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Showing posts from 2005

शुभ नववर्ष

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते शुभ नववर्ष

दिखना

दिखना आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं? अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो? बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप? कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है इंसान खाते हुए दिखता है आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ वैसे आदम किस को दिखता है ! देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है मुझे कहना है दिखने के बारे में यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं जब आप सबसे कम दिख रहे हों। --पहल-७६ (२००४) ********************************* मेरी मित्र बंगलौर के बाहर अकेली रहती है। क्या वह सुरक्षित है? क्या इस धरती पर कहीं भी महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित हैं? अगर महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित न हों तो क्या आदमी सुरक्षित है? ********************************* हाँ मसिजीवी , ठंड से भी, गर्मी से भी, ऐसे मरते हैं लोग मेरे देश में, कहीं भगदड़ में, कहीं आग में जलकर, कभी दंगों में, कभी कभी त्सुनामी ...

जैसे

जैसे जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता तुम शाम बन बरामदे पर बालों को फैलाओ खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी उतरती मेरी हथेलियों तक जैसे मैं कविताएँ ढोता रास्ते के अंतिम छोर पर अचानक कहीं तुम बादल बन उठ बैठो सुलगती अँगड़ाई बन मेरी आँखों के अंदर कहीं। --१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित) ********************************** चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

इंदौर बैंक की जय ! बोलो हे !

भास्कर अखबार में लिखे आलेख का पारिश्रमिक। मेरे बैंक (SBIndia) ने इसे वापस भेजा क्योंकि उचित अधिकारियों के हस्ताक्षर नहीं हैं। भास्कर दफ्तर खबर भिजवाई, उन्होंने फोटोकापी रख ली और कहा हो जाएगा। दस दिन हो गए, कुछ हुआ नहीं तो मैंने नेट से इंदौर बैंक का अतापता ढूँढा। शाहपुर, भोपाल शाखा को ई-मेल के साथ ऊपर वाली तस्वीर भेजी। कोई जवाब नहीं। दो दिन बाद उनके चंडीगढ़ शाखा का नंबर ढूँढा। फोन किया तो वह मैनेजर साहब का घर का नंबर निकला। दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया। दस मिनट बाद फोन करो की हिदायत आई। किया। डीलिंग व्यक्ति ने साफ मना कर दिया कि वह मदद नहीं कर सकता। कल जाकर भास्कर के दफ्तर लौटा ही आया - सोचा इसको दिमाग से निकालें। चेतन डाँट रहा है कि कंज़्यूमर फोरम को चिट्ठी भेजो। पर मुझे लगता है कि अगर मैं चिट्ठाकारी से छुट्टी माँग रहा हूँ तो अदालतबाजी का वक्त कहाँ से निकालूँ। फिलहाल पूरी बात पर हँसता रहता हूँ और गाता हूँ - जय, भारतीय पूँजीवाद की जय। भारत के सफेद कालर पेशेवरों की जय। बोलो हे!

इसमें क्या?

मैंने कुछ भ्रष्ट काम किए हैं, जिनके लिए मुझे जेल तो नहीं, पर जुर्माने ज़रुर हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अॉडिट का नियम है कि कागज़ात की बाइंडिंग का खर्च आप रिसर्च ग्रांट से नहीं ले सकते। हमें अक्सर शोध पत्र या विद्यार्थियों द्वारा बार बार इस्तेमाल की गई (फोटोकापी करवाई गई) किताबें या दूसरे कागज़ात बँधवाने पड़ते हैं। पैसे निकलवाने का आसान तरीका है कि आप दूकानदार से कहें कि वह आपको फोटोकापी का बिल बनवा दे। बात छोटी सी लगती है, पर इसके दो नतीजे हैं - एक तो यह कि हमारी कुढ़न कभी इतनी तीखी नहीं हो पाती कि हम इस निहायत ही बेहूदा नियम को बदलवाने के लिए हाथ पैर उछालें; दूसरी बात यह कि लकीर कहाँ खींचें, हम इतनी सी बेईमानी करते हैं तो कोई और संसद में सवाल उठाने के लिए पैसे लेने को तैयार होता है। यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन ...

इधर वाला गेट बंद हो गया होगा

चूँकि मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता, इसलिए कह सकता हूँ - हे ईश्वर! मेरी इच्छा शक्ति को क्या हो गया। छुट्टी की घोषणा कर दी और फिर बेहया से वापस लौट आए। बहरहाल भाई ने गरियाया तो औरों को, पर मुझे इतना हिलाया कि मैं वापस आ गया। चिट्ठा चर्चा में यह तो लिख दिया कि मैंने छुट्टी की घोषणा कर दी (पुरानी कविताओं का तर्क देकर!) पर यह नहीं लिखा कि कुछ बातें और भी कह गया हूँ - साधारण सी ही, जैसे शिक्षा व्यवस्था पर और शिक्षकों के मूल्यांकन पर। पर महज इतना हिलने भर से हम कहाँ इस अवसाद से लबालब आठ ही बजे पाँच डिग्री सेल्सियस पहुँची रात को एक किलोमीटर चल के दफ्तर पहुँचते कि चिट्ठा लिखें। सच यह है कि मुझे हिन्दी चिट्ठाकारों से प्यार हो गया है। भले लोग हैं। भाई मनोज, सच है कि अनुनाद सिंह ने आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... जैसा कुछ लिखा था, जो ई-मेल नैशनलिस्टों की मुहावरेबाजी का हल्का सा नमूना था, पर यह भी तो है न कि उसने लिखा तो। अब हम हैं कि रोते रहते हैं यार टाइम नहीं, टाइम नहीं, किसी का पढ़ा तो टिप्पणी नहीं छोड़ी, बदतमीज़ तो हम ही हुए न? वैसे इस आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... एपिसोड से एक पुराना चुटकुला याद...

महीने भर की छुट्टी

'लाल्टूजी अपना सारा पुराना स्टाक छापे दे रहे हैं नेट पर भी।' - चिट्ठा चर्चा चिट्ठे में नई कविताएँ इसलिए नहीं डाल सकते कि कहीं प्रकाशन के लिए भेजनी होनी होती हैं। अधिकतर जो कविताएँ डाली थीं, वे प्रासंगिक थीं और ज्यादातर चिट्ठाकारों के लिए तो नई ही होंगी। पुराने होने का विवरण साथ में देते हैं कि जिसने प्रकाशित किया उनका भी जिक्र होना चाहिए। कुछेक पुरानी कविताएँ पहले से कंप्यूटर पर पड़ी हैं,.... अब महीने भर की छुट्टी ले रहा हूँ। दस दिनों के बाद बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान जाना है, वहाँ ढाई हफ्ते। जाने से ठीक पहले यहाँ विभाग में एक अंतर्राष्ट्रीय सिंपोज़ियम में भाषण देना है। ************************************** पहली तारीख को हमारे एक साथी के अवकाशनिवृत्त होने पर हमलोगों ने उच्च शिक्षा पर एक गोष्ठी आयोजित की। उसी प्रसंग में बातें जो दिमाग में हैं (भारत को महान बनाने और बताने वालो, कुछ इस पर भी सोचो) - भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः- १) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नह...

सूरज सोच सकने को लेकर

मसिजीवी ने सच ही शक जाहिर किया। ************************************************* सूरज सोच सकने को लेकर सूरज सोच सकने को लेकर मैंने पहले भी कभी लिखा है इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे असंभव हो रहा है सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को अपने बच्चे की राख से जहाँ मेरे पैर हैं फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया चाहिए या महज कुछ पैसे मुझे लगता है मैं अभी भी सूरज सोच सकता हूँ शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो सूरज सोच सकना 1994 (पश्यंती-1995; 'डायरी में तेईस अक्तूबर में' संकलित)

सारी दुनिया सूरज सोच सके

कल मानव अधिकार दिवस है। अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता - *************************************************************** सारी दुनिया सूरज सोच सके हर रोज जब सूरज उगता है मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ जो सड़क पार मकान बना रहे हैं सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है नंगी पृथ्वी अँगड़ाई लेती शरीर फैलाती है उसकी शर्म रखने अलसुबह उग आते पेड़ पौधे, घास पात पूरब जंघाएँ प्रसव से लाल हो जाती हैं ऐसा मैं सोचता हूँ सूरज कल्पना कर कभी कभी मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है मेरे जागने तक टट्टी पानी कर चुके होते हैं अपने काम में लग चुके होते हैं एक एक कप चाय के सहारे मैंने चाहा वे सूरज को कोसें शिकवा करें क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी बार बार थक गया हूँ अगर वे कभी सूरज सोच सकें सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे षड़यंत्र करेंगे सारी दुनिया सूरज सोच सके। १९८८ (पहल -१९८९)

जैसे खिलता है आसमान

"प्रेम सुधा में विष घुलेगा जब मन हो नहाया पाप से मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से" - मानसी पाप ? पाप ? ********************************** जैसे खिलता है आसमान जैसे खिलता है आसमान सीने में उल्लास की चीत्कार भर दौड़ो प्यार जब चाहिए तो चोटी पर बाँहें फैला सरगम गाओ हो सकता है साथ आ बैठें दढ़ियल रवींद्रनाथ हू हू बह निकले गंगा महादेवी की जाने किन कविताओं से प्यार जब चाहिए तो होंठों को स्तब्ध न रखो जिन आँखों को छूना है जीवन की तहें वहाँ फैलाओ साँस सिसकियाँ आवाज़ें जिस्म रूह कविताएँ होंठों की बाँसुरी में बजाओ बाँसुरी नहीं चिरंतन फरीद वह ईसा का सपना खिलो जैसे खिलता है आसमान। 1994 (पश्यंती - 1995; 'डायरी में २३ अक्तूबर')

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़ हालाँकि लिखना था पेड़ पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म लिखा पसीना जो अपनी सत्ता देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं महज उस देश का पसीना जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर मीठी सी हँसी का लबादा हमारी एकता का हिस्स... ... हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स... ... हालाँकि लिखना था पेड़ पेड़ पर बंदर आसपास थे घर और बंदर में घर नहीं हो सकता लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी टुकड़े-टुकड़े लिखा महाजन वरिष्ठ लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट जिन्हें इस बात का गुमान कि पढ़े लिखों को यूँ करते मेहरबान जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान पीलिया ग्रस्त देश के विधान हालाँकि लिखना था पेड़ लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत। १९९४ (पश्यंती १९९५; 'डायरी में तेईस अक्तूबर' में संकलित)

सात दिसंबर 1992

यहाँ नहीं कहीं औरः सात दिसंबर1992 १ कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर कर दूँगा फ़ोन दफ्तर से मीरा को अनु को तुम नहीं जा सकती इंदौर अब मेसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है एक पत्थर और पत्थर पर पत्थर गिरे गुंबदों से समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का २ सभी हिंदुओं को बधाई सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के तमाम मजहबियों को बधाई बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार ३ पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर मैंने मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू अब तू जो कहती रही ग़लत है झगड़ा लिखा दीवारों पर निश्चित तू धर्मभ्रष्टा ओ माँ ! ४ पुरुषोत्तम ! सभी नहीं हिन्दू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गली गली कुछ कर हे ईश्वर ...

प्रेमचंद १२५

हरियाणा साहित्य अकादमी के आयोजन से आशा से अधिक संतुष्ट हुआ। प्रेमचंद की एक सौ पचीसवीं वर्षगाँठ पर सुबह व्याख्यान और शाम को रंगभूमि का मंचन। व्याख्यान सुनने देर से पहुँचा और पता चला कि मैनेजर पांडे आए नहीं। विकास नारायण राय और कमलकिशोर गोएनका को सुना। विकास पुलिस के अफसर हैं और अपने बड़े भाई विभूति नारायण राय ('वर्त्तमान साहित्य' के पहले संपादक और प्रसिद्ध उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' के लेखक) की तरह साहित्य में सक्रिय हैं। पहले हरियाणा और वह भी चंडीगढ़ के पास पंचकूला में ही पोस्तेड होते थे तो अक्सर मुलाकात होती थी। पर कल उनको सुनकर कहीं ज्यादा अच्छा लगा। प्रेमचंद की रचनाओं के subtext को सामने लाकर और समकालीन स्थितियों से तुलनाकर बड़े रोचक ढंग से बात रखी, जैसे गोहाना में हाल में लिए किसी साक्षात्कार का हवाला देकर प्रेमचंद के दलित चरित्रों की स्थिति को समझना आदि। कमलकिशोर गोएनका के लेख पढ़े थे, कभी सुना नहीं था। सुनकर अच्छा लगा और मन में पहले से बनी धारणा कि प्रेमचंद के बारे में फैली रोमांटिक किस्म की धारणाओं को गलत सिद्ध करने में उनकी कोई बुरी मंशा नहीं है, को सही पाया। दू...

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी

सुनील यानी बकौल शुकुल जी 'भुलक्कड़ प्रेमी' का प्रेम प्रसंग बहाना है कि समय से पंद्रह दिन पहले ही आ टपकी शीत लहर (वैन्कूवर ही नहीं यहाँ भी) में कुछ प्यार की बातें हम भी कर लें। हाँ भई, लोगों ने मुझे भारी भरकम ही बना दिया! और छूट मिली भी तो चर्चित कहानीकार - अरे भाई, मैं कविताएँ भी लिखता हूँ! साहित्य की राजनीति और उठा पटक से दूर हूँ, पर हिन्दी कविता में भी सेंधमारी हमने भी की है । लिखने में जल्दबाजी का ज़ुर्म है, पर वो मेरे बस की बात नहीं.... फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी कहते कुछ सोचते कुछ और हैं फ़ोन पर बातचीत करते पुराने प्रेमी बातों में पिछले संघर्षों के संदर्भ हैं जिनमें एकाध जीते भी थे आजकल जिन नौकरियों में लगे हैं उनकी हताशाएँ एक दूसरे को सुनाते हैं ख़यालों में ज़िंदा हैं पुराने गीत एक दूसरे के शरीर की गंध होंठों का स्वाद। १९९० ( साक्षात्कार १९९२) हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान देने प्रोo मैनेजर पांडे आए हैं, सुनने जा रहा हूँ। शाम को टैगोर थिएटर में 'रंगभूमि' का मंचन है। देखना है, एक अखबार के लिए समीक्षा भी लिखनी...

कंप्यूटर

कंप्यूटर स्मृति का एक टुकड़ा इस कार्ड में है दूसरा उसमें एक टुकड़ा यह विकल्प देता है कि स्मृति को हम बचपन जवानी या बुढ़ापे में बाँटें या बाँटें लिखने और पढ़ने के कौशल में या देखने सूँघने या चखने की आदत में बाँटने के अलग अलग विकल्पों की उलझन से हमें उबारता है एक और टुकड़ा हम बटनों पर बैठे हैं निर्जीव स्मृतियाँ अब चमत्कार नहीं हमारी उँगलियों के स्पर्श से पैदा करती हैं स्पर्धाएँ स्पर्धाओं में हार जीत अहं, रक्तचाप एक टुकड़ा बुझते ही बुझता है एक टुकड़ा प्यार चेतना और कंप्यूटर में तुलना चलती लगातार। १९९५ (उत्तर प्रदेश(पत्रिका)-मार्च १९९७)

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख। पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं? चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी। 'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब.... पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है, धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही.... हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया, **************************************************** वो आईं गाड़ियाँ वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! बत्ती जो हो गई हरी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी खिड़की पे खड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी बदमाश बड़ी खींच लाई कुर्सी खिड़की पे जा चढ़ी ओ हो हू हा ऊँची मंज़िल से चीखे पुलकी बार बार नीचे हल्ला गुल्ला दौड़ें खुल्लम खुल्ला रंग रंग की कार बहुत कहा मत करो शोर पुलकी न मानी न मानी रही अड़ी की अड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! अब बत्ती हो गई लाल कैसा हुआ कमाल छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी लाल गाड़ी पील...

दोस्तों, जवाब नहीं, कुछ बातें ही

मेरा दोस्त चेतन जो खुद लिखने के पचड़े में नहीं पड़ता, पीछे पड़ा है कि लोग सवाल उठाते हैं तो जवाब क्यों नहीं देते। आखिरकार उसने मजबूर किया कि रमण कौल के चिट्ठे में मेरे लिखे 'साझी लड़ाई' पर जो सवाल उठाए गए, उन्हें पढ़ूँ। मैं नहीं समझता कि किसी की तकलीफ को हम दो चार बातें कर के मिटा सकते हैं। इसलिए यह सोचना कि मैं कोई तर्कयुद्ध जीतने की कोशिश कर रहा हूँ, गलत होगा। बचपन से ही देश के बँटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों की व्यथाएँ सुनते आया हूँ। मेरी माँ का बचपन पूर्व बंगाल (आज के बाँग्लादेश) में गुजरा। पिता पंजाबी सिख थे। मिर्ची यार, मेरा जद्दी गाँव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल से थोड़ी दूर मंडी कलाँ (या गुलाबों की मंडी) है। बचपन में गाँव आते तो रात को सोने के पहले दादी से बँटवारे की कहानियाँ सुनते। यह भी सुना था कि किस तरह गाँव के मुसलमान आकर उससे पूछते थे कि गाँव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गाँव के बाहर ले गए और वहाँ पहले से ही तलवारें और गँडासे लिए गुरु के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए ...

अबोहर का नाम और पंजाब की खस्ताहाल सड़कें

अबोहर का नाम कैसे पड़ा? युवा साथी योगेश डी ए वी कालेज में इतिहास पढ़ा रहा है। अबोहर में ही पला है। उसने बतलाया कि अबोहर में पिछले पाँच हजार साल से लगातार लोग बसे हुए हैं। बृहत्तर हड़प्पा सभ्यता का शहर है। आज भी ऐसी जगहें वहाँ हैं जहाँ खुदाई तो नहीं हुई है, पर इधर उधर प्राचीन काल के स्मारक पड़े हुए मिल जाते हैं। इब्न बतूता तक ने अपने संस्मरणों में अबोहर का उल्लेख किया है। योगेश कर्मठ और सचेत है। चंडीगढ़ में क्रिटीक संस्था में सक्रिय था। अबोहर में छात्रों को नई दिशाएं दिखलाने का बीड़ा उठाया है। जब हम वहाँ गए तो उस रात अभी हाल में पारित सूचना अधिनियम के बारे में राजस्थान से उपलब्ध कुछ दृश्य सामग्री छात्रों को दिखला रहा था। उसने बतलाया कि छात्रों को स्थानीय माइक्रो-हिस्ट्री के अध्ययन के लिए भी वह प्रेरित करता रहता है। एकलव्य में काम करने के दौरान जो रोचक अनुभव हुए थे, उनमें स्थानीय इतिहास का अध्ययन भी है। मूल प्रकल्पना संस्था के कार्यकर्त्ताओं की होती थी, पर उत्साही शिक्षकों के बल पर ही बात आगे बढ़ती थी। शायद जे एन यू से आए सुब्रह्मण्यम और रश्मि पालीवाल ने यह अभ्यास सोचा था, पर एक गाँव ...

सभ्य लोगों की हाई बीम

मीरा नंदा ने हमें बतलाया था कि सत्तर के दशक के आखिरी सालों में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी थी। मैं जब यहाँ नौकरी पर लगा ही था राजस्थान के झुँझनू में रुपकँवर सती हुई। आज़ादी के चालीस साल बाद सती की घटना ने सभी भले लोगों को चौंका दिया। न केवल सती, उसकी पूजा, पूरा एक व्यापार छिड़ गया और लाखों रुपयों का कारोबार शुरु हो गया। मीरा ने शोध किया है और अपनी पुस्तक में इस पर और ऐसी ही दूसरी घटनाओं पर चर्चा की है। बहरहाल प्रबुद्ध माने जाने वाले एक समकालीन चिंतक ने उन दिनों एक आलेख में कुछ विवादास्पद बातें लिखी थीं, जिसका सारांश यह था कि हमारे जैसे लोग जो आधुनिकता में रचे बसे हैं, हमें कोई हक नहीं कि हमलोग रुपकँवर कांड पर बहस करें। इस घटना के बाद से मीरा जैसे लोगों ने आक्रामक रुख अख्तियार किया और प्रतिक्रियाशील तत्वों के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव में इन नए वाम चिंतकों को भागीदार माना। यह बौद्धिक लड़ाई आज तक चल रही है और इसलिए बहुत कुछ जाने समझे बिना अखाड़े में उतरने को मेरे जैसा व्यक्ति तैयार नहीं। इस प्रसंग में शिव विश्वनाथन की पुस्तक 'A Carnival for Science: Essays ...

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

अबोहर में गया तो केमिस्ट्री का भाषण देने, पर हिन्दी वालों को पता चला तो उन्होंने भी गोष्ठी आयोजित कर ली। अभी अभी लंबी ड्राइव के बाद लौटा हूँ। सुखद आश्चर्य यह कि मेरी पंद्रह साल की बिटिया ने भी मेरा लिखा पढ़ा। चलो इसी खुशी में एक और कविता : अहा ग्राम्य जीवन भी ... शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गंध उस कमरे में बंद हो जाती है । कभी-कभी अँधेरी रातों में रजाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना । साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं । वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ । उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ। जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं । साल भर इंतज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसंत राग गाएगी। फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाजा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं । फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ... (पल-प्रतिपल २००५)

अभी ब्रेक चलेगा

कल लुधियाना, परसों अबोहर। इसलिए फिलहाल ब्रेक चलेगा। शायद रविवार को वापस वक्त मिले। ********************************* भारत में जी बायोटेक्नोलोजी, फेनोमेनोलोजी, ऐसे शब्द है जिनमें आखिर में जी आता है । ऐसे शब्द मिलकर गीत गाते हैं । शब्द कहते हैं बैन्ड बजा लो जी। इसी बीच भारत बैन्ड बजाता हुआ चाँद की ओर जाता है। चाँद पर कविता उसने नहीं पढ़ी। भारत को क्या पड़ी थी कि वह जाने चाँद को चाहता है चकोर। भारत ने चाँद जैसे सलोने लोगो से कह दिया – ओ बायोटेक्नोलोजी, बैन्ड बजा लो जी। ओ चाँद बजा लो जी, ओ फेनोमेनोलोजी । चाँद जैसे लोगो ने कहा – हड़ताल पर जाना देशद्रोह है। चाँद उगा टूटी मस्जिद पर। ईद की रात चाँद उगा । हर मजलूम का चाँद उगा । भारत में। जी। (फरवरी-२००३; पश्यंती- २००४)

क ख का ब्रेक

क कथा क कवित्त क कुत्ता क कंकड़ क कुकुरमुत्ता । कल भी क था क कल होगा । क क्या था क क्या होगा। कोमल ? कर्कश ? अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४) --------------------------------------------- ख खेलें खराब ख ख खुले खेले राजा खाएं खाजा । खराब ख की खटिया खड़ी खिटपिट हर ओर खड़िया की चाक खेमे रही बाँट । खैर खैर दिन खैर शब बखैर । अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४)

प्रवेश मीरा नंदा

पिछले चिट्ठे से आगे - ३ ११९६ में EPW में जब सोकल अफेयर के बारे में और ऐलन सोकल और मीरा नंदा के आलेख पढ़े तो मैं उछल पड़ा। वर्षों से कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ओरिएंटेशन कोर्स वगैरह में जनविज्ञान आंदोलनों और वैज्ञानिक चेतना पर बातें करते हुए आत्म-चेतन सा होते हुए विज्ञान की नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचनाओं का उल्लेख मैं करता था, पर सचमुच कुछ समझ में नहीं आता था। हालाँकि तीसरी दुनिया के संदर्भ में विज्ञान की निरपेक्षता पर सवाल उठाने की प्रक्रिया से मैं भी गुजर चुका था। रेगन के जमाने में प्रिंस्टन में शोधकार्य के दौरान वक्त निकाल कर बहस करते ही रहते थे। बॉस्टन से निकलनेवाली साइंस फर द पीपल नाम की पत्रिका लगातार पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना हमारा धर्म-कर्म था। उन्हीं दिनों 'the neutrality of fundamental science: a third world perspective on the myth' नाम से एक आलेख भी लिखा था। कहीं छपा नहीं और न ही वह जमाना चिट्ठाकारी का था। बहरहाल, विज्ञान की वह आलोचना बड़ी सरलीकृत थी, जिसमें मूल मुद्दा वैज्ञानिक कार्य के लिए सवालों के चयन और निर्णायक भूमिका में सुविधासंपन्न और शासक/शो...

पिछले चिट्ठे से आगे - २

आधुनिकता ने सार्वभौमिक सत्य ढूँढने की कोशिश की, तो इसके आलोचकों ने उन्हें नकार कर 'स्थानीय सत्य' को मान्यता दी। हर संस्कृति, हर समाज या वर्ग की अपनी तर्कशीलता होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता ऐसी कई संभावनाओं में से एक है। जैसे हर स्थानीय सत्य का सामाजिक आधार होता है, वैज्ञानिक सत्यों के भी सार्वभौमिक चरित्र होने की कोई वजह नहीं है। कम से कम इतना तो है ही कि वैज्ञानिक सोच से बेहतरी की ओर बढ़ने की कोई गारंटी नहीं है। हिरोशिमा में क्षण भर में वाष्पित हो गए लोगों के पीछे विकिरण से बच गई जगहों के चिन्हों की भयावहता हमें यह बताती है। एक ओर आलोचना के उपरोक्त विन्दुओं को नकारा नहीं जा सकता तो दूसरी ओर वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उठते सवालों को कितनी गंभीरता से लिया जाए, यह सोचने की बात है। ऐलन सोकल ( www.physics.nyu.edu/faculty/sokal.html ) इस बात से चिंतित था कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की धुनाई करने की प्रवृत्ति हद से आगे बढ़ गई है और बेतुकी बातें ज्यादा हो रही हैं। यहाँ नोट करने की बात है कि सामाजिक विज्ञान में इस तरह के सैद्धांतिक काम में भारतीय विद्वानों की भागीदारी बहु...

पिछले चिट्ठे से आगे

आधुनिकता से त्रस्त होकर बीसवीं सदी के चिंतकों ने सोचना शुरु किया कि आखिर माजरा क्या है। खासकर यूरोप में आलोचना के नए पैमाने बने, जिनके आधार पर यह तय हुआ कि कुछ भी सार्वभौमिक नहीं होता। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वह जितना भी निरपेक्ष लगे, उसके पीछे दरअसल हमारे पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं, जो हमें समाज से या अपने परिवेश से मिले होते हैं। यहाँ तक बात पहुँच गई कि पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण और जंगखोर सरकारों के खिलाफ जो आक्रोश साठ के दशक में पश्चिमी देशों में हुआ, उसका बौद्धिक नेतृत्व कई जगह इन नए चिंतकों के हाथ आया। तीसरी दुनिया के देशों में भी एक नई वाम चिंतकों की श्रेणी उभर कर सामने आई, जिन्होंने वैज्ञानिक तर्कशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही पर्यावरण के विनाश के तत्व हैं और पुरुषप्रधान सोच हावी है, ऐसा माना जाने लगा। आधुनिकता ने व्यक्ति स्वतंत्रता की जो संभावनाएं सामने ला खड़ी की थी, उसे शक की नज़रों से देखा जाने लगा। आखिर व्यक्ति स्वतंत्रता से मानव का जीवन तो सुखमय नहीं हो पाया था। अजीब स्थिति थी कि जो लोग विज्ञान को कटघरे पर खडा कर रहे थे, वे सब अपनी ...

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना आम तौर पर विज्ञान और आधुनिकता को एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। कई मायने में यह ठीक भी है। हमारे लिए आधुनिकता पश्चिम की देन है। जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह भी पश्चिम से ही आया है। हाल की सदियों में दोनों का विकास एक साथ हुआ है। पर साहित्य, कला और दर्शन में आधुनिकता का एक विशेष अर्थ है। साहित्य में आधुनिकता का अर्थ साहित्य में विज्ञान नहीं है। इसलिए आधुनिकता को उसके स्वतंत्र अर्थ में समझना जरुरी है। मध्यकालीन यूरोप में नवजागरण के साथ साहित्य, कला और दर्शन में जो उथलपुथल हुई, उसके साथ जो नया मूल्यबोध समाज में आया, उसे आधुनिकता कहते हैं। इसके अनुसार एक व्यक्ति-केंद्रिक मूल्य बोध बना, जिसमें प्रकृति को समझने के लिए व्यक्ति ने प्रकृति से अलग अपनी सत्ता बनाई। मैं जो सोचता हूँ, वह मेरी निजी सोच तो है, पर अपने अवलोकनों से मैं निरपेक्ष धारणाएं भी बना सकता हूँ। ये निरपेक्ष धारणाएं सार्वभौमिक सत्यों को सामने लाएंगी। इन सत्यों के जरिए हम प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं। आधुनिकता से पहले ईश्वर सर्वशक्तिमान था, उसके नाम पर कोई भी धूर्त्त दूसरों...

ऐब हो तो कितना

सुबह तेज कदमों से इंजीनियरिंग कालेज और स्टेडियम के बीच से डिपार्टमेंट की ओर चला आ रहा था। दो लड़के इंजीनियरिंग कालेज की ओर से मेरे सामने निकले। उनके वार्त्तालाप का अंशः एक- यार, जालंधर देखा है, कितना बदल गया है। बहुत बदला है हाल में। दूसरा- सब एन आर आई की वजह से है। तुझे पता है जालंधर में कितने एन आर आई हैं। अकेले जालंधर में पंद्रह हजार एन आर आई हैं भैनचोद, तू देख ले भैनचोद। कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे। पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता मे...

इन-ब्रीडिंग

परसों दैनिक भास्कर से एक रीपोर्टर का फोन आया - इन-ब्रीडिंग पर आर्टिकल कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार पी यू में ७८% अध्यापक यहीं से डिग्री लिए हुए हैं। मैंने एक अरसे से इन-ब्रीडिंग के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मत प्रकट कर अनेक दुश्मन बनाए है। कई बार निजी रुप से बंधुओं को समझाने की कोशिश की है कि मैं जो लोग पदों में नियुक्त हैं उनके खिलाफ नहीं हूँ। मेरा इस विषय पर एक मत है और वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक मत है। पर जो लोग इन-ब्रेड हैं, इन्हें तो शायद ऐसा लगता है कि जैसे मैं पैदा ही उनका कत्ल करने के लिए हुआ हूँ। यह दुर्भाग्य पूर्ण है और हमारी सोच में लोकतांत्रिक तत्वों के अभाव को दर्शाता है। उस रीपोर्टर को मैं क्या कहता - मुझे इस तरह के फोन साक्षात्कारों से बड़ी चिढ़ है - मैंने कहा कि दुनिया भर में वे तमाम शिक्षा संस्थान जो अपने स्तर के लिए जाने जाते हैं, उनमें अध्यापकों की पृष्ठभूमि में खासी विविधता है। यह सार्वभौमिक सत्य है। भारत की एलिट संस्थाओं के बारे में कहा जा सकता है कि उनको आर्थिक अनुदान अधिक मिलते हैं, पर पैसे लेने के लिए भी जो बौद्धिक शक्ति चाहिए, वह प्रांतीय विश्वविद्य...

कुछ फ्रांस, कुछ अपना दुःख

फ्रांस में जो कुछ हो रहा है, इस पर कितना सच हमें पता चल रहा है और कितना नहीं! हमारी पीढ़ी तक के लोग कालेज के दिनों में अल्जीरियाई मनःश्चिकित्सक और सैद्धांतिक चिंतक फ्रांत्स फानों की पुस्तकें, खास कर 'रेचेड आफ द अर्थ' पढ़ा करते थे। उत्पीड़ित की हिंसा, इन्कलाबी हिंसा और आतंकवादी हिंसा या जिसे मोटिवलेस हिंसा कहते हैं, इनमें फर्क क्या है, यह समझना ज़रुरी है और पहली दो किस्म की हिंसाओं को समझने में फ्रांत्स फानों की पुस्तक मदद करती है। दुनिया में जितना कुछ गलत है, उसको देखते हुए आश्चर्य होता है कि सचमुच चारों ओर हिंसा इतनी कम कैसे है। फिर भी, जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, 'है दुःख, है मृत्यु, विरह दहन लागे, फिर भी शांति, फिर भी आनंद, अनंत... ' । *************************************************** इतनी उम्र हो गई, अब भी यहाँ की लालफीताशाही पर गुस्सा आता है। सरकारी एजेंसी का पैसा, उन्हीं की मीटिंग, फिर भी तीन महीनों से टी ए बिल पास नहीं हुआ। क्या हुआ कि वी सी साहब ने दरखास्त पर 'ऐज़ पर रुल्स' लिख दिया है। आखिर इसमें क्या समस्या है, हर चीज़ ही ऐज़ पर रुल्स होनी च...

भारतीय होने पर गर्व

अभी साइमन सिंह की 'फेर्माज़ लास्ट थीओरेम' कुछ ही पन्ने पढ़े थे, इसी बीच एक और अच्छी किताब मिल गई - सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन'। जितना पढा मज़ा आ गया। बहुत पहले साइंटिफिक अमेरिकन में जोसेफसन के बारे में पढा था कि कैसे अतिचालकता (सुपरकंडक्टिविटि) पर काम कर नोबल पुरस्कार पाने के बाद वे कांससनेस (चेतना) पर शोध करने लगे थे। काफी हद तक अपनी सुध-बुध खोकर काम करते थे। बहरहाल ब्लैकमोर की पुस्तक में थोड़े से पन्नों में चेतना के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और जैववैज्ञानिक पक्ष पर बखूबी से लिखा गया है। अनुवादक ध्यान दें, यह अनुवाद करने लायक पुस्तक है। जिन्हें वैदिक ज्ञान या पुनर्जन्म आदि ढकोसलों की खोज है, वे इसे न पढ़ें। यह एक विशुद्ध वैज्ञानिक विषय-वस्तु की पुस्तक है, आम पाठक के लिए लिखी हुई। ******************************************** काश्मीर में भारत-पाक सीमा की खबर आज सुर्खियों में थी। लोगों ने सीमा पार कर अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए बेताबी से कोशिश की और पाकिस्तानी पुलिस ने आँसू-गैस बरसा कर उन्हें रोका। पता नहीं कितने समय तक काश्मीर के लोगों को...

अभिव्यक्ति और समर्थ

शहर में जो साहित्यिक गतिविधियाँ लगातार होती हैं, उनमें महीने के पहले शनिवार वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर होने वाली 'अभिव्यक्ति' नामक गोष्ठी प्रमुख है। कई वर्षों से यह गोष्ठी लगातार होती रही है। इस बार निर्मल वर्मा और अमृता प्रीतम पर बात होनी स्वाभाविक थी। निर्मल वर्मा के आखिरी उपन्यास “अंतिम अरण्य“ पर अतुल वीर अरोड़ा ने अच्छा आलेख पढ़ा। मेरा दुर्भाग्य कि न ही मैंने उपन्यास पढ़ा है और न ही समय पर गोष्ठी में पहुँचा, पर आखिरी दो-चार बातें जो सुन पाया, लगा कि अतुल का यह काम महत्वपूर्ण है। इतना सुना नहीं कि न्यायपूर्ण ढंग से कोई टिप्पणी कर सकूँ, इसलिए अगर इसे पढ़कर किसी को इस आलेख के बारे में जिज्ञासा हो तो उन से सीधे संपर्क करें। इस पाठ के बाद की चर्चा अच्छी नहीं रही। विचारधारा और साहित्यिक व्यक्तित्व आदि पर झगड़ा होता रहा। कितना अच्छा होता अगर उनकी कुछ रचनाएं पढ़ी जातीं। अमृता पर तो कोई बात ही नहीं हुई। --------------------------------------------- साहित्य में क्या उत्कृष्ट है, क्या नहीं, इस पर विवाद तो हमेशा ही रहेगा। अधिकतर लोग एक सीमा से अधिक न तो अमूर्त्त चिंतन कर सकते हैं, न ही...

सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

हिन्दी में ब्लॉग लिखना हमारे जैसों के लिए कोई आसान बात नहीं। करीब पंद्रह साल पहले हावर्ड ज़िन की अमरीका के जन-इतिहास वाली पुस्तक का अनुवाद करते हुए हिन्दी में टाइपिंग शुरू की थी। दसेक पन्ने कर के दम निकल गया था। वापस हाथ से लिखने पर आ गया था। यह तो मेरे मित्र चेतन के लगातार कहते रहने पर टाइपिंग भी और ब्लॉग भी शुरू किया। अपने दफ्तरी काम के लिए मैं लिनक्स का इस्तेमाल करता हूँ, पर ओपेनऑफिस में हिन्दी का ध्वन्यात्मक फॉन्ट मिल नहीं रहा था। इसलिए विंडोज़ में शुरू किया। आखिर चेतन ने लिनक्स के लिए भी हिन्दी का इनपुट मेथड और ध्वन्यात्मक फॉन्ट इस्तेमाल ढूंड ही निकाला। हालांकि अभी भी जीएडिट से करना पड़ रहा है, पर अगर आप मेरे पहले वाले चिट्ठे देखें तो पाएंगे कि यह निश्चित ही बेहतर फॉन्ट है। जिन्होंने भी इस पर काम किया है, सब को धन्यवाद। -------------------------------------------------------------------------------- सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत कल शाम टैगोर थीएटर में इप्टा का कार्यक्रम था। तीन नाटक थे। कुछ ही दिन पहले युवा छात्रों के एक समूह को मैं इप्टा के बारे में बता रहा था। बड़ा अजीब लग...

निर्मल वर्मा अमृता प्रीतम

“ अल्लाह ! यह कौन आया है कि लोग कहते हैं मेरी तक़दीर के घर से मेरा पैगाम आया है... ” ज़िस दिन निर्मल वर्मा के निधन का समाचार आया, मैंने कहीं लिखा कि प्राहा के दिन, लंदन की रातें और शिमला की ज़िंदगी भी क्या होती अगर निर्मल वर्मा कल तक न होते। कैसा दुर्योग कि दो ही दिनों बाद अमृता प्रीतम चल बसीं। लंबे समय से दोनों ही बीमार थे, इसलिए एक तरह से मानसिक रुप से हम लोग तैयार थे कि किसी भी दिन हमारे ये प्रिय जन रहेंगे नहीं। मेरा दुर्भाग्य यह है कि मैं दोनों से ही कभी नहीं मिल पाया। एक बार जब निर्मल चंडीगढ़ आए तो मैं यहाँ नहीं था। शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद उनको भाषण के लिए निमंत्रित किया तो गगन जी ने फोन पर बतलाया कि वे बीमार थे। अमृता पंजाबी में लिखती थीं और चंडीगढ़ के बाहर के पंजाबी रचनाकारों से मेरा सरोकार वैसे ही कम रहा। यह सोचता हूँ तो लगता है कि केमिस्ट्री पढ़ने-पढ़ाने से अलग दूसरी दुनिया में मुझे साहित्य से इतर और मामलों से बचना चाहिए। अमृता को मैंने निर्मल से पहले पढ़ा। कलकत्ता के खालसा स्कूल की लाइब्रेरी से उनका उपन्यास ‘ आल्ल्ना ’ (आलना) पढ़ा था। इसके पहले शायद एक ...