Tuesday, November 08, 2005

भारतीय होने पर गर्व

अभी साइमन सिंह की 'फेर्माज़ लास्ट थीओरेम' कुछ ही पन्ने पढ़े थे, इसी बीच एक और अच्छी किताब मिल गई - सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन'। जितना पढा मज़ा आ गया। बहुत पहले साइंटिफिक अमेरिकन में जोसेफसन के बारे में पढा था कि कैसे अतिचालकता (सुपरकंडक्टिविटि) पर काम कर नोबल पुरस्कार पाने के बाद वे कांससनेस (चेतना) पर शोध करने लगे थे। काफी हद तक अपनी सुध-बुध खोकर काम करते थे। बहरहाल ब्लैकमोर की पुस्तक में थोड़े से पन्नों में चेतना के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और जैववैज्ञानिक पक्ष पर बखूबी से लिखा गया है। अनुवादक ध्यान दें, यह अनुवाद करने लायक पुस्तक है। जिन्हें वैदिक ज्ञान या पुनर्जन्म आदि ढकोसलों की खोज है, वे इसे न पढ़ें। यह एक विशुद्ध वैज्ञानिक विषय-वस्तु की पुस्तक है, आम पाठक के लिए लिखी हुई।
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काश्मीर में भारत-पाक सीमा की खबर आज सुर्खियों में थी। लोगों ने सीमा पार कर अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए बेताबी से कोशिश की और पाकिस्तानी पुलिस ने आँसू-गैस बरसा कर उन्हें रोका।
पता नहीं कितने समय तक काश्मीर के लोगों को यह यातना सहनी होगी। भारत में उनके हकों की लड़ाई लड़ने को देशद्रोह माना जाता है। उनके पक्ष में बोलने वाले लोग कोई नहीं। थोड़े बहुत जो हैं भी, उन्हें पापुलर मीडिया में जगह नहीं मिलती। एकबार किसी सभा में मैंने इसे भारतीय लोकतंत्र की कमज़ोरी कहा तो एक वक्ता ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि अखबारों में हर रोज़ पृथकतावादियों के बयान छपते हैं, जबकि मेरा आशय पृथकतावादियों से नहीं, बल्कि हमारे जैसे साधारण नागरिकों से था, जो काश्मीर के प्रति भारत या पाकिस्तान की नीतियों से सहमत नहीं। हाल में एक राष्ट्रीय अखबार में मेरे लिखे एक लेख में काश्मीर प्रसंग में लिखे शब्द 'आज़ादी' को 'कथित आज़ादी' कर दिया गया, बिना मुझसे पूछे ही। स्पष्ट है कि डेस्क संपादक को लगता है कि आज़ादी शब्द से कहीं खतरा है। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह की मानसिकता हमारे लोकतांत्रिक रुप से पिछड़े होने को ही दर्शाती है। दूसरी ओर प्रोफेसर परवेज़ हूदभाई की रीपोर्ट में यह पढ़कर भारतीय होने पर गर्व से जी भर आया कि इकबाल अहमद फाउंडेशन द्वारा एकत्रित भूकंप राहत-कोष में सबसे अधिक राशि एक आप्रवासी भारतीय ने दिए हैं - दस हजार डालर।

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