी तरह मुक्त कर सके... जिससे कि हर तरफ ताकतवर और खूबसूरत स्त्री जाति का होना निश्चित हो जाए...
Of all dangers to a nation, as things exist in our day, there can be no greater one than having certain portions of the people set off from the rest by a line drawn — they not privileged as others, but degraded, humiliated, made of no account.
The supreme tool of reconstructing a more equal society, Whitman asserts, is literature — a body of literature that gives voice to the underrepresented, that elevates and expands and invigorates their spirits by mirroring them back to themselves as indelibly worthy of belonging to society.
...
A new founded literature, not merely to copy and reflect existing surfaces, or pander to what is called taste … but a literature underlying life, religious, consistent with science, handling the elements and forces with competent power, teaching and training men — and, as perhaps the most precious of its results, achieving the entire redemption of woman … and thus insuring to the States a strong and sweet Female Race… — is what is needed.

Sunday, February 21, 2016

'राष्ट्रवाद एक भयंकर बीमारी है' - रवींद्रनाथ ठाकुर


जे एन यू में क्या हुआ?
(पूरा लेख रविवार डॉट कॉम में यहाँ छपा है। भोपाल से प्रकाशित 'गर्भनाल' पत्रिका के मार्च अंक में यह लेख थोड़े बहुत बदलाव के साथ छपा है। अंतिम पैरा बिल्कुल नहीं आया है) 

इंसान धरती पर तरक्की के उरूज पर पहुँच गया है। अधिकतर ग़रीब लोगों की आबादी के भारत जैसे मुल्क ने चाँद और मंगल ग्रह तक महाकाशयान पहुँचाएँ हैं। पिछली सदियों की तुलना में सारी दुनिया में लोकतांत्रिक ताकतें मौजूद हुई हैं। यह सब इंसानी काबिलियत, लियाकत और मेहनत से संभव हुआ है। तरक्की का चक्का औसतन आगे की ओर ही बढ़ता रहा है, पर कभी-कभार जैसे झटकों में वह पीछे की ओर मुड़ता है। हाल में जे एन यू परिसर में हुई और बाद में दिल्ली शहर में इसीसे जुड़ी और घटनाएँ उन झटकों का हिस्सा हैं जो भारत में पिछले कुछ सालों से लगते रहे हैं। खास तौर से पिछले दो सालों में ये झटके खौफनाक ढंग से बढ़ते जा रहे हैं। जे एन यू में बेवकूफाना ढंग से छात्रनेता की गिरफ्तारी और बाद में पटियाला हाउस अदालत में हुई हिंसा की घटनाओं से हमें अचरज नहीं होना चाहिए। ये एक लंबे सिलसिले की कड़ियाँ हैं, जो हिंदुस्तान की आवाम को नवउदारवादी आर्थिक ढाँचों के शिकंजे में क़ैद रखने के लिए न जाने कब से चल रहा है।

जिन्हें देश, देशभक्ति आदि के बारे में बातें करनी हैं, यह लेख उनके लिए नहीं है, क्योंकि उन्हें पता भी नहीं है कि कैसे उन्हें बड़ी राजनैतिक ताकतों ने इन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए मानसिक रूप से गुलाम बना रखा है। पिछले कई सालों से देशी और विदेशी सरमाएदारों की मदद से सत्तालोलुप कुछ लोगों ने लगातार गुंडा संस्कृति को बढ़ाना शुरु किया है। यह कहना ग़लत होगा कि गुंडा संस्कृति किसी खास राजनैतिक प्रवृत्ति में ही दिखती है। वाम-दक्षिण हर तरह की राजनीति ने समय समय पर गुंडा संस्कृति को बढ़ाया है. पर जैसा माहौल आज देश भर में फैल रहा है, ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ। इसके पीछे जो सहज समझ है, वह यह है कि ज्यादातर लोग वैसे ही बौद्धिक रूप से विपन्न हैं; थोड़ी बहुत जो कुदरती क्षमता सोचने समझने की है भी, वह भी ग़रीबी, बेरोज़गारी की मार से कुंद हुई पड़ी है, इसलिए लोगों को हिंसा के रास्ते पर धकेलो। लोगों को यह एहसास दिलाया जाए कि वे अपनी गली के कुत्ते जैसे शेर हो सकते हैं। आज की सत्तासीन पार्टी सरकार के प्रशासन-तंत्र और सरमाएदारों की मदद से खरीदे मीडिया का इस्तेमाल कर देश भर में उन गलियों को बना रही है, जहाँ मरियल कुत्ते भी शेर बन कर दहाड़ें। सचमुच यह बात इक्कीसवीं सदी की दुनिया में किसी को समझ न आती हो कि हर किसी को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का हक है, ऐसा नहीं है। हाँ, कुछ लोग ज़रूर होंगे, जो मानसिक रूप से वाकई विक्षिप्त हैं और बेशक ऐसे लोग सत्तासीन दल और उनके कुख्यात परिवार में हैं भी, पर देश भर में इस बात को लोगों के सामने रखने की हिमाकत कर पाना कि सज़ा--मौत के फरमान से असहमत लोग गद्दार होंगे ही, इसकी वजह कोई गहरी वैचारिक समझ नहीं, यह महज एक राजनैतिक दाँव है। ऐसा दाँव इसी हिसाब के साथ चला गया है कि ग़रीबों को हिंसा की ओर धकेलना आसान होगा, क्योंकि ज़ुल्मों की इंतहा सहते हुए वे इतने अधमरे हो चुके हैं कि उनके पास कोई विवेक नहीं बचा है। यानी कि देश के बहुसंख्यक लोगों को उल्लू बनाकर हिंसा और खौफ़ की संस्कृति का माहौल बनाते चलो, यह संघ परिवार और उनकी पार्टी का पहला एजेंडा बन चुका है।

वैसे तो सिलसिला लंबा है, पर फौरी हालात क्या थे? हैदराबाद विश्वविद्यालय में केंद्रीय मंत्रियों के इस आक्षेप पर कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ हो रही हैं, प्रशासन ने दलित छात्रों का सामाजिक बहिष्कार का फरमान जारी किया। इनमें से एक छात्र रोहित वेमुला ने, जिसके बराबर की शैक्षणिक योग्यता वर्तमान केंद्रीय सरकार में उच्च-शिक्षा की प्रभारी मानव संसाधन मंत्री इस जन्म में तो कतई नहीं पा सकतीं, खुदकुशी की। इसे संघ परिवार के साथ जुड़े छात्रों के अलावा बाकी सभी छात्रों ने संस्थानिक हत्या कहा और पहले से चल रहे बड़े छात्र आंदोलनों में एक और आंदोलन जुड़ गया। इस आंदोलन में देश भर के तरक्कीपसंद राजनैतिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता जुड़ गए। इस आंदोलन की ओर से 23 फरवरी को 'दिल्ली चलो' का नारा दिया गया। चूँकि यह आंदोलन वाम और दलित राजनैतिक ताकतों की एकजुटता का अद्भुत मिसाल बन गया और इससे आने वाले राज्यों के चुनावों में दलितों के मत खो देने का आतंक भाजपा के सामने मँडराने लगा, इस गफलत से निकलने की कोई रणनीति संघ परिवार को चाहिए थी। इससे निपटने का एक तरीका यह था कि वामपंथी छात्रों को ऐसे किसी जगह फँसा दो कि दलितों को लगे कि उनको पीछे धकेल दिया गया है। और यह मौका भी आसानी से मिल गया जब अफज़ल गुरु की फाँसी की बरसी पर कुछ काश्मीरी छात्रों ने काश्मीर की आज़ादी के लिए नारे लगाए। छात्र संघ के नेता को गिरफ्तार करो और उसके बाद तो सारा वाम इस तरफ लड़ता रहे। यह बात कुछ हद तक सफल हुई होगी, पर पूरी तरह से नहीं हो पाई है। हैदराबाद में लड़ रहे छात्रों ने जे एन यू के छात्रों साथ एकजुटता दिखलाई है। और शुरुआत में मीडिया में संघ परिवार के अपने लोगों ने जो उछल-कूद मचाकर लोगों को उल्लू बनाने की कोशिश की थी, उसका भी असर जल्दी ही खत्म हो गया है। बाक़ी कुछ बचा है तो सिर्फ यही कि लोग पूछने लगे हैं कि यह सरकार और उनके गुंडे कितनी दूर तक जाएँगे और ये क्यों हमें बेवकूफ मानकर चल रहे हैं। जनता बेवकूफ नहीं है, वह पिटी हुई है, ग़रीब है, लाचार और सताई हुई है, पर वह इतनी भी गई-गुजरी नहीं है कि इन मदारियों के खेलों में हमेशा ही उलझी रह जाए।

सबसे बड़ी बात यह कि लोग पूछने लगे हैं कि क्या काश्मीर के लोगों के लिए आज़ादी का हक माँगना गैरवाजिब है? अफज़ल गुरु और याकूब मेमन की फाँसी पर सवाल उठाने वालों में देश के सबसे नामी कानूनविदों की बड़ी संख्या है, जिनमें से कई देश के उच्चतम न्यायालय में वकालत करते हैं। क्या भारत सरकार के बहुत बड़े अफसर रहे पी एन हक्सर (इंदिरा गाँधी के पाँच साल तक सलाहकार रहे) की वकील और मानव-अधिकार कार्यकर्ता बेटी नंदिता हक्सर, भाजपा के पहले रूप जनसंघ के अपने केंद्रीय कानून मंत्री रहे शांतिभूषण के बेटे सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण, सुप्रीम कोर्ट के ही दूसरे वकील कामिनी जायसवाल, सुशील कुमार और कई नामी गरामी वकीलों और कानूनविदों के साथ एक स्वर में अफज़ल गुरु की फाँसी पर सवाल उठाना देशद्रोह है? क्या देश के तमाम बुद्धिजीवियों के साथ यह पूछना कि याकूब मेनन को मौत की सज़ा देना कितना वाजिब था, ग़लत है? क्या किसी का अपने मन पसंद का आहार खाना उसके देश के खिलाफ जाता है? जनता कभी तो पूछेगी ही कि हमें मरियल कुत्तों से बदतर रखने वालो, तुम किस देशभक्ति की बात कर हमसे अपनी गुंडा-संस्कृति का समर्थन माँग रहे हो। इसलिए इस पूरे कांड में हुआ यही है कि दलित-वाम एकजुटता और मजबूत हुई है। जय भीम और लाल-नील सलाम के नारे देश भर में लगने लगे हैं।

देशभक्ति के बारे में सौ साल से भी पहले अमेरिकी चिंतक और राजनैतिक कार्यकर्ता एमा गोल्डमैन ने पूछा था, “देशभक्ति क्या है? क्या यह उस ज़मीन के लिए है, जहाँ हमने जन्म लिया, हमारे बचपन की यादों और उम्मीदों, सপनों और ख़्वाहिशों के लिए प्यार है? क्या देश वह जगह है जहाँ बच्चों सी सरलता लिए हम बादलों को निहारते हैं और सोचते हैं कि हम भी उनकी तरह इतनी तेजी से तैर क्यों नहीं पाते, नन्हे दिलों को गहराई तक भेदती वह जगह जहाँ हम ख़ौफ़ से करोड़ों टिमटिमाते तारों को गिनते हैं, कि कहीं हर आँख उनमें से किसी एक में खो न जाए? क्या वह ऐसी जगह है जहाँ हम चिड़ियों की आवाज़ सुनें और हममें उन्हीं की तरह उड़ने के लिए पंख पाने की तमन्नाएँ जाग उठें? या कि वह ऐसी जगह है जहाँ हम महान आविष्कारों और कारनामों की कहानियाँ सुनते मुग्ध होकर अपनी माँओं के घुटनों पर बैठें? संक्षेप में क्या यह उस जगह के लिए प्यार है, जिसका हर जर्रा हमें खुशियों भरा खेलता बचपन याद दिलाता है?” जाहिर है, और इस बात को एमा गोल्डमैन ने अपने उस प्रख्यात भाषण में समझाया था कि राजसत्ताएँ हमें जिस देशभक्ति में यकीन करने को कहती हैं, वह कुछ अलग ही है। वह हमें अपने कुदरती इंसानियत से दूर ले जाती है और हमें महज हिंसक जानवर बना देती है। इसीलिए तो पिछली सदी के सबसे बड़े वैज्ञानिक ऐल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा था कि 'मैं हर तरह के राष्ट्रवाद के खिलाफ हूँ, चाहे वह देशभक्ति का चोंगा पहनकर सामने आए'; हमारे अपने कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था, 'राष्ट्रवाद एक भयंकर बीमारी है। एक लंबे अरसे से यह भारत की समस्याओं का मूल बना हुआ है।' खास तौर पर, जैसी देशभक्ति संघ परिवार की है, उसमें भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विविधता को एकांगी मनुवादी ढाँचे में समाहित करने का आग्रह ही नहीं, हिंसा पूर्ण आग्रह है। उनकी मुसीबत यह है कि पहले तो ऐसी पिछड़ी सोच को सीधे-सीधे कह बैठते थे, गाँधी की भी हत्या कर दी, पर अब जमाना बदल चुका है। अब थोड़ा सा ही पढ़-लिख कर लोग जान जाते हैं कि सौ साल पहले जैसा साम्राज्यवाद नहीं चलने वाला। अब ताकतवर मुल्क वे हैं जहाँ नागरिकों को तालीम, सेहत जैसी बुनियादी सुविधाएँ हासिल हैं। क्षेत्रफल के पैमाने में बड़े होने से ही देश ताकतवर नहीं बन जाते, बल्कि सचेत और आधुनिक सोच से लैस, स्वस्थ नागरिकों वाले देश ताकतवर होते हैं। देश कितने भी हों, पूँजीवादी नज़रिए से भी खुला व्यापार और यूरोप जैसी संघीय अर्थ-व्यवस्थाएँ ही समृद्धि का पैमाना हैं। इसलिए अब आपसी समझौतों से नए देश बनते-टूटते हैं। यूरोप में पिछली सदी में आलमी जंगों में करोड़ों की मौत हुई, पर आज वहाँ फ्रांस और जर्मनी जैसे मुल्क एक ही संघ में खुली सरहदों के साथ हैं। जर्मनी और फ्रांस के कुछ सरहदी इलाकों को लेकर विवाद था कि वे किस मुल्क में जाएँगे; इसे शांतिपूर्ण ढंग से मतगणना के द्वारा निपटाया गया। अब अरबों खरबों रुपए खर्च कर फौज पुलिस की मदद से जनता को दबाए रख कर सत्ता में रहने का जमाना चला गया। इसलिए इन बदले हालात में एक ओर तो संघ परिवार तालीम में हस्तक्षेप कर हमारे बच्चों को मध्य युग में धकेलने की कोशिश में लगा है, ताकि जब तक हो सके लोगों को मुक्तिकामी सोच से दूर रखा जा सके; दूसरी ओर उन्हें गाँधी, आंबेडकर, पटेल, हर किसी का सहारा चाहिए। पहले जज़्बा ताकत होता था, इसे आगे बढ़ाने के लिए सरमाया चाहिए होता था, पर अब सरमाया ही ताकत है। इसलिए किसी भी तरह सत्ता में आना और आने के बाद पूँजीवादियों के हित और ताकत बढ़ाते रहना ही उनका ध्येय है। इसलिए उस गाँधी को, जिसकी हत्या इन्होंने की, राजनैतिक स्वार्थ के लिए उसका नाम लेने में भी कोई हर्ज़ नहीं। वह बाबासाहेब आंबेडकर जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ आजीवन लड़ते रहे और अपने कहे अनुसार हिंदू जन्मे, पर मरने से पहले धर्म-त्याग कर बौद्ध हो गए, उसका नाम लेने में इन हिंदुत्ववादियों को कोई हर्ज नहीं है। हाल के दशकों तक कांग्रेस ने इनकी चलने नहीं दी थी। कांग्रेस वाले आज़ादी के पहले से ही जहाँ संभव हुआ फिरकापरस्ती को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। साथ ही धर्म निरपेक्षता का नारा देते हुए संघ और भाजपा को अलग-थलग भी करते रहे हैं। आखिरकार संघ परिवार ने खुलकर सांप्रदायिक ताकत बनकर सामने आने और सरमाएदारों के साथ खुला समझौता करने का निर्णय ले लिया। इसके लिए इनके चाणक्य ने हर तरह के खूँखार हत्यारों को खुली छूट दी। झूठ की फैक्ट्री के बिना तो इनका अस्तित्व ही नहीं टिक सकता है, इसलिए उस पर चर्चा ही बेमानी है। कुछ ऐसी ही कोशिशें छात्र राजनीति में लाने की भी होती रहीं। हैदराबाद और जे एन यू की कहानी इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं।

धार्मिक तालिबानियों के साथ सरमाएदार तालिबानियों का गठजोड़ आज पूरे मुल्क पर हावी है। जे एन यू में क्या हुआ? कुछ खास नहीं, इसी गठजोड़ की अनगिनत करतूतों में से एक हुआ। जैसा साईनाथ ने अपने भाषण में छात्रों से कहा है कि आइए, अब आप बाक़ी हिंदुस्तान से जुड़ जाइए, जहाँ नवउदारवादी आर्थिक साम्राज्यवाद के ये दलाल, देशभक्ति का झाँसा देने वाले ये लोग किस तरह पुलिस और शासन-तंत्र के और औजारों का इस्तेमाल कर जनता को हिंसक तरीके से दबा रहे हैं। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि ये इस बार गहरे गड्ढे में पैर फँसा बैठे हैं, निकलना आसान नहीं होगा। अफज़ल गुरु पर खूब बहस करें, ताकि लोग सोचने लगें कि वह आदमी कौन था, जिसने खुद को धरती का बाशिंदा कहा था और जिसकी सज़ा को देश के सबसे बड़े कानूनविदों ने ग़लत ठहराया था; जिसकी मौत पर तिहाड़ जेल के जेलर और दूसरे अफसरों ने भी अफसोस जताया थाआखिर अफज़ल गुरु को फाँसी क्यों हुई? तब गाँधी के हत्यारों से पूछेंगे कि किस-किस पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगाएँगे! कहीं आईने में इनको असली गद्दार लिखा तो नहीं दिखने लगेगा!


Tuesday, February 02, 2016

मुझे दिखते बादल मटमैले


संवाद

मुझे दिखते बादल मटमैले

आप कहते हैं कि अब तूफान नहीं आएगा

मैं देखता हूँ कि हवा थमी ही नहीं


आप विरक्त हैं

आपके अंदाज़ में दया है

मेरे पास दो रास्ते हैं

एक कोना है जहाँ मैं सिमट सकता हूँ

दूसरा यह कि मैं आप की आँखों की सर्जरी करूँ

कि वे देख सकें जो चारों ओर है


आप समझाते हैं

कि मुझे बैठ जाना चाहिए

नहीं देखना चाहिए जो दिखता है


मैं कोने में सिमटने से पहले

उछलना चाहता हूँ

आप हैं जितने शिथिल

टाँगें बेजान, मुट्ठियाँ बंद

मेरा शरीर उतना ही है बेचैन

मुझे बदली में दिखती है धूप

हवा के कण परस्पर दूर भागते

दीवारें पारदर्शी

प्रकाश के साथ ताप का एहसास
 
ज़मीं से आस्मां तक धधकती फिजां

आप को लगता है कि

इन दिनों धरती रहने लायक नहीं रही

मैं धरती को चूमता हूँ

उन्मत्त नहीं, सधे ताल पर नाचता हूँ।      (वागर्थ 2016)