क्या बड़ी कक्षाओं को यानी जिनमें छात्रों की संख्या एक हद से ज्यादा हो, ढंग से पढाया जा सकता है?
शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रति शिक्षक जैसे जैसे बच्चों की संख्या बीस से ज्यादा बढ़ती है शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहता है। मेरा अपना अनुभव यह है कि तथाकथित अच्छे कान्वेंट स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का कारण स्कूल का बेहतर होना नहीं, बल्कि पालकों का अधिक सचेत होना है। स्कूल सिर्फ अनुशासन सिखाता है, जो स्व-शिक्षा में मदद नहीं करता, बाधक ज़रुर होता है। शिक्षा शास्त्री 'विंडोज़ अॉफ लर्निंग' की बात करते हैं, जिनमें उम्र के विभिन्न पड़ावों में सीखने के अलग-अलग मानदंड माने गए हैं। क्या सीखना है, कैसे सीखना है, इन सब बातों पर पिछली सदियों में बहुत शोध हुआ है, बहस भी बहुत हुई है।
कालेज विश्वविद्यालय स्तर पर आने तक, व्यक्ति सीखने की खिड़कियों को पार कर चुका होता है। अब समय है खुद यह जानने का कि मुझे क्या पढ़ना सीखना है। परीक्षा इसलिए नहीं कि स्कूल का डंडा है, इसलिए कि मुझे अपनी काबिलियत की समझ होनी चाहिए और दूसरों को भी मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि मैं कितना काबिल हूँ, ताकि मुझे सही काम मिल सके, जिससे मैं न केवल अपनी जीविका उपार्जन कर सकूँ, बल्कि आनंदपूर्ण जीवन भी व्यतीत कर सकूँ। यह बात समझ में आ जाए तो अध्यापक को किसी की उपस्थिति दर्ज़ करने की ज़रुरत नहीं। जिसने तय किया है कि मुझे सीखना है और उसे लगता है कि कक्षा में रहकर मैं कुछ सीख सकता हूँ, वह आएगा। कक्षा में बैठकर वह फालतू की बात नहीं करेगा, ध्यान से अध्यापक की बात सुनेगा। भारत में इस वक्त स्थिति यह है कि सुविधासंपन्न संस्थानों में अधिकतर छात्र इसलिए मौजूद हैं कि वे सुविधासंपन्न हैं। उनके माँ-बाप को चिंता होती है कि वह पढ़ लिख जाएँ और अपनी सुविधाएँ बढ़ाएँ और इस प्रयास में शिक्षा संस्थान जुट जाते हैं। इसलिए स्कूल का डंडा वाला दर्शन विराजमान रहता है। बाकायदा उपस्थिति दर्ज़ की जाती है। मुसीबत यह है कि कई युवा छात्र मजबूरी में कक्षा में बैठे होते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि उन्हें जो पढ़ाया जाता है, वह सीखना क्यों है।
बेहतर शिक्षक रोते रहते हैं कि कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए। उच्च शिक्षा में यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि सरकारें स्वयं आपसी मारकाट यानी हिंदुस्तान पाकिस्तान में पैसा खर्च करने में लगी रहती हैं; शिक्षा के लिए पैसे नहीं हैं; शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है, वगैरह वगैरह। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक यह यानी छात्रों की संख्या कम होनी न केवल वांछित है, बल्कि ज़रुरी है औेर चूँकि हमलोग निहायत पिछड़े हुए लोग हैं, इसलिए हमारी सरकारें हमारे संसाधनों को इस दिशा में न लगाकर ग़ोरी-अग्नि मिसाइलों वगैरह में लगाती रहती हैं। कोई तहलका की लूट खा लेता है, कोई बोफोर्स की।
बहरहाल विश्वविद्यालयों में माँ-बाप के पैसे खर्च कर कुछ मुश्टंडे मटरगश्ती करने आते हैं। ऐसी विभूतियों को पढ़ा पाना कठिन काम है। खासतौर पर ऐसे मुल्क में जहाँ करोड़ों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है, इन परजीवियों को पढ़ाने की नैतिक जिम्मेवारी किसी की भी नहीं हो सकती। इसलिए बेहतर अध्यापकों को मान लेना चाहिए कि उच्च स्तरीय पठन-पाठन में ब्राह्मणी बू यानी कि जिसे मैं अंग्रेज़ी में elitist exclusivity कहूँगा, से बचा नहीं जा सकता। हर कोई आइन्स्टाइन बनने की काबिलियत लेकर धरती पर आता है, पर हर कोई आइन्स्टाइन बन नहीं सकता। बिगड़ैल मुश्टंडों को बौद्धिक कर्म में लगा पाना बेकार की कोशिश है। मतलब यह नहीं कि ये सुधर नहीं सकते, जो सुधरेंगे, सो सुधरेंगे, और कहीं न कहीं हमारी भूमिका उसमें होगी। पर इसको ध्येय मानकर चलने में बेवकूफी हमारी। कोशिश करनी ही है तो हमें उनके लिए करनी चाहिए, जिन्हें जन-विरोधी व्यवस्थाओं ने दरकिनार रखा है, जो हम तक पहुँच नहीं पाए हैं।
शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रति शिक्षक जैसे जैसे बच्चों की संख्या बीस से ज्यादा बढ़ती है शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहता है। मेरा अपना अनुभव यह है कि तथाकथित अच्छे कान्वेंट स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का कारण स्कूल का बेहतर होना नहीं, बल्कि पालकों का अधिक सचेत होना है। स्कूल सिर्फ अनुशासन सिखाता है, जो स्व-शिक्षा में मदद नहीं करता, बाधक ज़रुर होता है। शिक्षा शास्त्री 'विंडोज़ अॉफ लर्निंग' की बात करते हैं, जिनमें उम्र के विभिन्न पड़ावों में सीखने के अलग-अलग मानदंड माने गए हैं। क्या सीखना है, कैसे सीखना है, इन सब बातों पर पिछली सदियों में बहुत शोध हुआ है, बहस भी बहुत हुई है।
कालेज विश्वविद्यालय स्तर पर आने तक, व्यक्ति सीखने की खिड़कियों को पार कर चुका होता है। अब समय है खुद यह जानने का कि मुझे क्या पढ़ना सीखना है। परीक्षा इसलिए नहीं कि स्कूल का डंडा है, इसलिए कि मुझे अपनी काबिलियत की समझ होनी चाहिए और दूसरों को भी मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि मैं कितना काबिल हूँ, ताकि मुझे सही काम मिल सके, जिससे मैं न केवल अपनी जीविका उपार्जन कर सकूँ, बल्कि आनंदपूर्ण जीवन भी व्यतीत कर सकूँ। यह बात समझ में आ जाए तो अध्यापक को किसी की उपस्थिति दर्ज़ करने की ज़रुरत नहीं। जिसने तय किया है कि मुझे सीखना है और उसे लगता है कि कक्षा में रहकर मैं कुछ सीख सकता हूँ, वह आएगा। कक्षा में बैठकर वह फालतू की बात नहीं करेगा, ध्यान से अध्यापक की बात सुनेगा। भारत में इस वक्त स्थिति यह है कि सुविधासंपन्न संस्थानों में अधिकतर छात्र इसलिए मौजूद हैं कि वे सुविधासंपन्न हैं। उनके माँ-बाप को चिंता होती है कि वह पढ़ लिख जाएँ और अपनी सुविधाएँ बढ़ाएँ और इस प्रयास में शिक्षा संस्थान जुट जाते हैं। इसलिए स्कूल का डंडा वाला दर्शन विराजमान रहता है। बाकायदा उपस्थिति दर्ज़ की जाती है। मुसीबत यह है कि कई युवा छात्र मजबूरी में कक्षा में बैठे होते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि उन्हें जो पढ़ाया जाता है, वह सीखना क्यों है।
बेहतर शिक्षक रोते रहते हैं कि कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए। उच्च शिक्षा में यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि सरकारें स्वयं आपसी मारकाट यानी हिंदुस्तान पाकिस्तान में पैसा खर्च करने में लगी रहती हैं; शिक्षा के लिए पैसे नहीं हैं; शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है, वगैरह वगैरह। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक यह यानी छात्रों की संख्या कम होनी न केवल वांछित है, बल्कि ज़रुरी है औेर चूँकि हमलोग निहायत पिछड़े हुए लोग हैं, इसलिए हमारी सरकारें हमारे संसाधनों को इस दिशा में न लगाकर ग़ोरी-अग्नि मिसाइलों वगैरह में लगाती रहती हैं। कोई तहलका की लूट खा लेता है, कोई बोफोर्स की।
बहरहाल विश्वविद्यालयों में माँ-बाप के पैसे खर्च कर कुछ मुश्टंडे मटरगश्ती करने आते हैं। ऐसी विभूतियों को पढ़ा पाना कठिन काम है। खासतौर पर ऐसे मुल्क में जहाँ करोड़ों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा से भी वंचित रखा जाता है, इन परजीवियों को पढ़ाने की नैतिक जिम्मेवारी किसी की भी नहीं हो सकती। इसलिए बेहतर अध्यापकों को मान लेना चाहिए कि उच्च स्तरीय पठन-पाठन में ब्राह्मणी बू यानी कि जिसे मैं अंग्रेज़ी में elitist exclusivity कहूँगा, से बचा नहीं जा सकता। हर कोई आइन्स्टाइन बनने की काबिलियत लेकर धरती पर आता है, पर हर कोई आइन्स्टाइन बन नहीं सकता। बिगड़ैल मुश्टंडों को बौद्धिक कर्म में लगा पाना बेकार की कोशिश है। मतलब यह नहीं कि ये सुधर नहीं सकते, जो सुधरेंगे, सो सुधरेंगे, और कहीं न कहीं हमारी भूमिका उसमें होगी। पर इसको ध्येय मानकर चलने में बेवकूफी हमारी। कोशिश करनी ही है तो हमें उनके लिए करनी चाहिए, जिन्हें जन-विरोधी व्यवस्थाओं ने दरकिनार रखा है, जो हम तक पहुँच नहीं पाए हैं।
1 comment:
लाल्टू सर।
आप तो बड़े वाले प्रोफेसर हैं :) अगर आपको कहीं हमारे वाईस चांसलर मिल जाएं तो उन्हें भी ये पढ़वा दीजिएगा। :(
विवशता में कक्षाओं में धकेल दिए गए अनिच्छुक विद्यार्थियों को पढ़ाना दोनों के लिए यातना है।
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