My Photo
Name:
Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, August 10, 2007

हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं

बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर कल हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।

तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।

निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर


मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे

पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में

जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से

देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर

एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।

(१९९५; समय चेतना १९९६)



तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।

5 Comments:

Blogger मसिजीवी said...

मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।

यदि वे कभी वे बहुसंख्‍यक हो जाएं तब भी हम विरोध में ही रहना पसंद करेंगे।

आइए हाथ उठाएं हम भी

10:56 AM, August 10, 2007  
Blogger रवि रतलामी said...

पोंगा पंथी????
जी नहीं. वे शातिर हैं. हद दर्जे के चतुर और चालबाज.

उन्हें पता है कि लोगों की भावनाओं को कैसे उकसाया जा सकता है और उससे वोट कैसे कबाड़े जा सकते हैं!

12:10 PM, August 10, 2007  
Blogger अप्रवासी अरुण said...

सब राजनीति का खेल है। जो लोग प्रगतिशील बनना भी चाहते हैं, उन्हें नेता बनने नहीं देंगे। मुद्दा तसलीमा के विरोध का नहीं, अपनी रोटियां सेंकने का है। - हम हैं हमारा

11:52 PM, August 14, 2007  
Anonymous Anonymous said...

लंबे समय बाद इन कविताओं को पढ़ कर भला लगा. कई साल हो गए, आपसे कोई संपर्क ही नहीं हो पाया. कुछ ताज़ा कविताएं हों तो ज़रुर भिजवाएं.
आलोक पुतुल, छत्तीसगढ़
alokputul@gmail.com

9:48 PM, August 17, 2007  
Blogger Unknown said...

how are you

4:42 AM, October 06, 2007  

Post a Comment

<< Home