Saturday, December 12, 2020

इधर कुछ


इधर कुछ वक्त से निकम्मा होने का एहसास बढ़ रहा है। घर 


के काम जो अब मजबूरी में पहले से ज्यादा करने पड़ रहे हैं


काम नहीं लगते - यह बात जो ज़हन में घुसी हुई है, यही 


इसकी जड़ होगी। पर सिर्फ इतना नहीं, माहौल में अवसाद 


घना है, थकान बढ़ चली है। जनांदोलनों से हौसला मिलता 


हैसाथ ही ग़मी की खबरें भी आती ही रहती हैं। मंगलेश से 


आखिरी मुलाकात चार साल पहले हुई थी। संजय जोशी ने 


कुबेर दत्त स्मृति सभा के लिए बुलाया था। उसके एक दिन 


पहले शाम को संजय के घर मैने कविताएँ पढ़ीं और मंगलेश 


वहाँ मौजूद थे। उन्होंने कविताओं पर बात की। अगले दिन 


गाँधी शांति प्रतिष्ठान में व्याख्यान के बाद सवाल पूछे। बस 


ऐसी ही कुल दो-चार मुलाकातें उनसे हुई थीं। इसके कुछ 


साल पहले जी पी एफ में ही मैं किसी और काम से गया था 


और वहाँ बल्ली सिंह चीमा के साठ साल के होने पर कोई 


कार्यक्रम चल रहा था। मंगलेश मंच से बोल रहे थे। बाद में 


उनसे मिला और हमने आपस में एक दूसरे के फ़ोन नंबर 


लिए। या जसम के वार्षिक समारोह के बाद कभी मिला था।




पने मुख्य काम यानी विज्ञान पढ़ने-लिखने के अलावा जो 


खुराफातें मैं करता रहा हूँ, उनमें युवाओं के साथ साहित्य पर 


बातचीत रही है। अपने संस्थान में 'रीडिंग्स फ्रॉम हिन्दी 


लिटरेचर' का एक कोर्स भी पढ़ाता रहा हूँ, जिसमें 


आज़ादी के बाद के रचनाकारों को पढ़कर कुछ हल्की 


बातचीत होती है। मंगलेश की कविताएं हर बार पढ़ी गईं। 


इनमें से एक 'गुमशुदा' थी। जिन छात्रों ने यह कोर्स लिया


उनमें से कुछ यह पोस्ट देखते होंगे। उन्हें याद होगा कि इस 


कविता पर हम कैसी चर्चा करते थे -



गुमशुदा - मंगलेश डबराल


शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में


उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर


अब भी चिपके दिखते हैं


जो कई बरस पहले दस बारह साल की उम्र में


बिना बताए घरों से निकले थे


पोस्टरों के अनुसार उनका क़द मँझोला है


रंग गोरा नहीं गेहुँआ या साँवला है


हवाई चप्पल पहने हैं


चेहरे पर किसी चोट का निशान है


और उनकी माँएँ उनके बगै़र रोती रह्ती हैं


पोस्टरों के अन्त में यह आश्वासन भी रहता है


कि लापता की ख़बर देने वाले को मिलेगा


यथासंभव उचित ईनाम


तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते


पोस्टरों में छपी धुँधली तस्वीरों से


उनका हुलिया नहीं मिलता


उनकी शुरुआती उदासी पर


अब तकलीफ़ें झेलने की ताब है


शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरे


कम खाते कम सोते कम बोलते


लगातार अपने पते बदलते


सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते


अब वे एक दूसरी ही दुनिया में हैं


कुछ कुतूहल के साथ


अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए


जिन्हें उनके माता पिता जब तब छ्पवाते रहते हैं


जिनमें अब भी दस या बारह


लिखी होती है उनकी उम्र ।


**


उनसे पहली मुलाकात अच्छी नहीं रही थी। शायद 1988 में 


चंडीगढ़ से मध्य प्रदेश की ओर आते-जाते दिल्ली में गाड़ी 


बदलने से पहले आई टी ओ पर जनसत्ता दफ्तर जाकर उनसे 


मिला था। इसके एक साल पहले मेरी कविताएँ 'पहल' में 


आई थीं। मुझे उम्मीद थी कि वे वक्त लेकर बात करेंगे। शायद 


व्यस्त थे या जो भी वजह थी - याद है कि उन्होंने अपने 


स्पॉंडिलाइटिस की वजह से हो रही तकलीफ का जिक्र किया 


था - ज्यादा देर बात न की। मुझसे मेरे पेशे के बारे में पूछा 


और फिर पूछा कि अपने पेशे में भी कुछ सही काम कर रहा 


हूँ या नहीं। अब सोच कर झेंपता हूँ, पर तब यह बात मुझे 


पसंद नहीं आई थी और मैंने लौट कर अपना बायो-डेटा भेज 


दिया था।


बहरहाल हताशा के इस माहौल में, मेरा जन्मदिन आया और 


गया। मैं दूसरों के जन्मदिन याद नहीं रख पाता, इसलिए 


अपेक्षा नहीं रखता कि लोग मुझे याद रखें। फिर भी कुछ 


दोस्त याद रखते हैं और मेसेज भेज देते हैं। मेरे जन्म का 


दिन दो कारणों से महत्वपूर्ण है। एक तो उस दिन अंतर्राष्ट्रीय 


मानव अधिकार दिवस है और दूसरा उस दिन नोबेल पुरस्कार 


दिए जाते हैं। प्यारे दोस्त भारत ने याद दिलाया कि 11 साल 


पहले कभी शिरीष ने अपनी ब्लॉग-पत्रिका पर यह कविता 


पोस्ट की थी, इस वजह से उसे मेरा जन्मदिन याद रहता है।


**


एक दिन ढूँढ रहा हूँ



एक दिन ढूँढ रहा हूँ


साल में कभी कोई एक दिन


जिस दिन कोई


कत्लेआम न हुआ हो


क्या मेरा जन्मदिन ऐसा दिन है


मत बतलाओ कि मेरे जन्मदिन पर


इतिहास में कितना खून बहा है


मेरा जन्मदिन हो निष्कलंक,


प्यार से भरा


इसे वैलेंटाइन डे कह दो


कह दो कि वह दिन मानव अधिकार दिवस है


कह दो मेरे जन्म पर विलक्षण प्रतिभाओं को दिए जाते हों 

पुरस्कार


एक दिन जब इंसान सिर्फ प्यार करता हो।

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