Sunday, September 21, 2014

उसे भी सपने आते हैं


आबादी बढ़ रही है आवाज़ों की


जिससे मिलना है उसकी आवाज़ से मिल चुका हूँ
क्या वह वैसा ही होगा जैसी उसकी आवाज़ है
आवाज़ में उत्तेजना है
आदमी नीले आसमान के कोने में उठता हुआ
बादल का टुकड़ा हो सकता है
यह अधेड़ की उत्तेजित आवाज़ है
इसमें सदियों तक हारते रहने का अहसास है
उसे भी सपने आते हैं
एक सुनी हुई आवाज़ से मिलने के
दिन ऐसे आ गए हैं कि हो सकता है
हम कभी न मिलें और
हमारी आवाज़ें मिलती रहें
आबादी बढ़ रही है दुनिया में आवाज़ों की।

(
नया ज्ञानोदय- 2009; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित)

फाइल में नया ज्ञानोदय देख रहा हूँ, पर स्मृति में वागर्थ है। खैर,...

Thursday, September 18, 2014

आज वह बैंगनी सपना है


कल आज



कल जिसके साथ खेलने गया था

आज वह कहीं और है

सपनों में वह आता है

हम खेलते हैं 
 
एक ही खेल में फुटबॉल क्रिकेट।


मैंने उसे चिट्ठी लिखी है

उसने मुझे चिट्ठी लिखी है

चिट्ठी में आज की बातें हैं 
 
कल की भी बातें हैं 
 
अलग-अलग बातें 
 
अलग-अलग रंग 
 
शिकवा है तो लाल-लाल

नखरे हैं हरे-हरे

मिस करते हैं नीला 
 
पढ़कर हँसते हैं तो बासंती हो जाते हैं शब्द।


बातें खेल की

बातें पढ़ाई-लिखाई की

बातें जब बच्चे थे तब की 
 
बातें बड़े होते रहने की


सपने में तितली पकड़ते 
 
एक दूसरे से टकरा जाते हैं

एक दूसरे को फूल देते हैं

सपने में फूल का विज्ञान भी जान लेते हैं


कल जिसके साथ खेलने गया था

आज वह बैंगनी सपना है। 
 
(दृश्यांतर - 2014)

Sunday, September 14, 2014

रिसने न दें इतराना


कुछ है जो नहीं रिसता है


चुप्पी है, और दृश्य। दृश्यों में फिसफिसाहट सी बातचीत ।

इतराना। चलें जैसे तैर रहे। बीच हवा या धुंध हमें बाँधे हुए है और हम जब चाहें उड़ने को तैयार। चारों ओर पत्ते जिन्हें

सहलाते हुए चलें जैसे पत्ते हमारे अंदर गहरे घावों को सहलाते।

हम इसे रिसने न दें।

धरती में हर कुछ रिस रहा हो

कहें कि कुछ है जो नहीं रिसता है।

धरती का हर ज़र्रा रिस जाए

खूं का हर कतरा रिस जाए

रिसने न दें

अपना इतराना।

(दृश्यांतर - 2014)

Saturday, September 06, 2014

वक्त गुजारता हूँ

जली है एक बार फिर दाल

जली
है एक बार फिर दाल
या
कि इस बार दूध उबला है 
यूँ
ही उबलते जलते हैं शब्द
आदमी
तो महज चूल्हे तक जाकर 
आँच
धीमी कर सकता है

आग
के बुझने से नहीं रुकता
जो
उबलता जलता है
वक्त
गुजारता हूँ
स्वाद
जला मुँह में लिए।
 
(2004; दृश्यांतर 2014)