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विष्णु खरे को याद करते हुए

यह लेख 'उद्भावना' के ताज़ा अंक में 'अक्खड़पन के बवजूद' शीर्षक के साथ छपा है।  - मई 2019


विष्णु खरे - श्रद्धांजली

विष्णु खरे से मेरी मुलाकात दो ही बार हुई। पहली बार 2009 में सुदीप बनर्जी के देहावसान के बाद साहित्य अकादमी में एक मीटिंग थी। मैं संयोग से दिल्ली में था। असद ज़ैदी ने बतलाया कि शोक सभा हो रही है, तो मैं भी वहाँ पहुँचा। उस दिन सभा के बाद विष्णु जी के साथ नीलाभ और असद की रोचक बातचीत सुनी और समझने की कोशिश की। जाहिर था कि विष्णु जी सही-ग़लत जैसा भी, खरी-खरी कहते थे। 2012 में इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के कुछ दोस्तों ने कविता पाठ का आयोजन किया था, जहाँ कविताओं के अलावा कुछ वरिष्ठ कवियों पर बातें भी हुईं। मुझे विष्णु जी पर कहना था और बिना किसी तैयारी के मैंने कुछ कहा। मुझे डर था कि वो नाराज़ होंगे। पर उन्होंने स्नेह के साथ मेरी बात सुनी। बाद में कुछ और वरिष्ठ कवियों के साथ बैठा था तो उनके बारे में बातचीत हो रही थी। हिन्दी के बड़े रचनाकारों से मैं कम ही मिला हूँ। इसलिए उनकी आपसी नोंक-झोंक से ज्यादातर नावाकिफ रहता हूँ। पर कमोबेश सबको पढ़ने की कोशिश की है। विज्ञान पढ़ाने के अलावा इंजीनियरिंग kके छात्रों को हिन्दी साहित्य पढ़ाने क़ी खुराफात भी की है। इस कोशिश में विष्णु जी की दो कविताएँ 'हर शहर में एक बदनाम औरत रहती है' और 'शिविर में शिशु' पर चर्चा की है। कविता में उनकी महारत जगजाहिर है, उन्हें हिंदी अकादमी साहित्य सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान, मध्य प्रदेश शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान आदि से सम्मानित किया गया था। पर रोचक बात यह है कि उन्होंने बहुत सारा अनुवाद का काम किया। यह अचरज की बात है कि छिन्दवाड़ा जैसे एक छोटे शहर में पले विष्णु जी ने बीस साल की उम्र में अंग्रेज़ी साहित्य से टी एस एलिएट को पढ़ा और 'द वेस्टलैंड ऐंड अदर पोएम्स' का हिन्दी में 'मरुप्रदेश की कविताएँ' शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित किया। बहुत बाद में फिनलैंड के एक कालजयी काव्य का उन्होंने हिंदी में ‘कालेवाला' शीर्षक से अनुवाद किया, जिसकी वजह से उन्हें वहाँ से साहित्य का 'नाइट ऑफ द व्हाइट रोज़' सम्मान मिला। इसके अलावा जर्मन, पोलिश आदि भाषाओं से उन्होंने अनुवाद किए। यूरोपी साहित्य-जगत के साथ उनके रिश्ते पर काफी लिखा गया है।

उनकी कविताओं को अक्सर गद्यात्मक कविता कहा गया है, पर वे मुक्तछंद में कविताएँ लिखते थे और इस जॉनर में उन्हें वाल्ट ह्विटमैन और चार्ल्स बॉदेलेयर के बीच में कहीं रखा जा सकता है। इस नज़रिए से उन्हें रूप के प्रति सचेत कवि के रूप में देखा जा सकता है। जिन दो कविताओं का जिक्र मैंने ऊपर किया है, वे उनकी कलात्मक सतर्कता के आदर्श नमूने हैं। उनकी शब्दावली विपुल और खुले कैनवस की थी। तत्सम शब्दों के साथ ही अरबी-फारसी के लफ्ज़ों का वे भरपूर इस्तेमाल करते थे। उनकी मृत्यु के कुछ महीने पहले मैंने उनसे फ़ोन पर '... बदनाम औरत....' के रचनाकाल के बारे में पूछा था। उनकी कविता पर चर्चा हो रही है जान कर वे खुश थे। सत्तर के दशक में ऐसी कविता का लिखा जाना किसी तहलके से कम नहीं रहा होगा। गौरतलब बात यह कि उनकी चिंता में ऐसी औरत थी जो उन औरतों से अलग है, जो 'उच्चतर हलक़ों में जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़हीन और मुहज्जब होती हैं'। यानी वे कुंठित मध्य-वर्ग के समाज से सीधे लोहा ले रहे थे। सचमुच यह कविता स्त्री पर नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक समाज और मर्द के बीमार ज़हन पर है। उनका यह जुझारुपन उनकी ज्यादातर रचनाओं में दिखता है। हम इतना ज़रूर कह सकते हैं कि वे कई महान कहलाने वाले कवियों से भी ज्यादा पढ़े जाने लायक कवि हैं।

साहित्य से इतर मैंने उन्हें कम जाना। सिनेमा पर उनके समीक्षात्मक लेख कभी-कभार पढ़े हैं, और इस क्षेत्र में उनकी जानकारी कमाल की थी। उनकी हर बात से सहमत नहीं होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि इतना पढ़ा-लिखा और विश्व-स्तर पर आधुनिक साहित्य और सिनेमा का पारखी रचनाकार हिन्दी में शायद ही कोई हुआ हो।

पिछले कुछ सालों में वे प्रगतिशील चिंतन की मुख्यधारा से विमुख से हो रहे थे, पर मानवीय सरोकार उनकी चिन्ताओं में बने रहे। खासतौर पर हुसेन की कलाकृतियों पर चली बहस पर 'जनसत्ता' में प्रकाशित उनके लेख `अपने और पराये` में चित्रकार हुसेन पर उनका पक्ष दक्षिणपंथियों को मजबूत करता था। वे मानते थे कि हुसेन ने चाहे-अनचाहे हििंदुओ की आस्था पर चोट की है। पश्चिम की संस्कृति की अगाध जानकारी रखने वाले विष्णु जी हुसेन की आलोचना करते हुए 'पश्चिमी समाजों में भी नग्नता की एक आपत्तिजनक सीमा होती है' जैसी बचकानी और रुढ़िवादी बातें लिख गए। फासीवादी उभार के इस दौर में उनसे अपेक्षा थी कि वे अपनी जनपक्षधरता और फिरकापरस्ती के विरोध पर डटे रहेंगे और ज्यादातर ऐसा ही उनके लेखन में दिखता है। 'शिविर में शिशु' जैसी कविताओं में फिरकापरस्ती के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता साफ दिखती है। फिर हुसेन जैसे कलाकार पर शक की उँगली उठाने का यह व्यतिक्रम क्यों - यह सवाल बना रहेगा। इस पर और साथ ही पुरस्कार वापसी और पानसरे, कलबुर्गी, दाभोलकर जैसे विद्वानों और तर्कवादियों की हत्याओं पर भी विष्णु जी के रुख पर शिवप्रसाद जोशी ने भी हाल में अपनी एक टिप्पणी में सवाल उठाया है।

अंतत: हम विष्णु खरे को उनके मानवीय सरोकारों से ही जानेंगे। अपने अक्खड़पन के बावजूद उन्होंने कनिष्ठ कवियों की रचनाओं पर हमेशा स्नेहपूर्वक ही बातें कीं। उनका यह बड़प्पन याद किया जाएगा।

Comments

प्रिय अग्रज, बहुत अच्छा लिखा है। आदरणीय खरे जी पर हर कोई बात नहीं करेगा, शायद कर नहीं सकता।
धन्यवाद।
- कमल जीत चौधरी
विष्णु जी से मैं भी बस दो बार मिला- दोनों बार पुणे में.
उन्होंने मुझसे दो वादे किए थे . पहला- दिलीप कुमार की आत्मकथा The Substance and the Shadow की समीक्षा लिखने का और दूसरा, अपनी मृत्यु से बस हफ़्ते भर पहले क्या किया गया वादा जल्दी ही हॉलैंड आने का. क्या पता था कि वे उन्हें पूरा किए बिना ही चले जाएँगे.

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