संकीर्ण
राष्ट्रवाद को ना,
मानवीय
वैश्विक आख्यान को हाँ
('सबलोग' पत्रिका के ताजा अंक में इस लेख का एक संक्षिप्त प्रारुप प्रकाशित हुआ है)
मैं
हैदराबाद में बैठा यह लेख लिख
रहा हूँ। हैदराबाद तेलंगाना
की राजधानी है। तेलंगाना को
भारत का 29वाँ
राज्य बने अभी दो साल नहीं हुए
हैं। तेलंगाना निज़ाम शासित
भूतपूर्व हैदराबाद राज्य का
तेलुगु-भाषी
इलाका है, जिसे
भाषाई आधार पर राज्यों के
पुनर्गठन करते हुए आंध्र
प्रदेश में शामिल किया गया
था। यानी कि पिछले सत्तर सालों
में तेलंगाना राजतंत्र से
आज़ाद भारत के एक प्रांत का,
फिर
एक भाषाई प्रांत का और आखिर
में एक अलग राष्ट्रीय पहचान
का राज्य बन गया है। तेलुगु
में हिंदी के राष्ट्र शब्द
के लिए 'जाति'
शब्द
और हिंदी के 'जाति'
के
लिए जाति के अलावा 'कुल'
शब्द
का इस्तेमाल होता है। अब जब
देश भर में हाल में जे एन यू
में हुई घटनाओं के बाद से
'राष्ट्र'
और
'राष्ट्रवाद'
पर
चर्चाएँ आम हैं,
तेलंगाना
में बैठे इस पर लिखना वाजिब
लगता है।
'राष्ट्र'
के
बारे में और जो भी विवाद हो,
यह
तो हर कोई मानता है कि यह एक
तरह की पहचान से जुड़ा हुआ शब्द
है। संस्कृतवादी लोग इसका
संस्कृत मूल ढूँढ़ते हैं और
हिंदी विकीपीडिया के अनुसार
'‘राजृ-दीप्तो’
अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म
में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने
से संस्कृत में
राष्ट्र शब्द
बनता है अर्थात विविध संसाधनों
से समृद्ध सांस्कृतिक पहचान
वाला देश ही एक राष्ट्र होता
है। देश शब्द की उत्पत्ति
'दिश'
यानि
दिशा या देशांतर से हुआ जिसका
अर्थ भूगोल और सीमाओं से है।
देश विभाजनकारी अभिव्यक्ति
है जबकि राष्ट्र,
जीवंत,
सार्वभौमिक,
युगांतकारी
और हर विविधताओं को समाहित
करने की क्षमता रखने वाला एक
दर्शन है।'
संस्कृतवादियों
के साथ समस्या यह है कि वे हर
चीज का संस्कृत मूल गढ़ लेते
हैं,
चाहे
वह कभी रहा हो या नहीं भी हो।
अक्सर ऐसे 'मूल'
दरअसल
हाल के वक्त में गढ़े गए होते
हैं। बहरहाल,
जिस
'राष्ट्र'
को
लेकर इतनी बहस चल रही है,
अंग्रेज़ी
के 'नेशन'
का
अनुवाद वाली वह अवधारणा तो
पिछली कुछ सदियों में ही सामने
आई है। राजनीतिशास्त्र के
अध्येताओं के लिए 'नेशन'
पर
यह समझ कोई नई बात नहीं है। इस
शब्द और अवधारणा पर जे एन यू
में चल रहे मुक्तांगन भाषणों
की शृंखला में प्रो.
प्रभात
पटनायक ने संक्षेप में बहुत
अच्छा समझाया है,
जो
यू ट्यूब पर देखा जा सकता है।
इसके पहले उन्होंने अंग्रेज़ी
के 'द
हिंदू'
में
इसी विषय पर एक लेख भी लिखा
था। कइयों को इस बात की तकलीफ
रहती है कि प्रभात साम्यवादी
पृष्ठभूमि के हैं तो वे लोग
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की
दर्शन पर बनी साइट
plato.stanford.edu/entries/nationalism
पर
उपलब्ध सामग्री पढ़ सकते हैं।
इसके
पहले कि हम 'नेशन'
पर
विस्तार से लिखें,
एक
और बात कही जानी चाहिए। हम सब
बचपन से यह पढ़ते आए हैं कि 1857
का
ग़दर आज़ादी की पहली लड़ाई थी।
ऐसा कहते हुए आम तौर पर हम यह
समझते हैं कि अगर 'हम'
उस
लड़ाई में जीत गए होते तो भारत
तभी आज़ाद हो गया होता। बेशक
वह लड़ाई एक जनयुद्ध थी,
पर
अगर ईस्ट इंडिया कंपनी तब हार
गई होती तो आज भारतीय उपमहाद्वीप
में तीस या उससे ज्यादा मुल्क
होने की अच्छी संभावना होती।
रोचक बात और है कि 18
वीं
सदी में अमेरिका में जिस
बर्तानवी औपनिवेशिक प्रशासन
का विरोध हुआ और जिसमें आखिर
में आज़ाद संयुक्त राज्य
अमेरिका विजयी हुआ,
उस
लड़ाई में दोनों पक्षों में
बड़ी तादाद में यूरोप से आए लोग
शामिल थे,
बहुतायत
उन्हीं की थी,
जबकि
1857 की
लड़ाई में गोरे सिर्फ कंपनी
के पक्ष में थे और उनकी कुल
तादाद कोई 40000
थी।
सिर्फ कंपनी की फौज में भर्ती
हिंदुस्तानी ही नहीं,
कई
रजवाड़े अंग्रेज़ों के पक्ष
में थे। मुख्यतः उत्तर भारत
के आज के हिंदी प्रदेश में
सीमित इस ग़दर में उपमहाद्वीप
के बाक़ी इलाकों का कोई जुड़ाव
नहीं था।
'हिंदुस्तानी'
लफ्ज़
भी कई मायने रखता है। सब जानते
हैं कि 'हिंदू'
शब्द
'सिंधु'
से
बना और सिंधु के दक्षिण के
लोगों के लिए अलग-अलग
रूप में इस शब्द का इस्तेमाल
हुआ है। उन्नीसवीं सदी के
यूरोपी नक्शों में हिंदोस्तान
कहकर उत्तर भारत के उन खास
इलाकों को दिखलाया जाता था,
जिसमें
आज के हिंदी प्रदेश का बड़ा
हिस्सा आता है। बंगाल में आज
भी बिहार,
उत्तर
प्रदेश से आए लोगों को 'हिंदुस्तानी'
कहा
जाता है,
सौ
साल पहले शरतचंद्र ने तो इस
शब्द का इस्तेमाल अपने उपन्यास
'चरित्रहीन'
में
इस तरह किया है -
'लोकगुलो
जे भाषा ब्यबहार करतेछे,
ताहा
हिंदुस्तानी जिह्वा छाड़ा
उच्चारण करते पारे,
एतो-बड़ो
जीभ पृथवीर आर कोनो जातेर नेई'
यानी
कुछ (बिहारी)
लोग
ऐसे (गंदे)
लफ्ज़
बोल रहे हैं,
जिन्हें
कह सके,
इतनी
बड़ी जीभ धरती पर और किसी जात
की नहीं है। आज उत्तर भारत में
हम 'हिंदुस्तानी'
ज़ुबान
कहते हुए हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी
कहते हैं,
'हिंदुस्तानी'
लोग
कहते हुए सारे भारत के लोग
कहते हैं,
'हिंदुस्तान'
से
हमारा मतलब पूरा भारत देश होता
है। 'देश'
या
'देस'
का
अर्थ भी बोलचाल में वह नहीं
होता जो हम भारत देश से समझते
हैं। मैंने बचपन में कोलकाता
में रहते हुए बिहारियों को
'देस
जा रहे हैं'
कहते
सुना है,
जब
वे अपने गाँव जाना चाहते थे।
जिन
धार्मिक आस्थाओं को 'हिंदू'
कहा
जाता है,
उनके
लिए 18
वीं
सदी के पहले भारतीय उपमहाद्वीप
के लोग इस शब्द का इस्तेमाल
नहीं करते थे। इन बातों पर
सोचना इसलिए ज़रूरी है कि आज
जिस तरह इन शब्दों के ऐसे एकांगी
अर्थ निकाले जाते हैं,
जैसे
कि यही अर्थ शाश्वत थे और
रहेंगे,
इससे
हटकर हमें सोचना चाहिए।
आज
'नेशन'
की
बात 'नेशन-स्टेट'
या
राष्ट्र-राज्य
के अर्थ में की जाती है। यह
शब्द यूरोप में सत्रहवीं सदी
में सामने आया जब लंबी लड़ाइयों
के बाद यूरोप की ताकतों ने तय
किया कि वे एकरूप भाषा,
संस्कृति
आदि के आधार पर राजतंत्रों
को मानेंगे। यह औद्योगिक
क्रांति की शुरुआत का वक्त
था और ऐसे नए सरमाएदारों का
समूह उभर रहा था जो अपनी ताकत
बढ़ाने के लिए अपने सगे-संबंधियों
और कुनबे के लोगों पर ज्यादा
यक़ीन रखते थे। राष्ट्र-राज्य
की इस नई धारणा में एक भाषा,
एक
संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय
पहचान उभर कर सामने आई,
और
इसके साथ सार्वभौमिक राज्य
की भौगोलिक पहचान को जोड़ा गया।
जहाँ भौगोलिक सीमाएँ कुदरती
तौर पर तय थीं,
जैसे
ब्रिटेन जैसे द्वीप-देश,
वहाँ
यह राष्ट्र-राज्य
आसानी से पनपा। राष्ट्रीय
गौरव की वजह से कहीं-कहीं
नए तरक्कीपसंद खयालों को बढ़ावा
मिला। कई देशों में राजतंत्र
की ताकत कमजोर हुई और लोकतांत्रिक
ढाँचों को मजबूत किया गया।
खासकर हॉलैंड में सत्रहवीं
सदी में और इंग्लैंड में
उन्नीसवीं सदी में यह दिखता
है। फ्रांस और अमेरिका में
तो 18
वीं
सदी में ही राजतंत्र खत्म हो
चुका था। इस तरक्कीपसंद
प्रवृत्ति से ही राष्ट्र-राज्य
का एक व्यापक अर्थ भी बना कि
हालाँकि राष्ट्र की सार्वभौमिकता
पर कोई समझौता नहीं हो सकता,
पर
राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं
में रहने वाले हर किसी को,
चाहे
वह मुख्य भाषा या सांस्कृतिक
समूह का न भी हो,
पूरी
आज़ादी मिलेगी। अपनी पहचान
से ऊपर राष्ट्र की पहचान रहेगी
(जैसे
हम पहले भारतीय हैं,
फिर
बंगाली,
पंजाबी
आदि),
पर
हर किसी को अपने ढंग की ज़िंदगी
जीने का हक होगा। एकरूपता वाली
सीमित अवधारणा से अलग इस समावेशी
बहु-सांस्कृतिक
(आज
जिसे हम बहु-राष्ट्रीय
या multi-national)
राष्ट्र
की बुनियाद हमेशा कमजोर रही।
हुकूमत ने संकट के समय पर
राष्ट्र के एकांगी अर्थ पर
जोर दिया और मुख्यधारा से हटकर
जो लोग रह रहे थे,
उन्हें
दुश्मन करार दिया। इस 'enemy
within' या
अपने ही अंदर दुश्मन ढ़ूँढ़ने
की लगातार चलती प्रवृत्ति की
वजह से एक नया आक्रामक राष्ट्रवाद
उभरा। वैसे भी राष्ट्रीय गौरव
की वजह से आलमी पैमाने पर
स्पर्धा बढ़ी,
और
अपनी माली ताकत बढ़ाने के लिए
आधुनिकता में सराबोर पश्चिम
का यह राष्ट्रवाद बड़ी तेजी
से साम्राज्यवाद बनने की ओर
बढ़ा। सारी दुनिया में संसाधनों
पर नियंत्रण के लिए इन साम्राज्यवादी
ताकतों में होड़ चल पड़ी।
पश्चिम
में हर देश में अपने अंदर दुश्मन
ढूँढने की प्रवृत्ति पनपी।
फ्रांस में 19वीं
सदी की शुरुआत में समावेशी
या विविध पहचान वाली राष्ट्रीयता
थी, पर
सदी के आखिर तक यहूदियों को
दुश्मन माना जाने लगा। एक
देशभक्त यहूदी फौजी अफ्सर,
रिचर्ड
ड्रेफस,
पर
भ्रष्टाचार के ग़लत इल्ज़ाम
लगाकर उसे दक्षिण अमेरिका
में फ्रेंच गायाना के उपनिवेश
में पाँच साल कैद में रखा गया।
हालाँकि अंत में उसे निर्दोष
माना गया और फौज में दुबारा
बहाल किया गया,
पर
ड्रेफस अफेयर कहलाए इस कांड
को फ्राँसीसी राष्ट्रवाद पर
बड़ा धब्बा माना जाता है। उत्तरी
यूरोप के सभी मुल्कों में,
जहाँ
प्रोटेस्टेंट ईसाई बहुसंख्यक
थे,
कैथोलिक
समुदाय को गद्दार समझा जाता
था और इसी तरह दक्षिणी यूरोप
के मुल्कों में,
जहाँ
कैथोलिक बहुसंख्यक थे,
प्रोटेस्टेंट
ईसाइयों को दुश्मन माना जाता
था। यहूदी हर जगह इस भेदभाव
का शिकार रहे।
यूरोप
में यह भेदभाव मुसोलिनी और
हिटलर के जमाने में अपने शिखर
पर पहुँच गया। बीसवीं सदी की
शुरुआत में यूरोप के सरमाएदार
धीरे-धीरे
राष्ट्रीय पहचान से हटकर
बहुराष्ट्रीय पहचान बना रहे
थे, पर
राष्ट्रवाद को एकांगी अर्थ
में सीमित करने की इस प्रक्रिया
में उन्होंने हुकूमतों का
साथ देकर महत्वपूर्ण भूमिका
अपनाई। उन्होंने राष्ट्र के
गौरव का झाँसा देकर अपना सरमाया
बढ़ाने के लिए आम लोगों में
दूसरे मुल्कों को लूट कर अपनी
औकात बढ़ाने की भूख पैदा की।
इसलिए इस तरह का राष्ट्रवाद
बीमारी की तरह और-और
की माँग करता हुआ बढ़ता चला।
इस बीमारी की पहचान और पहली
बार इसकी तीखी और सर्वांगीण
आलोचना कार्ल मार्क्स और
फ्रेडरिक एंगेल्स ने की,
और
उन्होंने दुनिया के सभी मजदूरों
को एकजुट होने का नारा उछाला।
भारत
में वह राष्ट्रीय पहचान जो
भौगोलिक संप्रभुता से जुड़ी
है, कब
आई? हर
भारतीय में यह पहचान मौजूद
है, ऐसा
आज भी नहीं कहा जा सकता। जाहिर
है कि ऐसा होता तो पृथकतावादी
आंदोलन नहीं चल रहे होते। हमें
बचपन में जैसे पढ़ाया जाता है,
उससे
लगता है कि भारतीय अस्मिता
हमारे पूर्वजों में चिरंतन
रही है और वह आदिकाल से चली आ
रही है। सांस्कृतिक एकता के
जो प्रतीक बतलाए जाते हैं,
जैसे
वेदों का व्यापक प्रभाव,
'हिंदू'
धर्म
के चार मठ,
सनातनी
आस्था में काशी जैसे धर्मस्थल
का महत्वपूर्ण होना,
ये
राष्ट्रीय अस्मिता के कारक
नहीं हैं। यूरोप के सभी ईसाइयों
के लिए यरुशलम (आज
इस्रायल में)
बहुत
बड़ा धर्मस्थल है। पर वह यूरोप
में नहीं है। रोम का वैटिकन,
जहाँ
पोप रहते हैं,
दुनिया
भर के कैथोलिक ईसाइयों के लिए
पवित्र भूमि है,
पर
इसका राष्ट्रीय पहचान से कोई
संबंध नहीं है। ऐसा ही इस्लाम
में मक्का का उदाहरण लिया जा
सकता है। इसी तरह छोटे-बड़े
साम्राज्यों का बनना भी वैसा
ही है जैसे यूरोप में होता रहा
है,
इसलिए
अतीत के भारतीय उपमहाद्वीप
में हम आज के भारत राष्ट्र को
नहीं ढूँढ सकते। इस तरह की
अ-ऐतिहासिक
सोच एक ब्राह्मणवादी नज़रिया
है,
जिसका
सचाई से कोई संबंध नहीं है।
ईस्ट
इंडिया कंपनी को 1764
में
दीवानी हक मिले। उन्होंने
अपनी दीवानी के इलाकों में
कर बढ़ा दिया और नतीजतन 1770
में
आए भयंकर अकाल में बंगाल की
एक तिहाई आबादी खत्म हो गई।
इस भयंकर घटना के बारे में
हमें जो जानकारी मिलती है,
वह
बंगाल-बिहार-ओड़िसा
की लोककथाओं में है,
या
कंपनी और समकालीन बंगाल के
इतिहासकारों के लेखन में है,
पर
किसी दूसरी भारतीय भाषा में
समकालीन कोई लेखन या अन्य कोई
सामग्री नहीं दिखती। दो सौ
साल बाद सब 1945-46
में
बंगाल में फिर भयंकर अकाल पड़ा,
तो
लाहौर में इप्टा के कार्यक्रमों
में बंगाल के अकाल पर गीत गाए
गए। यानी 1945-46
में
जैसी राष्ट्रीय भारतीय पहचान
दिखती है,
वह
1770 में
कहीं नहीं है। 1858
तक
भारतीय उपमहाद्वीप दर्जनों
राष्ट्रों का वैसा ही समूह
था,
जैसा
कि यूरोप था और आज भी है। फ़र्क
सिर्फ इतना था कि भारतीय रजवाड़े
आधुनिक राष्ट्र-राज्य
नहीं थे,
जैसा
कि अधिकतर यूरोपी देश 19
वीं
सदी तक बन चुके थे। उनका स्वरूप
काफी हद तक सामंती था। उनकी
सेनाओं में कई तरह की जातियों
और समुदायों के लोग शामिल थे।
पर ऐसी सामूहिक पहचान मौजूद
थी कि लड़ाइयाँ लड़ने पर जीतने
वाला पक्ष हारे हुए पक्ष के
आम लोगों पर कहर बरपाता था।
मसलन मराठों के साथ जो लड़ाइयाँ
अंग्रेज़ों ने या दूसरे राजाओं
ने लड़ीं,
उसके
बाद आम लोगों पर जैसी ज्यादतियाँ
मराठों ने बरपी,
उससे
पता चलता है भारतीय पहचान नामक
कोई चीज़ मौजूद नहीं थी। यह
हाल तक़रीबन सभी रजवाड़ों का
था। आज भी जब अक्सर फौज या
अर्द्ध-सैनिक
बलों का इस्तेमाल दमन के लिए
होता है,
उसमें
दमनकारी सिपाहियों और उत्पीड़ित
लोगों की अलग सांस्कृतिक पहचान
महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती
है।
जिसे
आज हम भारत कहते हैं,
औपचारिक
रूप से उसका बनना आज़ादी के
महज 89
साल
पहले यानी कि 1858
में
हुआ,
जब
पूरे उपमहाद्वीप को बर्तानवी
साम्राज्य ने अपने अधीन घोषित
किया। तब इंडिया एक प्रशासनिक
इकाई बना,
हालाँकि
1947 तक
रजवाड़े काफी हद तक अपना अलग
अस्तित्व बनाए रहे। औपनिवेशिक
सरकार ने कभी भी इंडिया को
सांस्कृतिक या भाषाई रूप से
एकांगी नहीं माना,
न
ही उन्होंने किसी एक मुख्यधारा
की सांस्कृतिक पहचान थोपने
की कोशिश की। ईसाई धर्म-प्रचारकों
ने भी किसी राष्ट्रीय पहचान
को थोपने की कोशिश नहीं की।
अलग अलग भाषाओं में बाइबिल
छापी गई। यहाँ तक कि भारतीय
भाषाओं के विकास में यूरोपी
विद्वानों ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
औपनिवेशिक
सरकार के ज़ुल्मों का आम लोगों
ने,
जहाँ
संभव हुआ,
विरोध
किया और प्रतिरोध में जंगें
लड़ीं। संथाल आदिवासियों से
लेकर देश के हर कोने में कई
लड़ाइयाँ लड़ी गईं,
पर
यह वैसी ही लड़ाइयाँ थी,
जैसे
पहले रजवाड़ों के खिलाफ लड़ी
जाती थीं। फ़र्क यह था कि अब
दुश्मन के कमांडर गोरे थे,
सिपाही
नहीं। यानी कि इस प्रतिरोध
को राष्ट्रीय सर्व-भारतीय
पहचान के उभार में नहीं देखा
जा सकता है।
भारतीय
राष्ट्रीयता का उभरना 1858
के
बाद ही शुरु होता है,
जब
संपन्न-वर्गों
में यह एहसास गहराने लगा कि
वे अपनी सत्ता खो रहे हैं।
उत्तर भारत के मुसलमानों के
संपन्न वर्गों में तो यह होना
ही था,
क्योंकि
जिस तरह अंग्रेज़ आखिरी मुगल
सम्राट बहादुर शाह जफर के साथ
पेश आए और जो कत्लेआम दिल्ली
में हुआ,
उसके
बाद कौन अंग्रज़ी सरकार के
खिलाफ न सोचता। हिंदू सवर्णों
में यह एहसास बढ़ा कि चाहे
अंग्रेज़ धार्मिक आस्थाओं
और रीति-रिवाज़ों
में हस्तक्षेप न भी करें,
सदियों
से बना उनका प्रभुत्व खत्म
होने को था,
क्योंकि
चाहे-अनचाहे
अंग्रेज़ी शासन के साथ नए खयाल
यूरोप से आ रहे थे और 1857
के
पहले से ही सावित्री बाई और
जोतिबा फुले और राममोहन राय,
डेरोज़िओ
आदि की कोशिशों से यह खतरा बढ़
रहा था।
चूँकि
यह नया उभरता राष्ट्रवाद समाज
के एक छोटे तबके से शुरु हुआ,
और
अंग्रेज़ों से लोहा लेने के
लिए इसे व्यापक पैमाने में
फैलाने की और समाज के सभी तबकों
को इसमें शामिल करने की ज़रूरत
थी,
इसलिए
स्वाभाविक था कि इस राष्ट्रीयता
में अनेकों विरोधभास भरे पड़े
थे। फिर भी काफी हद तक यूरोपी
प्रभाव में एक मुख्यधारा की
राष्ट्रीयता सामने आई,
जो
समाज के बड़े हिस्से को शामिल
करने के काबिल थी। प्रभात
पटनायक 1931
में
कांग्रेस के कराची महासम्मेलन
का जिक्र करते हैं,
जिसमें
ऐसे इंकलाबी प्रस्ताव पारित
हुए कि आज़ाद भारत में सबको
लाजिम तौर पर मुफ्त तालीम दी
जाएगी,
सभी
को मतदान का अधिकार होगा,
यहाँ
तक कि मृत्युदंड की सजा नहीं
होगी। ऐसे समय जब पश्चिमी
मुल्कों में भी हर जगह सब को
मतदान का अधिकार नहीं था,
ये
प्रस्ताव वाकई बड़े इंकलाबी
लगते हैं। हालाँकि आज़ादी के
बाद जब संविधान लिखा गया,
इनमें
से कइयों पर अमल नहीं किया
गया।
साम्राज्यवाद
के विरोध में जन्मा यह राष्ट्रवाद
सबको साथ ले कर चलने वाला था,
जबकि
यूरोप में राष्ट्रवाद अपने
सीमित अर्थ में एकांगी होता
गया। दूसरी आलमी जंग के बाद
यूरोप के लोगों को यह समझ में
आ गया कि ऐसा राष्ट्रवाद
आखिरकार सब के विनाश की ओर ले
जाता है। आज यूरोप में 'राष्ट्रवादी'
लफ्ज़
अक्सर कट्टर दक्षिणपंथियों
के लिए गाली की तरह इस्तेमाल
किया जाता है। इस समझ के बनने
में करोड़ों लोगों की जान गई।
गलियों-गलियों
में जंगें लड़ी गईं। जापान में
हिरोशिमा-नागासाकी
हुआ। पर हमारे यहाँ ऐसी जंग
नहीं लड़ी गई। इसलिए हमारे यहाँ
यूरोपी किस्म का एकांगी
राष्ट्र-राज्य
का खयाल भी हिंदुत्व की शक्ल
में सामने आया। अपने जन्म से
ही यह सवर्ण हिंदुओं के वर्चस्व
का राष्ट्रवाद था। इसके बरक्स
मुसलमानों के बड़े तबके में
एक और राष्ट्रीयता बनी,
जो
शुरुआत में सिर्फ एक धार्मिक
पहचान थी,
पर
बाद में वह राष्ट्र-राज्य
की माँग में बदल गई।
गाँधी
नेहरू का उदार राष्ट्रवाद इस
एकांगी सीमित राष्ट्रवाद के
साथ जूझता रहा। जैसे-जैसे
गाँधी 'अंतिम
जन' के
लिए प्रतिबद्ध होते गए,
कांग्रेस
के अन्य नेताओं की अपनी
संकीर्णताएँ वक्त के साथ मुखर
होती गईं। धर्म के आधार पर देश
का बँटवारा इसी सियासी खेल
का दुष्परिणाम था। फिर भी कम
से कम आज़ादी के वक्त भारत में
अलग-अलग
सांस्कृतिक और भाषाई पहचान
की अनेक राष्ट्रीयताओं में
एक सामाजिक अनुबंध या सोशल
कॉंट्रैक्ट हुआ। ये सभी
राष्ट्रीयताएँ मिलकर एक
राष्ट्र में शामिल हुईं। ऐसे
बहुराष्ट्रीय देश और भी हुए
हैं। सोवियत रूस एक बहुराष्ट्रीय
देश था। संयुक्त राष्ट्र संघ
की आम सभा में सोवियत रूस ने
यह माँग रखी थी कि उनके राष्ट्रों
की ओर से पंद्रह प्रतिनिधि
हों,
जिनके
अलग मताधिकार हों। इसके विरोध
में अमेरिका ने दावा किया कि
उनके 48
राज्यों
की ओर से इतने ही प्रतिनिधि
रखे जाएँ। आखिरकार यूक्रेन
और बायलोरुस को मिलाकर 1991
तक
सोवियत रुस के तीन प्रतिनिधि
बैठते थे। यह सुनिश्चित करने
के लिए कि उनकी राष्ट्रीय
पहचान बनी रहे,
लेनिन
ने सोवियत रूस के संविधान में
यह प्रावधान रखवाया था कि उन
सबको सोवियत संघ से अलग होने
का हक था। भारत के संविधान में
ऐसा कोई विकल्प नहीं रखा गया।
इसलिए प्रभात पटनायक मानते
हैं कि यह ज़रूरी हो गया कि
हुकूमत यह सुनिश्चित करे कि
किसी भी राष्ट्रीयता के लोगों
को ऐसा न लगे कि उनकी पहचान को
ऐसा खतरा है कि उन्हें अलग
होना पड़ेगा। अगर किसी को लगता
है कि जो सामाजिक अनुबंध हमें
एक बहुराष्ट्रीय देश में शामिल
करता है,
उसकी
अवहेलना हो रही है,
तो
उन्हें इसके लिए आवाज़ उठाने
का हक होना चाहिए। और जब वह
ऐसी आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें
देशद्रोही या राष्ट्रद्रोही
नहीं कहना चाहिए। देशद्रोही
या राष्ट्रद्रोही जैसे शब्द
हमारी राजनैतिक शब्दावली में
नहीं रहने चाहिए। आज़ादी के
वक्त इन बातों पर सभी राष्ट्रनेता
एक जैसा नहीं सोचते थे। गाँधी
ने पाकिस्तान को राष्ट्रीय
खजाने से उनका उचित हिस्सा
देने के लिए उपवास शुरु किया
था, जो
उनकी हत्या का एक कारण भी बना।
पर इसके लिए उनको कोई देशद्रोही
या राष्ट्रद्रोही नहीं कहता।
आंबेडकर ने बड़ी गंभीरता से
पाकिस्तान के बनने पर विवेचन
किया था और अंत में वे इस निर्णय
पर पहुँचे कि पाकिस्तान के
बनने का कोई विकल्प नहीं है,
हालाँकि
उनके अनुसार यह पूरे उपमहाद्वीप
के लिए दुखद घटना थी।
अगर
हम यह समझें कि एकांगी राष्ट्रवाद
की बीमारी सिर्फ उन्हीं लोगों
में है,
जो
सीधे-सीधे
संघ परिवार से जुड़े हैं,
तो
हम इसकी जटिलता को समझने से
चूकेंगे। अगर ऐसा होता तो इसे
रोकना आसान हो जाता। हमारे
यहाँ यह एकांगी राष्ट्रवाद
जातिवाद और फिरकापरस्ती की
ज़मीन पर फला फूला है। दरअसल
हममें से हरेक में यह रोग कमोबेश
मौजूद है। इसीलिए जिन्हा की
मुस्लिम बहुल राज्यों में
स्वायत्तता की माँग को नेहरू
जैसे नेताओं ने अलगाववाद की
तरह देखा। हालाँकि गाँधी ने
आंबेडकर की दूरदर्शिता से
बहुत कुछ सीखा था और उनकी नई
तालीम की संरचना में यह दिखता
भी है,
पर
आज भी अनेक सवर्ण विद्वान
आंबेडकर को दलितों के नेता
से अधिक मानने को तैयार नहीं
हैं। उत्तर भारत में अदब की
भाषा फिरकापरस्ती में रँगी
गई। लोगों की बोलचाल की भाषा
को हटाकर कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ
मानक हिंदी और इसी तरह अरबी
फारसी के वजन से लदी मानक उर्दू
बनी। कांग्रेस पार्टी ने समय
समय पर जाति और संप्रदाय का
चुनावी राजनीति में इस्तेमाल
किया। चुनावी वाम भी कभी-कभार
इसका शिकार बना। अब तो यह आम
बातें हो गई हैं।
आज
युवाओं में जो बेचैनी दिख रही
है, वह
इसलिए भी है कि एक लंबी लड़ाई
के बाद दलित वर्गों ने जाति
के सवाल को मुख्यधारा की राजनीति
का सवाल बना दिया है। जाति के
विनाश के बिना गैरबराबरी को
मिटाना संभव नहीं है। यहाँ
तक कि यह भी अनुमान लगाए जा
रहे हैं कि आर एस एस भी अब मनु
स्मृति के स्त्री और दलित
विरोधी हिस्सों पर असहमति
जारी कर सकता है। जातिप्रथा
हिन्दू धर्म का संरचनात्मक
आधार है। अगर जातिप्रथा को
हटा दिया जाए तो हिन्दू धर्म
कुछ और बन जाएगा। आज़ादी के
तुरंत बाद जिस मुक्तिकामी
राष्ट्रवाद की कल्पना की गई
थी, उसे
सबसे बड़ा खतरा जातिवाद से ही
आया और वह महज संघियों से नहीं,
बल्कि
उन सभी सवर्णों से आया जो अपनी
जाति और आर्थिक संपन्नता की
बदौलत हुकूमत चला रहे थे।
दूसरा खतरा स्थानीय सरमाएदारों
से आया जो आज़ादी की लड़ाई में
इस हद तक शामिल थे कि वे देश
के संसाधनों पर अपना नियंत्रण
चाहते थे और उन्हें यूरोपी
सरमाएदारों के साथ स्पर्धा
में सफलता नहीं मिल रही थी।
पर आज़ादी मिलते ही उनको यह
छूट मिली कि अब वे हुकूमत के
साथ मिलकर आम लोगों की मेहनत
की लूट से अपना सरमाया बढ़ा
सकें। इन दो चुनौतियों से
जूझते हुए आज़ाद हिंदुस्तान
आगे बढ़ता रहा,
पर
आखिरकार इन अलग-अलग
प्रवृत्तियों में टकराव तो
होना ही था। फिलहाल पिछली सदी
के आखिरी दशक से आलमी सरमाएदारों
के साथ समझौता कर भारतीय
पूँजीवादी दमनकारी हाकिमों
की मदद से पूँजी की लूट पर से
नियंत्रण हटाते जाने में काबिल
हो रहे हैं और देश के संसाधनों
की खुली लूट जारी है। इस
नवउदारवादी लूट में जाति के
सवाल पर और आदिवासियों के हक
में खड़े हो रहे आंदोलन अवरोध
बन रहे हैं,
इसलिए
यह संभव है कि जातिप्रथा पर
बड़े समझौते उनकी ओर से दिखने
लगें। पर हजारों सालों से चल
रहे इस अमानवीय मनुवादी व्यवस्था
में ऐसा बदलाव अपने आप होता
दिख नहीं रहा और आज
दलित-वाम-अल्पसंख्यक-स्त्री
के सम्मिलित पटल पर जो एकजुटता
दिख रही है,
उससे
एक इंसानी पहचान सामने उभर
रही है,
जो
किसी भौगोलिक संप्रभुता में
बँधी नहीं रहेगी।
राष्ट्रवाद
का जो स्वरूप संघ परिवार आक्रामक
रूप से भारत की अवाम पर थोप
रहा है,
उसकी
विड़ंबना यह है कि एक ओर तो
ब्राह्मणवादी संस्कृत-आधारित
भाषा नीति है,
दूसरी
ओर तालीम का निजीकरण कर अंग्रेज़ी
लादना है। इस लड़ाई में संस्कृत
तो पीछे छूटेगी ही,
छलावे
के लिए अंग्रेज़ी में संस्कृत
के शब्द पढ़े जाएँगे। यह प्रक्रिया
तेजी से चल पड़ी है और अमेरिका
में बैठे संघ परिवार के नौटंकीबाज
बुद्धिजीवी संस्कृत के
नामी-गरामी
विद्वानों पर कीचड़ उछालने
में लगे हैं,
हालाँकि
वहाँ इतनी जल्दी इनकी दाल
गलेगी नहीं और अभी तक उनके वार
उलटे ही पड़े हैं। तालीम के
क्षेत्र में जिस तरह सरकारी
स्कूलों को तबाह कर या उनको
बंद कर निजी स्कूलों की तादाद
बढ़ाई जा रही है और सचमुच की
समान तालीम की जगह जैसा जाली
शिक्षा अधिकार बिल लागू किया
गया है,
उससे
जाहिर है कि देश तो कमजोर होता
ही रहेगा।
आज
जे एन यू में छात्र आंदोलन से
उभरती दलित-वाम-अल्पसंख्यक-स्त्री
एकजुटता को तोड़ने के लिए जो
बेवकूफाना प्रतिक्रिया एकांगी
हिंदुत्वादी राष्ट्रवाद से
आई है,
उसमें
एक सुझाव यह भी है कि परिसर
में टैंक रखे जाएँ तो इससे
युवाओं में 'देशभक्ति'
बढ़ेगी।
ऐसे ही कुछ लोगों को लगता है
कि भारत माता की जय कहला कर वे
राष्ट्रभक्ति का सर्टीफिकेट
बाँट सकते हैं। दो विकल्प साफ
तौर पर दिख रहे हैं। या तो
हुकूमत के साथ के संस्कृत-अंग्रेज़ीपरस्त
लघुसंख्यक ब्राह्मणवादी तबके
अपने दमनतंत्र को बढ़ाते जाएँगे
या फिर विविध राष्ट्रीयताएँ
अपने सामाजिक अनुबंध को और
मजबूत करेंगी और हम सारी दुनिया
के सामने बहुभाषी,
बहुसांस्कृतिक
एक नया सपना पेश कर सकेंगे,
जिसमें
भौगोलिक संप्रभुता नहीं,
बल्कि
हर इंसान की सर्वांगीण समृद्धि
की कोशिश देशभक्ति कहलाएगी।
पहली संभावना में पश्चिमी
साम्राज्यवाद और नस्लवाद के
बरक्स हम अपना साम्राज्यवाद
और नस्लवाद खड़ा करेंगे,
उनकी
हर बेवकूफी की नकल करेंगे,
जबकि
दूसरी संभावना में हम धरती
के सभी भले लोगों के साथ एकजुट
होकर सिर्फ भारत माता नहीं,
धरती
माता को बचाने के लिए संकीर्ण
राष्ट्रवाद की सीमाओं को तोड़ते
हुए एक वैश्विक आख्यान या
प्लैनेटरी नैरेटिव बनाएँगे।
इस दूसरी संभावना का उम्मीदों
से भरे होने की एक वजह विज्ञान
और तकनोलोजी की अभूतपूर्व
तरक्की है,
जिससे
आज विविधता में एकता का सपना
सचमुच साकार होता चला है।