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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, July 28, 2007

पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था

पहाड़-


पहाड़ को कठोर मत समझो
पहाड़ को नोचने पर
पहाड़ के आँसू बह आते हैं
सड़कें करवट बदल
चलते-चलते रुक जाती हैं


पहाड़ को
दूर से देखते हो तो
पहाड़ ऊँचा दिखता है


करीब आओ
पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा
पहाड़ के ज़ख्मी सीने में
रिसते धब्बे देख
चीखो मत


पहाड़ को नंगा करते वक्त
तुमने सोचा न था
पहाड़ के जिस्म में भी
छिपे रहस्य हैं।



पहाड़-


इसलिए अब
अकेली चट्टान को
पहाड़ मत समझो


पहाड़ तो पूरी भीड़ है
उसकी धड़कनें
अलग-अलग गति से
बढ़ती-घटती रहती हैं


अकेले पहाड़ का जमाना
बीत गया
अब हर ओर
पहाड़ ही पहाड़ हैं।



पहाड़-


पहाड़ों पर रहने वाले लोग
पहाड़ों को पसंद नहीं करते
पहाड़ों के साथ
हँस लेते हैं
रो लेते हैं
सोचते हैं
पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई
बाकी भी गुज़र जाएगी।

(1988; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित - आधार)

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4 Comments:

Blogger अफ़लातून said...

क्या बात है,लाल्टू !

11:45 AM, July 28, 2007  
Blogger Arun Arora said...

bahut shandar

11:55 AM, July 28, 2007  
Anonymous Anonymous said...

पहाड़ के दुख पहाड़ जैसे हैं . मैदान के अपने मैदानी दुख-सुख हैं . आपने बहुत संजीदगी से पहाड़ के दुखों को वाणी दी है .

आपने अपने ब्लॉग पर आत्मीयतावश मेरे ब्लॉग का लिंक दिया है . आभार प्रकट करता हूं . पर एक संशोधन है . मेरा चिट्ठा ब्लॉगस्पॉट पर न होकर वर्डप्रेस पर है . और उसका लिंक है :
http://anahadnaad.wordpress.com

6:33 PM, August 06, 2007  
Blogger The Campus News said...

कौन है इस जग में
जो दुखी न हो
पर अमूर्त चीज़ से भी जो दुखी हो
सच में वह महान है
धन्यवाद !

10:46 AM, November 23, 2007  

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