फिल्मों पर लिखना यानी टिप्पणियों की भरमार। एक शिकायत यह रही कि मैंने अपनी समझ के बारे में ज्यादा नहीं लिखा। भई, हिंदी में स्याही से तो लिख लेता हूँ, पर टाइप करने में अभी भी रोना आता है।
बहरहाल, उत्तर भारत में हिंदी क्षेत्रों में फिर आग भड़क उठी है। आरक्षण विरोधी दोस्त फिर से खूब बरस रहे होंगे। सचमुच स्थिति बड़ी जटिल है और बेचैन करने वाली है। बिल्कुल सही है कि आरक्षण की राजनीति को कहीं तो रुकना ही होगा। अगर गंभीरता से देखें तो इसी बेचैनी में ही आरक्षण नीति की जरुरत समझ में आती है। गैर बराबरी की व्यवस्था को बदलने के दो ही उपाय हैं - या तो संगठित विरोध से आमूल परिवर्त्तन या सरकार द्वारा उदारवादी नीतियों से परिवर्त्तन। अगर सरकार ईमानदार हो तो परिवर्त्तन में देर होने का कोई कारण नहीं है। पर मानव विकास सूची में पिछले दस सालों में १२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर पहुँचने वाली देश की सरकार को कोई कैसे ईमानदार कहे। जहाँ आधी जनता प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित है, वहाँ जनता के ऊपर आरक्षण जैसे जटिल विषय पर अपने आप सही निर्णय लेने का सवाल नहीं उठता। जबकि सुविधाएँ पाने की लड़ाई में सही निर्णय ऊपर से नहीं, अब तक दरकिनार और अब लड़ रहे लोगों से ही आए, तभी विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा हो सकता है।
दुर्भाग्य यह है कि भारत में सबसे पढ़े लिखे लोगों की पार्टी का नेतृत्व भी इस साधारण सी बात को समझने में बुरी तरह नाकाम है। इसलिए नांदीग्राम में विकास का निर्णय जन-प्रतिनिधियों ने नहीं, निहित स्वार्थों से प्रभावित पार्टी नेतृत्व ने करने की कोशिश की। पर वाम संस्कृति में फले फूले लोगों ने संगठित होकर लोगों को ताकत दी। पर राजस्थान और हिंदी क्षेत्र के दीगर इलाकों में, जहाँ निरक्षता आज भी व्यापक है, नेतृत्व अपेक्षाकृत भ्रष्ट और संकीर्ण सोच के लोगों के हाथों में है, इंसान की कीमत कितनी है? इसलिए मीणा और गुज्जर जो भी हों, उनके साथ काम कर रहे स्वैच्छिक संस्थाओं के साथियों पर (जो कि हजारों की तादाद में हैं) इस वक्त बड़ी जिम्मेवारी है कि वे भ्रष्ट राजनीति से लोगों को बचाएँ।
बहरहाल, उत्तर भारत में हिंदी क्षेत्रों में फिर आग भड़क उठी है। आरक्षण विरोधी दोस्त फिर से खूब बरस रहे होंगे। सचमुच स्थिति बड़ी जटिल है और बेचैन करने वाली है। बिल्कुल सही है कि आरक्षण की राजनीति को कहीं तो रुकना ही होगा। अगर गंभीरता से देखें तो इसी बेचैनी में ही आरक्षण नीति की जरुरत समझ में आती है। गैर बराबरी की व्यवस्था को बदलने के दो ही उपाय हैं - या तो संगठित विरोध से आमूल परिवर्त्तन या सरकार द्वारा उदारवादी नीतियों से परिवर्त्तन। अगर सरकार ईमानदार हो तो परिवर्त्तन में देर होने का कोई कारण नहीं है। पर मानव विकास सूची में पिछले दस सालों में १२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर पहुँचने वाली देश की सरकार को कोई कैसे ईमानदार कहे। जहाँ आधी जनता प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित है, वहाँ जनता के ऊपर आरक्षण जैसे जटिल विषय पर अपने आप सही निर्णय लेने का सवाल नहीं उठता। जबकि सुविधाएँ पाने की लड़ाई में सही निर्णय ऊपर से नहीं, अब तक दरकिनार और अब लड़ रहे लोगों से ही आए, तभी विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा हो सकता है।
दुर्भाग्य यह है कि भारत में सबसे पढ़े लिखे लोगों की पार्टी का नेतृत्व भी इस साधारण सी बात को समझने में बुरी तरह नाकाम है। इसलिए नांदीग्राम में विकास का निर्णय जन-प्रतिनिधियों ने नहीं, निहित स्वार्थों से प्रभावित पार्टी नेतृत्व ने करने की कोशिश की। पर वाम संस्कृति में फले फूले लोगों ने संगठित होकर लोगों को ताकत दी। पर राजस्थान और हिंदी क्षेत्र के दीगर इलाकों में, जहाँ निरक्षता आज भी व्यापक है, नेतृत्व अपेक्षाकृत भ्रष्ट और संकीर्ण सोच के लोगों के हाथों में है, इंसान की कीमत कितनी है? इसलिए मीणा और गुज्जर जो भी हों, उनके साथ काम कर रहे स्वैच्छिक संस्थाओं के साथियों पर (जो कि हजारों की तादाद में हैं) इस वक्त बड़ी जिम्मेवारी है कि वे भ्रष्ट राजनीति से लोगों को बचाएँ।
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