उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ
* *
आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन
* *
चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी
* *
उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ
* *
आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन
* *
चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी
* *
उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।
Comments
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है । शुभकामनायें
वही महक आज भी. पीछे आपकी एक कविता फेसबुक पर डाली थी और अमित और आशीष का जवाब भी आया था. इच्छा होती आपको रिकॉर्ड करके सब दोस्तों के लिए नेट पर डाल दूं और फिर से उस अड्डे को जिंदा कर दूं. आप कहेगें भावुक क्यूं हो रहे हो पर वो दिन नहीं भूलते जब आपके साथ बिताये वक़्त की याद आती है. यहाँ कुछ लोगों को ब्लॉग्गिंग और सिनेमा की आदत तो डालने में सफल हो पाया हूँ पर अब कविताएँ कम और दर्शन की बातें ज्यादा लिखता हूँ. पर बीच-बीच में केदारनाथ सिंह को पढता रहता हूँ और इधर नवतेज भारती को पंजाबी में खूब कमाल की कविता करते पाया है. आपकी याद आती है . हो सके तो कभी इस तरफ आना हो तो फ़ोन भर कर दीजियेगा. नंबरहै 9888800322
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी
सुन्दर अभिव्यक्ति