Wednesday, August 15, 2007

एक दिन

एक दिन

जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे

साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक

भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ

गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)

2 comments:

Pratyaksha said...

बहुत अच्छा , खासकर अंतिम पैरा

मसिजीवी said...

और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक


हम्‍म सच ही