भीष्म
साहनी -मेरे
प्रिय कथाकार
('नया पथ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित)
भीष्म
साहनी मेरे प्रिय कहानीकार
हैं। स्कूल से निकलते कॉलेज
में आते किशोर उम्र के आखिरी
सालों में उनको पढ़ना शुरू किया
था। कहानियों के अलावा उनके
उपन्यास 'झरोखे'
और
कड़ियाँ तभी पढ़े थे। हालाँकि
उसके बाद ये उपन्यास फिर कभी
नहीं देखे,
पर
आज चालीस से भी अधिक सालों बाद
कहानी और चरित्र याद आते हैं।
जिस बेबाकी से भीष्म जी ने
किशोर वय से युवा होने का विवरण
'झरोखे'
उपन्यास
में किया है,
वह
न मिटने वाला प्रभाव छोड़ जाता
है।
अक्सर
भीष्म साहनी को प्रेमचंद
की परंपरा का लेखक कह दिया जाता है। उनकी
रचनाएँ अपने समय की जीवंत
कथाएँ हैं। प्रेमचंद
की
तरह ही उनका लेखन भी समकालीन
समाज की विसंगतियों को दिखलाता
है और बेहतर समाज बनाने के लिए
हमें प्रेरित करता है। पर
सचमुच वे प्रेमचंद से अलग और
आगे के रचनाकार थे। न केवल
भाषा के स्तर पर,
बल्कि
विषय,
शैली
और दृष्टि में वे प्रेमचंद
से
काफी अलग थे। उनके सरोकार
जनपक्षधर थे,
पर
उनकी रचनाओं को पढ़कर आप यह
सोचकर चैन की नींद नहीं सो
सकते कि वाह,
कितना
यथार्थपरक लेखन है। वे गहरे
चोट करती हैं। उनकी
भाषा सरल थी और पाठक से ऐसे
जुड़ती थी जैसे कोई किसी यात्रा
में बैठे हुए साथी से बातें
कर रहा हो। वे
अपने समकालीन यशपाल और दूसरे
कई प्रगतिशील कथाकारों से इस
मायने में अलग थे कि उनके लेखन
में हम विचार से पहले कहानी
को पढ़ते हैं। मूलत:
वे
मानवतावादी थे। देश
के बँटवारे के वक्त हुई त्रासद
घटनाओं जैसे विषयों पर भी उनका
लिखा सहज बनकर सामने आता है
-
हालाँकि
'तमस'
फिल्म
में इसे भरपूर नाटकीयता के
साथ दिखलाया गया है। उनकी कई
रचनाओं में ग़रीब और कमज़ोर
तबकों के चरित्र प्रधान भूमिका
में नज़र आते है। पर मुख्यत:
उनका
लेखन मानव नियति पर केंद्रित
था। 'तमस'
को
पढ़ते हुए भी यह तय करना कठिन
होता है कि उन्हें किस वैचारिक
पटल पर परखा जाए,
क्योंकि
उनकी तकलीफ महज वैचारिक
पृष्ठभूमि से नहीं,
बल्कि
खाँटी इंसानी अहसासों से आती
है। सामाजिक
प्रक्रियाओं से समूह-संस्कृतियों
का बनना और ऐसे समूहों का परस्पर
के प्रति हिंसा और नफ़रत में
बह जाना,
इसी
के बीच संवेदनशील इंसान का
पलना,
बचपन
से लेकर पूर्ण वयस्क अनुभवों
तक से गुजरना,
इन
बातों को ही हम उनके लेखन में
पाते हैं। मसलन उनके 'झरोखे'
उपन्यास
में ऐसे ही एक चरित्र के जरिए
मानव नियति को ही दिखलाने की
कोशिश है। इस अर्थ में उनके
लेखन में संवेदनाओं
की ऐसी
सार्वभौमिकता है,
जो
उसे अनन्य बना देती है। अपने
रूप में बिल्कुल अलग होते हुए
भी,
उनकी
रचनाएँ चेखव से प्रेमचंद तक
के महान कथाकारों की रचनाओं
की श्रेणी में आ जाती हैं।
भीष्म
साहनी के लेखन को किसी निश्चित
समाजशास्त्रीय ढाँचे में डाल
कर देखना सही नहीं है,
क्योंकि
जैसा हमने पहले लिखा है,
वे
मूलत:
इंसानी
फितरत और पाखंड से उपजी तकलीफों
को सामने लाने वाले ऐसे लेखक
थे,
जो
हमें अपने साथ ऐसी यात्राओं
पर ले जाना चाहते थे,
जहाँ
हम कुदरत को देख-जान
सकें और परस्पर नफ़रत से निकल
कर आपस में प्यार का बीज बो
सकें। बेशक
खास ऐतिहासिक स्थितियों से
अलग हटकर हम उनके लेखन को पूरी
तरह नहीं पढ़ सकते,
यह
सामान्य तथ्य है जो किसी भी
अच्छे रचनाकार के लिए लागू
होता है,
पर
उनका फोकस ऐतिहासिकता पर नहीं,
बल्कि
मानविकता पर था। यह
और बात है कि उनकी अधिकतर
रचनाएँ
ऐतिहासिक
दस्तावेज बन चुकी हैं,
जिनमें
हम बीसवीं सदी के बीच से लेकर
उत्तरार्द्ध तक के उत्तरी
भारत का इतिहास पढ़ सकते हैं।
कहते हैं कि अच्छे कथाकार झूठ
गढ़ते हैं,
ताकि
सभ्यताओं को बचाए रखा जा सके।
होता होगा,
पर
भीष्म साहनी को पढ़ते हुए हमें
कभी नहीं लगता कि हम किसी कल्पना
जगत में हैं। अगर सचमुच साहित्य
में समाज के दर्पण जैसी कोई
बात है तो वह उनके लेखन में
है। आधुनिक
समय की तमाम विकृतियों में
अगर सबसे विनाशकारी कोई
प्रवृत्ति है,
तो
वह सरमाएदारी से जुड़ा राष्ट्रवाद
है। बाकी सभी विकृतियाँ किसी
न किसी तरह से राष्ट्रवाद
से जुड़ी
दिखती हैं। पूँजीवाद का
राष्ट्रवाद से जुड़ना अपने आप
में विरोधाभास है,
क्योंकि
पूँजीवाद आर्थिक संरचना है
जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे
विश्व-स्तरीय
पहुँच का ध्येय रखती है। पर
सरमाएदारी के अंतर्निहित
संकट ऐसे समझौतों को साथ लाते
हैं,
जो
विरोधाभासों को जन्म देते
हैं। राष्ट्रवाद और पूँजीवाद
की मिलीभगत भी ऐसा ही समझौता
है,
जिससे
तमाम दूसरे संकट,
मसलन
कुदरत के विनाश के लिए विज्ञान
का इस्तेमाल,
स्त्री
का एक वस्तु की तरह इस्तेमाल
आदि पनपते
हैं। यह कहना ग़लत होगा कि इन
सभी समस्याओं की जड़ सरमायादारी
है,
पर
यह कहा जा सकता है कि इन समस्याओं
को सुलझाना और इनका लगातार
नियंत्रण से बाहर जाना सरमाया
और राष्ट्रवाद
का खेल है। राष्ट्रवाद ऐसी
विकृतियों को जन्म देता है,
जो
अधिकतर
लोगों की समझ से परे है। राष्ट्र
और सुरक्षा के नाम पर दुनिया
भर में आम लोगों का पैसा बेइंतहा
तबाही में लुटाया जाता है,
पर
इसके बारे में कुछ कहना घोर
अपराध माना जाता है,
क्योंकि
राष्ट्र को धर्म की तरह पवित्र
मान लिया गया है। भीष्म साहनी
की रचनाएँ ऐसी विकृतियों के बारे में हमें सचेत करती
हैं। विभाजन की त्रासदी उनके
पीढ़ी की भोगी हुई सबसे भयंकर
त्रासदी थी,
इसलिए
उस पर तो उनका लिखना स्वाभाविक
ही है। पर अगर हम गौर करें तो
पाएँगे कि विभाजन
पर आधारित कृतियों में भी वे
महज इस पर जोर नहीं डाल रहे कि
सामयिक राजनैतिक या ऐतिहासिक
कारणों से आम लोगों का जीना
दूभर हो गया था,
बल्कि
वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
पर सवाल उठाते हैं। 'अमृतसर
आ गया है'
में
जिस मार्मिकता के साथ मजहब
आधारित राष्ट्र
और
इसके दुष्परिणामों
पर चोट की गई है,
वह
सिर्फ एक खास वक्त का बयान
नहीं,
बल्कि
मानव नियति पर शाश्वत टिप्पणी
है। वज़ीराबाद
और अमृतसर में फ़र्क ज़रूर है,
पर
वह फ़र्क कहाँ से पैदा हुआ सोचने
पर हम
पाएँगे कि उसमें राष्ट्र की
वही धारणा निहित है,
जिसको
लेकर आज भी इंसान को हैवान
बनाने की कोशिश चल रही है। ऐसा
ही उनकी सभी रचनाओं के बारे
में कहा जा सकता है। राष्ट्रवाद
पर सबसे प्रभावी टिप्पणी उनकी
कहानी 'वाङचू'
में
है में है,
जो
कहने को भारत में आए एक चीनी
आदमी की कहानी है,
पर
यह महज एक चीनी
आदमी की कहानी नहीं है। जाति,
नस्ल,
धर्म
और राष्ट्रीयता के आधार पर
संकीर्णता ही इसका असली विषय
है। आज इंसान इन सभी संकीर्णताओं
से भरा हुआ है। इस संकीर्णता
का फायदा उठाने वाले बहुत हैं
और जाने-अंजाने
हम उनका शिकार बनते हैं। आज
देश की जो स्थिति है,
उसमें
यही माहौल चौंधियाता दिखता
है।
उनकी
बाद की कृतियों में वर्ग-आधारित
उत्पीड़न की तस्वीरें ज्यादा
है,
जैसे
'बसन्ती'
उपन्यास
में दिखता है,
पर
शुरू से ही उनकी नज़र सर्वांगीण
रही है। 'झरोखे'
उपन्यास
में ही मध्यमवर्गीय पंजाबी
परिवार को आधार बनाकर धार्मिक
एवं सामाजिक विसंगतियों की
मार्मिक तस्वीर खींची गई है।
इसे पढ़ते हुए हर तरह की गैरबराबरी,
ऊँच-नीच,
अमीर-ग़रीब,
फिरकापरस्ती,
कर्मकाण्ड,
और
नौकरशाही से हमारा वास्ता
पड़ता है। स्त्रियों के प्रति
संवेदनशीलता में वे शरतचंद्र
के समकक्ष कहे जा सकते हैं।
शुरूआती दूसरे उपन्यास 'कड़ियाँ'
में
स्त्री का चरित्र ही मुख्य
है। प्रमिला पारंपरिक सीमाओं
में बँधी होते हुए भी एक सशक्त
इंसान बन कर पेश आती है। संबंधों
की जटिलताओं को दिखलाने में
भीष्म जी जैसी साफगोई दिखलाते
हैं,
उससे
उन्हें प्रेमचंद की परंपरा
से अलग और नई कहानी आंदोलन का
बीज कहा जा सकता है। उनकी
आखिरी दौर की कहानियों में
विविधता है,
विषय-वस्तु
में भी और शैली में भी। जैसे
उनकी 'चीलें'
कहानी
अलग ही अंदाज़ की है। संबंधों
की काफ्काई नज़रिए से चीरफाड़
करती यह कहानी हमें देर तक
सोचने को मजबूर करती है -
क्या
यह कहानी चीलों के बारे में
है,
चील
कौन है,
क्या
है,
आदि
सवाल उठते ही रहते हैं।
उत्तर
भारत में,
खासकर
पंजाब से ताल्लुक रखने वाले
या देश के विभाजन से प्रभावित
लोगों के लिए 'तमस'
ही
उनकी सबसे पहचानी हुई कृति
है,
पर
मेरा मानना है कि उनकी सबसे
महत्वपूर्ण कृति 'वाङ्चू'
कहानी
है। जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अपनी 'घरे-बाइरे'
और
'गोरा'
जैसी
गद्य रचनाओं में अपने समय से
बहुत आगे की दृष्टि लेकर आते
हैं,
जिसका
मूल्यांकन आज तक हो रहा है,
वैसे
ही भीष्म साहनी की दूरगामी
नज़र 'वाङ्चू'
कहानी
में है,
जिसको
पूरी तरह स्वीकार करने में
हिंदी के आलोचक आज तक असफल
हैं। वह इसलिए कि इस कहानी में
वे ऐसे सवाल उठाते हैं,
जिसे
हिंदी के पाठक सवाल मानने तक
से कतराते हैं,
जबकि
वह हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं।
राष्ट्र की धारणा ऐसी अजीब
बात है जो भले से भले आदमी को
नस्लवादी बना देती है। जब
तक हम खुद नस्लवाद से प्रभावित
नहीं होते,
हमें
यह उतनी बड़ी समस्या नहीं लगता;
मसलन
हिंदी में
अफ्रीकी मूल
के लोगों के लिए बड़े से बड़ा
उदारवादी भी 'अश्वेत'
शब्द
का इस्तेमाल करता है,
जबकि
इस बात को समझने में देर नहीं
लगनी चाहिए कि किसी काले आदमी
को 'जो
गोरा नहीं है'
कहकर
पहचानना ग़लत है। काला
या अफ्रीकी कहने से हमें परहेज
नहीं करना चाहिए,
'काला'
के
साथ जुड़े पूर्वग्रहों से हमें
मुक्त होने की कोशिश करनी
चाहिए। 'वाङ्चू'
के
बारे में कम चर्चा होती है,
क्योंकि
यह कहानी हमें बतलाती है कि
हमारे हुक्मरानों ने किस तरह
अपने पड़ोसी मुल्क चीन के लोगों
के प्रति हमारे मन में नफ़रत
भर दी है।
निजी
दायरे से आगे,
परिवार
से लेकर सामुदायिक संबंधों
तक को सहजता से कहने में भीष्म
जी की महारत अव्वल दर्जे की
थी। इसका बेहतरीन नमूना हम
'मय्यादास
की माड़ी'
उपन्यास
में देखते हैं,
जो
उन्नीसवीं सदी के लाहौर और
पंजाब के कस्बाई जीवन पर आधारित
है। इसमें इतिहास है,
समाजशास्त्र
है,
साझी
विरासत को दिखलाते हुए फिरकापरस्ती
के खिलाफ बुनियाद है और इस
सबके बीच घरेलू स्त्रियाँ
हैं,
प्रेम-मुहब्बत
है,
रूढ़ियों
के खिलाफ संघर्ष है। उपन्यास
में रुक्मिणी का सशक्त चरित्र
है,
जो
दकियानूसी मान्यताओं से लोहा
लेकर पढ़ाई करती है और अध्यापक
बन जाती है। ऐसा ही 'कुन्तो'
और
दूसरे उपन्यासों के बारे में
कहा जा सकता है।
विभाजन
हीं नहीं,
फिरकापरस्ती
और रूढ़ियों की यंत्रणा का गहरा
अनुभव भीष्म जी को अपने जीवन
से मिला था। माँ के कहने पर
अपने बड़े भाई बलराज की बेटी
शबनम की उसके मुसलमान मित्र
से अलग कर कहीं और ज़बरन करवाई
शादी और बाद में उसकी खुदकुशी
से जो सदमा परिवार को झेलना
पड़ा,
उसे
जहाँ बलराज ने फिल्म 'ग़र्म
हवा'
में
अपने अभिनय से सर्जनात्मक
ढंग से कहा,
वहीं
भीष्म ने 'नीलू,
नीलिमा,
नीलोफर'
उपन्यास
में फिरकापरस्ती से तबाह होती
जवाँ ज़िंदगियों की कहानी
में ढाला। भीष्म का आशावाद
यहाँ नीलिमा और नीलोफर की ताकत
और जीवन के प्रति उनके जुझारू
रवैए में दिखता है। दरअसल
स्त्रियों के बारे में उनकी
गहरी समझ चौंकाने वाली है।
शायद ही उनके समय के किसी और
रचनाकार ने इतने विविध स्त्री
चरित्रों को उकेरा हो। उनकी
हर कृति में कोई न कोई स्त्री
ऐसी होती है जो यथास्थिति के
खिलाफ संघर्ष कर रही होती है।
'वाङचू',
जिसे
सामान्य पाठक चीनी पर्यटक की
कहानी मात्र मानेंगे,
उसमें
भी एक बड़ा हिस्सा एक युवा स्त्री
चरित्र नीलम का है,
जिसके
जरिए वे हमें स्त्रियों के
प्रति समाज के नज़रिए पर बहुत
कुछ कह गए हैं। वाङचू के मरने
के बाद उसके -
'ट्रंक
में वाङ्चू के कपड़े थे,
वह
फटा-पुराना
चोगा था,
जो
नीलम ने उसे उपहारस्वरूप दिया
था। तीन-चार
किताबें थीं,
पाली
की और संस्कृत की। चिट्ठियाँ
थीं,
जिनमें
कुछ चिट्ठियाँ मेरी,
कुछ
नीलम की रही होंगी,
कुछ
और लोगों की।'
वह
जो चला गया,
उसके
साथ एक 'नीलम'
भी
चली गई,
जिसने
हो सकता है कि उसके साथ ठिठौलियाँ
करते हुए कभी मन में प्यार का
कोई बीज भी सँजोया है,
पर
वह हसरत-ए-तामीर
कभी उजागर नहीं होगा,
क्योंकि
शुद्धता के प्रहरी बल्लम-भाले-बरछियाँ
लिए घूम रहे हैं। कथावाचक खुद
परेशान रहता है कि उसकी मौसेरी
बहन से वाङ्चू की अंतरंगता
बढ़ न जाए। वह तभी आश्वस्त होता
है जब वह जान लेता है कि दोनों
में दूरी बढ़ने वाली है। आज के
संदर्भ में हमें पूछना होगा
कि आखिर क्या कारण है कि कुछ
लोगों को अपने समय की तमाम
परेशानियों से हटकर यही बात
परेशान करती है कि अपने से गैर
मजहब का कोई हमारे भाई-बहन
से प्यार करता है। यह बड़े पैमाने
पर हिंसा का सबब बन जाती है।
जन्म से तो कोई भी किसी मजहब
या संस्कृति से बँधा नहीं होता
तो फिर आखिर बड़े हो जाने पर यह
ठेकेदारी कहाँ से उभर आती है?
भीष्म
साहनी ने अपनी रचनाओं में संकट
के समय स्त्री चरित्रों में
दृढ़ता को बड़े स्वाभाविक ढंग
से पेश किया है। संकटों से
जूझते हुए हार की पराकाष्ठा
पर पहुँचने के बाद भी उनकी
स्त्री चरित्र अधिकतर बच जाती
है और पहले से ज्यादा आत्मविश्वास
से भरपूर दिखती है। उनकी एक
कहानी 'तस्वीर'
में
पति के गुजर जाने के बाद ग़रीबी
की हालत में भी एक स्त्री अपने
बच्चों की खुशी के लिए घर का
कोई सामान अपने ससुर को बेचने
नहीं देती। ससुर धमकियाँ देता
रहता है,
पर
वह अपने निर्णय में अडिग रहती
है। वैसे यह सामान्य बात होती,
कई
लेखक ऐसी विद्रोही स्त्रियों
की कहानियाँ लिखते हैं। गौर
करने की बात यह है कि यह स्त्री
स्वभाव से विद्रोही नहीं थी,
पढ़ी-लिखी
होने के बावजूद वह घर सँभालने
के अलावा और कुछ नहीं करती थी।
पति के जीते-जी
उसके साथ बिताए जीवन में सुख
के पल कम ही मिले थे। ससुर के
ताने सुनते रहने की उसे आदत
थी। फिर अचानक ही जैसे उसे एक
दिन यह अहसास होता है कि उसे
भी कुछ कहना है। कहानी में
भीष्म इसके बाद कुछ कहते नहीं
हैं,
पर
पाठक को पर्याप्त संकेत मिल
जाता है कि बिगुल बज चुका है।
लिंग-भेद
और वर्ग-संघर्ष
के प्रसंगों में भीष्म साहनी
बड़ी सहजता से इंकलाबी कथाकार
बनकर सामने आते हैं। भारतीय
मानसिकता में गहरी पैठ जमाई
सामंती और पाखंडी सोच को
उन्होंने बार-बार
उजागर किया है। अपनी कालजयी
कहानी 'चीफ
की दावत'
में
माँ के प्रति बाबू शामनाथ के
व्यवहार में सिर्फ यही नहीं
कि शामनाथ गोरे साहब की गुलामी
में कितना गिर चुका है,
यह
भी है कि माँ जो स्त्री भी है
और उम्रदराज है,
उसे
शामनाथ कैसा बोझ मानता है,
तथाकथित
पारंपरिक भारतीय सभ्य समाज
में वह माँ किस तरह आतंकित है,
उसकी
कितनी ज़रूरत शामनाथ जैसे
पढ़े लिखों को है। एक ओर तो
अंग्रेज़ी पढ़े लिखों की जमात
राष्ट्रवादी हल्ला मचाए रहती
है,
दूसरी
ओर भारतीयता को लेकर उनके अंदर
घोर हीन भावनाएँ हैं,
जैसा
हम 'मेड
इन इटली'
शीर्षक
छोटी कहानी में देखते हैं,
जिसमें
विमला नामक एक मध्य-वर्गीय
स्त्री सिर्फ यह जताने के लिए
कि उसने विदेशी बैग खरीदा है,
'मेड
इन इंडिया'
के
लेबल हटवाकर 'मेड
इन इटली'
लेबल
चिपकाती है।
जैसा
मैंने पहले कहा है,
मेरे
लिए उनकी सबसे बेहतरीन रचना
'वाङचू'
है।
शैली के लिहाज से 'वाङ्चू'
साठोत्तरी
'नई
कहानी'
कही
जाएगी। पर कहानी में कला नहीं,
बल्कि
चरित्र और घटनाएँ ही ध्यान
खीचते हैं। सतही पाठ से यह
कहानी महज एक चीनी शख्स के
बारे में है,
जो
भारत आया और अपने जीवन के आखिरी
दिनोें में सिर्फ शक्ल से चीनी
होने की वजह से भारतीयों की
हिंसा का शिकार हुआ। मुख्यधारा
का जो सुर कथावाचक में ढला है
वह एक औसत भारतीय दृष्टि का
है। कहानी में शुरू से ही हम
सचेत हो जाते हैं कि कोई है,
जिसका
नाम हमारे नाम जैसा नहीं है,
जो
देखने में हम जैसा नहीं है,
जिसके
प्रति हम सहानुभूति रख सकते
हैं,
पर
वह कभी भी हममें से एक नहीं हो
सकता।
वाङचू
का चरित्र रवींद्रनाथ
की कहानी 'काबुलीवाला'
के
चरित्र रहमत जैसा है,
जो
किस्मत का मारा ग़रीब है और ग़लत
कारणों से जेल जाता है।
'काबुलीवाला'
में
वात्सल्य है,
छोटी
बच्ची से पिता जैसा प्यार है;
एक
खोई,
लंबे
समय से न देखी बच्ची को किसी
और बच्ची में देखना है;
'वाङ्चू'
में
वयस्क प्रेम के संकेत हैं।
दोनों कहानियों के आखिर में
आत्मीय संबंध दुनियादारी में
खो गए हैं,
'काबुलीवाला'
की
बच्ची बड़ी हो गई है और अपनी
शादी के दिन उसे याद भी नहीं
है कि कोई उसे बेटी मान कर पिता
सा जान लुटा देना चाहता था और
'वाङ्चू'
में
लड़की शादी कर घर बसा लेती है,
उसके
बच्चे हैं;
बस
एक औपचारिक संबंध है जो कभी
किसी ख़त में लिखा जाता है।
'वाङ्चू'
में
भीष्म साहनी हमारे अंदर के
पूर्वग्रही मन को कई तरह से
सामने ले आते हैं। इसके बाद
यह हमारी नैतिक ताकत का मसला
है कि हम खुद के रूबरू कैसी
लड़ाई लड़ पाते हैं। इसी कारण
से 'वाङ्चू'
अपने
समय की अग्रणी गल्प-धाराओं
से जुड़ जाती है। इसी लिए इसे
हम नई कहानी आंदोलन से अलग
नहीं कर सकते। इसमें भीष्म
जी समाज के बंधनों,
राष्ट्रभक्ति
के अहं और अस्मिता के संकट से
उपजी निरंकुशता पर बड़ी चिंताएँ
रख गए हैं। चीन लौटने की कोई
खास इच्छा वाङ्चू में नहीं
थी,
वह
भारत में जम गया था। मित्रों
के कहने पर ही वह चीन गया। चीन
पहुँचने पर नई क्रांतिकारी
सरकार के ग्राम-प्रशासन
ने तब तक तो उसकी आवभगत की जब
तक भारत-चीन
संबंध बिगड़े न थे,
फिर
जैसे संबंध बिगड़ने लगे,
उसके
प्रति प्रशासन का रुख बदलता
गया। पार्टी-अधिकारी
उसे वर्ग-शत्रु
की तरह मानते हुए सवाल करते
रहे-
'द्वंद्वात्मक
भौतिकवादी की दृष्टि से तुम
बौद्ध धर्म को कैसे आँकते हो?'
क्या
प्रशासन और सुरक्षा संस्थाएँ
हर जगह ऐसी ही रहेंगीं?
पुलिस
और फौज का होना हमारी सुरक्षा
के लिए है। पर संकट के समय में
यही संस्थाएँ निरंकुश होकर
कमज़ोरों पर अत्याचार करती
हैं। वाङ्चू भारत लौटता है
तो तुरंत उसके साथ यहाँ की
पुलिस ऐसे व्यवहार करती है
जैसे कि वह चीन का जासूस हो।
आम लोग उसे शक की नज़रों से
देखते हैं और कुछ तो उसके साथ
हिंसक व्यवहार भी करने लगते
हैं -
'या
तो कहो कि तुम्हारे देशवालों
ने विश्वासघात किया है,
नहीं
तो हमारे देश से निकल जाओ...
!' इन
सबके बीच अगर कोई उसे इंसान
की तरह देखता है तो वह बस एक
रसोइया है जिसने अपने 'चीनी
बाबू'
वाङ्चू
को अपना आत्मीय मान लिया है
और उसे संत की तरह मानकर उसका
सम्मान करता है। एक सर्वहारा
में मानवीयता ढूँढना भीष्म
जी की बौद्धिक ज़रूरत मात्र
नहीं है,
यह
ब्रह्मांड के उन अबूझ रहस्यों
में से एक है कि जब हर कोई शैतान
बना घूमता हो,
कोई
नितांत ही ग़रीब शख्स संवेदना
की पराकाष्ठा बन कर सामने आता
है। इसे दिखलाने में भीष्म
साहनी में कोई पुरानी कथा-परंपराएँ
ढूँढता है तो ढूँढे -
हमारे
लिए यह अपने प्रिय कहानीकार
की पहचान है।
'वाङ्चू'
के
लिखे जाने के बाद करीब आधी सदी
गुज़र गई है। यह कहानी अब केवल
कहानी न रहकर एक ऐतिहासिक
दस्तावेज बन गई है। एक और बात
जो 'वाङ्चू'
हमें
बतलाती है,
वह
हमारी संस्कृति में शोध के
प्रति गंभीर उदासीनता है।
भारतीय पुलिस सिर्फ वाङ्चू
को नहीं,
उसके
शोध को भी सजा देती है। बार-बार
अर्जियाँ देने के बावजूद
'वाङ्चू'
के
शोध के कागज़ात का एक छोटा
हिस्सा ही मिल पाता है। इस बात
को हम सिर्फ पुलिस और सरकारी
अफसरों की बेवकूफी कह कर हट
जाएँ तो यह धोखाधड़ी होगी। हमें
खुद से पूछना पड़ेगा कि हममें
बौद्धिक कर्म के प्रति कैसी
भावनाएँ हैं। भीष्म साहनी के
लेखन में अव्वल दरजे का इतिहासबोध
और शोध की गंभीरता है। हाल की
सदियों पर भारतीय लेखन में
अक्सर उपनिवेश काल पर सरलीकृत
टिप्पणियाँ देखने को मिलती
हैं और अंग्रेज़ शासकों पर
सारा दोष मढ़कर अपने समाज की
विसंगतियों पर परदा डालने की
कोशिश होती है। इसके विपरीत
'मय्यादास
की माड़ी'
में
हम देखते हैं कि बर्त्तानवी
शासनकाल में हुए शोषण के लिए
अपने समाज में खलनायकों की
तलाश के साथ इतिहास की ईमानदार
पड़ताल है।
विख्यात
अमेरिकी उपन्यासकार फ्लैनरी
ओ'कोनर
ने कहीं लिखा है कि लिखित शब्द
में कहे शब्द से ज्यादा वज़न
होता है,
इसलिए
कथा साहित्य में नैतिक शक्ति
होती है। हर्मन मेल्विल ने
कहा था कि गल्प में जीवन से भी
बढ़कर ज्यादा सच्चाई होती है।
जाहिर है कि कथाकार से अपेक्षा
होती है कि वह उस संसार के सभी
उतार-चढ़ावों,
न्याय-अन्यायों,
को
उजागर करे,
जिसमें
वह जीता है। इन सभी अपेक्षाओं
को कथाकार सहजता से पूरा करे
तो क्या बात – यहाँ भाषा का
महत्व सामने आता है। भीष्म
जी की भाषा हिंदुस्तानी रंगत
में भरपूर सहजता की मिसाल है।
चूँकि उनके चरित्र आम जनता
से आते हैं,
इसलिए
उनकी ज़ुबान भी आम है। पर ऐसी
कि जो बाँध रखे। इस पैमाने में
भीष्म साहनी आज़ादी के बाद
के हिंदी साहित्य के शीर्ष
कथाकार हैं।
अपने
प्रिय लेखक से मिलने का जो
आनंद होता है,
उसकी
पराकाष्ठा का अनुभव मुझे भीष्म
जी से मिलने पर हुआ था। सन 2000
में
वे पंजाब विश्वविद्यालय में
व्याख्यान के लिए आए थे। मैं
शिक्षक संघ का सचिव था। मेरे
आग्रह पर अध्यापकों के साथ
रूबरू के लिए तुरंत राजी हो
गए। उनके साथ बातचीत मेरी
प्राप्ति थी। ऐसा सरल निश्छल
इंसान विरला ही होता है। कुछ
सालों बाद विज्ञान के शोध के
अनुदान के सिलसिले में किसी
मीटिंग में उनके बेटे से मिला
था। वे भी वैसे ही सरल और निश्छल
दिखे।