'हंस' के ताज़ा अंक में आई तीन कविताएँ -
1. आखिरी कविता नहीं
जीवन में कुछ आम बातें रही होंगी, कुछ लोग, आम दोस्त,
भाई-बहन, परिवार। लोग सालों तक
पेड़ की डाल पर पत्तों के काँपने
या बारिश की पहली बूँद बदन पर आ टपकने पर,
सड़क किनारे शोकेस में टँगी कमीज़ देख कर या
खबरों में किसी दुर्घटना के जिक्र पर, अचानक चौंकते होंगे। । लंबी साँस लेकर सोचते होंगे कि
उसे भूल बैठे थे। शाम को बेवजह यू-ट्यूब पर कोई गीत सुनते हुए
कोई रंग दिख जाना, हवा में उसकी आवाज़ की कंपन का होना।
अनकहा मुहावरा याद आ जाना।
उसे मार डाला गया। यह सोचते ही थर-थर काँपते होंगे लोग।
काँपती होंगी दीवारें, खयाल काँपते होंगे, कोई उठ खड़ा होगा,
कोई बैठ गया होगा। कोई सोचता होगा कि यह कैसे संभव है कि
वह नहीं है, पर मैं हूँ। किसी ने उसे बेहद प्यार किया होगा। वह
सरहद पर मारा गया वह गली में मारा गया वह मैदान में मारा गया
वह कहाँ मारा गया। वह किस जंग में मारा गया। दुश्मन की फौजों ने
उसे निहत्था धर दबोचा। ग़लती उसकी कि वह नहीं जानता था कि वह
जंग में शामिल था। उसके मुहावरे उसके हथियार थे। वह अपनी लड़ाई में
सूरज और चाँद को इस्तेमाल करता था। वह प्यार का इस्तेमाल करता था।
दुश्मन ने उसे टेढी आँखों से देखा तो वह हर कहीं दिखा।
उसे मारने की गरज में उन्होंने कई औरों को मारा।
मरने के तुरंत बाद उस पर दर्जनों कविताएँ लिखी गईं।
यह उस पर लिखी गई आखिरी कविता नहीं है।
2. अकेला
जिनसे हर रोज मिलता हूँ
साथ लंच खाता हूँ
सियासत के खतरे और मुखालफत की बातें करता हूँ
अगर उनके पत्ते झड़ गए तो वे कैसे दिखेंगे?
मुंबई में आरे इलाके में ऊँचे दरख्तों को आरों से काटा गया
हमने उन पर बात की यहाँ बैठे जहाँ से दस साल पहले एक गुलमोहर को उखाड़ फेंका गया था
कैंपस की दीवार के साथ कई पेड़ हैं जो आपस में ज़मींदोज़ जड़ें बाँटकर गुफ्तगू कर लेते हैं
उस बंदे की जड़ें वहाँ तक नहीं पहुँच पातीं
वह बहुत अकेला था
कौन समझेगा कि अकला पेड़ बहुत अकेला होता है
जिस गुलमोहर को हमने पाला था उसे हमने काट डाला
कि एक नई इमारत बननी थी और उसके पास हमारे बतियाने की जगह होनी थी
उस गुलमोहर से मैं वहीं बतियाता था, उसके पास से गुजरते हुए उसके तने को छूकर साथ कुछ गोपनीय खयाल साझा कर लेता था
सोचता हूँ कि अकेले हो गए बरगद से कभी पूछूँ कि क्या वह मुझ सा अकेला है।
3. आदत
एक प्रधान-मंत्री की मुझे आदत हो गई है
कुछ विशेषण जो पहले इस्तेमाल कर लेते थे, मसलन जालसाज, धोखेबाज, कातिल, फिरकापरस्त
अब नहीं करता
बासठ की उम्र में अनगिनत ज़ुल्म और जालिमों की आदत पड़ चुकी है
जैसे नापसंद कपड़ों को आदतन पहनते रहते हैं
खयाल आता है कि कुछ गड़बड़ है
पर पल में भूल जाते हैं
आखिर जिस्म ढँकने का काम ही तो करते हैं कपड़े
पर एक प्रधान-मंत्री को आदतन झेलते रहना आसान बात नहीं होती है
उसे आप जाँघिए की तरह नहीं पहन सकते
वह कभी भी चींटी की तरह कहीं भी डंक मार सकता है
सार्वजनिक माहौल में आप उसे उतार नहीं पाएँगे
हालाँकि बेचैनी आप पर सर चढ़कर बोलेगी
नापसंद ज्यादा या कम नमक की दाल सा
वह हर रोज परोसा जाता है
कुछ दिन चीख चिल्ला कर
आप शांत हो जाते हैं
ऐसी आदत के साथ जीते हुए
हम खुद को मुर्दा मानने लगते हैं
किसी शायर ने कहा था कि
मुर्दा शांति से भर जाना खतरनाक होता है
बस आदत है कि इंतज़ार करते हैं
कि एकदिन भेड़िया हमें खा जाएगा।
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