पिछले पोस्ट के आलेख में मैंने अपनी एक कविता 'लड़ाई की कविता' का ज़िक्र किया है जो फुकुयामा को मेरा जवाब है। मेरा पहला ऐसा प्रयास नीचे पेस्ट की गई कविता में है, जो तकरीबन 18 साल पहले आई आई टी कानपुर में हमारे प्रिय प्रोफेसर अगम प्रसाद शुक्ला द्वारा आयोजित एक सभा में हुए अनुभव से उपजी थी। एक सत्र में मेरे सुझाव पर मध्य वर्ग के सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के विभाजित व्यक्तित्व पर चर्चा हो रही थी। गाँधीवादी और मार्क्सवादी कार्यकर्त्ताओं के बीच बहस छिड़ गई थी और मैंने गौर किया कि मेरी पॉकेट डायरी (पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा प्रकाशित) में इतिहास में उस दिन हुई कुछ अनोखी घटनाओं का उल्लेख है। मैंने सबको रोक कर डायरी का वह अंश पढ़ कर सुनाया। बाद में शाम को हमलोग देर तक गाते बतियाते रहे। रात को सोते हुए मैंने सोचा कि कौन कहता है कि इतिहास का अंत हो गया। हम हर दिन इतिहास रचते रहते हैं। सही कि फुकुयामा या मार्क्स इतिहास के किसी और अर्थ की बात करते हैं, पर प्रकारांतर में सभ्यता के विकास का वह प्रसंग भी इस कविता के केंद्र में है। यह कविता इसी शीर्षक से मेरे दूसरे संग्रह की पहली कविता है। करीब छः साल की कोशिश के बाद यह संग्रह 2004 में रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से आया था। पहली बार यह कविता अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' पत्रिका में 1996 में प्रकाशित हुई थी। बाद में 'हंस' में भी आई।
डायरी
में तेईस अक्तूबर
(उस
दिन जन्म हुआ औरंगज़ेब का,
लेनिन
ने सशस्त्र संघर्ष का प्रस्ताव
रखा उस दिन।
उस
दिन किया जंग का ऐलान बर्त्तानिया
के ख़िलाफ़ आज़ाद हिंद सरकार ने।)
उस
दिन हम लोग सोच रहे थे अपने
विभाजित व्यक्तित्वों के
बारे में
रोटी
और सपनों की गड़बड़ के बारे में
बहस
छिड़ी थी विकास पर
भविष्य
की आस पर
सूरज
डूबने पर गाए गीत हमने हाथों
में हाथ रख।
बात
चली उस दिन देर रात तक। जमा हो
रहा था धीरे-धीरे
बहुत-सा
प्यार।
पूर्णिमा
को बीते हो चुके थे पाँच दिन।
चाँद
का मुँह देख़ते ही हवा बह चली
थी अचानक।
गहरी
उस रात पहली बार स्तब्ध खड़े
थे हम।
डायरी
में,
23 अक्तूबर
का अवसान हुआ बस यहीं पर।
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anurag chanderi