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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, December 23, 2007

चार कविताएँ: 7 दिसंबर 2007

सुंदर लोग

एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे
हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ

हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने
जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा
रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास
कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम
हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें
पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ

हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके
रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर
कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे
जो हमने उनको दिए हैं
जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ
सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ।

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कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है
कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है
हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है
व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं

साँड़ की नज़रों में
मौत महज कोई घटना है
इसलिए वह दनदनाता आता है
जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं
सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ

इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका

जीवनलाल जी
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।

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दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है

चिंता खाए जा रही है
जो रह गया प्लांक उसकी नियति क्या होगी

अनगिनत समीकरण सापेक्ष निरपेक्ष छूट रहे हैं
उन्मत्त साँड़ चीख रहा कि वह साँड़ नहीं शेर है
किशोर किशोरियाँ आतंकित हैं
प्रेम के लिए अब जगह नहीं
साँड़ के पीछे चले हैं कई साँड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार

आतंकित हैं वे सब जिन्हें जीवन से है प्यार
बार बार पूर्वजों की गलतियों को धो रहे हैं
ड्रेस्डेन के फव्वारों में

दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है।

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ये जो लोग हैं
जो कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं

अत्याचारी राजाओं के दरबारी सुंदर होते हैं
दरबार की शानोशौकत में वे छिपा रखते हैं
जल्लादों को जो इनके सुंदर नकाबों के पीछे होते हैं

धरती पर फैलता है दुःखों का लावा
मौसम लगातार बदलता है
सुंदर लोग मशीनों के पीछे नाचते हैं
अपने दुःखों को छिपाने की कोशिश करते हैं

सड़कों मैदानों में हर ओर दिखता है आदमी
फिर भी सुंदर लोग जानना चाहते हैं कि मनुष्य क्या है
सुंदर नकाब के पीछे छिपे जल्लाद से झल्लाया प्राणी
हर पल बेचैन हर पल उलझा
सच और झूठ की पहेलियाँ बुनता

ये सुंदर लोग हैं
ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं।

                      - (जनसत्ता 2008, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ - वाणी प्रकाशन 2012)

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8 Comments:

Blogger नीरज गोस्वामी said...

साँड़ के पीछे चले हैं कई साँड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार
वाह...वाह...वाह...शब्द और भाव का ऐसा संगम बहुत कम देखने को मिलता है. आप की चारों रचनाएँ बहुत बहुत बहुत अच्छी हैं.सोचने को मजबूर और फ़िर मन ही मन इंसान को शर्मिंदा करती हुई.बधाई
नीरज

1:31 PM, December 23, 2007  
Blogger Sanjeet Tripathi said...

वाकई

2:13 PM, December 23, 2007  
Blogger अमिताभ मीत said...

क्या बात है भाई. बहुत गहरी, बहुत संजीदा, बहुत उम्दा बातें. मुझ से बेहिस इंसान को भी सोचने पर आमादा कर दिया आप ने. बधाई.

6:35 PM, December 23, 2007  
Anonymous Anonymous said...

u r best up to abject limit....Happy New year 2008..

11:37 AM, December 31, 2007  
Anonymous Anonymous said...

ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं.
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।

वाकई बहुत अच्छी रचनाएँ.बधाई.

8:11 PM, January 08, 2008  
Blogger Arun Aditya said...

ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं.
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।

वाकई बहुत अच्छी रचनाएँ.बधाई.

8:19 PM, January 08, 2008  
Blogger Vachak said...

"अत्याचारी राजाओं के दरबारी सुंदर होते हैं"
वाकई, चेहरे के आवरण में कुटिलता तो छुप ही जाती है ..

7:59 PM, April 15, 2014  
Blogger azdak said...

पढ़े.

10:51 PM, April 15, 2014  

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