धीरेश ने दानबहादुर सिंह की काजी नज़रुल इस्लाम की बच्चों के लिए लिखी कविता 'छोटो हिटलर' पर की गई टिप्पणी को फेसबुक पर पोस्ट किया है।
धीरेश का शक है कि दानबहादुर सिंह की यह बात कि
"'छोटो हिटलार' 'शिशु के लिए वीरत्व एवं शौर्य' के प्रतीक"
नज़रुल के अनजाने पक्ष को दिखलाती है। ऐसा हो सकता है। उस जमाने में हिटलर और जर्मनी पर बहुत सारी जानकारी उपलब्ध नहीं थी और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ते हुए कई भारतीयों को हिटलर इतना बुरा नहीं दिखता था, जितना कि वह था।
पर मैंने इस कविता पर और जानकारी ली तो मुझे लगा कि दानबहादुर सिंह से चूक हुई है।
उद्धृत लाइनों का शाब्दिक अर्थ है - 'माँ, अगर वहाँ भूत हो/ तो देख लेना माँ एक दिन/ बाँध ले आऊँगा चौके में/ मसाला पीसने के लिए मुसोलिनी को/ अपने घुटने तुड़वाकर ले आऊँगा/ मेरे उस शरारती भाई हिटलर को/ उसे ओड़िया ब्राह्मण बना दूँगा/ अगले सोमवार को देख लेना।' बंगाल में सामाजिक खान-पान के लिए ओड़िया ब्राह्मण रसोइए रखे जाते थे - उन्हें सभ्य भाषा में ठाकुर कहा जाता था और हँसी-मजाक में उड़े। इस तरह की 'नॉनसेंस' कविताओं की परंपरा बंगाल में बहुत पुरानी है। 'नॉनसेंस' का मतलब बकवास नहीं, यह एक विधा है (जैसे अंग्रेज़ी में लुइस कैरोल)।
कविता की चार लाइनें और हैं -
मागो! आमि युद्धे जाबोई निषेध कि आर मानि
रात्रि-ते रोज घूमेर माझे डाके पोलैंड-जर्मनी
भय करि ना पोलिशदेरे जर्मनीर ओई भाँओता के
काँपिए दिते पारि आमार मामा बाड़ी 'तेओता' के।
अर्थ -
माँ! मैं जंग में जाऊँगा ही, नहीं मानता मनाही,
रात
को हर रोज नींद में मुझे बुलाते
पोलैंड-जर्मनी
भय
नहीं है पोलिशों से, या
जर्मनी के छल से
हिला
दे सकता हूँ मैं मामा के गाँव
'तेओता'
को।
'तेओता'
उनकी पत्नी
का गाँव था। पत्नी का नाम आशालता
सेनगुप्ता था - घर
में दोलोनी या दूली कहते थे।
नज़रुल ने अपनी ओर से उनका नाम
प्रमिला
(प्रोमीला)
रखा था।
कविता
में उनके दो बेटे मामाबाड़ी
यानी माँ के गाँव के बारे में
ये बातें कहते हैं।
जाहिर है
कि यह महज 'नॉनसेंस'
कविता ही
है। बांग्ला विचारकों के अनुसार
यह कविता 'तेओता'
गाँव के
प्रति उनका प्यार दिखलाती
है।
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