Sunday, May 03, 2015

हम जिएँगे कि

आज दैनिक भास्कर के रसरंग में यह आलेख आया है - 


वे हमारे गीत रोकना चाहते हैं


आप डरते हैं? मैं डरता हूँ। मैं बहुत डरता हूँ। मैं अपने लिए और आपके लिए डरता हूँ। इन दिनों हर दूसरे दिन हम आप में से कोई बस इस वजह से गायब हो जाता है कि हमने खूबसूरत दुनिया के सपने देखे हैं; कि हम खूबसूरत हैं; हमारे मन खूबसूरत हैं। खबरें आती हैं कि कोई और मार डाला गया। पानसारे, अभिजित रॉय, सबीन महमूद, लंबी सूची है। अब हम लिखें कि एक लड़की थी जिसे द सेकंड फ्लोर को टी टू एफ कहने का शौक था। उसने फौज और मुल्लाओं की नाक तले कॉफी का ढाबा और किताबों की दूकान चला रखी थी कि आप आएँ तो कहवे की महक पर गुफ्तगू हो, शेरोशायरी हो। वह बहादुर थी। वह हम आप जैसी डरपोक नहीं थी। उसने तमाम धमकियों, चेतावनियों के बावजूद वह काम किए जो उसे सही लगे - इंसान की आज़ादी का परचम बुलंद रखना। एक खूबसूरत इंसान वह चली गई। उसे हमसे छीन लिया गया। दो साफ-शफ्फाक चेहरे के नौजवान आए और उसे गोलियों से भून गए। इसलिए कि उसके सपनों से किसी और को डर लगता था। हम इस अहसास के साथ जीते रहते हैं कि अपना कुछ चला गया, जैसे कि हर दिन खुद का गुजरना सहते रहना है। जैसे कि एक एक कर सारे प्रेम विलीन हो जाएँगे, फिर भी जो गए उन सबको छिपाए हुए खुद के बचे का बचा रहना सहे जाते हैं।

तो क्या सभी भले लोग धरती से उड़ जाएँगे? डरते सिर्फ हम नहीं, हमसे कहीं ज्यादा वे डरते हैं जो चाहते हैं कि हम भाप बन उड़ जाएँ। जब कई लोगों को एक सा डर होने लगे तो वह सामूहिक राजनैतिक औजार बन जाता है। इसी का फायदा उठाकर कहीं पकिस्तान के कठमुल्ले तो कहीं संघ परिवार जैसे गुट सत्ता में आते हैं। सामूहिक गुंडागर्दी के लिए बीमार विचारधारा पर आधारित नेतृत्व, भय में डूबी नुकसानदेह मानसिकता, बड़ी तादाद में लोगों में आहत होने का अहसास और बाकी लोगों की सुन्न पड़ गई संवेदनहीन मानसिक दशा कच्चा माल की तरह है, जिन्हें सही मौकों पर घुला-मिला कर कठमुल्ले अपना दबदबा कायम करने के लिए इस्तेमाल करत हैवे हमारी आप की आवाज़ को ज़िंदा नहीं देखना चाहते। वहाँ बलूचों के पक्ष में कहना मौत को बुलावा है तो यहाँ काश्मीर में दमन के खिलाफ कहना खुद पर हमले को न्यौता है। यह नहीं कि आप कोई मुखालफत कर रहे हैं, बस इतना कि मुद्दे पर बातचीत हो, बहस हो, यह भी उन को मंज़ूर नहीं। बकौल फ़ैज़ निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

हो सकता है कि कई भले लोग उदासीन हो थक हार कर बैठ जाएँगे तो कई और इस उम्मीद में कि स्थितियाँ बिगड़ेंगी तो फिर कभी सुधरेंगी भी, सत्ता और गुंडों के साथ हो लेंगे। भले लोग पिटेंगे, तीस्ता सेतलवाड़ों को बार बार धमकियाँ मिलेंगी। हम सोचते रहेंगे कि अगली बारी किस की है।

आर्थिक मंदी और अनिशचितताओं से घिर धरती पर हर जगह डर का माहौल है और इस वजह से चारों ओर दक्षिणपंथी ताकतों का हौसला बढ़ रहा है। फिर भी वे डरते हैं। नाज़िम हिकमत ने पॉल रोबसन को याद करते लिखा था - वे हमारे गीत रोकना चाहते हैं, नीग्रो भाई मेरे, रोबसन। अच्छी बात यह है कि इस संकट को पहचानते हुए भले लोग भी इकट्ठे हो रहे हैं। और अच्छी बात है कि डर है। डरते हुए ही हम बोल उठते हैं - इतना डर चुके, अब उठो, इस डर के खिलाफ कुछ करो। धरती पर हर जगह भले लोग हैं। क्यों न हम सब मिल कर डर क सौदागरों को चुनौती दें। हमारे पास विकल्प नहीं हैं। एक ओर निश्चित विनाश है, भीतर बाहर हर तरह की जंग लड़ाई का खतरा है, दूसरी ओर इकट्ठ आवाज़ उठाने का, बेहतर भविष्य के सपने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाने का विकल्प है। इसलिए अभिजित, पानसारे, सबीन.... वे सब जो हमसे छीन लिए गए, उनको हम अपने अंदर जीते रहेंगे। आज सबीन के लिए हम और रोएँगे नहीं। हम अपने अंदर से और खूबसूरत सबीन ढूँढेंगे। हत्यारे आएँ - वे और कितनों को मार लेंगे। वे गोलियाँ चलाते रहें, हममें से किसी और सबीन का जिस्म खाक होता रहेगा, पर उसकी खूबसूरती उनके लिए हौव्वा बन कायम रहेगी। हम डरेंगे कि हमें ज़िंदा रहना है पर वे जितने सबीन, जितने अभिजित को छीनेंगे, हम उतने ही और फौलादी बनते जाएँगे। हम जिएँगे कि हमें उन सपनों को साकार करना है जो सबीन के सपने थे।




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