Tuesday, May 24, 2016

कुछ नहीं बदला

फिर से सेरा टीसडेल - 

Blue Stargrass

If we took the old path
In the old field
The same gate would stand there
That will never yield
Where the sun warmed us
With a cloak made of gold,
The rain would be falling
And the wind would be cold;
And we would stop to search
In the wind and the rain,
But we would not find the stargrass
By the path again.

नीली दूब 
पुराने मैदान में
पुरानी पगडंडी पर चलें
वही कभी न मिटने वाले
दरवाजे मिलेंगे वहाँ
जहाँ सोने का आवरण वाली
धूप की उष्णता थी
बारिश होगी
और ठंडी हवाएँ होंगी
बारिश और हवाओं में
ढूँढेंगे हम
पर नहीं दिखेगी दूब
उस पगडंडी पर।
 Sand Drift

I thought I should not walk these dunes again,
Nor feel the sting of this wind-bitten sand,
Where the coarse grasses always blow one way,
Bent, as my thoughts are, by an unseen hand.

I have returned; where the last wave rushed up
The wet sand is a mirror for the sky
A bright blue instant, and along its sheen
The nimble sandpipers run twinkling by.

Nothing has changed; with the same hollow thunder
The waves die in their everlasting snow---
Only the place we sat is drifted over,
Lost in the blowing sand, long, long ago.

रेत का बहाव

मैं इन रेत के टीलों पर फिर से चलना नहीं चाहती थी
हवा से कटती इस रेत की मार सहना नहीं थी चाहती, 
जहाँ मेरे खयालों सी किसी अनदेखे हाथों से झुकाई
एक ही दिशा में बहती मोटी घास

मैं लौटी हूँ; जहाँ आखिरी लहरें उछल रही थीं 
आस्मां का आईना है यह गीली रेत,
गाढ़ा नील पल और इसकी चमक के साथ
टिमटिमाती-सी चुस्त टिटहरियाँ दौड़ती हैं

कुछ नहीं बदला; वैसी ही खोखली गरजन लिए 
लहरें चिरंतन बर्फ हो जातीं ---
जहाँ हम बैठे थे, वह जगह
बहती रेत में खो गई बहुत पहले कभी।

Sunday, May 08, 2016

कभी चाहा था कोई और जीवन


जैसे यही सच है

जैसे समंदरों पार वह इंतज़ार में रहती है कि
मैं फ़ोन करूँ

सोचता हूँ तो कई बार
मन करता है कि फूट पड़ूँ कहूँ कि
तुम्हें कभी नहीं फ़ोन करना चाहता

वह फिर भी इंतज़ार करती है
कि फ़ोन आते ही कहे
सोच रही थी तू मुझे भूल गया होगा
मैं कहता हूँ अच्छा

कभी नहीं कहता कि काश भूल पाता
काश कि जन्म लेते ही किसी और सृष्टि में
चला गया होता

मेरा घर सचमुच ही किसी और ग्रह में है
अपने घर में बैठा रहता हूँ
महीनों बाद मिलता हूँ
फिर भी अपने ही ग्रह में होता हूँ
गर्म दाल-भात और आलू-पोस्ता खाते हुए
भीगता रहता हूँ ग्रहों पार से आते
उसके रुके हुए आँसुओं में

उसकी झुर्रियों में अब संतोष नहीं दिखता
कि मैं उंगलियाँ चाट कर खा लेता हूँ
महीनों बाद उसके हाथों का बना

साल दर साल चाह कर भी नहीं कह पाऊँगा
कि मैंने कभी चाहा था कोई और जीवन।
                                     ('कोई लकीर सच नहीं होती' संग्रह से)