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इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी

मेरा औपचारिक नाम मेरे पैतृक धर्म को उजागर करता है। मेरे पिता सिख थे। बचपन से ही हम लोगों ने सिख धर्म के बारे में जाना-सीखा। विरासत में जो कुछ भी मुझे सिख धर्म और आदर्शों से मिला है, मुझे उस पर गर्व है। माँ हिंदू है तो घर में मिलीजुली संस्कृति मिली। अब मैं धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता और वैज्ञानिक चिंतन में प्रशिक्षित होने और विज्ञान-कर्मी होते हुए भी सचमुच के धार्मिक लोगों का सम्मान करता हूँ। हाल में तीन सिख छात्र मेरे पास आए और उन्होंने गुजारिश की कि मैं होस्टल में एक कमरा उन्हें दिलवाने में मदद करुँ, जहाँ सिखों के धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहब जी' से जुड़ी कुछ साँचियाँ रखी जा सकें। मुझे चिंता हुई कि यह बड़ा मुश्किल होगा, होस्टल में कमरा मिलना कठिन है, फिर एक धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐेसा हो तो औरों के लिए भी करना होगा। सभी के लिए कमरा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर किसी की सँभाल में जरा भी गफलत हुई तो समस्या हो सकती है। मैं जिस संस्थान में अध्यापक हूँ, वह भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के शीर्षतम शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। स्वाभाविक है, कागजी तौर पर हमारे छात्र देश के सबसे बेहतरीन छात्र कहलाते हैं। मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उन्होंने अपनी इस माँग की वजह यह बतलाई कि अपने घरों से दूर होने की वजह से वे अपनी धार्मिक परंपराओं से कटा हुआ महसूस करते हैं। माँग यह नहीं थी कि सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाएँ जिसमें उनकी संस्कृति भी झलकती हो। बहरहाल, हमारे संस्थान में तकरीबन सभी लोग उदारवादी हैं, मैंने कुछ साथी अध्यापकों से इस पर चर्चा भी की, किसी ने भी यह नहीं कहा कि माँग नाजायज है, सबका रवैया यह था कि यह कैसे संभव हो सोचा जाए - कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था।

शाम को दूरदर्शन पर रामसेतु पर विवाद और विश्व हिंदू परिषद की गुंडागर्दी आदि देखा। अचानक मुझे लगा कि बस बहुत हो गया मैं उन लड़कों से यही कहूँगा कि धर्म निजी बात है, संस्थान के साथ इसका कोई संबंध नहीं। आज कुछ छात्र हमारे गेस्ट हाउस में विनायक चतुर्थी मना रहे हैं। कायदे से मुझे वहाँ कुछ समय जाकर उनका साथ देना चाहिए, पर मैं इतनी चिढ़ लिए बैठा हूँ कि पैर उस तरफ जाने से नाराज़ हैं। साथ में यह सोचकर तकलीफ भी हो रही है कि ये छात्र तो कोई दंगा-फसाद तो नहीं कर रहे, इनके ऊपर गुस्सा क्या? आखिर जो सिख छात्र मेरे पास आए थे वे तो सचमुच की धार्मिक भावनाओं के साथ ही आए थे।

मुझे पता है बीमार लोगों की एक जमात है जो अपने हीरो प्रकाश जावड़ेकर या क्या तो नाम है के साथ यह कह रहे होंगे कि हिम्मत है हजरतबाल के बारे में वैज्ञानिक सोच दिखाने की - ये लोग बस यही करते रहते हैं - देखो देखो मुसलमान के बारे में तुम कुछ नहीं कहते, हाय हाय.......! जबकि हमारे लिए फालतू की गुंडागर्दी करनेवाले लोग महज बेहूदे गुंडे हैं, वे हिंदू, मुसलमान, सिख नहीं। वे तस्लीमा पर हमला करें या किसी और पर।

बहरहाल, हर कोई यह कहने पर लगा हुआ है कि पुरातत्व विभाग को पौराणिक चरित्रों की अस्लियत के बारे में कुछ कहने की क्या ज़रुरत थी - पर मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि उन्होंने गलत क्या कहा। किसी ने भगवान श्री राम के बारे असभ्य बात तो नहीं की। हो सकता है, हलफनामे में ऐसा कुछ लिखा है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं है। चूँकि बहुत पुराने धर्मग्रंथों में वर्णित चरित्रों के बारे में वैज्ञानिक तरीकों से अनुसंधान कर अभी तक कुछ मिला नहीं और ग्रंथों के विविध रुप में पाए जाने की वजह से आगे भी कुछ मिलने की संभावना कम है, इसलिए जो कहा गया है, उससे किसी की आस्था को क्यों चोट पहुँचती है, मैं नहीं समझ सकता। आखिर जो आस्था पर आधारित है, उसका अपना सौंदर्य है, उसमें विज्ञान को लाने की क्या ज़रुरत। संभवतः यह कहा जा सकता है कि पुरातत्व विभाग को कम शब्दों में काम चला लेना चाहिए था।

पता नहीं कब यह देश इस पिछड़ेपन से निकलेगा जब धर्मों के नाम पर सार्वजनिक गुंडागर्दी को कोई जगह नहीं नहीं दी जाएगी और धर्मों और परंपराओं को मानव-चिंतन और सभ्यता के महत्वपूर्ण पड़ावों की तरह देखा जाएगा, जब हम सबको अपने सभी धर्मों के लिए गर्व होगा; उनको बेमतलब तर्क का जामा पहनाने के लिए विज्ञान को न घसीटा जाएगा। यह देखते हुए आज भी धर्मों के बारे में सबसे सटीक बात मार्क्स की पौने दो सौ साल पुरानी टिप्पणी ही लगती हैः

“Religion is the general theory of that world, its encyclopaedic compendium, its logic in a popular form, its spiritualistic point d’honneur, its enthusiasm, its moral sanction, solemn complement, its universal source of consolation and justification … Religious distress is at the same time the expression of real distress and also the protest against the real distress. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, just as it is the spirit of the spiritless conditions. It is the opium of the people. To abolish religion as the illusory happiness of the people is to demand real happiness.”

उत्पीड़ितों की आह - जो धर्म है - इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी। आज वे मदमत्त हो लें, लोगों की भावनाएँ भड़का लें, आज लोग गरीब हैं, पिछड़े हैं, पर ये हमेशा तो ऐसे न रहेंगे।

Comments

Anonymous said…
Dear Laltu Ji,

Lekhnuma sargarbhit tippadi ke liye badhai !

Lallan
anilpandey said…
मानवीयता को धर्म का साधन मान लिया गया है।और नैतिकता की परिभाषा का जो रुप पहले था उसे साम्प्रदायिकता के आवरण में रखकर हिंसा का जमा पहना दिया गया है। यही एक कारन है कि आज हम जो चीजें वास्तविक है उनसको पहचानने में बहुत ही देर कर देते हैं जबकी बनावटी चीजों के प्रति हमारा आकर्षण न ही सिर्फ अनिवार्य अपितु जरूरी बन जता है। जिस तरह से आपने उस विद्यार्थी को और उसके धर्म के प्रति सच्चे लगाव को नहीं पहचाना बस वही हाल अब हमारे देश कि जनता का हो गया है। जिसके कारण धर्म राज्नीत का रुप धारण करता चला जा रहा है।
Srijan Shilpi said…
" उत्पीड़ितों की आह - जो धर्म है - इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी। आज वे मदमत्त हो लें, लोगों की भावनाएँ भड़का लें, आज लोग गरीब हैं, पिछड़े हैं, पर ये हमेशा तो ऐसे न रहेंगे।"

बहुत सही कहा आपने।
travel30 said…
Kasam se bahut hi sunder likha aapne khaskar woh antim laine.........

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