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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Thursday, April 19, 2007

यह भी अश्लील ही

प्रत्यक्षा की मेल आई कि हंस में कहानी आई है और कि ब्लॉग शांत पड़ा है। घर जाकर प्रत्यक्षा की कहानी पढ़ेंगे। फिलहाल चिट्ठागीरी की जाए। बेचैनी तो रहती है कि यह लिखें ओर वो लिखें पर ..........। होता यह है कि इसके पहले कि जरा सा वक्त निकाल पर कुछ लिखने की शुरुआत करें, उसके पहले ही कहीं कुछ और हो जाता है। पहले के खयाल इधर उधर भटकने लगते हैं और दूसरी चिंताएँ दिमाग में हावी हो जाती हैं। अब दो हफ्तों से सोच रहा था कि विज्ञान और मानविकी के इंटरफ़ेस यानी ये कहाँ जुड़ते हैं और कहाँ टूटते हैं पर हमारे यहाँ एक सम्मेलन हुआ, उस पर लिखें।

उस पर क्या उसमें जम कर हुई बकवास पर लिखें, पर इधर अमरीका के वर्जीनिया टेक में हुई दुर्घटना ने उस बेचैनी को इस बेचैनी से विस्थापित कर दिया। छिटपुट बेकार बातें, जैसे बी जे पी वालों का सीडी (इस शब्द को अंग्रेज़ी में पढ़ें) प्रकरण या धोनी ने धुना नहीं तो धोनी को धुन दो जैसी जाहिल बातें तो इस महान मुल्क में चलती ही रहती हैं, उनके बारे में सही बातें लिखकर अंजान भाइयों को दुःखी कर क्या लाभ! बहरहाल, थोड़ा सा पहले की चिंता पर लिखता हूँ।

विज्ञान के बारे में संशय और चिंता किसको नहीं होगी। एक राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में विज्ञान पर भारी भरकम लोगबाग आएँ तो उत्सुकता होती है कि चलें सुनें कि क्या पक रहा है, कुछ सीखें। एक जमाने में हम भी विज्ञान की दशा और दिशा पर बुनियादी सवाल कर कर अपने पंडित शिक्षकों को बड़ा परेशान किया करते थे। थोड़ा बहुत वैकल्पिक विज्ञान और विज्ञान के विकल्पों के बारे में बोलते लिखते भी रहे हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकों के सामाजिक स्तर पर जनविरोधी और निजी स्तर पर जीवनविरोधी पक्षों को लेकर काफी शोरगुल मचाते ही रहे हैं। पर पिछले कई सालों से समाजशास्त्रियों ने मुझे हताश किया है। ऐसा लगता है कि सैद्धांतिक स्तर पर विज्ञान की पिटाई किए बगैर कोई समाजशास्त्रीय सम्मेलन नहीं हो सकता।

यह नहीं कि विज्ञान की आलोचना नहीं होनी चाहिए। भई जब जमाना ही विज्ञान का कहलाता है तो यह तो बहुत ज़रुरी है कि विज्ञान की आलोचना सबसे अधिक होनी चाहिए। पर उस आलोचना के मानदंड क्या हों, इस बारे में लगता है कि कम से कम भारतीय समाजशास्त्रियों के पास कोई मसाला नहीं है। इसलिए आज भी वही बातें चलती रहती हैं, जो हमलोगों ने तीस साल पहले की हैं। बातों का एक समूह होता है कि विज्ञान की ऐसी तैसी - मसलन, देखो पुस्तक में लिख दिया कि कक्षा तीन में प्रयोग का निष्कर्ष यह है कि जब कि प्रयोग यूँ किया जाए तो यह दिखा - विज्ञान का घमंड देखो कि पुस्तक में यह लिखा ही नहीं। दूसरा समूह होता है कि कौन कहता है कि यह विज्ञान नहीं है और वो विज्ञान नहीं है; बैगन की चटनी बड़ी वैज्ञानिक है, हम कहते हैं; देखो अमरीकी वैज्ञानिकों की सभा ने प्रार्थना पर शोध के लिए साढ़े तीन हजार डालर दिए हैं, अब बोलो मियाँ कि प्रार्थना वैज्ञानिक प्रक्रिया कैसे नहीं है। अद्भुत बात यह कि इन अलग लगने वाली बातों के दोनों समूहों में शामिल लोग एक ही समूह के होते हैं। अब मेरे जैसा व्यक्ति यह सोचकर बैठा है कि कुछ ऐसी भी बातें होंगी कि भौतिक प्रक्रियाओं को आधार मानकर पद्धति की जो संरचना विज्ञान की मूलभूत नींव है, कुछ उसपर दार्शनिक आलोचना हो और मानविकी में कौन से पक्ष हैं जहाँ मानव की सृजनशीलता के नए आयाम हैं आदि आदि तो बैठे रहो लाल्टू। किस ने कहा था कि तुम्हें बैठना ही है।

एक जनाब हैं, हालैंड में पी एच डी की है। हम जब कालेज में थे, इलस्ट्रेटेड वीकली में उसका लिखा पढ़ते थे, बहुत कुछ सोचने की सामग्री होती थी - तो पहली बार जनाब का चेहरा देखा। बड़े आग्रह के साथ बैठा रहा कि सुनेंगे। लगभग संतावन साल के इस व्यक्ति ने बोला तो क्या बोला - अबे तबे की बोली में हमें यह जता दिया कि उसने हीगल, कांट, वांट सब पढ़ा है और उसे इस बात से बहुत नाराज़गी है कि बाकी लोग उनको पढ़ रहे हैं। मैं आधे घंटे तक यह अद्भुत दृश्य देखता रहा। वह व्यक्ति बोल रहा था। उसने कम से कम एक बार 'आसहोल' शब्द का प्रयोग किया, बाकी सभी शब्द अपेक्षाकृत कम अश्लील थे। कोई बात नहीं, मेरे एक चिट्ठे में 'अश्लील' शीर्षक कविता है, इसलिए यह तो हर कोई समझ सकता है कि आसहोल शब्द अपने आप में अश्लील मानूँ, ऐसा बेवकूफ मैं नहीं हूँ। पर वह व्यक्ति जब यह शब्द बोल रहा था, तो उसके बोले बाकी शब्दों की तरह यह भी अश्लील ही लगा। मैंने बाद में धीरे से पूछा कि महोदय आपको सचमुच बड़ी चिंता है कि इस देश के अकादमिक लोग जनविरोधी हैं (यानी कि वे उन सभी विचारकों को पढ़ना चाहते हैं जिनको आपने हमें जताया कि आप पढ़ चुके हैं), तो सर आप तो गोआ के हैं, आप वहाँ के लोगों की बोली यानी कोंकणी या अन्य प्रचलित भाषाओं में कुछ लिखते होंगे। गंभीरता से जवाब आया कि मैं कोंकणी में नहीं लिखता, पर अंग्रेज़ी में बोलना मैंने बंद कर दिया है। मैंने याद दिलाना ठीक नहीं समझा कि अब तक वह सिर्फ अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी के अलावा और कुछ नहीं बोल रहा था। मुझे सचमुच बहुत दुःख हो रहा था क्योंकि वहाँ मौजूद सभी लोग उस व्यक्ति से नया कुछ सुनना सीखना चाहते थे, पर वे सभी हताश हुए। पढ़ने के खिलाफ उसका एक वक्तव्य था कि साठ साल का व्यक्ति झोला लिए किताब की दुकान में क्यों जाता है, आखिर साठ साल के व्यक्ति ने नया क्या सीखना।

विज्ञान की पिटाई पर अपना बौद्धिक अस्तित्व बनाए रखने वाले लोग ऐसे ही होते हैं, बंद दिमाग, बंद खयाल। एक जनाब, दिल्ली वाला। अंग्रेज़ी में लिखता है, लोक संस्कृति पर चोटी का काम है, राष्ट्रीय समितियों में है। विज्ञान पर बड़े सवाल हैं उसके (साथ ही भरपूर अकादमिक संस्कृति लबालब -'मेज की दूसरी ओर बैठे मेरे परम मित्र उच्च कोटि के वैज्ञानिक और फलाँ फलाँ राष्ट्रीय समितियों में मुझे सत्य की दिशा में प्रेरणा देने वाले ....' - आ हा हा! सुन कर जी भर आता है); मसलन, त्सुनामी के दौरान अंदमान में जारवा जनजाति के लोग दौड़कर पहाड़ों में चले गए, इसके बारे में विज्ञान कुछ कयों नहीं कहता - वैज्ञानिक इसका अध्ययन क्यों नहीं करते? मैंने चायपान के वक्त बंदे को समझाने की कोशिश की - विज्ञान की संरचना और वैज्ञानिकों की राजनीति में बहुत कुछ तालमेल होता भी है पर सारा कुछ ही आपस में जुड़ा हुआ हो, ऐसा नहीं है। और यह मानना ठीक नहीं कि जनजातियों पर या उनके सदियों से संचित ज्ञान-भंडार पर कोई वैज्ञानिक शोध (भले ही कम या अपूर्ण) नहीं हुआ। पर मैं कौन? मेरा अनुभव यह है इस तरह के लोग जैसे ही यह जान जाते हैं कि इक्की - दुक्की बड़ी समितियों में मैं भी कभी कभी गलती से बैठता हूँ और मैंने भी हालैंड से नहीं, पर किसी ऐसे ही मुल्क से कभी कोई कागज़ का पुरदा आमद किया है, जिसके बल पर टका दो टका कमा लेता हूँ, तो इनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल भिन्न होती है।

एक बार जे एन यू के एक प्रोफेसर साहब ने तंग आकर मुझे कहा था कि इतना पैसा वैज्ञानिक शोध पर लगता है - क्या दिया है विज्ञान ने इस देश को? सब कुछ तो यहाँ बाहरी मुल्कों से आया हुआ है। सही संदर्भ में यह बात अर्थपूर्ण है - सही संदर्भ में । पर जब संदर्भ यह हो कि अब बोल क्या बोलेगा तो भई वह पंडित मुझे एक बच्चे से भी ज्यादा भोला लग रहा था। और क्या कहूँ - बार बार बेवकूफ शब्द का इस्तेमाल अच्छा नहीं लगता। खासकर जब यह तकलीफ होती है कि पैसा तो उधर के मुशर्रफ और इधर के जगजाहिर उसीके भाई बिरादर ले गए और बंदे को यह चिंता सता रही है कि वैज्ञानिक शोध पर पैसा क्यों! विज्ञान पढ़ना सीखना ज़रुरी हो - यह कहना मुश्किल है, पर अगर विज्ञान पढ़ना सीखना है, तो बंधु पैसे तो लगेंगे। अंग्रज़ी साहित्य पढ़ने से तो थोड़े ज्यादा ही लगेंगे।

सच यह है कि जमाना विज्ञान का कहने पर जो बोध होता है कि हर ओर विज्ञान हावी है - वह ठीक नहीं है। अगर बौद्धिक स्तर पर इस देश में कुछ हाशिए पर है तो वह विज्ञान है।
अभी अभी मैंने एक सौ अस्सी युवाओं को एक भौतिक विज्ञान का कोर्स पढ़ाना खत्म किया है। प्रसंगवश, पढ़ाते हुए कई बार 'बोस-आइन्स्टाइन स्टैटिस्टिकस' का जिक्र आया, जिससे जुड़े कुछ प्रयोगों के लिए हाल के वर्षों में दोबार नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं। बोस भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस था, जिसके मौलिक पर्चे को सुधार कर आइन्स्टाइन ने जर्मन भाषा में प्रकाशित करवाया था। परीक्षा में यूँ ही मैंने एक छोटा सा सवाल यह भी पूछ लिया कि क्वांटम स्टैटिस्टिकस के साथ जुड़े किसी भारतीय वैज्ञानिक का नाम लिखो। शायद एक बच्चे ने एस एन बोस लिखा है, कइयों ने सुभाष चंद्र बोस लिखा है। कुछेक ने चंद्रशेखर बोस भी लिखा है।

तो? तो यह कि ये आज के नेट सैव्ही हाई फाई तकनीकी संस्थानों में पढ़ रहे युवाओं के दिमागों में भी विज्ञान और वैज्ञानिक कम और बिग बी और संतोषी माँ ज्यादा हावी होते हैं।

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8 Comments:

Blogger मसिजीवी said...

हमने तो अभी ऐसी गोष्‍ठी सेमिनारों में जाना और पकना शुरू ही किया है पर फिर भी कह सकते हैं कि विज्ञान/मनोविज्ञान/ मानविकी की स्थिति कमोवेश वही है जो हिंदी साहित्‍य की है- ये अक्‍सर इसी अश्‍लीलता का अमर अपार्थिव पूजन होते हैं- पर मित्र लाल्‍टू ये हताशा तो समझ आती है पर देखना आशा बिल्‍कुल ही न छूट जाए :)

इतने दिनों बाद आपने लिखा अच्‍छा लगा

10:48 PM, April 19, 2007  
Anonymous Anonymous said...

लाल्टूजी,
सामाजिक कार्यकर्ताओं की अवैज्ञानिक सोच की ओर ध्यान दिलाने वाले और शिक्षकों के बीच कि.भा. जैसे कार्यक्रम चलाने वाले-फिलहाल सरकारी समितियों को विभूषित करने वाले एक सज्जन बार-बार कहते हैं,'इस फाइल का पीडीएफ़ भेजो तब पढ़ पाऊँगा'।

10:27 AM, April 20, 2007  
Anonymous Anonymous said...

ऊपर हिन्दी की चिट्ठा प्रविष्टियों की फाइल का हवाला है।

10:29 AM, April 20, 2007  
Blogger Atul Arora said...

" पैसा तो उधर के मुशर्रफ और इधर के जगजाहिर उसीके भाई बिरादर ले गए"

यह पंक्ति जोरदार लगी।

एक अनुरोध है, "आज के नेट सैव्ही हाई फाई तकनीकी संस्थानों में पढ़ रहे युवाओं के दिमागों में भी विज्ञान और वैज्ञानिक कम और बिग बी और संतोषी माँ ज्यादा हावी होते हैं।" इसमें से बिग बी का हावी होना तो समझ गया, अगर आपका तात्पर्य संतोषी माता के "इसे दस हजार लोगो को फारवर्ड करो वरना .." विषयक ईमेल में प्रकट होने के अलावा कुछ और है तो खुलासा करके बतायें । पूरा भरोसा है कि यह जरूर रोचक दास्तां होगी।

7:55 PM, April 20, 2007  
Blogger लाल्टू said...

अरे बाप रे! मुशर्रफ वाली लाइन का तो बहुत गलत अर्थ निकल सकता है। मेरा मतलब सामरिक-औद्योगिक-राजनैतिक-पूँजीवादी चौकड़ी से है, न कि किसी एक जाति या धर्म के लोगों से।

संतोषी मां वाली लाइन से भी गलत निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। निजी स्तर पर किसी की क्या आस्था है, मुझे इस पर कुछ कहने का हक नहीं है। सवाल यह है कि हमारी सोच पर किन विचारों का वर्चस्व है। वैज्ञानिक शोध पर चर्चा के लिए धार्मिक अनुष्ठान नहीं टाले जा सकते, पर इसके विपरीत धार्मिक अनुष्ठान की वजह से वैज्ञानिक शोध पर चर्चा टाला जाना आम बात है। वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर जो नहीं किया जाना चाहिए, ऐसे रिवाजों को सामाजिक अवरोध का सामना नहीं करना पड़ता, पर धार्मिक आस्था पर आधारित अमान्य बातों के (जिन्हें अक्सर स्वघोषित मुल्ला-पंडा लोग तय करते हैं) लिए सामाजिक अवरोध हर जगह हर वक्त हैं। कुल मिलाकर मेरा कहना यह है कि विज्ञान का जमाना कहने पर जिन विचारों/शक्तियों के वर्चस्व का बोध होता है, वह कहीं नहीं है। विज्ञान हाशिए पर है। बाकी अतुल, जिसे जो समझना है, वही समझेगा। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, चिट्ठागीरी मेरा आत्म-प्रलाप है। जचा तो बढ़िया, नहीं तो।।।।।।।।

10:53 AM, April 21, 2007  
Blogger azdak said...

कुछ-कुछ लिखते रहा कीजिये, महाराज.. शुक्रिया.. नमस्‍ते।

9:04 PM, April 24, 2007  
Anonymous Anonymous said...

Laltu dada,

Kafi dino baad ek baar phir rochak blog likhane ke liye badhai !

Lallan , Ambuj and other friends in Critique group , Panjab University

12:32 PM, April 26, 2007  
Anonymous Anonymous said...

लाल्टू भाई,
इस देश में मानविकी और विज्ञान एक-दूसरे की ओर पीठ किए बैठे हैं और आंख मींचे भजन कर रहे हैं. दोनों में कुछ बात-चीत शुरु हो तो बताइएगा . और यह भी बताइएगा कि बात-चीत हो किस भाषा में रही है .

4:33 PM, May 16, 2007  

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