कल
शाम दोस्तों के साथ द टैमरिंड
ट्री नामक रिज़ोर्ट में कुचिपुड़ी
नृत्य देखने गया। अच्छी शाम
– शुरूआती मानसून की नम हवाएँ,
बूँदाबाँदी
के आसार, पर हुई नहीं। रामकथा पर कई टुकड़ों
में नृत्य। पारंपरिक शुरूआती
गान और आखिर में मंगलम।
नृत्य
या संगीत जैसी कलाओं में मैं
विज्ञ तो नहीं हूँ पर रुचि है
और तजुर्बे से आलोचनात्मक
बिंदु भी ढूँढ लेता हूँ।
कुचिपुड़ी आंध्र का शास्त्रीय
नृत्य है, जिसमें
लोक-संस्कृति
की माँग के अनुसार नृत्य के
साथ अभिनय भी होता है। कल के
नर्त्तक सत्यनारायण राजू का
जोर अभिनय पर था। नर्त्तक
बेंगलूरू का ही है और निश्चित
ही नृत्य और अभिनय दोनों में
उसे महारत हासिल है। खासतौर
पर दासी मंथरा और हनुमान का
अभिनय खूब सराहा गया। मंथरा
को जीवंत करते हुए उसने कूबड़
और शक्ल की कुरूपता का अच्छा
अभिनय किया। यह देखकर मैं
सोचने लगा कि पारंपरिक कलाओं
में यह कितना ज़रूरी है कि हम
स्थापित पूर्वग्रहों को तोड़
कर चरित्रों की नई व्याख्या
न पेश करें। पाठ की पुनर्व्याख्या
तो एक बड़ा सवाल है ही। मुझे
आश्चर्य हुआ कि मेरे साथी जो
स्वयं इन विषयों के विद्वान
हैं, किसी
ने भी यह सवाल न उठाए। हो सकता
है कि पारंपरिक कलाओं में
मान्यताओं के बंधनों को तोड़ना
इतना आसान न हो।
वैसे
मंथरा के चरित्र का पुनर्पाठ
किसी न किसी ने ज़रूर किया
होगा। आखिर उसने वफादार दासी
का कर्त्तव्य निभाया,
यह एक संभावना
खड़ी करता है कि हम इस चरित्र
को नए ढंग से देखें। मंथरा कौन
थी यानी किस तरह की पृष्ठभूमि
को ध्यान में रख कर बाल्मीकि
ने यह चरित्र बनाया है,
यह अपने आप
में शोध का विषय है। कितना मूल
रचना में है और क्या बाद में
जोड़ा गया है, देखा
जाना चाहिए। नेट पर जाकर दिख
रहा है कि अधिकतर लोग रामचरितमानस
से ही मंथरा के चरित्र को जानते
हैं।
मंथरा
का कूबड़ उसकी कुरुचि औऱ कुटिलता
के लिए ज़रूरी था क्या?
उलट कर देखें
तो क्या जिनके पीठ में कूबड़
हो, वे
षड़यंत्र करते हैं?
विकलांगता
के प्रति ऐसी असहिष्णुता क्या
पारंपरिक कलाओं में आज भी
दिखलाई जानी चाहिए! एक
ओर मूल रचना के प्रति ईमानदारी
का सवाल है, दूसरी
ओर संवेदनशीलता - किसको
चुनें? सोचने
की बात है। मैं तो यही सोचता
हूँ कि शारीरिक विकलांगता को
न दिखलाकर भी चरित्र में कुटिलता
दिखलाना संभव है। और कैकेयी
को ग़लत खयाल एक दासी से ही
मिल सकता था, इस
पाठ में जो वर्ग विद्वेष है,
उस पर भी
सोचना ज़रूरी है।
1 comment:
सवाल तो है
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