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Showing posts from 2007

चार कविताएँ: 7 दिसंबर 2007

सुंदर लोग एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे जो हमने उनको दिए हैं जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ। --------------------------------------------------- कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं साँड़ की नज़रों में मौत महज कोई घटना है इसलिए वह दनदनाता आता है जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका जीवनलाल जी यह हमारे अंदर उन...

गानों का धक्का

गानों का धक्का गर्मियों में गाने लगे भीष्मलोचन शर्मा - वाणी उनकी हल्ला बोले दिल्ली से बर्मा! लगा जान की बाजी गाए, जी जान लगा के गाए, भागें लोग चारों ओर, भन भनन सिर चकराए। मर रहे कई जख्मी हो, कई तड़पें हो आहत चीख रहे, "गई जान, रोको गान फटाफट।" बंधन तोड़े, भैंसे घोड़े, सड़क किनारे गिरे; भीष्मलोचन तान ताने, नज़र न उनको पड़े। उलट चौपाए जन्तु सारे, गिर रहे हो मूर्छित, टेढ़ी दुम, होश गुम, बोले गुस्से में "धत् छिः।" जल के प्राणी, हो हैरानी, गहरे डूबे चुपचाप, वृक्ष वंश, हुए ध्वंस, बेशुमार झपझाप। खाएँ चक्कर, मारें कुलाटी, हवा में पक्षी सारे, सभी पुकारें, "बस करो दादा, थामो गाना प्यारे।" गाने की दहाड़, आस्माँ को फाड़, आँगन में भूकंप, भीष्मलोचन गाए भीषण, दिल खुशी से हड़कंप। उस्ताद मिला टक्कर का, इक बकरा हक्का बक्का, गीत के ताल में पीछे से, मारा सींग से धक्का। फिर क्या था, एक बात में, पड़ा गान पर डंडा, "बाप रे", कहकर भीष्मलोचन हो गए बिल्कुल ठंडा। - मूलः सुकुमार राय (आबोल ताबोल)

ये लोग न हों तो मेरा जीना ही संभव न हो।

हड्डियाँ चरमरा रही हैं। कल जबकि औपचारिक रुप से मैं बूढ़ा हो गया, उसी दिन संस्थान को अपना स्पोर्ट्स डे करना था। ज़िंदगी में पहली बार शॉटपुट, रीले रेस और ब्रिस्क वाक रेस में हिस्सा लिया। और जिसका अंदाज़ा था वही हुआ। लैक्टिक अम्ल के अणुओं ने तो जोड़ों में खेल दिखाना था, सारे बदन में बुखार सा आया हुआ है। वैसे कल मानव अधिकार दिवस भी था और कल ही के दिन नोबेल पुरस्कार भी दिए जाते हैं। मेरी एक मित्र जो हर साल बिला नागा मुझे इस दिन बधाई देती है, जब उसका संदेश नहीं आया तो चिंता हुई कि कुछ हुआ तो नहीं। हमउम्र है। अकेली है। नितांत भली इंसान है, धार्मिक प्रवृत्ति की और सोचकर यकीन नहीं होता, तीन बार तलाक शुदा है। तो संक्षिप्त मेल भेजी -क्या हुआ, कहाँ हो। तुरंत जवाब आया - टेलीपैथी से बधाई भेज तो दी थी। जानकर अच्छा लगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। अब इस पड़ाव पर आकर यही सहारा होगा। जब भी अवसाद आ घेरेगा, तो खुद को याद दिलाऊँगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। यह अलग बात है कि दिल जो है चोर, हमेशा ही माँगे मोर। हद यह कि मुझे बिल्कुल याद नहीं रहता कि किसी को कभी बधाई भेजनी...

स्ज़ाबो वायदा

हैदराबाद फिल्म क्लब के शो अधिकतर अमीरपेट में सारथी स्टूडिओ में होते हैं। मुझे वहाँ पहुँचने में वक्त लगता है, इसलिए आमतौर पर फिल्में छूट ही जाती हैं। इस महीने किसी तरह तीन फिल्में देखने पहुँच ही गया। इनमें एक हंगरी के विख्यात निर्देशक इस्तवान स्ज़ाबो की '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' थी और दूसरी पोलैंड के उतने ही प्रख्यात निर्देशक आंद्रस्ज़े वायदा की 'प्रॉमिज़ड लैंड' । मुझे वायदा की फिल्म हमारे समकालीन प्रसंगों में, खासतौर पर वाम दलों की राजनीति के संदर्भ में सोचने लायक लगी। हालांकि कहानी पूँजीवाद के शुरुआती वक्त की है, न कि आधुनिक पूँजीवाद की, पर मूल्यों के संघर्ष की जो अद्भुत तस्वीर वायदा ने पेश की है, उसमें बहुत कुछ समकालीन संदर्भों से जुड़ता है। कहानी में कारोल नामक एक अभिजात पोलिश युवा अपने एक जर्मन और एक यहूदी मित्र क साथ मिल कर अपनी फैक्ट्री बनाने के लिए संघर्ष करता है। एक शादीशुदा औरत के साथ संबंध की वजह से अंततः उसकी फैक्ट्री में आग लगा दी जाती है। एक के बाद एक समझौते करता हुआ वह शहर का प्रतिष्ठित संपन्न व्यक्ति बन ही जाता है। फिल्म के अंत में दबे कुचले श्रमिकों के संग...

चुल्लू भर पानी में डूबने लायक भी नहीं

याद यही था कि फैज़ का लिखा है, पर जब 'सारे सुखन हमारे' में ढूँढा तो मिला नहीं, मतलब मिस कर गया। आखिर जिससे पहली बार सुना था, मित्र शुभेंदु , जिसने इसे कंपोज़ कर गाया है, उसी से दुबारा पूछा। शुभेंदु ने यही बतलाया कि फैज़ ने लिखा है और शीर्षक है 'दुआ'। अब सही लफ्ज़ के लिए घर से 'सारे सुखन...' लाना पड़ेगा, फिलहाल जो ठीक लगता है, लिख देते हैं: आइए हाथ उठाएँ हम भी हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा कोई बुत कोई खुदा याद नहीं तो यह तो उस जनाब के लिए जिसे आइए हाथ उठाएँ हम भी पर जरा पता नहीं इतराज है क्या है, उसे पैर उठाने की चिंता है। क्या कहें, अच्छा ज्ञान बाँटा है। बहुत पहले जब एम एस सी कर रहा था, क्लास में शैतान लड़कों में ही गिना जाता होऊँगा; एक बार अध्यापक के किसी सवाल का जवाब देने बोर्ड पर कसरत कर रहा था। कुछ लिख कर उसे मिटाने के लिए हाथ का इस्तेमाल किया तो अध्यापक ने चिढ़ के साथ कहा था - ... जल्दी ही मिटाने के लिए पैरों का भी इस्तेमाल करने लगोगे। यह बतलाने के लिए कि बोर्ड पर लिखे को मिटाने के लिए डस्टर उपलब्ध है, सर ने व्यंग्य-बाण चल...

स्मृति में प्रेम

पच्चीस साल से मैं इंतज़ार कर रहा था, जाने कितने दोस्तों से कहा था कि डोरिस लेसिंग को नोबेल मिलेगा। आखिरकार मिल ही गया। 'चिल्ड्रेन अॉफ व्हायोलेंस' शृंखला में तीसरी पुस्तक 'लैंडलॉक्ड' से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। जाने कितनों को वह किताब पढ़ाई। अब फिर पढ़ने को मन कर रहा है, पता नहीं मेरी वाली प्रति किसके पास है। वैसे तो किसी भी अच्छी किताब में कई बातें गौरतलब होती हैं, पर स्मृति में मार्था और एक पूर्वी यूरोपी चरित्र था, जिसका नाम याद नहीं आ रहा, उनका प्रेम सबसे अधिक गुँथा हुआ है। मुझे अक्सर लगा है कि डोरिस ने हालाँकि साम्यवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ काफी कुछ कहा लिखा है, 'लैंडलॉक्ड' में क्रांतिमना साम्यवादिओं के गहरे मानवतावादी मूल्यों की प्रतिष्ठा ही प्रमुख दार्शनिक तत्व है। शायद इसी वजह से डोरिस को पुरस्कार मिलने में इतने साल भी लगे।

मंगल मंदिर खोलो दयामय

गाँधी जी के जन्मदिन से दो दिन पहले एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में साबरमती आश्रम में गाए गीतों का गायन सुना। हमारे सहयोगी संगीत शिक्षक वासुदेवन ने खुद ये गीत गाए। बड़ा मजा आया। वैष्णो जन और रघुपति राघव जैसे आम सुने जाने वाल गीतों के अलावा छः सात गीत और भी थे, जिनमें मुझे सबसे ज्यादा 'मंगल मंदिर खोलो दयामय' ने प्रभावित किया। मेरा अपना कोीई खुदा नहीं है, पर संगीत के जरिए मैं भक्तिरस में डूब पाने वालों का सुख समझता हूँ। यानी मेरे लिए संगीत का जो भी अनपढ़ आनंद है, वह, और कविता का आनंद, यही बहुत है। ईश्वर की धारणा से जिनको अतिरिक्त सुकून मिलता है, वे खुशकिस्मत होंगे। ऊपर की पंक्तियाँ लिखने के बाद दो दिन बीत गए। इस बीच कैंपस में एक बड़ी दुःखद घटना हो गई। हमारे कैंपस में युवा विद्यार्थी बहुत संयत माने जाते हैं। पिछले आठ सालों में, जब से संस्थान बना है, ऐसी कोई दुःखद घटना नहीं हुई थी। हम सब लोग मर्माहत और उदास हैं। कल अॉस्ट्रेलिया वाला क्रिकेट मैच है और शहर में लोगों को खेल का बुखार चढ़ा हुआ है। पर शहर तो शहर है, बुखार हो या खुमारी, सीधा टेढ़ा चलता ही रहता है। बहुत ही खराब ट्रैफिक का यह श...

माई मेरे नैनन बान परी री

मज़ा गालियों का आना था, पर बहुत दिनों के बाद मैं भरपूर रोया। वैसे तो गाली गलौज़ से मुझे चिढ़ है, पर कहानी कविताओं में सही ढंग और सही प्रसंग में गालियों का इस्तेमाल हो, तो कोई दिक्कत नहीं, बिना गालियों के कई बार बात अधूरी लगती है या कहानियों में चरित्र अधूरे लगते हैं। तो गालियों के सरताज राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'ओंस की बूँद' पढ़ रहा था। 'आधा गाँव' और 'टोपी शुक्ला' कई साल पहले पढ़े थे। 'ओंस की बूँद' खरीदे भी कई साल हो गए, पर पढ़ा नहीं था। पढ़ने लगा तो आँसू हैं कि रुकते नहीं। भेदभाव की राजनीति से आम इंसानी रिश्तों में जो दरारें आती हैं, शायद ऐसी सभी विड़ंबनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मुझे सांप्रदायिक कारणों से उपजी स्थितियाँ करती हैं। 1979 में रामनवमी के दिनों में जमशेदपुर में दंगे हुए, एक जगह थी जिसका नाम था 'भालोबासा'; बांग्ला का शब्द है, अर्थ है प्यार। वहाँ ऐम्बुलेंस में छिपा कर ले जाए जा रहे बच्चों औरतों को दरिंदों ने निकाल कर मारा था। अपने एक मित्र को इस बात का जिक्र कर खत लिखते हुए मैं यूँ रो पड़ा था कि खत भीग गया था। रोने की पुरानी आदत ह...

इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी

मेरा औपचारिक नाम मेरे पैतृक धर्म को उजागर करता है। मेरे पिता सिख थे। बचपन से ही हम लोगों ने सिख धर्म के बारे में जाना-सीखा। विरासत में जो कुछ भी मुझे सिख धर्म और आदर्शों से मिला है, मुझे उस पर गर्व है। माँ हिंदू है तो घर में मिलीजुली संस्कृति मिली। अब मैं धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता और वैज्ञानिक चिंतन में प्रशिक्षित होने और विज्ञान-कर्मी होते हुए भी सचमुच के धार्मिक लोगों का सम्मान करता हूँ। हाल में तीन सिख छात्र मेरे पास आए और उन्होंने गुजारिश की कि मैं होस्टल में एक कमरा उन्हें दिलवाने में मदद करुँ, जहाँ सिखों के धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहब जी' से जुड़ी कुछ साँचियाँ रखी जा सकें। मुझे चिंता हुई कि यह बड़ा मुश्किल होगा, होस्टल में कमरा मिलना कठिन है, फिर एक धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐेसा हो तो औरों के लिए भी करना होगा। सभी के लिए कमरा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर किसी की सँभाल में जरा भी गफलत हुई तो समस्या हो सकती है। मैं जिस संस्थान में अध्यापक हूँ, वह भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के शीर्षतम शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। स्वाभाविक है, कागजी तौर पर हमारे छात्र देश के सबसे बेहत...

सात कविताएँ: 1999

यह भी। सात कविताएँ १ वह जो बार बार पास आता है क्या उसे पता है वह क्या चाहता है वह जाता है लौटकर नाराज़गी के मुहावरों के किले गढ़ भेजता है शब्दों की पतंगें मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है वैसे ही लिखनी है उस पर भी मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की चाँदनी में लौटते हुए एक चाँद उसके लिए देखता हूँ चाँदनी हम दोनों को छूती पार करती असंख्य वन-पर्वत बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों को पार करती चाँदनी उस पर कविता लिखते हुए लिखता हूँ तांडव गीत तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो। २ कराची में भी कोई चाँद देखता है युद्ध सरदार परेशान ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है। आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे। ३ चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं फिर...

सब्र की सीमाएँ तोड़ने की हर कोशिश होगी - आखिरकार दरिंदों की हार होगी

हैदराबाद के धमाके सुर्खियों में हैं। बचपन में कोलकाता में नक्सलबादी आंदोलन के शुरुआती दिनों में जब सुनते थे कि दूर कहीं कोई बम फटा है, तो दिनभर की चहल-पहल बढ़ जाती थी। मुहल्ले में लोगबाग बातचीत करते थे। बाद में बांग्लादेशी छात्रों से सुना था कि ढाका में शहर में मिलिट्री टैंकों के बीच में लोगों का आम जीवन चलता होता था। और भी बाद में बम-धमाकों की खबरें सुनने की आदत हो गई। इसकी भी आदत हो गई कि हमारे समय में एक ओर हिंसा के विरोध में व्यापक सहमति बनी है तो वहीं दूसरी ओर कुछ असहिष्णु लोगों की जमातें भी बन गईं हैं। इसलिए कल जब बेटी सवा आठ बजे अपने एक दोस्त के साथ लिटल इटली रेस्तरां में खाने के लिए निकली और इसके तुरंत बाद एन डी टीवी पर चल रहा बी जे पी के रुड़ी और सी पी आई के राजा की बहस का कार्यक्रम रोक कर ताज़ा खबर में शहर में धमाकों की खबर घोषित हुई तो भी झट से बेटी को फोन नहीं किया। जब तक किया तब तक वह रेस्तरां पहुँच चुकी थी। और फिर डेढ़ घंटे बाद ही लौटी। यह ज़रुर है कि सुबह मेल वगैरह देखने दफ्तर आया और बिल्डिंग के ठीक सामने एक बड़ा सा मांस का टुकड़ा फिंका दिखा तो तुरंत सीक्योरिटी को बुलाकर...

एक दिन

एक दिन जुलूस सड़क पर कतारबद्ध छोटे -छोटे हाथ हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे लड्डू बर्फी के लिफाफे साल में एक बार आता वह दिन कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा और बन गया दादी के अंधविश्वासों सा मजाक भटका हुआ रीपोर्टर छाप देता है सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे जिनके लिए हर दिन एक जैसा उन्हीं के बीच मिलता महानायकों को सम्मान एक छोटे गाँव में अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप पहनता मालाएँ गुस्से के कौवे बीट करते पाइप पर बंधा झंडा आस्मान में तड़पता कटी पतंग सा एक दिन को औरों से अलग करने को। (१९८९- साक्षात्कारः १९९२)

हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं

बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर कल हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया। मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है। तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी। निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए जैसे चूमा खुद को भीड़ में से ...

पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था

पहाड़ - १ पहाड़ को कठोर मत समझो पहाड़ को नोचने पर पहाड़ के आँसू बह आते हैं सड़कें करवट बदल चलते - चलते रुक जाती हैं पहाड़ को दूर से देखते हो तो पहाड़ ऊँचा दिखता है करीब आओ पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा पहाड़ के ज़ख्मी सीने में रिसते धब्बे देख चीखो मत पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था पहाड़ के जिस्म में भी छिपे रहस्य हैं। पहाड़ - २ इसलिए अब अकेली चट्टान को पहाड़ मत समझो पहाड़ तो पूरी भीड़ है उसकी धड़कनें अलग - अलग गति से बढ़ती - घटती रहती हैं अकेले पहाड़ का जमाना बीत गया अब हर ओर पहाड़ ही पहाड़ हैं। पहाड़ - ३ पहाड़ों पर रहने वाले लोग पहाड़ों को पसंद नहीं करते पहाड़ों के साथ हँस लेते हैं रो लेते हैं सोचते हैं पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई बाकी भी गुज़र जाएगी। (1988; ' एक झील थी बर्फ की ' में संकलित - आधार )

बीमारी

कल पेट खराब था, आज गला खराब है। हो सकता है, दोनों एक ही बीमारी की पहचान हों। हमारे यहाँ साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं, इसलिए एक फिल्टर लगा रखा है। बाल्टी में पानी भर के उसे पंप से फिल्टर से पास कर साफ करते हैं। उसपर भी बहुत ध्यान देते नहीं, सुस्ती मार जाती है। इसलिए कहीं से मौसमी जीवाणु शरीर में घुस गए हैं। वैसे मुझे लगता है कि कुछेक ऐसे भाई लोग हमेशा से मुझसे मुहब्बत कर बैठे हैं। जब जब भी किसी वजह से शरीर पर ज्यादा बोझ पड़ता है और शरीर थक कर अँगड़ाइयाँ लेता है, ये लोग उछल कूद मचाने लगते हैं। दिन को घर से चालीस किलो मीटर दूर विज्ञान व प्राद्यौगिकी विभाग की सभा में था, शाम लौटे तो सिर, पेट दुख रहा था। बदन में थकान और बीमारी का अहसास। रात को कुछ खाया नहीं और दुखते पेट को सहलाता रहा। सुबह पेट से जरा राहत मिली तो गला खराब है। बदन भी लेटना चाहता है। चलो, यह भी सही। आमतौर से दवा लेता नहीं हूँ, शायद इस बार लेनी पड़े। कई बार मुझे लगता है कि ऐसी बीमारियाँ बीच बीच में होती रहनीं चाहिए। इससे व्यस्त जीवन से अलग कुछ करने का मौका मिलता है; और कुछ नहीं तो लेटे लेटे आदमी कुछ कहानी कविताएँ ही पढ़ ले...

वापस कविता आदि

हिंदी में टाइप करने की दिक्कत को लेकर सुझाव आए हैं| मैं आमतौर पर लीनक्सवादी हूँ| मामला बडा सीधा है| बिल गेट्स को और धनी बनाने की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अपने दफ्तर में लीनक्स और फेदोरा पर इंटर/इंटरानेट इनपुट मेथड से फोनेटिक हिंदी की आदत बना ली| हालांकि टंकन की गति अंग्रेजी की तुलना में कम है| कहीं और जाते हैं, तो विंडोज वाला सिस्टम थमा देते हैं तो ले लेता हूँ| स्वभाव का मारा हूँ| ज्यादा माँग नहीं रखता| पर फिर किसी नए फांट की आदत डालनी पड़ती है| अब फायरफाक्स के ऐड आन का इस्तेमाल कर रहा हूँ| इसमें ड़ ढ़ नहीं हैं| हर बार ड़ ढ़ लिखते हुए कहीं से कापी पेस्ट करना पड़ता है| इस बारे में कोई शक नहीं कि हिंदी में टाइप करने की आदत रही होती तो काफी लिखते| बहरहाल, हाल में हिंदी कविता पर जो बहस चल रही है, वह कुछ लोगों पर केंद्रित है और निश्चित रुप से दु:खदायी है| कुछ बातें जो सामान्यत: कही जा सकती हैं, उन्हें लिख रहा हूँ: १. आज की कविता का उद्गम पारंपरिक कविता है, पर अपने स्वरुप और मिजाज में वह बिल्कुल अलग है| जिस तरह हमारी मध्य वर्गीय जिंदगी में परंपरा की जगह कम होती जा रही है, कविता में भी...

ढंग का कुछ लिखो|

आखिर हिंदी में लिखना चाहते हुए भी हिंदी टाइप करने से चिढ़ता क्यों हूँ? दफ्तरी काम में सारे दिन कीबोर्ड चलाते हुए इतनी बोरियत होती है कि फिर मन की बातें अलग इनपुट से टाइप करने में दिक्कत आती है| समय लगता है| सिर्फ इतना ही है क्या? हिंदी में लिखना कभी भी आसान नहीं रहा| एक तो हिंदी क्षेत्र में न रहने और दिन भर अंग्रेजी की वजह से भाषा पर नियंत्रण कठिन है| फिर अलग अलग फांट की समस्या| कई बार लगता है कि अंग्रेजी में लिखना शुरु करें| एक दो बार कोशिश भी की, पर मजा नहीं आया| पर सबसे बड़ी समस्या शायद हिंदी क्षेत्र के सांस्कृतिक विरोधाभासों की है| इन दिनों अचानक कविता और साहित्य को लेकर भयंकर मारामारी है और ऐसे में हर कोई 'holier than thou' कहता उछलता नजर आता है| इसी बहाने मुझे कई नए पुराने चिट्ठे पढ़ने का मौका मिला और अच्छा यह लगा कि इतने सारे ब्लाग हिंदी में हैं| तकलीफ यह कि खुद कैसे इस दंगल में कोई सार्थक पहल करें समझ में नहीं आता| अंतत: एक साथी कवि के साथ खुद से भी यही कह रहा हूँ - समय मिले तो ढंग का कुछ लिखो| कल लंदन और दो दिनों बाद भारत लौट रहा हूँ|

सिर्फ फोटू

युवा कवि मोहन राणा के साथ| मोहन बाथ में रहता है और ये तस्वीरें उसने अपने मोबाइल फोन के कैमरे पर लीं| स्टैचू नाविक जान कैबट है - १४९७ में ब्रिस्टल से चला और उत्तरी अमरीका जा पहुँचा| पीछे इमारत ब्रिस्टल के कला और संस्कृति के केंद्र आर्नोलफीनी की है| आर्नोलफीनी मध्यकालीन पश्चिमी कला में काफी विवादित नाम है| मेरे हाथ में लिफाफे में मोहन के दो कविता संग्रह हैं, जिनमें एक ताजा 'पत्थर हो जाएगी नदी' है|

सुनील के ताजा चिट्ठे की प्रतिक्रिया में एमा गोल्डमैन

वैसे तो छुट्टी पर हूँ| पर सुनील के ताजा चिट्ठे की प्रतिक्रिया में पेश है, मेरी प्रिय अराजक चिंतक एमा गोल्डमैन की १९०८ की स्पीच: What Is Patriotism? by Emma Goldman 1908 San Francisco, California Men and Women: What is patriotism? Is it love of one's birthplace, the place of childhood's recollections and hopes, dreams and aspirations? Is it the place where, in childlike naivete, we would watch the passing clouds, and wonder why we, too, could not float so swiftly? The place where we would count the milliard glittering stars, terror-stricken lest each one "an eye should be," piercing the very depths of our little souls? Is it the place where we would listen to the music of the birds and long to have wings to fly, even as they, to distant lands? Or is it the place where we would sit on Mother's knee, enraptured by tales of great deeds and conquests? In short, is it love for the spot, every inch representing dear and precious recollections of a happy, joyous and play...

छुट्टी

कुछ निजी कारणों से फिर एकबार चिट्ठागीरी से छुट्टी ले रहा हूँ। कुछ समय बाद फिर हाजिर होंगे। कारण? समय, अवस्था - कुछ भी तो कारण हो सकते हैं। शायद, ... शायद वैसे गलत शब्द है। मेरे युवा दोस्तों को पता है कि मैं शायद या पर फिर यहाँ तक कि और आदि से भी चिढ़ता हूँ। शायद कुछ नहीं होता। जो होता है वही होता है।

१२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर

फिल्मों पर लिखना यानी टिप्पणियों की भरमार। एक शिकायत यह रही कि मैंने अपनी समझ के बारे में ज्यादा नहीं लिखा। भई, हिंदी में स्याही से तो लिख लेता हूँ, पर टाइप करने में अभी भी रोना आता है। बहरहाल, उत्तर भारत में हिंदी क्षेत्रों में फिर आग भड़क उठी है। आरक्षण विरोधी दोस्त फिर से खूब बरस रहे होंगे। सचमुच स्थिति बड़ी जटिल है और बेचैन करने वाली है। बिल्कुल सही है कि आरक्षण की राजनीति को कहीं तो रुकना ही होगा। अगर गंभीरता से देखें तो इसी बेचैनी में ही आरक्षण नीति की जरुरत समझ में आती है। गैर बराबरी की व्यवस्था को बदलने के दो ही उपाय हैं - या तो संगठित विरोध से आमूल परिवर्त्तन या सरकार द्वारा उदारवादी नीतियों से परिवर्त्तन। अगर सरकार ईमानदार हो तो परिवर्त्तन में देर होने का कोई कारण नहीं है। पर मानव विकास सूची में पिछले दस सालों में १२७वें स्थान से १२६वें स्थान पर पहुँचने वाली देश की सरकार को कोई कैसे ईमानदार कहे। जहाँ आधी जनता प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित है, वहाँ जनता के ऊपर आरक्षण जैसे जटिल विषय पर अपने आप सही निर्णय लेने का सवाल नहीं उठता। जबकि सुविधाएँ पाने की लड़ाई में सही निर्णय ऊपर...

मरने से पहले जो पचास फिल्में जरुर देखनी हैं

मरने से पहले जो पचास फिल्में जरुर देखनी हैं - रविवार की रात टी वी पर यह प्रोग्राम था| तकरीबन आधी मैंने देखी हैं| शुकर है कि चयनकर्त्ताओं से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ, नहीं तो चैन से न मर पाने की चिंता होती| मैंने जो देखी हुईं थीं, उनमें एक दो को छोड़ बाकी सारी नब्बे से पहले की हैं| चूँकि चयनकर्त्ता आलोचक ब्रिटेन और अमरीका के थे, इसलिए ज्यादातर फिल्में पश्चिम की थीं| सारी याद नहीं, इसलिए नेट से ढूँढ कर सूची निकाली है: 1 Apocalypse Now 2 The Apartment 3 City of God 4 Chinatown 5 Sexy Beast 6 2001: A Space Odyssey 7 North by Northwest 8 A Bout de Souffle 9 Donnie Darko 10 Manhattan 11 Alien 12 Lost in Translation 13 The Shawshank Redemption 14 Lagaan: Once Upon A Time in India 15 Pulp Fiction 16 Touch of Evil 17 Walkabout 18 Black Narcissus 19 Boyzn the Hood 20 The Player 21 Come and See 22 Heavenly Creatures 23 A Night at the Opera 2 4 Erin Brockovich 25 Trainspotting 26 The Breakfast Club 27 Hero 28 Fanny and Alexander 29 Pink Flamingos 30 All About Eve 31 Scarface 32 Terminator ...

दो बढ़िया फिल्में

पिछले दो दिनों में दो बढ़िया फिल्में देखीं| पहली आलेहांद्रो गोन्सालेज इनारीतू की 'आमोरेज पेरोस (प्रेम एक कुतिया है)' और दूसरी जाक्स देरीदा पर किर्बी डिक और एमी त्सियरिंग कोफमान का वृत्तचित्र| पहली फिल्म मेक्सिको की समकालीन परिस्थितियों पर आधारित तीन अलग-अलग किस्मत के मारे व्यक्तियों की कहानी है| शुरू से आखिर तक फिल्म ने मुझे बाँधे रखा - जो कि इन दिनों मेरे साथ कम ही होता है| प्रेम, हिंसा और वर्ग समीकरणों का अनोखा मिक्स, जो अक्सर मेक्सिको व दक्षिण अमरीका की फिल्मों में होता है, इसमें है| इंसानी जज्बातों और अंतर्द्वंदों को दिखलाने के लिए कुत्तों का बढ़िया इस्तेमाल किया गया है| देरीदा पर बनी फिल्म भी बहुत अच्छी लगी| खूबसूरती यह है कि देरीदा जो कहता है उसमें अब नया कुछ नहीं लगता - लगता है यह सब तो हम लंबे अरसे से सोच रहे हैं, पर धीरे धीरे बातें जेहन तक जाती हैं और अचानक ही लगता है कि ये बातें ठीक ऐसे कही जानी चाहिए; पर पहले किसी ने इस तरह कहा नहीं| देरीदा की सबसे बडी सफलता भी यही है कि सुनने वाले को उसकी बातें सहज सत्य लगें| डीकंस्ट्रक्सन की धारणा पर देरीदा बार बार कहता है कि...

हा, हा, भारत दुर्दशा देखी न जाई!

पुरानी ही सही, कुछ बातें अद्भुत ही होती हैं। चेतन ने गाँठ या गाँठों पर यह लिंक भेजी है। रमण बतलाएगा कि लिंक भेजा जाता है या भेजी। मेरे भेजे में फिलहाल गाँठ पड़ी हुई है। शुक्र है कि यह गाँठ ऐसी नहीं है, जैसी ये है : देखिये जी, कलाकार माने क्या यह होता है कि वह हरिश्चद्र होते हैं या आम आदमी से ज्यादा अधिकार उनके होते हैं? आप सारी अपने मन माफिक हुकूमतों को गिना सकते हैं जहां सुख चैन है - किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होता. या जैसा कि (साभार: युवा मित्र प्रणव) चंदन मित्रा के भेजे में है: बंदा किसी दक्षिणपंथी दल का नेता नहीं है, अंग्रेजी पायनीयर अखबार का संपादक है। जैसा कि हम देखेंगे, धर्म निरपेक्षता से लबालब भरा हुआ है। भाषा का संस्कार देखें: The disinformation machinery of the Indian Left is probably more ruthlessly efficient than anything wartime Nazi propagandist Goebbles could have dreamed of. The effortless ease with which they disseminate half-truths and thereafter construct gigantic myths around these is something to be marvelled at. Despite their disdain for all things...

वन्देमातरम!

इंस्टीटिउट आफ फिजिक्स में प्रोफेसर माइकेल बेरी का भाषण सुनने गया था। एक बुजुर्ग मिले। पूछा कहाँ से आया हूँ। इंडिया और हैदराबाद सुनकर कहा मैं कभी इंडिया गया नहीं हूँ| थोडी देर बातचीत के बाद पूछा, आपका इलाका पीसफुल है? पीसफुल?! आधुनिक समय में भारत का दुनिया को एक अवदान है - एक नारा - ओम् शांति। कल मेरे शहर में बम फटा. पिछले कुछ दिनों से पंजाब में दंगे हो रहे थे। एम एस यू बडोदा के बवाल पर किसी का कहना है: लाल्टू जी ये "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" वाले ऐसे ही जूते खाने लायक हैं, इनके लिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मतलब हिन्दुओं के देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाना, सरस्वती वन्दना का विरोध करना आदि है, इन्हें तो अभी अभी ही मारना शुरु किया है, ऐसे लोग अभी और-और पिटेंगे। यह चिट्ठाकार उज्जैन का है। पिछले साल वहाँ छात्रों के चुनाव के दौरान एक प्रोफेसर की हत्या कर दी गई थी। यह चिट्ठाकार मेरी तरह सरस्वती वन्दना कर सकता है। मैं और वह भारत की उस आधी जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो स्कूल नहीं जा पाए। इंग्लैंड की एक तीन साल की बच्ची मैडलीन गायब हो गई है, दुनिया भर के लोग तलाश में हैं,...

औक्यूपेशनल हैजर्ड.

पहले कभी सुना लगता है, हाल में बच्चों के लिए लिखी एक किताब में पढा. जैकलिन रे की पुस्तक 'प्लेयिंग कूल' में नानी के 'तुम बडी हो गई हो' कहने पर बच्ची ग्रेस का जवाब है: 'चिल्ड्रेन ग्रो! इट्स ऐन औक्यूपेशनल हैजर्ड.'

अभी तक किसी को मारा नहीं है.

एम एस यू बडोदरा में बवाल मचा है. क्यों? भई बी जे पी का राज है. नरेंद्र मिल्सोविच मोदी की दुनिया है. हमला कलाकारों पर है. अभी तक किसी को मारा नहीं है. कला संकाय के डीन सस्पेंड हो गए हैं. क्यों? उसने एक छात्र की प्रदर्शनी रुकवाने का विरोध किया. इसलिए.

यह भी अश्लील ही

प्रत्यक्षा की मेल आई कि हंस में कहानी आई है और कि ब्लॉग शांत पड़ा है। घर जाकर प्रत्यक्षा की कहानी पढ़ेंगे। फिलहाल चिट्ठागीरी की जाए। बेचैनी तो रहती है कि यह लिखें ओर वो लिखें पर ..........। होता यह है कि इसके पहले कि जरा सा वक्त निकाल पर कुछ लिखने की शुरुआत करें, उसके पहले ही कहीं कुछ और हो जाता है। पहले के खयाल इधर उधर भटकने लगते हैं और दूसरी चिंताएँ दिमाग में हावी हो जाती हैं। अब दो हफ्तों से सोच रहा था कि विज्ञान और मानविकी के इंटरफ़ेस यानी ये कहाँ जुड़ते हैं और कहाँ टूटते हैं पर हमारे यहाँ एक सम्मेलन हुआ, उस पर लिखें। उस पर क्या उसमें जम कर हुई बकवास पर लिखें, पर इधर अमरीका के वर्जीनिया टेक में हुई दुर्घटना ने उस बेचैनी को इस बेचैनी से विस्थापित कर दिया। छिटपुट बेकार बातें, जैसे बी जे पी वालों का सीडी (इस शब्द को अंग्रेज़ी में पढ़ें) प्रकरण या धोनी ने धुना नहीं तो धोनी को धुन दो जैसी जाहिल बातें तो इस महान मुल्क में चलती ही रहती हैं, उनके बारे में सही बातें लिखकर अंजान भाइयों को दुःखी कर क्या लाभ! बहरहाल, थोड़ा सा पहले की चिंता पर लिखता हूँ। विज्ञान के बारे में संशय और चिंता क...

जो सुधरेंगे, सो सुधरेंगे

क्या बड़ी कक्षाओं को यानी जिनमें छात्रों की संख्या एक हद से ज्यादा हो, ढंग से पढाया जा सकता है? शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि प्रारंभिक स्तर पर प्रति शिक्षक जैसे जैसे बच्चों की संख्या बीस से ज्यादा बढ़ती है शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहता है। मेरा अपना अनुभव यह है कि तथाकथित अच्छे कान्वेंट स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का कारण स्कूल का बेहतर होना नहीं, बल्कि पालकों का अधिक सचेत होना है। स्कूल सिर्फ अनुशासन सिखाता है, जो स्व-शिक्षा में मदद नहीं करता, बाधक ज़रुर होता है। शिक्षा शास्त्री 'विंडोज़ अॉफ लर्निंग' की बात करते हैं, जिनमें उम्र के विभिन्न पड़ावों में सीखने के अलग-अलग मानदंड माने गए हैं। क्या सीखना है, कैसे सीखना है, इन सब बातों पर पिछली सदियों में बहुत शोध हुआ है, बहस भी बहुत हुई है। कालेज विश्वविद्यालय स्तर पर आने तक, व्यक्ति सीखने की खिड़कियों को पार कर चुका होता है। अब समय है खुद यह जानने का कि मुझे क्या पढ़ना सीखना है। परीक्षा इसलिए नहीं कि स्कूल का डंडा है, इसलिए कि मुझे अपनी काबिलियत की समझ होनी चाहिए और दूसरों को भी मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि मैं कितना काबिल ...

चार लाइनें

मसिजीवी ने दो बार याद दिलाया कि चिट्ठों की दुनिया से छूट चुका हूँ। बिल्कुल छूटा नहीं हूँ। पढ़ता रहता हूँ। खुद लिख नहीं पा रहा था। चलो तो चार लाइनें कुछ लिखा जाए। उत्तरी भारत के दीगर इलाकों में जब लोग बसंत की आवभगत में जुटे होते हैं, हैदराबाद और बंगलूर जैसे दक्खनी शहरों में गर्मी का कहर बरपने लगता है। हम भी इसी दौर में हैं। पता नहीं कैसे वर्षों से खोया धूप का चश्मा ढूँढ निकाला है। बड़े काले शीशों वाली ऐनक। पानी की समस्या है। नगरपालिका मंजीरा बंध से पानी सप्लाई करती है। पर इसका कोटा है। और जिस तरह चारों ओर धड़ाधड़ मकान बनते जा रहे हैं, पानी बँट रहा है और कुल सप्लाई खपत की तुलना में बहुत कम है। इसलिए बोर वेल का इस्तेमाल हर घर में होता है। बोर वेल के पानी में लवणों की मात्रा अधिक है और पानी का स्वाद अच्छा नहीं है। तो क्या किया जाए? नगरपालिका टैंकरों में पानी बेचती भी है। मंजीरा के अलग रेट और बोर के पानी के अलग। तो जिसके पास पैसे हैं, उसे बढ़िया पानी और जिसके पास नहीं उसे नहीं। सोचने की बात है। किसानों को पानी चाहिए। झोपड़ियों में रह रहे गरीब लोग घंटों इंतज़ार कर पानी लेते हैं। हमें ...

नेवला

आज मैंने मकान के पीछे के जंगल में एक नेवला देखा। छत में खड़ा शाम की आखिरी उछल-कूद मचाती लंबी पूँछ वाली मैनाएँ देख रहा था, तभी उसे देखा। चलते चलते बीच बीच में जैसा खतरा भाँपते हुए रुक रहा था। मैं छत से नीचे उतर बेटी को बुलाने आया। वह कंप्यूटर पर फिल्म देख रही थी। मैं वापस ऊपर गया। तब तक वह बहुत दूर पहुँच गया था और मेरे उसे ढूँढ निकालते ही वह झट से एक गड्ढे में घुस गया। तभी कहीं से वहाँ एक मोर आ गया। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि यहाँ पहला मोर देखा। लगा जैसे ये सब यहीं थे और मुझे पता ही नहीं था। इतनी जानें मेरे पास और मैं खुद को अकेला ही समझता रहा। पिछले कई हफ्तों से लगातार हो रही निठारी की दर्दनाक वारदात पर लिखने की कोशिश करते हुए लिख न पा रहा था। हर बार जैसे अंदर से पित्त भरा गुबार उमड़ आता था। इस नेवले की चाल देख कर लिखने का मन हो आया। कई साल पहले मध्य प्रदेश में हरदा शहर के सिंधी कालोनी में एक मकान में कुछ समय के लिए ठहरे थे। वहाँ एक नेवला अक्सर घर के अंदर आ जाता था। मेरी पत्नी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह नेवला क्या बला है - तो एक दिन मैं कह ही रहा था और उसने पूछा कि आखिर कैसा ह...