Sunday, December 30, 2012

छब्बीस साल पहले लिखी एक रचना


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किसी दिन तू आएगी

तू जो मेरे जन्म से
मौत तक
मुझसे जुड़ी है
तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता
तेरे आँसुओं को पहचानता
तेरी चाह में भटकता
तेरी मांसलता में
खुद को छिपाता
तेरे दिए बच्चों से खेलता
तुझे रौंदता रहा हूँ

तुझे तो पता है
कितना डरा हुआ हूँ मैं
कितना घबराता हूँ तुझसे
फिर भी
तेरा गला दबोचता हूँ
जानता हूँ
हर शोषित की तरह
तुझे भी पता है
कि यह सब बदलेगा
किसी दिन
तू बाजारों में पत्रिकाओं के
मुख-पृष्ठों पर और
रसोइयों में मिट्टी के तेल की
आग से
मरेगी नहीं
जानता हूँ किसी दिन तू आएगी
मुझे ले चलने

उस दिन हमारे शरीर पर
शोषण और भूख के
कपड़े नहीं होंगे

उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे
देखेंगे
चारों ओर सब कुछ

बदल गया होगा
पार्थिव सौंदर्य में।
(१९८६)

Wednesday, December 26, 2012

कविता नहीं


यह कविता 1994 में हंस में छपी थी।
***

कविता नहीं

कविता में घास होगी जहाँ वह पड़ी थी सारी रात।
कविता में उसकी योनि होगी शरीर से अलग।

कविता में ईश्वर होगा बैठा उस लिंग पर जिसका शिकार थी वह बच्ची।
होंगीं चींटियाँ, सुबह की हल्की किरणें, मंदिरों से आता संगीत।

कविता इस समय की कैसे हो? 
आती है बच्ची खून से लथपथ जाँघें?
 बस या ट्रेन में मनोहर कहानियाँ पढ़ेंगे आप सत्यकथा उसके बलात्कार की।

हत्या की।
कविता नहीं।

***
यह कविता 'लोग ही चुनेंगे रंग' (2010, शिल्पायन) में शामिल है। एक प्रगतिशील समीक्षक ने 'पुस्तक वार्ता' में इसे उद्धृत करते हुए यह बतलाया था कि मुझे कविता लिखनी ही नहीं आती। समीक्षक जैसा भी हो, उसकी बात सर माथे पर। इसी संग्रह पर प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने फरवरी 2011 में चंडीगढ़ में एक पूरा व्याख्यान दिया था।
इधर 'वागर्थ' के दिसंबर अंक में साथी कवि विमल कुमार ने घोषित किया है कि 1992 (असल में 1991) में पहला संग्रह आने के बाद मैं सक्रिय नहीं रहा। यह भी सर माथे पर। हिंदी के कवि हैं भाई। शुकर है कि हत्या तो नहीं की, निष्क्रिय ही किया है। 2010 के दिल्लविश्व पस्तक मेले में जब 'लोग ही चुनेंगे रंग' संग्रह का विमोचन प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने किया था, विम मेरे साथ था। 
मेरा पाँचवाँ कविता संग्रह 'नहाकर नहीं लौटा है बुद्ध' वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, से आ गया है। पिछला 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' वाणी प्रकाशन, दिल्ली, से आया था। नए संग्रह का ब्लर्ब डा. प्रणय कृष्ण ने लिखा है।

 सबको नए साल की शुभकामनाएँ

Tuesday, November 27, 2012

प्रकृति-प्रेरित ऊर्जा के वैकल्पित स्रोत



हमारे समय में ऊर्जा का संकट एक बड़ा संकट है। औद्योगिक क्रांति के पहले जंगल से काट कर लाई गई लकड़ी ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत थी। औद्योगिक क्रांति ने बड़े पैमाने पर कोयला और खनिज तेल की खपत बढ़ाई। कोयला और खनिज तेल का उत्पादन क्षेत्र और इनकी खपत के क्षेत्र में भौगोलिक दूरी से पूँजीवादी विकास सीमित रह गया होता, पर बिजली के आविष्कार और संचय में तरक्की से विकास और ऊर्जा की खपत धरती के हर क्षेत्र में फैला और ऊर्जा की खपत तेज़ी से बढ़ी। पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था द्रुत औद्योगिक प्रगति की माँग करती है। इसके लिए, खास तौर पर मैनुफैक्चरिंग सेक्टर यानी उत्पादन क्षेत्र को अधिकाधिक ऊर्जा चाहिए। साथ ही मध्य-वर्ग के लोगों की बदलती जीवन शैली और इस वर्ग में बढ़ती जनसंख्या से ऊर्जा की खपत तेज रफ्तार से बढ़ती चली है। बड़े पैमाने में ऊर्जा की पैदावार के लिए कोई भी सुरक्षित तरीका नहीं है। कूडानकूलम संयंत्र के खिलाफ जो जन-संघर्ष चल रहा है और हाल में जापान और फ्रांस की सरकारों ने अगले दो तीन दशकों में ही नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भरता से मुक्ति का जो ऐलान किया है, इससे यह तो सबको पता चल ही गया है कि तमाम दावों के बावजूद नाभिकीय ऊर्जा अभी तक ऊर्जा की सुरक्षित स्रोत नहीं बन पाई है। ऊर्जा की पैदावार के दूसरे पारंपरिक स्रोत, जैसे ताप-विद्युतीय या जल- विद्युतीय संयंत्रों की सीमाएँ हैं। कोयला, खनिज तेल या प्राकृतिक गैस के संसाधन इसी सदी नहीं तो अगली सदी के अंत तक खत्म होने लगेंगे। तो क्या भविष्य अंधकारमय है? पूँजीवाद और अंधाधुंध मुनाफाखोरी की सोच अगर हावी रहे तो भविष्य अंधकारमय है, अन्यथा ऊर्जा के वैकल्पिक सुरक्षित स्रोतों पर वैज्ञानिक शोध-कार्य निरंतर जारी है और उम्मीद की वजहें हैं। सौर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि कई विकल्पों पर आम आदमी के स्तर तक चेतना है और दुनिया भर में इन क्षेत्रों में तकनीकी तरक्की के लिए आर्थिक और मानव-श्रम का निवेश बढ़ता जा रहा है। तकरीबन सभी देशों की सरकारें और उनके विज्ञान सलाहकार ऊर्जा संबंधी शोध को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं। वैज्ञानिक शोध की दिशा पर जारी रिपोर्टों से भी यह जाहिर होता है।

समूची धरती पर सौर्य ऊर्जा की आमद लाखों करोड़ों सालों तक बनी रहेगी। सचेत रूप से बहुत ही छोटे पैमाने पर सौर्य ऊर्जा का इस्तेमाल अनादि काल से होता आया है। ठंड के दिनों में धूप सेकने से लेकर भवन-निर्माण की योजना में सौर्य ऊर्जा का फायदा उठाना या गर्दन दुखने पर तकिया धूप में रखना जैसे नुस्खे अपनाना आदि इसके बेशुमार उदाहरण हैं। मानवेतर प्रकृति में हर स्तर में सौर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे होता रहा है, इस के बारे में हम हमेशा सचेत होते नहीं है। अरबों वर्षों से जो कुछ नैसर्गिक रूप से धरती पर होता रहा है, जैसे जैविक विकास आदि, यह सब कुछ सौर्य ऊर्जा के कारण ही है।

धरती के वायुमंडल की ऊपरी सतह पर सूरज से 174 पीटा वाट ऊर्जा प्राप्त होती है (1 पीटा= 1015 यानी दस हजार खरब या 1 पद्म; 1 वाट= प्रति सेकंड 1 जूल ऊर्जा। सामान्य ट्यूब लाइट जलने पर 36 वाट ऊर्जा खर्च होती है) । इसका 30% वापस अंतरिक्ष में प्रतिफलित (रीफ्लेक्ट) होकर वापस चला जाता है। बाकी का जो हिस्सा वायुमंडल और बादलों से छन कर जो हम तक पहुँचता है, वही हमारे जीवन का स्रोत है। दस साल पहले के आँकड़ों के अनुसार साल भर में समूची दुनिया में मानव द्वारा ऊर्जा की जितनी खपत होती है, उसके बराबर सौर्य ऊर्जा घंटे भर में धरती की सतह यानी ज़मीं द्वारा शोषित होती है। प्रति वर्ष यह मात्रा तकरीबन 3,850,000 EJ या एक्स़ा जूल (1 एक्स़ा=1018) है, जबकि मानव द्वारा कुल मिलाकर प्रति वर्ष 600 एक्स़ा जूल ऊर्जा की ही खपत होती है। जल-चक्र सतह का तापमान बढ़ना, पानी का भाप बनना, भाप का हल्का होकर ऊपर ठंडे क्षेत्र में जाना और वहाँ से जम कर सतह पर वापस बरस आना और अन्य प्राकृतिक कई खेल इसी का परिणाम हैं। पर क्या सतह पर शोषित सारी ऊर्जा का पूरी तरह इस्तेमाल हो पाता है? इसका जवाब नहीं में है और विपुल परिमाण ऊर्जा जो वापस अंतरिक्ष में वापस जा रही है, उसे रोक कर काम में लाने की संभावना भी बहुत है। धरती पर कुल कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस जैसे अ-नवीकरणीय (non-renewable) ऊर्जा स्रोतों और समूचे उपलब्ध यूरेनियम स्रोतों (जिसका इस्तेमाल नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में हो सकता है), सारे मिलाकर सतह पर आने वाली सौर्य ऊर्जा का आधा ही दे पाएँगे।
मानव के अलावा धरती पर अन्य प्राणी और वनस्पतियों ने भी ऊर्जा के भरपूर इस्तेमाल के लिए जटिल जैवरासायनिक तंत्र विकसित किए हैं। 1974 में 'टेलस' पत्रिका में प्रकाशित एक पर्चे में रसायनविद् जेम्स लवलॉक और जीवविज्ञानी लिन मार्गुलिस ने यह सिद्धांत पेश किया कि धरती के सभी प्राणी मिल कर परिवेश को जीवन के लिए मददगार बनाए रखते हैं। मानव के बारे में यह पूरी तरह सच न भी हो, यह सही है कि उपलब्ध ऊर्जा का कोई हिस्सा बर्बाद न हो, इसकी पूरी कोशिश अन्य कई प्राणियों और खास कर पौधों की बनावट में और उनकी जीवन प्रक्रियाओं में है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा पौधे जैव-सामग्री निर्माण में प्रति वर्ष 3,000 EJ (130 टेरा वाट; 1 टेरा=1012) सौर्य ऊर्जा की खपत करते हैं। क्या नाभिकीय ऊर्जा जैसे खतरनाक विकल्पों की जगह प्रकाश संश्लेषण पर आधारित कोई विकल्प कारगर हो सकता है? प्रकृति में दीमक की कोशिकाओं में या दलदल की गहराई में सेल्यूलोज़ जैसी जैव-सामग्री से कुशलता से ईंधन बनाने की क्षमता मौजूद है। जैविक जगत की कृत्रिम प्रतिकृतियाँ बनाना आसान नहीं है, पर आणविक जैवरसायन में बड़ी तेज़ी से तरक्की हो रही है और अगले कुछ दशकों में वायुमंडल से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड (CO2) को सौर्य ऊर्जा की मदद से ऐसी जैव-सामग्री में बदलने में सफलता मिलने की उम्मीद है, जिनका ईंधन की तरह इस्तेमाल हो सके। रासायनिक तरीकों से विकल्पों के संधान में जैव-ईंधन पर शोध काफी आगे बढ़ चुका है। इस दिशा में पहले चरण में काष्ठ(लकड़ी) - ईंधन में रासायनिक तरीकों से बदलाव लाने से लेकर मक्का (मकई) से अल्कोहल बनाकर उसे डीज़ल में मिलाना या पौधों से निकले तैलीय पदार्थों (जैसे सोयाबीन तेल) से जैव-डीज़ल बनाना आदि पर काफी शोध हुआ। इसका खास फायदा न हुआ, क्योंकि कई नई तरह की सामाजिक (जैसे फसलों की पैदावार संबंधी या बड़े पैमाने पर कचरा बनना) और आर्थिक समस्याएँ (अपर्याप्त मुनाफा आदि) सामने आईं। दूसरे चरण में जैविक स्रोतों से अल्कोहल बनाने के नए विकल्प, जैसे लिग्नोसेल्यूलोज़ (लिग्निन और सेल्यूलोज़ - काष्ठ के बुनियादी अंश) को सूक्ष्म-जीवों (microorganisms) द्वारा ग्लूकोज़ और ज़ाईलोज़ (xylose) जैसे शर्कराओं में बदलकर और फिर उनसे किण्वन (फर्मेंटेशन) से ईथानोल प्राप्त करने, या ताप के जरिए जैविक सामग्री को ईंधन में बदलने पर काम होता रहा है। तीसरे (वर्त्तमान) चरण में प्रकाश (सौर्य ऊर्जा) के सीधे इस्तेमाल से पानी और CO2 को जैव-डीज़ल में बदलने पर जोर है। खास तौर पर जलाशयों में आम तौर पर पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों जैसे शैवालों (algae) और सायानोबैक्टीरिया (cyanobacteria) आदि में प्रकाश संश्लेषण के जरिए सामान्य अणुओं को ईंधन में बदलने की अद्भुत क्षमता पाई गई है (चित्र देखिए)। इसमें खास बात यह है कि पहले दो चरणों में जैव-सामग्री से जुड़ी जो समस्याएँ सामने आई थीं, वे अब नहीं हैं, क्योंकि यहाँ सीधे ईंधन का उत्पादन हो रहा है। पौधों और इन सूक्ष्म-जीवों में प्रकाश संश्लेषण की क्रियाओं में यह एक बुनियादी फर्क है। सूक्ष्म-जीवों का एक गुण यह भी है कि इनके जैविक परिवेश के लिए कोई औद्योगिक संयंत्र जैसै बड़ा ताम-झाम नहीं चाहिए।


हाइड्रोजन के व्यवसायिक स्तर पर उत्पादन के लिए उत्पादन-दर में बढ़त ज़रूरी है। अब तक पाए गए सबसे द्रुत (260 ml/mg/h) गति से हाइड्रोजन उत्पादन करने वाले बैक्टीरिया का नाम आर. स्फेरोयडिस (R. Sphaeroides) है। इससे उत्पादित हाइड्रोजन के ज्वलन से आरंभ में ली गई सौर्य ऊर्जा का 7% काम में लाया जा सकता है। वैज्ञानिक इस से मिलती जुलती अन्य प्रजाति के बैक्टीरिया पर शोध कर रहे हैं जिनसे सौर्य बैटरी के बराबर ऊर्जा का उत्पादन संभव हो सके। नए बैक्टीरिया जनने के लिए जीनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकें भी काम में लाई जा रही हैं। कई बैक्टीरिया अँधेरे में भी स्टार्च जैसे यौगिकों का रासायनिक खंडन कर हाइड्रोजन बनाते हैं।


चित्र: बायीं ओरः प्रकाश संश्लेषण की सामान्य धारणा; दायीं ओरः सूक्ष्मशैवाल (Microalgae) प्रकाश संश्लेषण द्वारा पानी, CO2, और सूरज की रोशनी से सीधे, (बिना कोई जैव-सामग्री बनाए), कई प्रकार के ईंधन बनाने में सक्षम हैं। (स्रोत: http://science.howstuffworks.com/environmental/earth/geophysics/earth3.htm; http://www.photobiology.info/Seibert.html)


सामान्यतः प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को कार्बन-डाइ-ऑक्साइड और पानी को कार्बोहाइड्रेट में बदलकर ऑक्सीज़न उत्पन्न करना ही जाना जाता है। पौधों के हरित पदार्थ में मौजूद क्लोरोफिल के अणु द्वारा ऊर्जा के सोखने से रासायनिक क्रियाओं का एक जटिल तंत्र चल पड़ता है। इसके तीन मुख्य चरण हैं i) प्रकाश ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में बदलना, ii) विद्युत ऊर्जा का रासायनिक ऊर्जा में संचित होना (ATP synthesis), और iii) ATP की रासायनिक क्रियाएँ (fixation of CO2, and hydrogen production) इन क्रियाओं के विस्तार में जाने पर हम जानते हैं कि इस प्रक्रिया में सौर्य ऊर्जा की मदद से पौधे पानी के अणुओं को ऑक्सीजन और हाइड्रोजन में तोड़ते हैं। इसके बाद हाइड्रोजीनेज़ एंज़ाइम आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीकरण को उत्प्रेरित (कैटालाइज़) करते हैं यानी इलेक्ट्रॉन अपचय की गति बढ़ाते हैं। अंततः हाइड्रोजन और इलेक्ट्रॉन की धारा मिलकर कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को जैव सामग्री में बदल देते हैं। मानव निर्मित ईंधन सेल में भी H–H बंधन को तोड़कर इलेक्ट्रॉन मुक्त किए जाते हैं। इसके लिए भी उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) की ज़रूरत होती है। विश्व भर में ऐसे सस्ते और आसानी से बनाए जा सकने वाले उत्प्रेरक की खोज जारी है। वर्त्तमान में इसके लिए प्लैटिनम धातु का इस्तेमाल होता है, जो काफी महँगा है। खर्च कम करने के लिए कोई सस्ता पदार्थ ढूँढना होगा। अभी तक यह समझ नहीं बन पाई है कि H–H बंधन को तोड़कर इलेक्ट्रॉन मुक्त कर हाइड्रोज़न के ऑक्सीकरण में प्लैटिनम की भूमिका ठीक क्या है। बिना इसे पूरी तरह जाने बिना प्लैटिनम का सस्ता विकल्प ढूँढ पाना कठिन ही है।
प्रोटीन क्रिस्टलोग्राफी (एक्सरे किरणों के द्वारा आणविक संरचना जानने की पद्धति) से यह पता चला है कि प्राकृतिक हाइड्रोजीनेज़ एंज़ाइम अणुओं में लौह और निकेल जैसे धातु के अणु होते हैं, जो मानव निर्मित उत्प्रेरकों का बेहतर विकल्प हैं। इनमें पेंडेंट अमीन (pendant amines) नामक अणुओं की ऐसी लटकती छोटी शृंखलाएं भी होती हैं, जिनमें नाइट्रोजन के परमाणु विशेष जगहों पर स्थित होते हैं। ये नाइट्रोजन अणु क्षारीय गुणधर्म दर्शाते हुए H2 के ऑक्सीकरण के साथ टूट कर बने प्रोटोन (इलेक्ट्रॉन रहित H परमाणु) को हटाते हैं। इसी से प्रेरित होकर अमेरिकी वैज्ञानिक मॉरिस बुलॉक के नेतृत्व में प्राकृतिक एंज़ाइम जैसा ही काम करने वाले एक ऐसे अणु को बनाने की कोशिश ज़ारी है, जिसमें लौह परमाणु का उपयोग किया गया है। हाल में ही अमेरिकन केमिकल सोसायटी की पत्रिका में प्रकाशित अपने परचे में बुलॉक और सहयोगियों ने विस्तार से समझाया है कि इस कृत्रिम उत्प्रेरक में हाइड्रोज़न अणुओं के साथ क्रिया करने के लिए लटकते पेंडेंट अमीन को सही जगह रखने के लिए एक छः भुजाओं के रिंग (चक्राकार) का इस्तेमाल किया गया है, जिसमें फास्फोरस का भी एक अणु मौजूद है। इस पेंडेंट अमीन में मौजूद सक्रिय लौह परमाणु हाइड्रोज़न अणु को प्रोटोन (H+) और हाइड्राइड (H) आयन में बदल देता है। प्रोटोन विलायक में घुल जाता है और सारी क्रिया दुबारा शुरू हो जाती है। हाइड्रोजन अणु को प्रोटोन और हाइड्राइड आयन में तोड़ने लिए ऊर्जा चाहिए और इस तरह बने प्रोटोन को अगर तुरंत हटाया न गया तो वह दुबारा हाइड्राइड के साथ मिल कर हाइड्रोज़न अणु बनाएगा। यही काम नाइट्रोजन के परमाणु का है। इस पर मौजूद युग्म इलेक्ट्रॉन से बना क्षारीय स्वरूप इस काम आता है। प्रोटोन अमीन के नाइट्रोजन के साथ, और हाइड्राइड लौह परमाणु के साथ बँध जाते हैं। इस तरह पौधों में हो रही क्रिया प्रक्रियाओं से प्रेरित इस उत्प्रेरण में नाइट्रोजन को लिगेंड ( ligand) अणु में सही जगह स्थापित कर प्रोटोन को हटाने के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को कम किया जाता है। वैज्ञानिकों को यह पता कैसे चलता है कि अणुओं के स्तर पर यह सब कुछ हो रहा है? पिछली सदी में ऐसी कई तकनीकें विकसित हुई हैं, जिनसे यह जानकारी मिलती है। एक तरीका यह है कि हाइड्रोजन के साथ थोड़ा सा ड्यूटीरियम (D2) भी लिया जाता है। ड्यूटीरियम परमाणु हाइड्रोज़न का समस्थानिक (आइसोटोप) है, जिसकी नाभि में एक अतिरिक्त न्यूट्रॉन होने से इसका परमाणु भार हाइड्रोजन का दुगुना होता है, अन्यथा रासायनिक गुणधर्मों में यह हाइड्रोजन जैसा ही होता है। जब हाइड्रोजन और ड्यूटीरियम के अणु टूट कर विलयन में आपस में जुड़ते हैं, तो HD बनता है, और नाभिकीय चुंबकीय अनुनाद (nmr – nuclear magnetic resonance) के जरिए इसकी पहचान की जा सकती है।
बुलॉक की टीम का मकसद प्रकृति में पाए जाने वाले उत्प्रेरक की नकल करना है। अन्य कई प्रयोगशालाओं में प्राकृतिक एंज़ाइम अणुओं की संरचना वाले कृत्रिम उत्प्रेरक बनाए जा रहे हैं और उनके रासायनिक गुणधर्मों को परखा जा रहा है। फिलहाल लक्ष्य मात्र रासायनिक क्रियाओं को समझने का है; अंततः मकसद एक ही है - प्रकृति जितनी कुशलता से सौर्य ऊर्जा का फायदा उठाती है, उतना ही हम भी कर पाएँ। हालाँकि कोई आसान समाधान तुरंत नहीं मिलने वाला है, पर नैसर्गिक प्रक्रियाओं की बेहतर समझ से और प्रयोगशालाओं में अणुओं के स्तर पर कारीगरी में बढ़ती कुशलता से यह उम्मीद बढ़ती चली है कि सौर्य ऊर्जा के इस्तेमाल के विभिन्न तरीके जल्दी ही विकसित हो जाएँगे।

Monday, October 29, 2012

सुनील गांगुली की तीन कविताएँ

(बांग्ला से अनूदित)
इनमें से दो कल जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित हुई हैं।


किसी ने अपनी बात न रखी

किसी ने अपनी बात न रखी, तैंतीस बरस गुज़र गए, किसी ने अपनी बात न रखी

बचपन में एक जोगन अपना आगमनी गीत अचानक रोक क कह गई थी
शुक्ल द्वादशी के दिन अंतरा सुना जाएगी
फिर कितनी चाँद निगली अमावस गुज़र गईं
पर वह जोगन कभी न लौटी
पच्चीस सालों से इंतज़ार में हूँ।

मामा के गाँव का माझी नादिर अली कहता था, बड़े हो लो भैया जी,
तुम्हें मैं तीसरे पहर का पोखर दिखलाने ले जाऊँगा
वहाँ कमल के फूल पर ढ़ साँप और भौंरे साथ खेलते हैं!
नादिर अली! मैं और कितना बड़ा होऊँगा? मेरा सिर इस घर की छत
फोड़ आस्मान छू ले तो तुम मुझे तीसरे पहर का पोखर दिखलाओगे?

एक भी बड़ा कंचा खरीद न पाया कभी
काठी वाला लवंचूस दिखा-दिखाकर चूसते रहे लस्करों के बेटे
मंगतों की तरह चौधरीओं के गेट पर खड़े देखा भीतर चल रहा रास-उत्सव
लगातार रंगों की बौछार में सोने के कंगन पहनी
गोरी रमणियाँ
किस्म किस्म की रंगरेलियों में वे हँसती रहीं
मेरी ओर उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा!
पिता ने मेरा कंधा छकर कहा था, देखना, किसी दिन हमलोग भी....
पिता अब दृष्टिहीन हैं, हमने कुछ भी देखा नहीं
वह बड़ा कंचा, वह काठी वाला लवंचूस, वह रास-उत्सव
मुझे कोई नहीं लौटाएगा!

सीने में सुगंधित रुमाल रख वरुणा ने कहा था
जिस दिन मुझे सचमुच प्यार करोगे
उस दिन मेरे भी सीने में ऐसी इत्र की महक होगी!
प्रेम के लिए मुट्ठियों में जान रखी
खौफनाक साँड़ की आँखों को लाल कपड़े से बाँधा
कायनात का कोना कोना ढूँढ ले आया ‍108 नील कमल
फिर भी वरुणा ने बात न रखी, अब उसके सीने से महज जिस्म की बू आती है
अब भी वह कोई भी औरत है।

किसी ने अपनी बात न रखी, तैंतीस रस गुज़र गए, कोई अपनी बात नहीं रखता है!



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चाय की दूकान पर


लंदन में है लास्ट बेंच पर होता जो डरपोक परिमल,
रथीन अब है साहित्य का मठाधीश
सुना है दीपू ने चलाई है बड़ी कागज़ की मिल
और पाँच चायबागानों में है हिस्सा प्रतिशत चालीस
फिर भी मौका मिले तो हो जाता है देशसेवक;

ढाई दर्जन तिलचट्टे छोड़ क्लास रुकवाई जिसने वह पागल अमल
वह आज बना है नामी अध्यापक!
अद्भुत उज्ज्वल था जो सत्यशरण
उसने क्यों खुद का गला काटा चला तेज खुर-
अब भी दिखता वह दृश्य तो होती सिहरन
पता था कि दूर जा रहा था, पर इतनी दूर?

नुक्कड़ की चाय की दूकान पर अब है कोई नहीं
कभी यहाँ हम सब सपनों में थे जागते
एक किशोरी के प्रेम में डूबे थे हम एकसाथ पाँच जने
आज यह कि याद न उस लड़की का नाम कर पाते।


बस कविता के लिए


बस कविता के लिए है यह जीवन, बस कविता
के लिए कुछ खेला, हूँ बस कविता के लिए अकेला इस ठंडी शाम की बेला
धरती पार कर आना, बस कविता के लिए
एकटक सुंदर शक्ल की शांति एकझलक
बस कविता के लिए हो तुम स्त्री, बस
कविता के लिए यह खूनखराबा, बादलों से यह गंगाधारा
बस कविता के लिए, और भी लंबी उम्र जीने का जी करता है।
ज़िंदा रहना है इंसान की तरह विक्षोभ भरा, बस
कविता के लिए मैंने अमरता को तुच्छ है माना।

Monday, October 22, 2012

अनिश्चितताएँ और विशृंखला


(समकालीन जनमत के अक्तूबर अंक में प्रकाशित)

विज्ञान के बारे में एक आम गलतफहमी यह है कि वैज्ञानिक सिद्धांत हमेशा निश्चित निष्कर्षों का दावा करते 
हैं।  साइंस के खुदा का विकल्प होने की बात निश्चितता के सिद्धांत के साथ जुड़ी है। आम मान्यता है कि 
प्रकृति में घटनाएँ निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं।  निश्चितता क्या है? गुणात्मक रूप से कुछ निष्कर्ष 
निश्चित होते हैं। जैसे उम्र बढ़ने के साथ हमारे मन और शरीर में  निश्चित परिवर्तन होते हैं। या साल में 
ऋतुएँ एक क्रम में बदलती हैं। पर परिमाणात्मक निष्कर्षों की निश्चितता एक सीमा तक ही सही होती है। 
क्लासिकल भौतिकी में निश्चितता का अर्थ है - अगर हम जान लें कि कौन सी ताकतें किसी भी चीज़ पर 
काम कर रहीं हैं तो उस वस्तु के भविष्य के बारे में हम सब कुछ बतला सकते हैं। यानी वस्तु के गुणधर्म 
कैसे बदल रहे हैं, इसकी पूर्व घोषणा हम कर सकते हैं। मुसीबत यह है कि सूक्ष्मतम स्तर तक निश्चितता के 
साथ हमेशा यह पता नहीं होता कि किसी चीज़ पर कौन से बल काम कर रहे हैं। इसीलिए तो भारतीय टीम 
टॉस जीतेगी या हारेगी,  सोचते ही हमारी धड़कनें बढ़ जाती हैं! निश्चित नियमों के आधार पर किसी भी 
घटना का संपूर्ण विवरण पाने में हमें सफलता नहीं मिलती। यादृच्छता यानी randomness हर प्राकृतिक 
घटना के साथ है। अनिश्चितता को हम गुणात्मक रूप से संयोग यानी Chance और परिमाणात्मक ढंग से 
संभाविता यानी Probability में बयां करते हैं। अनिश्चितता का विज्ञान कैसा होगा? आधुनिक विज्ञान में 
तीन तरह की अनिश्चितताएँ मानी गई हैं। टीम टॉस जीतेगी या हारेगी वाली पहली या क्लासिकी अनिश्चितता 
है। 

  पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में एक बड़ी घटना यह हुई कि हमें पता चला कि बहुत छोटे आकार की चीजों के 
लिए क्लासिकल भौतिकी सही नहीं है। छोटी मतलब बहुत छोटी। जैसे नौ बूँद पानी में एक बूँद स्याही डालो। 
उस में से एक बूँद निकालो नौ बूँद पानी में मिलाओ। फिर एक बूँद... एक समय आएगा, जब स्याही का रंग 
आपको नहीं दिखेगा! यानी जब एक बूँद स्याही का 10 X 10 X 10 X 10 X 10 X 10 या एक लाखवाँ 
हिस्सा ही बचा। पर रंग नहीं दिखा तो क्या हुआ, स्याही के कण तो रहेंगे ही न? आप नहीं देख सकते। तो 
इतने या इस से भी छोटे टुकड़ों के लिए एक नए विज्ञान, क्वांटम मेकेनिक्स की ज़रूरत पड़ी। जो बड़ी और 
छोटी हर प्रकार की वस्तु के लिए सही है। पर पुराना विज्ञान, जिस में न्यूटन के नियम थे, वो बस आप, मैं,  
रेलगाड़ी, ऐसी चीजों के लिए है। क्वांटम मेकेनिक्स ने यह दिखलाया कि उस छोटी दुनिया, जिसमें हैं अणु,
परमाणु, इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन; उन के लिए प्रकृति में अनिश्चितता एक बुनियादी बात है।

 आमतौर पर हम कैसे सवालों के जवाब जानना चाहते हैं? जैसे, दिल्ली से हिमालयन क्वीन में सफर करते 
हुए हम सोचते हैं कि गाड़ी ठीक दस बजकर पच्चीस मिनट पर चण्डीगढ़ पहुँचेगी या नहीं! या फिर चण्डीगढ़ 
में आज आसमान साफ़ है या कल जैसा ही काले-सफ़ेद बादलों से भरा! क्या हम निश्चित रूप से बतला 
सकते हैं कि यह गाड़ी चण्डीगढ़ ठीक दस बज कर पच्चीस मिनट और शून्य सेकेण्ड में पहुँचेगी या नहीं?  
हम यह कह सकते हैं कि  कि दस बज कर पच्चीस मिनट से दस बज कर तीस मिनट तक गाड़ी पहुँचेगी 
या नहीं, इस बात की संभावना कितनी है। वर्षा ऋतु में किस दिन वर्षा होगी और किस दिन नहीं;  31  
दिसंबर को ठंड होगी, पर तापमान शून्य के कितने पास होगा, ये बातें पहले से कोई सही सही नहीं बतला 
सकता। कुदरत के बंदे हम और हम सब अनिश्चित।  

 पर यह वह संयोग वाली अनिश्चितता नहीं। किसी भी घटना या वस्तु के गुणधर्मों के बारे में सही सही 
पूर्व-अनुमान लगा पाने की अक्षमता को ही हम अनिश्चितता कहते हैं। पहली अनिश्चितता थी जैसे सिक्के 
का उछलना। सिक्के में अरबों,  खरबों, नील, शंख, पद्म, ..., बस अनंत ही समझिए अणुओं की तादाद है। 
इतनी बड़ी संख्या में अणु परस्पर क्या बल लगा रहे हैं, यह हिसाब बड़े से बड़ा कंप्यूटर भी नहीं लगा पाता। 
इसलिए चित गिरेगा या पट, कोई न जाने।  सही फल बतला पाने में इस अक्षमता को ही हम संयोग कहते हैं। 
इलेक्ट्रॉन और परमाणु के लिए जिस दूसरे प्रकार की अनिश्चितता है, वह यह कि कुछ खास किस्म के 
माप-तोल इकट्ठे नहीं हो सकते। यूँ कि जैसे आप मेरी नाक पकड़ने लगे तो कान छूट जाए और कान 
पकड़ने लगे तो नाक छूट जाए। श्रोडिंगर, हाइज़ेनबर्ग, जैसे उन लोगों के नाम वैसे उन के सिद्धांत, मूल बात 
यह है कि अणु, परमाणु, आप हम, हर कोई एक घोर अनिश्चितता के शिकार हैं - गति और स्थिति के 
इकट्ठे मापन की अनिश्चितता। और यह न्यूटन के विज्ञान या क्लासिकल भौतिकी से बिल्कुल अलग।

 न्यूटन के या अन्य निश्चित नियमों का इस्तेमाल कर के भी कुछ क्षेत्रों में अजीब बात देखी गई। यह है 
तीसरे प्रकार की अनिश्चितता, जैसे मौसम। साठ के दशक में लोरेन्त्स नाम के एक जनाब ने मौसम को 
समझने के लिए तीन अलग-अलग राशियों (जैसे तापमान, नमी, दबाव) में समय के साथ और स्थान के 
बदलने पर क्या बदलाव आता है -निश्चित नियमों के आधार पर यह देखना शुरू किया। बड़ी मेहनत। उन
 दिनों के कम्प्यूटरों में यह सवाल हल करने में बड़ी देर लगती थी। वह ज़माना था जब न ई-मेल थी न 
मोबाइल।

  बात यह चली कि आप राशियों (जैसे तापमान) के नियत मान ले कर शुरू करें और देखें कि वह कैसे 
बदलती है। जैसे अभी तापमान है 20.45 डिग्री। दो मिनटों के बाद हुआ 20.46 डिग्री। फिर दो मिनट के 
बाद 20.47 डिग्री। ऐसे चलता चला। चण्डीगढ़ पहुंचे तो तापमान 21.9 डिग्री। पर माडल में ज़रा भी 
बदलाव किए बिना अगर शुरू का तापमान लिया 20.44 डिग्री, तो लोरेन्त्स ने देखा कि चण्डीगढ़ पहुंचने 
पर मिला 19.38  डिग्री। यह बड़ी अजीब बात। शुरूआत में ज़रा सा बदलाव और परिणाम बिल्कुल अलग।

  इस को कई बार यूँ कहा जाता है कि जैसे चेन्नई में एक तितली ने पंख फड़फड़ाए - ज़रा सा हवा का 
दबाव बदला, जरा सा, बहुत ही कम। इस से हैदराबाद तक दबाव क़ाफी बदल गया और चण्डीगढ़ 
आते-आते एक दिन बाद त़ूफान ही आ गया।इसे तितली का जादू या बटरफ्लाई इफेक्ट कहा जाता है। 
ऐसा हमेशा हो, ज़रूरी नही, पर कभी-कभार ऐसा होता है। इसलिए मौसम के बारे में कुछ भी कहना 
इतना मुश्किल है। प्रारंभिक स्थिति में नगण्य अंतर से बाद में होने वाले बदलाव से जुड़ी इस अनिश्चितता 
को आप एक उत्तरआधुनिक (Post-Modern) धारणा मान सकते हैं। पर यह कोई षड़यंत्र नहीं, इसे  
deterministic chaos (निश्चितता से उपजी विश्रृंखला या केऑस) कहते हैं, क्योंकि माडल में 
शामिल हर राशि का निश्चित मान है। इस केऑस के लिए एक बुनियादी ज़रूरत है कि माडल में 
समीकरणों में अरैखिकता (Non-linearity)  हो (अरैखिकता - यानी जो एक रेखा में नहीं चलता। 
एक राशि में दुगुना बदलाव हुआ तो दूसरे में दुगुने से अधिक या कम बदलाव होगा)। इस केऑस और पहले 
प्रकार की अनिश्चितता में फर्क है।
  
 
तालिका: तीन तरह की अनिश्चितताएँ
क्लासिकी अनिश्चितता क्वांटम अनिश्चितता
केऑस
कारणः अनंत पारस्परिक क्रियाओं की अज्ञानता और समीकरणों को हल करने में अक्षमता
उदाहरणः टीम टॉस जीतेगी या हारेगी
कारणः कणों की स्थिति और गति का एकसाथ सही मापन का नामुमकिन होना


कारणः राशियों में बदलाव के अरैखिक समीकरण


उदाहरणः मौसम
  
 प्रकृति में हो रही क्रिया-प्रक्रियाओं में पहले प्रकार की अनिश्चितता से जुड़े संयोग और संभाविता को 
समझने के लिए हम यादृच्छ घटती बढ़ती राशियों (random variables) का उपयोग करते हैं। इन 
राशियों का निश्चित मान नहीं होता। किसी एक निश्चित मान की संभाविता कितनी है, यह निश्चित होता 
है। गणित की एक शाखा, जिसे स्टोकास्टिक प्रोसेस थीअरी कहते हैं, इसी पर आधारित है। पिछली आधी 
सदी में जीव-विज्ञान में स्टोकास्टिक माडलों का इस्तेमाल कर न केवल जैविक तंत्रों के बारे में बुनियादी 
समझ बढ़ी है,  बल्कि इससे अरैखिक गतिकी (nonlinear dynamics) के अनोखे निष्कर्ष सामने 
आए, जो अन्य विधाओं में भी काम आए हैं। तकनीकी अंग्रेज़ी में ऐसी प्रक्रियाएँ जिनमें संयोग की भूमिका 
होती है, नॉएज़ी (noisy) प्रक्रियाएँ कहलाती हैं। सामान्यतः किसी राशि का मान एक निश्चित नियम के 
अनुसार बदलता रहता है, साथ में नॉएज़ (शाब्दिक अर्थः- शोर) भी राशि को निश्चित मान से दूर 
भटकाता रहता है। पारंपरिक समझ यह है कि नॉएज़ की उपस्थिति से किसी प्रक्रिया के बारे में सही समझ 
बना पाना कठिन हो जाता है। 
 
गुणधर्म के मापित मान को सिगनल कहें तो किसी भी मापन में सिगनल और नॉएज़ का अनुपात (SNR 
ratio) महत्त्वपूर्ण है। कई प्राकृतिक प्रक्रियाओं में देखा गया है कि अल्प मात्रा में नॉएज़ की उपस्थिति से  
SNR  अनुपात बढ़ गया है। एक रोचक उदाहरण धरती पर शीत युग का है। ग्रहों और सूरज में आकर्षण 
और खगोलीय बलों के निश्चित नियमों के अनुसार शीत युग औसतन एक लाख सालों में एक बार आना 
चाहिए। पर खोजों में पाया गया है कि दरअसल यह तकरीबन प्रति दस हजार साल में एक बार होता है। 
इस घटना की पहली सफल व्याख्या 1981 में इतालवी वैज्ञानिक बेंज़ी और सहयोगियों ने दी। उनके 
मुताबिक खगोलीय नॉएज़ की उपस्थिति से धरती का सामान्य तापमान से शीत युग में चले जाना द्रुततर 
हो जाता है। इसे स्टोकास्टिक अनुनाद (stochastic resonance) कहा जाता है। इसी तरह 1995 
 में मॉस और वेज़ेनफील्ड ने दिखलाया कि समुद्र में एक छोटी मछली के पिछले भाग में मौजूद रेशों में 
शिकारी मछली को पहचानने के सिगनल समुद्र की लहरों में मौजूद नॉएज़ की वजह से बढ़ जाते हैं। अब 
ऐसे कई उदाहरण मालूम हैं जहाँ सामान्यतः न हो पाने वाली घटनाएँ स्टोकास्टिक अनुनाद की वजह से 
संभव हो जाती हैं। 

 स्टोकास्टिक अनुनाद के विचित्र उदाहरणों को छोड़ दें तो सामान्य स्थितियों में नॉएज़ की उपस्थिति से 
सिगनल कम ही होता है। शोर हो तो क्या सुनाई पड़ेगा? इसलिए आम तौर पर कोशिश यही होती है कि 
नॉएज़ को किसी तरह कम किया जाए। प्रकृति में हर स्तर पर यह खेल जारी है। जैव-कोशिकाओं में जीवन 
भी यादृच्छ और संतुलन की प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष के खेल है। जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वहाँ भी नॉएज़ को 
कम करने के शरीर के अपने तरीके हैं। कोशिका में स्वतः जनमते और मरते विभिन्न प्रकार के अणुओं की 
संख्या में घट-बढ़ (fluctuations) एक तरह की नॉएज़ है। मसलन कोशिकाओं में कई ऐसे डी एन ए 
अणु हैं जो औसतन अपनी एक प्रति बनाते हैं। इन्हें प्लाज़मिड कहते हैं।  प्लाज़मिड और संवादवाहक आर 
एन ए (messenger RNA) अणुओं की संख्या एक के बजाय दो हो जाए, तो यह 100% की वृद्धि है। 
स्पष्ट है कि इससे कोशिका में भारी असंतुलन पैदा होता है। 

 पर्याप्त मात्रा से अधिक अणुओं के होने पर कोशिकाएँ घट-बढ़ का हिसाब लगाती हैं और जैवरासायनिक 
प्रक्रियाओं के तंत्रजाल के जरिए सही संतुलन को वापस लौटाने की कोशिश करती हैं। पर जब अणुओं की 
संख्या ही एक या दो हो तो इस तरह का सुधार कठिन है। इसलिए यह घट-बढ़ अक्सर बनी रहती है और 
औसत संख्या से कम या अधिक यादृच्छ दोलन चलता रहता है। कुदरत ने ऐसे कई नियंत्रक परिपथ ईजाद 
किए हैं, जो या तो नॉएज़ को खत्म करते हैं, या नॉएज़ के साथ सह-अस्तित्व बनाए रखते हैं, या 
स्टोकास्टिक अनुनाद जैसे तरीकों से नॉएज़ का इस्तेमाल उपयोगी प्रक्रियाओं में बढ़त के लिए करते हैं। 
हाल में इओआनिस लेस्तास और सहयोगियों ने इस दिशा में कोशिकीय तंत्रजाल पर हुए शोध पर लिखा है। 
उन्होंने अणुओं को तीन हिस्सों में बाँटा:- टार्गेट (लक्षित) अणु,  बिचौलिए अणु और एक फीडबैक सर्किट  
(पुनर्निवेशन परिपथ) में शामिल अणुओं की जमात। यहाँ 'फीडबैक सर्किट' शब्द बिजली के विज्ञान से लिए 
गए हैं। एक परिपथ में आउटपुट का एक हिस्सा वापस इनपुट सिगनल में जोड़ा जाए तो फीडबैक सर्किट 
तैयार होता है। इससे आउटपुट सिगनल लगातार नियंत्रित होता रहता है। जैवरासायनिक प्रक्रियाओं में भी 
इसी तरह मात्राओं का नियंत्रण होता है। टार्गेट अणु बिचौलिए अणुओं का उत्पादन बढ़ाते हैं, जो फीडबैक 
की प्रक्रियाओं में जुड़कर वापस टार्गेट अणुओं की संख्या नियंत्रित करते रहते हैं। 

 फीडबैक की प्रक्रियाओं को समझने के लिए सूचना सैद्धांतिकी (इनफार्मेशन थीअरी) का व्यापक उपयोग 
हुआ है। इसके जरिए हम यह हिसाब लगा सकते हैं कि नॉएज़ पर नियंत्रण की सीमाएँ क्या हैं। स्वतः होने 
वाली प्रक्रियाओं में नॉएज़ बढ़ता रहता है, यानी उपलब्ध सूचना कम होती रहती है। यह प्राकृतिक नियम है। 
जब  फीडबैक सर्किट टार्गेट अणुओं की संख्या में घट-बढ़ को नियंत्रित करने लगता है तो टार्गेट के बारे में 
उपलब्ध सूचना में कमी होने लगती है, क्योंकि इसी घट-बढ़ से ही वह फीडबैक सिगनल मिलता है जिसे 
नियंत्रण चक्र को चलाए रखना है। इस सिद्धांत से ऐसे सरल निष्कर्ष पाए गए हैं जिनको प्रायोगिक रूप से 
प्रमाणित कर पाना संभव है।  देखा गया है कि नॉएज़ कम करने में बिचौलिए अणुओं और टार्गेट अणुओं 
की संख्या का अनुपात महत्त्वपूर्ण है। नॉएज़ में 10 गुना कमी लाने के लिए प्रति टार्गेट अणु 10000   
बिचौलिए अणुओं की  ज़रूरत पाई गई। 

 जैविक प्रक्रियाओं में विभिन्न गुणधर्मों को नियत मान पर बनाए रखना (या घट-बढ़ को नियंत्रित करना)  
महँगा पड़ता है। स्तनपायी पशुओं में शरीर का तापमान स्थिर रखने के लिए सरीसृप प्रजाति के पशुओं की 
अपेक्षा कहीं अधिक ऊर्जा की खपत होती है। परिवेश में बदलाव आने पर भी स्तनपायी शारीरिक रूप से 
सक्षम रहते हैं, जबकि सरीसृप के लिए ऐसा संभव नहीं । इसी वजह से स्तनपायी पशु सारी धरती पर फैल
 चित्रः कोशिकीय प्रक्रियाओं में नियंत्रक तंत्रजाल के उदाहरण की काल्पनिक तस्वीर। यहाँ राक्षस नियंत्रक का 
प्रतीक है जो नॉएज़ को खत्म करते हैं, या नॉएज़ के साथ सह-अस्तित्व बनाए रखते हैं, या स्टोकास्टिक अनुनाद 
जैसे तरीकों से नॉएज़ का इस्तेमाल उपयोगी प्रक्रियाओं में बढ़त के लिए करते हैं। नॉएज़ की धारणा और फीडबैक 
परिपथ के ऐसे माडल सामाजिक राजनैतिक संदर्भों में भी लागू होते हैं।(Nature पत्रिका के 9 सितंबर  2010 
 अंक में प्रकाशित लेस्तास और सहयोगियों के आलेख से साभार)
 पाए हैं।
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 आनुवंशिक जीन इकाइयों के ऐसे कई तंत्रजाल कोशिकाओं में मौजूद हैं। पर यह स्पष्ट नहीं है कि 
बिचौलिए अणुओं की संख्या में घट-बढ़ को नियंत्रित करने वाले फीडबैक परिपथ हर नियंत्रक 
तंत्रजाल के लिए हैं या नहीं। ऐसे कई प्लाज़मिड अणुओं की खोज हुई है, जो बड़ी द्रुतता के साथ 
बिचौलिए अणु बनाते हैं। हर तंत्रजाल की जटिलता का अपना पैमाना होता है, जिसका फीडबैक 
परिपथ में शामिल प्रक्रियाओं की संख्या से अनुमान लगाया जा सकता है। लेस्तास और 
सहयोगियों ने यह भी दिखलाया है कि तंत्रजाल की जटिलता की एक सीमा तक कोशिका फीडबैक 
नियंत्र का अधिकतम फायदा उठा सकती है। सीमा से अधिक जटिलता होने पर नॉएज़ का प्रभाव 
बढ़ने लगता है। इसकी वजह से प्लाज़मिड संख्या में नियंत्रण के कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ 
फीडबैक परिपथ नहीं के बराबर हैं। यह कुछ ऐसा है जैसे कुछ व्यापारी सामान लेन-देन के लिए 
कर्मचारियों की एक पूरी शृंखला बनाए रखते हैं, जबकि कुछ और सीधे ग्राहक के साथ संबंध बनाते 
हैं। 
 
 सामाजिक राजनैतिक संदर्भों में भी नॉएज़ की धारणा और फीडबैक परिपथ के माडल लागू होते हैं। पर 
पदार्थ विज्ञान के माडलों का सामाजिक संदर्भ में जस का तस उपयोग न केवल निरर्थक, बल्कि 
हानिकारक भी हो सकता है। जीव-कोशिका में डी एन ए या अन्य अणुओं की संख्या कम होने से जिस 
तरह नॉएज़ काफी प्रभावी होता है और संयोग का महत्त्व बढ़ जाता है, उसी तरह समाज में भी लोगों की 
संख्या सीमित (और सामान्य वस्तुओं में अणुओं की संख्या से कई कई गुना कम) होने से सामाजिक 
प्रक्रियाओं में  संयोग की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। कई बार इस सरल बात को न जानकर विज्ञान के माडलों 
का इस्तेमाल करने वाले गलत निष्कर्षों पर पहुँच जाते हैं और फिर विज्ञान के औचित्य पर सवाल उठाने 
लगते हैं।