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वापस वह ज़मीन चाहिए

यह लेख तक़रीबन दो महीने पहले लिखा था। मामूली संपादन के बाद 'द वायर' में 'लोकतंत्र और संविधान से संघ-भाजपा का प्रयोग' शीर्षक से 14 मार्च को छपा था।


अगली सरकार संघ परिवार की क्यों नहीं

आज़ादी के बाद से भारत में अब तक अलग-अलग हुक्काम आए। तक़रीबन एक-सी धीमी गति से मानव-विकास की तरक्की हुई है। पहले की सरकारें मुल्क में सबके लिए खुशहाली नहीं ला पाईं, तो यह सवाल वाजिब लगता है कि मोदी के नेतृत्व वाली संघ परिवार की सरकार का विरोध क्यों किया जाए।
भारत में तरक्की के संदर्भ में तुलना के लिए चीन को लिया जा सकता है। 1950 में भारत और चीन तक़रीबन एक ही स्थिति में थे। कहा जा सकता है कि जंग और बड़े अकालों की वजह से चीन की हालत बदतर थी। चीन में साम्यवादी इंकलाब हुआ और तीन दशकों बाद धीरे-धीरे व्यवस्था पूँजीवादी तानाशाही में बदल गई। भारत में छोटे संपन्न तबकों की नियंत्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी, जिसमें कहने को पूरी अवाम शामिल थी, पर सचमुच जनता के हाथ कोई ताकत कभी नहीं रही। मानव विकास के आँकड़ों में चीन ने भारत से कहीं ज्यादा तरक्की की। साक्षरता दर, नवजात बच्चों की मौत, स्त्रियों की आम स्थिति, तालीम और सेहत आदि खित्तों में चीन भारत से आगे बढ़ता गया। फिर भी भारत की ताकत इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में है, जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी और विरोध की जगह सुरक्षित है।
पिछले सत्तर साल में जितनी सरकारें आईं, उन्होंने देश और जनता के सर्वांगीण विकास की जगह पूँजीवादी तबकों के हित में काम किया। अमीर ग़रीब की खाई बढ़ती रही। पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की वजह से इतनी तरक्की ज़रूर हुई कि मध्य वर्ग की माली हालत बेहतर हुई। पूँजीवादी विकास के नज़रिए से कई खित्तों में बढ़त दिखलाई देती है, जैसे सड़कें बनीं, या हाल के दशकों में सूचना क्रांति में भारत की भागीदारी है, आदि। इसके साथ आर्थिक उदारवाद और निजीकरण की वजह से मजदूरों के हक छीने गए, खेती के खित्ते में छोटे किसानों की हालत बहुत बिगड़ गई, यहाँ तक कि बड़ी तादाद में किसान खुदकुशी करते रहे हैं। पर सिर्फ इतनी बातें कोई वजह नहीं हो सकती कि संघी सरकार को हटाने की मुहिम छेड़ी जाए। क्योंकि इनके जाने के बाद कांग्रेस या आंचलिक दलों के गठबंधन से बनी सरकारें इन मुद्दों पर इनसे बेहतर काम करेंगी, ऐसी उम्मीद कम है। संघी सरकार को सत्ता से हटाने के कारण ज्यादा गंभीर हैं।
तमाम कामियों के बावजूद अगर भारत की कोई खासियत है तो वह हमारी लोकतांत्रिक संरचना है। संघ की सरकार ने भारत की इसी ताकत को कम किया है और आसार यही हैं कि आगे और भी बदहाली आएगी। संघ ने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के केंद्रबिंदु को बहुत पीछे की ओर धकेल दिया है। यह स्थिति इनके जाने के बाद भी बनी रह सकती है और इससे उबरने के लिए लोकतांत्रिक ताकतों को बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
धरती पर दूसरे जानवरों से अलग इंसान ने अपने ज़हन का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व को लगातार बेहतर बनाया है। इस प्रक्रिया में खुद को कुदरत का हिस्सा समझना और साथ ही कुदरत को अपने बस में रखना, ये दोनों बाते साथ चलती रही हैं। हिंसा जैसी जैविक प्रवृत्तियों पर रोक बढ़ाने की कोशिश होती रही है तो साथ ही ज्यादा से ज्यादा संसाधनों को हथियाने के लिए हिंसा को सामाजिक जामा पहनाकर जायज ठहराना भी होता रहा है। आज हम जहाँ पहुँचे हैं, वहाँ से हम पिछली सदियों को देख कर पाते हैं कि इंसान लगातार अपनी स्थिति में सुधार के लिए जद्दोजहद में है। यूरोप की आधुनिकता और कई देशों में आए इंकलाब दरअसल इंसान की बेहतरी की ओर उठाए गए कदम ही हैं। पर कहीं न कहीं कोई ऐसा संक्रमण इंसानी ज़हन में है, जो इतिहास को बार-बार पीछे की ओर धकेलता है। आर एस एस या पड़ोस के मुल्कों में तालिबान जैसे संगठनों की राजनीति वही बीमारी है जो इंसान को पीछे धकेल कर अँधेरे युगों की ओर ले जाने की राजनीति है। संघ परिवार ने विचार की जगह दबंगई, हिंसा और विरोधियों को दबाने के लिए प्रशासन के ग़लत इस्तेमाल को राजनीति का केंद्रबिंदु बना दिया है। ऐसा नहीं है कि दूसरी पार्टियाँ इस बीमारी से बिल्कुल मुक्त हैं, पर जहाँ दूसरे दलों ने सामयिक या स्थानीय वर्चस्व के लिए हिंसा को औजार की तरह इस्तेमाल किया, संघ ने खुले आम नीतिगत स्तर पर हिंसा को कभी वाजिब ठहराया है या कभी चुप्पी बनाए रखी है। साम्यवाद और संघ, दोनों की दृष्टि में हिंसा के राजनैतिक इस्तेमाल की बात है, पर जहाँ माओवादियों को छोड़कर दूसरे साम्यवादियों में वैचारिक रूप से हिंसा से परहेज करने की बात लगातार मान्य हो चुकी है, वहीं संघ में हिंसा के इस्तेमाल को जायज ठहराने की प्रवृत्ति बढ़ी है। साम्यवाद में हिंसा की ज़रूरत मजदूर किसानों के हित में मानी जाती है, जबकि संघी सोच में हिंसा फिरकापरस्ती और जाति या मजहब के नाम पर उचित मानी जाती है। लेनिन या माओ के नेतृत्व में सामंती या बुर्ज़ुआ ताकतों के खिलाफ जंग लड़े बिना साम्यवाद आ जाता तो बेहतर होता, ऐसा कोई भी साम्यवादी सोच सकता है, पर संघी यह नहीं सोच सकते कि गोडसे ने जो किया वह ग़लत था; उनकी ज़ुबान में से 'चीर देंगे' जैसे लफ्ज़ हट नहीं सकते।
भारत में लोकतंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि इसे उखाड़ पाना इतना आसान नहीं है। इसलिए संघ ने लोकतंत्र का इस्तेमाल करते हुए इसे खत्म करने की ठानी है। इसके लिए बहुत सारा पैसा और ब्लैकमेल के अलावा पुलिस और खुफिया संस्थाओं का भरपूर इस्तेमाल वे कर रहे हैं। खतरा यह है कि अगर ये वापस सत्ता में नहीं भी आते हैं तो भी राजनीति के मानदंड इतने बिगड़ चुके हैं कि समाज में स्थिरता और शांति आने में लंबा वक्त लग सकता है।
संघी राजनीति में छल बल कौशल, हर तरह से, जैसे भी हो सत्ता हथियाना अहम मकसद है। कहा जा सकता है कि राजनीति यही होती है। पर खूँखार अपराधियों के भी कुछ मानदंड होते हैं। लोकतांत्रिक राजनीति में न्यूनतम मानदंड हुआ करते थे। एक जमाना था जब चुनाव उत्सव की तरह आते थे। फिर पता नहीं कब जैसे माहौल में ज़हर घुल गया। जगह-जगह से चुनावी प्रचार के दौरान हिंसा की खबरें आने लगीं। पहले प्रचार में प्रार्थी झूठे वादे किया करते थे। अब विरोधियों पर झूठ के हमले होने लगे। झूठ राजनीति का औजार है। एक सामान्य झूठ तो संघ परिवार ने लंबे समय से हम सब पर लादा हुआ है, वह यह कि सत्ता में संघ नहीं भाजपा है। अब कोई विरला ही होगा जो इस झूठ को न समझता होगा। कोई औजार जब ज़रूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया जाए तो उसकी धार कम हो जाती है। आखिर में वार उल्टे पड़ने लगते हैं। भारतीय झूठ पार्टी का इन दिनों यह हाल है। राजनेता दम लगाकर कहता है - विरोधियों के झूठ का पर्दाफाश करो। लोग समझ जाते हैं कि विरोधी इस वक्त सच बोल रहे हैं। कई बार तो जो कुछ भी ग़लत वह विरोधियों के साथ कर रहा होता है, उसका दावा यह होता है कि विरोधी उसके साथ ऐसा कर रहे हैं। कहते हैं हिटलर की नात्सी पार्टी के साथ प्रोपागांडा मंत्री रहे गोएबेल्स ने कहा था कि अपने अपराधों का भांडा दूसरों के सर फोड़ो। यही हमारे राष्ट्रनेता का मंत्र है। यानी अगर वह कहे कि विरोधी चोर हैं तो अब लोग जान जाते हैं कि वह कह रहा है कि वह खुद चोर है। जब वह दूसरों को गद्दार कह रहा होता है, हम जानते हैं कि वह खुद गद्दार है। कर्नाटक चुनावों के प्रचार में मोदी ने झूठ कहा कि फौजी जरनैलों थिमैया और करियप्पा के साथ कांग्रेस और नेहरू सरकार ने बदसलूकी की। लोगों ने जान लिया कि नेहरू ने ठीक इसका उल्टा किया और उनका उचित सम्मान किया। संघ ने झूठ की संस्कृति को प्रतिष्ठित कर दिया है। अब अगर किसी और पार्टी के नेता झूठ बोलें तो उसका विरोध कठिन हो जाता है, क्योंकि संघी राजनीति ने झूठ के ऐसे मानक स्थापित कर दिए हैं, जो बेहद शर्मनाक हैं। आज राजनीति में विमर्श नाम की कोई चीज रह गई दिखती नहीं है। हर तरफ बस झूठ का व्यापार है।
2014 के चुनावों के पहले मैंने इस चिंता के साथ कई लेख लिखे थे कि नफ़रत की राजनीति बढ़ रही है और संघ परिवार और उनकी पार्टी की राजनीति हमारे अंदर के शैतान को बाहर लाने में जुटी हुई है तो कुछ दोस्तों को एतराज था कि मैं संघ और भाजपा के खिलाफ इतना क्यों लिख रहा हूँ। हो सकता है कि उनमें से कुछ समझ गए होंगे कि जिन मिथ्याओं को वे सच मान रहे थे, वे सच नहीं थे। हमेशा झूठ को सच बनाना आसान काम नहीं है। कई बार दुहराना पड़ता है। पैसा लगाना पड़ता है और प्रचार के लिए झंडाबरदारों के झुंड बनाने पड़ते हैं। लोगों के बीच नफ़रत फैलानी पड़ती है। यह सब आसान नहीं है। कुछ वक्त तक तो आम लोग जानकारी के अभाव में सीना-पीटू भाषण से प्रभावित हो जाते हैं, पर ऐसा हमेशा होता ही रहे, यह मुमकिन नहीं है। संघियों को वापस सत्ता में न लाने की एक मुख्य वजह उनका झूठ को कलात्मक शिखर तक ले जाना है। तख्तापलट की लड़ाई दरअसल सार्थक विमर्श को वापस लाने की लड़ाई है, जिसमें मुद्दे खरीदे हुए पत्रकारों और टी वी ऐंकरों के भौंकने से तय न हों, बल्कि मानीखेज बहसों से हों।
सोशल मीडिया की नई तक्नोलोजी का इस्तेमाल कर झूठ के तूफानी बवंडर से कायर लोगों की हीन भावनाओं को दबंगई और गुंडागर्दी में बदलने में संघी दिग्गज माहिर साबित हुए हैं। गुंडों का आधार बनाए रखने के लिए शीर्ष राजनेता घटिया स्तर तक उतर आता है। कर्नाटक चुनावों के प्रचार में छप्पन इंच जी ने विरोधियों को धमकी तक दे डाली। उनके मुख्य-मंत्री के दावेदार ने कहा कि लोगों के हाथ पैर बँधवाकर अपनी पार्टी को वोट डलवाओ तो राष्ट्रनेता ने विरोधियों को सीमा में रहने का फतवा दे डाला। एक केंद्रीय मंत्री पहले घोषणा कर चुका है कि वे संविधान बदलने के लिए सत्ता में आए हैं। हाल में इसी शख्स ने मजहब के नाम पर हिंसा के इस्तेमाल की बात कही है। हालात इस कदर नीचे गिर गए हैं कि इस पर अब कुछ लिखना मायने नहीं रखता। चारों ओर डर का माहौल है। बुद्धिजीवियों को बेवजह झूठे आरोपों में फँसा कर क़ैद में डाला जा रहा है। कइयों ने सच कहा है कि ऐसे हालात पचहत्तर के आपात्काल में भी न थे, जैसे आज हैं।
जिन पर बाक़ी झूठ आसानी से काम नहीं करते हैं, उन पर एक और झूठ लादा जाता है। वह यह कि कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस के जमाने में खूब भ्रष्टाचार हुए, इसलिए। सपा-बसपा आदि के नेता तो मजाक हैं, इसलिए। इसलिए हमें आँखें बंद कर लेनी चाहिए और चाहे मुसलमान मरे या दलित, वोट झूठ पार्टी को ही देना चाहिए। यह झूठ खतरनाक है। विकल्पहीनता के झूठ के साथ अधिनायकवाद जुड़ा हुआ है जो हमारे संघीय (गणराज्य वाला संघ) संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है। ऐसा पहले भी होता रहा है। नेहरू के बाद कौन, इंदिरा के बाद कौन आदि। सच यह है कि सबसे ज्यादा अनिश्चित स्थिति में, जब सारे सांसद निर्दलीय हों, फिर भी माहौल फिरकापरस्त हिंसा की राजनीति से बेहतर होगा। अगर अधिकतर सांसद बड़ी पार्टियों के न भी हो, तो कोई खास संकट नहीं आने वाला। विकल्प और भी हैं जिन पर सोचना ज़रूरी है। देश की जनता ने कई बार दिखलाया है कि विकल्प कई हैं। संघी झूठ प्रचार में यह बात आती रहती है कि भाजपा के विरोध का मतलब कांग्रेस का समर्थन है। जाहिर है अब जब मोदी का तिलिस्म रहा नहीं, इस प्रचार से कांग्रेस को फायदा हुआ है, पर यह बात बिल्कुल बकवास है। संघ की नफ़रत आधारित राजनीति का विरोध करने वाले अधिकतर लोग कांग्रेस की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और फिरकापरस्ती का हमेशा ही विरोध करते रहते हैं। वे लोग भी जो संघ के बढ़ते आतंक से घबराकर कांग्रेस के समर्थन में खड़े हो रहे हैं, दरअस्ल सभी कांग्रेस समर्थक नहीं हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से अमीर-ग़रीब की खाई और बेरोजगारी बढ़ी है, ये बातें अब पूँजीवाद के महंत भी मानते हैं और हाल के वर्षों में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी कही हैं।
संभावना है कि झूठ, पैसा, ब्लैकमेल, आतंक, ई वी एम मशीनों से छेड़छाड़, हर तरह के फूहड़पन के बावजूद संघ-परिवार आगे आने वाले चुनावों में जीत हासिल करने की स्थिति में न हो। ऐसी स्थिति में दो बातों की संभावना है। एक तो यह कि भारत और पाकिस्तान में जंग छेड़ दी जाएगी और दूसरी यह कि संघ परिवार अपनी सारी ताकत देश भर में फिरकापरस्त दंगे भड़काने में लगा देगा। मंदिर-मस्जिद की सियासत को फिर से उभारने की कोशिशें जारी हैं। संघ को सत्ता से हटाने की मुख्य वजह उनकी यही फासीवादी सोच है। संघ को जीवन जाति-धर्मों के बीच महासंग्राम दिखता है, जहाँ हिंसा और नफ़रत के अलावा कुछ नहीं है। उनका इतिहास, भूगोल, सब कुछ नफ़रत की ज़मीं पर खड़ा है।
संघ परिवार की सियासत इंसान में असुरक्षा की भावना को भड़का कर हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जगाती है। दबंगई और दरिंदगी गहरी हीन भावनाओं और कायरता से उपजती हैं। डर एक ऐसी आदिम प्रवृत्ति है जिससे शरीर में जैव-रासायनिक क्रियाएँ चल पड़ती हैं। जो महज भावनात्मक लगता है, वह कब हमारा जैविक गुण बन जाता है, पता तक नहीं चलता। डर से पसीना ही नहीं छूटता, इससे ऐसी उत्तेजना भी होती है, जो हमें हमलावर बना देती है। दबंगई कायर लोगों में यह एहसास पैदा करती है कि जब तक साथ में और लोग हैं, सत्ता का साथ है, कुछ भी कर लो, धौंस जमाओ, स्त्रियों और बच्चों के साथ हिंसा करो। कई लोगों को एक सा डर होने लगे तो वह सामूहिक राजनैतिक औजार बन जाता है। जैसे किसी व्यक्ति में भगवान और शैतान दोनों को जगाया जा सकता है, वैसे ही समुदायों में भी नैतिक संकट के बीज बोए जा सकते हैं और वक्त आने पर उसके ज़हरीले फल तोड़े जा सकते हैं। इसी का फायदा उठाकर संघ परिवार जैसे गुट सत्ता में आते हैं। सामूहिक गुंडागर्दी के लिए बीमार विचारधारा पर आधारित नेतृत्व, भय में डूबी नुकसानदेह मानसिकता, बड़ी तादाद में लोगों में आहत होने का एहसास और बाकी लोगों की सुन्न पड़ गई संवेदनहीन मानसिक दशा कच्चा माल की तरह हैं, जिन्हें सही मौकों पर घुला-मिला कर संकीर्ण सोच में ग्रस्त नेतृत्व सत्ता हासिल करने के लिए इस्तेमाल करता है।
हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि इस ज़हर से प्रभावित लोगों से किसी भी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे पर चर्चा करने पर वह इसे देशद्रोह मानने लगता है। पर दरअसल यह भय और घबराहट से उपजी बौखलाहट ही है। हाल में ब्रिटेन के यूरोपी-संघ से निकलने के पहले विरोधी गुटों की मुहिम पर टोबी हेएनस की बनाई फिल्म में एक अद्भुत दृश्य है। एक महिला इस संकेत मात्र से कि यूरोपी-संघ से निकलने के पीछे बाहर से आ रहे लोगों के प्रति नफ़रत भी काम कर रही है, पहले तो चीखने लगती है, फिर यह कह कर रोने लगती है कि उसे बेवकूफ क्यों माना जा रहा है। एक ऐसी स्थिति जिसमें बाक़ी सभी असहाय सा बोध करने लगते हैं, क्योंकि इस बीमारी का शिकार इंसान किसी बातचीत के दायरे से दूर जा चुका होता है।
हम आप कुछ न करें तो भारत में हालात वैसे ही हो जाएँगे, जैसे सीरिया, अफग़ानिस्तान जैसे मुल्कों में हैं। हम सचमुच एक खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं और विड़ंबना यह है कि बहुत सारे लोग यह समझते हैं कि यह कोई खास बात नहीं है। इस खतरे को कि दक्षिण एशिया के हुक्काम कभी भी जंग छेड़ सकते हैं, हल्का नहीं लेना चाहिए। अब अगर जंग छिड़े तो कोई नहीं जानता कि वहाँ कहाँ और कब रुकेगी। ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो अपनी मुनाफाखोरी के लिए जंगों पर निर्भर हैं। अमेरिका जैसे मुल्कों के वार्षिक निर्यात का बड़ा हिस्सा असलाह की बिक्री है। हमारे भीतरी खतरे भी कम नहीं हैं। संघ की पूरी राजनीति नफ़रत फैला कर सत्ता हासिल करने की है। आज तक यह सही पता नहीं चला है कि गोधरा कांड में सचमुच क्या हुआ था। इसमें कोई अचरज नहीं होगा अगर कभी यह सिद्ध हो जाए कि वह जान बूझ कर नफ़रत फैलाने के लिए पूर्व-नियोजित ढंग से करवाई गई वारदात थी। मुंबई के आतंकी हमलों के दौरान हेमंत करकरे जैसे अफसरों की जानें कैसे गईं, इस पर आज तक पर्दा पड़ा हुआ है। भीष्म साहनी की रचनाओं पर आधारित 'तमस' फिल्म का शुरूआती सीन, जिसमें ओम पुरी ने अभिनय किया था, कौन भूल सकता है। सचेत नागरिकों को हर पल जगे रहना होगा कि कभी भी कुछ हो सकता है। ये किसी को भी खरीद सकते हैं, कुछ भी करवा सकते हैं। सिर्फ इतना नहीं कि विधान सभा में महज दो सदस्य होते हुए भी सरकार बना ले सकते हैं, इससे कहीं आगे हिंसा के सभी तरीके भी अपना सकते हैं।
हमारे पास हालात से जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। एक ओर निश्चित विनाश है, भीतर बाहर हर तरह की जंग लड़ाई का खतरा है, दूसरी ओर इकट्ठे आवाज़ उठाने का, बेहतर भविष्य के सपने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाने का विकल्प है। एक ओर जंगखोरी और लोगों को फिरकापरस्ती में उलझा कर मुल्क की संप्रभुता गिरवी रखी जा रही है, दूसरी ओर आम लोगों के लिए बेहतर तालीम और सेहत के मुद्दे हैं। आज हिंदुस्तान जंगी असलाह की आमद पर खर्च करने की सूची में सबसे ऊपर है। फौजी खित्ते में मुल्क की संपदा को लगाने में हम पाँचवें नंबर पर हैं। साथ ही यह विड़ंबना कि मानव विकास आँकड़े में हम 133 वें नंबर पर हैं। हमें लोगों को यह समझाना होगा कि हमारी लड़ाई पाकिस्तान या चीन के लोगों से नहीं है, वहाँ की हुकूमतों से है और साथ ही हमारे अपने मुल्क की मध्य-युगीन मानसिकता वाली हुकूमत से है। सरहद पर मरने वाला सिपाही मरता है तो वह किसी मुल्क का भी हो, उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। हाकिम नहीं मरते, साधारण सिपाही मरते हैं और उनको शहीद कह कर या उनके परिवार को राहत का पैसा देकर मरे हुए को वापस नहीं लाया जा सकता है। पर हुक्काम के पास ये सब सोचने की गुंजाइश नहीं है। जंग किसी के भी भले के लिए नहीं है। आज धरती विनाश के कगार पर खड़ी है और संकीर्ण राष्ट्रवादी नज़रिए से हटकर आलमी सोच के साथ हमें तमाम विनाशकारी ताकतों के खिलाफ लड़ना है। अगर सरमाएदारों के बीच मुनाफाखोरी के लिए आलमी समझौते हो सकते हैं तो आम लोगों के बेहतर तालीम और सेहत की सुविधाओं के साथ शांतिपूर्ण ज़िंदगी जीने के लिए समझौते भी हो सकते हैं। संघ परिवार ने हालात ऐसे बना दिए हैं कि इन ज़रूरी मुद्दों पर बातचीत नामुमकिन है। सियासी मुहावरे लफ्फाजी और छींटाकशी में सिमटे रह गए हैं।
संसदीय चुनावों में संघ परिवार के लोग जिस हद तक हो सके देश को तबाही की ओर धकेलेंगे। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जागरुक हर शख्स के लिए लाजिम है कि हम ऐसा न होने दें। नफ़रत और जंग-लड़ाई-मार से अलग हमें वापस वह ज़मीन चाहिए जिस पर खड़े होकर हम तालीम, सेहत, भाषा और संस्कृति जैसे मुद्दों पर बात कर सकें। इसी के लिए एकजुट होना है और संघर्ष करते रहना है। इसी लिए संघ परिवार को सत्ता से हटाना है।

Comments

HARSHVARDHAN said…
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति फील्ड मार्शल सैम 'बहादुर' मानेकशॉ की 105वीं जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

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