Monday, November 25, 2019

यहाँ


'मधुमती' के ताज़ा अंक में प्रकाशित कविताएँ



यहाँ

जब गाती हैं तो एक एक कर सभी गाती हैं

रुक-रुक कर एक पर एक सवार हो जैसे

कौन सी धुन किस चिड़िया की है कैसे कहूँ

आँखें तलाशती हैं

तो दरख्त दिखते हैं जैसे

व्यंग्य सा करते हुए कि क्या कल्लोगे



खिड़की तक चला ही जाऊँ

तो गिलहरी फुदकती दौड़ती दिखती है

उनकी बड़ी दीदी हो मानो



दिखने लगता है भरापूरा संसार

जब चारों ओर इतनी जंग-मार



खिड़की के अंदर से

देखता हूँ

यहाँ बचा है संसार

बची है रात की नींद

और दिन भर का घरबार


यहाँ।  


थकी हुई भोर


सुबह हड्डियाँ पानी माँगती हैं

पहले खयाल यह कि

फिर उठने में देर हो गई है

कंबल अभी समेटूँ या बाद में कर लेंगे

खिड़की का परदा हटाते हुए एक बार सोचना कि

खुला रखते तो जल्दी उठ सकते थे



आईना देखे बिना जान लेना कि शक्ल

जरा और मुरझा गई है

एक और दिन यह कोशिश करनी है कि

थोड़ी चमक वापस आ जाए

भले ही कल उठने पर वह फिर गायब मिले



असल में बुढ़ापा एक सोच भर है

जिसमें यादें थकी हुई भोर बन कर आती हैं

यह बात मन में उमंग लाती है

कि मुरझाते जिस्म के अंदर

पहले जैसा कोई शख्स छिपा बैठा है

केंचुल फेंक कर

दिन रेंगता हुआ सामने आ जाता है

फिसलती भोर पीछे रह जाती है।


दरख्त


दरख्त में झेंप से अलग फक्कड़पन भी है

अमूमन शांत खड़े बरगद पीपल विदेशी दोस्तों के साथ

मस्त झूमने लगते हैं

गुलमोहर में वैसे भी बचपन से ही कुछ सनक-सी होती है



दरख्त की झेंप को पहचानता उसे बचाता हूँ

तो अपनी मस्ती में शामिल कर वह मुझे बचाता है।



मुझे अकेले में रोता हुआ देख कर दरख्त नाचता है

और अंजाने ही मैं उसके नृत्य में शामिल होता हूँ

अँधेरा उतरता हो तो वह कह जाता है कि

सुबह वापस उनसे बतियाना न भूलूँ



सुबह खिड़की दरवाजे खोलते ही

हवा दरख्त को पास ले आती है

उसकी डाल पर बैठा सूरज हँसता है

उसे पता है कि दरख्त ने मुझे फक्कड़ बना दिया है



झेंपता हूँ और दरख्त कहता है

अमां सूरज को ज्यादा मसाला मत दो

कायनात में हर प्यार को उजागर करना इसका काम है


मुतमइन हूँ कि दरख्त मुझे बचाता है।  

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