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Showing posts from 2006

कद्दूपटाख

अफलातून की ओर से सबको बड़े दिन का यह उपहार: कद्दूपटाख कद्दूपटाख (अगर) कद्दूपटाख नाचे- खबरदार कोई न आए अस्तबल के पाछे दाएँ न देखे, बाएँ न देखे, न नीचे ऊपर झाँके; टाँगें चारों रखे रहो मूली-झाड़ पे लटका-के! (अगर) कद्दूपटाख रोए- खबरदार! खबरदार! कोई न छत पे बैठे; ओढ़ कंबल ओढ़ रजाई पल्टो मचान पे लेटे; सुर बेहाग में गाओ केवल "राधे कृष्ण राधे!" (अगर) कद्दूपटाख हँसे- खड़े रहो एक टाँग पर रसोई के आसे-पासे; फूटी आवाज फारसी बोलो हर साँस फिसफासे; लेटे रहो घास पे रख तीन पहर उपवासे! (अगर) कद्दूपटाख दौड़े- हर कोई हड़बड़ा के खिड़की पे जा चढ़े; घोल लाल रंग हुक्कापानी होंठ गाल पे मढ़े; गल्ती से भी आस्मान न कतई कोई देखे! (अगर) कद्दूपटाख बुलाए- हर कोई मल काई बदन पे गमले पे चढ़ जाए; तले साग को चाट के मरहम माथे पे मले जाए; सख्त ईंट का गर्म झमझम नाक पे घिसे जाए! मान बकवास इन बातों को जो नज़रअंदाज करे; कद्दूपटाख जान जाए तो फिर हरजाना भरे; तब देखना कौन सी बात कैसे फलती जाए; फिर न कहना, बात मेरी अभी सुनी जाए। इस कविता का अनुवाद सही हुआ नहीं था, इसलिए 'अगड़म बग...

लाल्टू डॉट जेपीजी

लो भई अफलातून, तुम्हारी तस्वीर। मतलब मेरी। जिसने स्कैन किया, उसने फाइल का नाम रखा, लाल्टू डॉट जेपीजी। बड़ी मेहनत करनी पड़ी इसे अपलोड करने में। पता नहीं क्या माजरा है, ब्लॉगस्पॉट के पेजेस खुलना ही नहीं चाहते। जब खुलते हैं तो जाने कौन सी भाषा खुलती है, जो रामगरुड़ की समझ से बाहर है। लगता है सभी पन्नों पर काम चल रहा है। ये लो, अपलोड होते होते रुक गया। अरे भई, रात हो गई, अभी अभी नए मकान में शिफ्ट किया है, अब जल्दी करो और सोने दो। Ah! Finally... साइनबोर्ड पर लिखा है - हँसना मना है।

रामगरुड़ का छौना

अफलातून ने देखा कि अच्छा मौका है, ये लाल्टू रोता रहता है, इसकी खिंचाई कर ली जाए। तो कह दिया कि 'रामगरुड़ेर छाना' का अनुवाद भी लाइए। तो लो भई, पढ़ो और खूब खींचो मेरी टाँग:- पर हँसना मना है! रामगरुड़ का छौना रामगरुड़ का छौना, हँसना उसको म-अ-ना हँसने कहो तो कहता "हँसूँगा न-ना, ना-ना," परेशान हमेशा, कोई कहीं क्या हँसा! एक आँख से छिपा-छिपा यही देखता फँसा नींद नहीं आँखों में, खुद ही बातों-बातों में कहता खुद से, "गर हँसे पीटूँगा मैं आ तुम्हें!" कभी न जाता जंगल न कूदे बरगद पीपल दखिनी हवा की गुदगुदी कहीं लाए न हँसी अमंगल शांति नहीं मन में मेघों के कण-कण में हँसी की भाप उफन रही सुनता वह हर क्षण में! झाड़ियों के किनार रात अंधकार जुगनू चमके रोशनी दमके हँसी की आए पुकार हँस हँस के जो खत्म हो गए सो रामगरुड़ को होती पीड़ समझते क्यों नहीं वो? रामगरुड़ का घर धमकियों से तर हँसी की हवा न घुसे वहाँ हँसते जाना मना वहाँ। (अगड़म-बगड़म; सुकुमार राय के 'आबोल-ताबोल' की क...

खिचड़ी

खिचड़ी बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार) बन गए बत्ताही जी, कौन जाने कैसे यार! बगुला कहे कछुए से, "बल्ले-बल्ले मस्ती कैसी बढ़िया चले रे, बगुछुआ दोस्ती!" तोतामुँही छिपकली, बड़ी मुसीबत यार कीड़े छोड माँग न बैठे, मिर्ची का आहार! छुपी रुस्तम बकरी, चाल चली आखिर बिच्छू की गर्दन जा चढ़ी, धड़ से मिला सिर! जिराफ कहे साफ, न घूमूँ मैदानों में टिड्डा लगे भला उसे, खोया है उड़ानों में! गाय सोचे - ले ली ये कैसी बीमारी पीछे पड़ गई मेरे कैसे मुर्गे की सवारी! हाथील का हाल देखो, ह्वेल माँगे बहती धार हाथी कहे - "जंगल का टेम है यार!" बब्बर शेर बेचारा, सींग नहीं थे उसके मिल गया जो हिरण, सींग आए सिर पे! -सुकुमार राय ('आबोल ताबोल' की बीस कविताओं का अनुवाद 'अगड़म बगड़म' संभावना प्रकाशन, १९८९) तस्वीरें सुकुमार राय की खुद की बनाई हैं।

मकान बदलना है।

संस्थान के अपने मकान अभी कम हैं, आगे बनने वाले हैं। जुलाई में सामान ले आया तो जल्दी में मकान चाहिए था। हड़बड़ी में दो बेडरुम वाला मकान लिया। भारत सरकार ने कर्मचारियों के लिए हाउसिंग कॉम्प्लेक्स बनाए हैं, कर्मचारी मकान खरीद कर किराए पर देते हैं। जिस व्यक्ति का मकान है, वह करनाल में कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान में वैज्ञानिक है। उसके स्थानीय मित्र के हाथ मकान था। जिसने पता दिया उसने बतलाया कि सात हजार महीने के लगेंगे। मैंने कहा देंगे। पता चला कि साहब आनाकानी कर रहे हैं। अपने संस्थान के प्रशासनिक अफ्सर रमाना जी ने बातचीत की। पता चला साढ़े सात माँग रहे हैं। मैंने कहा चलो ठीक है। १२ जुलाई को सुबह सामान पहुँच रहा था, ग्यारह बजे चाभी का तय हुआ। सामान पहुँच गया, पर चाभी नहीं। चार बजे जनाब आए और कहा कि आठ चाहिए। रमाना ने फिर बात की औेर पौने आठ पर चाभी मिल गई। दो महीने का अडवांस और जुलाई के बारह दिनों के पैसे। साथ में जो एजेंट था, उसने अपनी फीस के लिए एक महीने का किराया माँगा। सबको नगद चाहिए। सुबह ट्रक वालों को बीस हजार दे चुका था - पता नहीं कैसे कैसे दो ए टी एम का इस्तेमाल कर पैसे दिए। ह...

अश्लील

उच्चतम न्यायालय ने राय दी है कि नग्नता अपने आप में अश्लील नहीं है। यह एक महत्त्वपूर्ण राय है, खासकर हमारे जैसे मुल्क में जहाँ अश्लील कहकर कला और व्यक्ति स्वातंत्र्य का गला घोंटने वाले दर दर मिलते हैं और जो सचमुच अश्लील है उसे सरेआम बढ़ावा मिलता है। इस प्रसंग में यह कविता याद आ गई। अश्लील एक आदमी होने का मतलब क्या है एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए दाँत निकालते हैं एक अखबार है जिसमें लिखा है एक वेश्या का बलात्कार हुआ है एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में वह सच नहीं जो बलात्कार शब्द में है एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है तर्कशील अंग्रेज़ी में लिखता है कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है उस आदमी के लिखते ही अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है (पश्यंतीः - अक्तूबर-दिसंबर २०००) इस कविता के बारे में लिखते हुए याद आया कि इसका पहला ड्राफ्ट कोई दस साल पहले संघीय लोक सेवा आयोग के गेस्ट हाउस में बैठकर लिखा था। प्रशासन के साथ जब जब ...

यह रहा

यह रहा वह पत्थर, जिसका ज़िक्र मैंने किसी पिछली प्रविष्टि में किया था। और यह वह सूरज जिसे किसी की नहीं सुननी, उन बौखलाए साँड़ों की भी नहीं, जो हर रोज सुबह की नैसर्गिक शांति का धर्म के नाम पर बलात्कार कर रहे हैं। इस निगोड़े को कंक्रीटी जंगलों पर भी यूँ सुंदर ही उगना है। इन दिनों संस्थान में चल रहे जीवन विद्या शिविर में तकरीबन इस पत्थर की तरह लटका हुआ हूँ। साथ में बाकी काम भी। इसलिए अभी और कुछ नहीं।

निकारागुआ - एल पुएबलो उनीदो

निकारागुआ लीब्रे मेरा स्लीपिंग बैग बाईस साल पहले दो बार निकारागुआ हो आया, पर मैं नहीं जा पाया। कॉफी ब्रिगेड में हिस्सा लेने मेरी मित्र मिशेल पारिस मानागुआ गई। उन्हें ब्रिगादिस्ता कहते थे। फिर बाद में शायद प्रिंस्टन एरिया कमेटी अगेंस्ट इंटरवेंशन इन लातिन अमेरिका का संयोजक रैंडी क्लार्क ले गया था। दानिएल ओर्तेगा उनदिनों बड़ा हैंडसम दिखता था। निकारागुआ का मुक्ति संग्राम अनोखा था। इसमें वामपंथी और कैथोलिक (जिनमें प्रमुख एर्नेस्तो कार्देनाल थे, जो जाने माने कवि थे - इनका भाषण मैंने सुना था, जिस दौरान कविता भी पढ़ी थी) दोनों तबके शामिल थे। जब निकारागुआ आजाद हुआ, तब तक रोनल्ड रीगन की सरकार ने अपने करोड़ों डालर वहाँ लगा दिए थे। अमरीकी मदद से 'कॉन्त्रा' नाम से पूरी एक फौज इंकलाबिऔं के खिलाफ जिहाद लड़ रही थी। आतंक के उस माहौल में चुनाव करवा कर अमरीका ने अपनी पपेट सरकार बनवाई। पर देर सबेर लोगों की आवाज सुनी जानी ही थी। लगता है दुनिया भर में दक्षिणपंथी दुम दबाकर पतली गली से भागने की राह देख रहे हैं। अमरीका के दक्षिणपंथिओं को इससे बड़ी चपत क्या लगती कि जब सीनेट और कांग्रेस हाथ से छूटे...

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन

खबर है कि भारत-पाक सीमा पर विभिन्न नाकों में सबसे विख्यात वाघा नाके पर होने वाले दिनांत समारोह (झंडा उतारना या रीट्रीट सेरीमनी) में भारतीय सीमा सुरक्षा दल ने आक्रामक मुद्राओं में कमी लाने की घोषणा की है। अपेक्षा है कि पाकिस्तान रेंजर्स भी ऐसा ही रुख अपनाएँगे। पुरातनपंथी या सामंती विचारों के साथ जुड़ी हर रीति बेकार हो या हमेशा के लिए खत्म करने लायक हो, ऐसा मैं नहीं मानता, पर दक्षिण एशिया के लोग बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ हैं, ऐसे बेतुके तर्क के लिए अगर कोई वाघा नाके की रीट्रीट सेरीमनी का उदाहरण दे तो मैं इसका जवाब नहीं दे पाऊँगा। मुझे कुल तीन बार वाघा पोस्ट पर जाने का मौक़ा मिला है। पहली बार बीसेक साल पहले गया था तो हैरान था कि समारोह के दौरान तो सिर से ऊपर पैर उठाकर एक दूसरे की ओर आँखें तरेर कर देखने का अद्भुत पागलपन दोनों ओर के सिपाहियों ने दिखलाया ही, साथ में समारोह के बाद जब दोनों ओर से लोग दौड़े आए और एक दूसरे की ओर बंद गेट्स की सलाख़ों के बीच में से यूँ देखा जैसे कि इंसान नहीं किसी विचित्र जानवर को देख रहे हों। उन लोगों में दोनों ओर के विदेशी सैलानी भी थे। मैं आज तक वह अद्...

एक दिन का बादशाह

वाह भई वाह! सालगिरह ने तो मुझे एक दिन का बादशाह ही बना दिया। इतनी टिप्पणियाँ! बहरहाल, एक तो लटके पत्थर की तस्वीर दिखलानी है। कविता भी। बस सिर्फ मसिजीवी की बधाई का इंतज़ार था। आगे किसी प्रविष्टि में तस्वीर और कविता का वादा रहा। दूसरी बात आर टी ओ वाली। थोड़ी सी बेईमानी मेरी रही कि कुछ गड़बड़ जो और वजहों से हो रही है, वह बतलाया नहीं। इसके पहले कि फिर किसी अंजान भाई को तकलीफ हो, कुछ आत्म-निंदा कर लूँ। सुख तो पर-निंदा जैसा नहीं मिलेगा, पर निंदा तो निंदा ही है। एक जनाब हैं पंकज मिश्र। उसने भारतीय मध्य-वर्ग की निंदा (जिसमें वह खुद शामिल है बेशक) को बाकायदा धंधा बना लिया है। हमारा हीरो है। 'बटर चिकन इन लुधियाना' पढ़ी थी कुछ साल पहले। पता चला बंगाल के छोटे शहर में लुधियाना के बटर चिकन का गुणगान हो रहा है पंजाबी स्टाइल में (इसके बारे में साल भर पहले लिखा था कि गुरशरण जी ने कितना फाइन तय किया है), चिकन निगल रहे हैं हरियाणवी व्यापारी और आ हा हा! भोजन कितना बढिया है इसका पैमाना है कि भोजन के बारे में कितनी घटिया भद्दी गाली निकल सकती है। है न कमाल की खोज। इसलिए पंकज मिश्र मेरा हीरो ...

सालगिरह

कल चेतन ने याद दिलाया कि मेरे ब्लॉग की सालगिरह है। संयोग से मनःस्थिति ऐसी है नहीं कि खीर पकाऊँ। फिर भी ब्लॉग तो कुछ लिखा जाना ही चाहिए। तकरीबन पचास हो चले अपने जीवन में अगर पाँच सबसे महत्त्वपूर्ण साल गिनने हों, तो यह एक साल उनमें होगा। बड़े तूफान आए, पर जैसा कि सुनील ने एक निजी मेल में दिलासा देते हुए लिखा था,टूटा नहीं, हँसता खेलता रहा। यहाँ तक कि चिट्ठा जगत में जान-अंजान भाइयों/बहनों के साथ ठिठौली भी की। चिट्ठे लिखने में नियमितता नहीं रही, पर कुछ न कुछ चलता रहा। मैंने पहले एकबार कभी लिखा था कि हमारे लिए चिट्ठा जगत में घुसपैठ अपने मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की कोशिश मात्र है। पर साथ में थोड़े से हिंदी चिट्ठों की दुनिया में एक और चिट्ठा भी जुड़ गया, यह खुशी अलग। कुछ तो बात बनती ही होगी, नहीं तो समय समय पर मिलने वाली नाराज़गी क्योंकर होती। साल भर पहले जब मैंने हिंदी चिट्ठा लिखना शुरु किया तो दीवाली के पहले विस्फोट, धोनी की धुनाई, साहित्यिक दुनिया में थोड़ी बहुत चहलकदमी, कुछ विज्ञान और कुछ विज्ञान का दर्शन आदि विषयों पर लिखा, लोगबाग टिप्पणी करते और एक दो बार मैं भी बहस में शामिल रहा...

भैया ज़िंदाबाद

भैया ज़िंदाबाद आ गया त्यौहार फैल गई रोशनी बड़कू ने रंग दी दीवार लिख दिया बड़े अक्षरों में अब से हर रात फैलेगी रोशनी दूर अब अंधकार हर दिन है त्यौहार छुटकी ने देखा धीरे से कहा अब्बू पीटेंगे भैया हुआ भी यही मार पड़ी बड़कू को छुटकी ने देखा धीरे से कहा मैं बदला लूँगी भैया फिर सुबह आई नये सूरज नई एक दीवार ने दिया नया विश्व सबको दीवार खड़ी थी अक्षरों को ढोती भैया ज़िंदाबाद। - चकमक (१९८७), एक झील थी बर्फ की (१९९०), भैया ज़िंदाबाद (१९९२)।

हाँ भई प्रियंकर, मैं वही हूँ।

हाँ भई प्रियंकर , मैं वही हूँ। पोखरन १९९८ (१) बहुत दिनों के बाद याद नहीं रहेगा कि आज बिजली गई सुबह सुबह गर्मी का वर्त्तमान और कुछ दिनों पहले के नाभिकीय विस्फोटों की तकलीफ के अकेलेपन में और भी अकेलापन चाह रहा आज की तारीख आगे पीछे की घटनाओं से याद रखी जाएगी धरती पर पास ही कहीं जंग का माहौल है एक प्रधानमंत्री संसद में चिल्ला रहा है कहीं कोई तनाव नहीं वे पहले आस्तीनें चढ़ा रहे थे आज कहते हैं कि चारों ओर शांति है डरी डरी आँखें पूछती हैं इतनी गर्मी पोखरन की वजह से तो नहीं गर्मी पोखरन की वजह से नहीं होती पोखरन तो टूटे हुए सौ मकानों और वहाँ से बेघर लोगों का नाम है उनको गर्मी दिखलाने का हक नहीं अकेलेपन की चाहत में बच्ची बनना चाहता हूँ जिसने विस्फोटों की खबरें सुनीं और गुड़िया के साथ खेलने में मग्न हो गई (२) गर्म हवाओं में उठती बैठती वह कीड़े चुगती है बच्चे उसकी गंध पाते ही लाल लाल मुँह खोले चीं चीं चिल्लाते हैं अपनी चोंच नन्हीं चोंचों के बीच डाल डाल वह खिलाती है उन्हें चोंच-चोंच उनके थूक में बहती अखिल ब्रह्मांड की गतिकी आश्वस्त हूँ कि बच्चों को उन...

शरत् और दो किशोर

शरत् और दो किशोर जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना समूचा आकाश है फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं जैसे शरत् के बादल सुबह हल्की बारिश हुई है ठंडी उमस पत्ते हिलते पानी के छींटे कण कण धूप मद्धिम चल रहे दो किशोर नंगे पैरों के तलवे नर्म दबती घास ताप से काँपती संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं या बादलों के बीच पतंगें इकट्ठे हाथ धूप में कभी हँसते कभी गंभीर एक की आँख चंचल ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े दूसरे की आँखों में करुणा जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना समूचा आकाश है उन्हें नहीं पता इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को गीतों में सँवार रहे हैं कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें फिलहाल उनके चलते पैर आपस की करीबी भोग रहे हैं पेड़ों के पत्ते हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं शरत् की धूप ले रही है गर्मी उनकी साँसों से आश्वस्त हैं जनप्राणी भले दिनों की आशा में इंतजार में हैं आश्विन के आगामी पागल दिन। (१९९२- पश्यंती १९९५)

रक्षा करो

मोहन राणा के ई-ख़त से पता चला कि मैंने अभी तक भारत लौटने की घोषणा नहीं की है। जून के अंत में ही मैं लौट आया था। दस दिन चंडीगढ़ की गर्मी खाई। उसके बाद से बस यहाँ हैदराबाद में वापस। देश के कानूनों से अभी तक उलझ रहा हूँ। जैसा कि डेपुटी ट्रांस्पोर्ट कमिशनर ने कहा - बी सीटेड, आप प्रोफेसर हैं, आपको कानून का पता होना चाहिए। बखूबी होना चाहिए और मैंने पता किया कि जिस तरह छात्रों को एक प्रांत से दूसरे प्रांत जाने पर माइग्रेशन सर्टिफिकेट नामक फालतू कागज़ हासिल करना पड़ता है, इसी तरह गाड़ियों, स्कूटरों को भी एन ओ सी चाहिए होता है - वह भी सही आर टी ए के नाम - यानी आप नहीं जानते कि हैदराबाद में ट्रांस्पोर्ट अथारिटी हैदराबाद के अलावा अन्य नामों में भी बँटी हुई है तो आप रोएँ। शुकर है अंजान भाई कि तरह डेपुटी ट्रांस्पोर्ट कमिशनर को इस बात पर शर्म नहीं अाई कि मुझ जैसा अज्ञ उनके देश का नागरिक है। वैसे मुझे अच्छी तरह डरा ज़रुर दिया - हमारे इंस्पेक्टर ने गाड़ी चलाते पकड़ लिया तो!!! तो बहुत सारे कागज़ तैयार कर के, चेसिस नंबर तीन तीन बार पेंसिल से घिसके, अपनी घिसती जा रही शक्ल के फोटू कई सारे साथ लगाकर और ...

हर बादल

लंबे समय से ब्लाग नहीं लिखा। बस वक्त ही नहीं मिल रहा था। तकलीफें भी हैं, पर तकलीफें कहाँ नहीं हैं? इसलिए तो कविगुरु कहते हैं — आछे दुःखो, आछे मृत्यु, विरह दहन लागे। तबू ओ शांति, तबू आनंदो, तबू अनंतो जागे। इस गीत को मैंने दफ्तर में बोर्ड पर लगा लिया है। इसी बीच कुछ अच्छी किताबें पढ़ीं — जिनमें आखिरी खालेद हुसैनी की 'द काइट रनर' है। ज़ाहिर शाह से लेकर तालिबान युग तक के अफगानिस्तान में सामंती और प्रगतिशील मूल्यों के बीच फँसे निरीह लोगों की कथा। हिंदी फिल्मों की आलोचना करते हुए भी कथानक हिंदी फिल्मों जैसा ही है। हुसैनी की राजनीति से सहमत न होते हुए भी उपन्यास की श्रेष्ठता के बारे में कोई शक नहीं। हुसैनी की विश्व दृष्टि में अमरीका स्वर्ग है। तालिबान नर्क है। उस इतिहास का क्या करें जो बतलाता है कि तालिबान को अमरीका ने ही पाला पोसा! और अब यह कहाँ आ गए हम...। शब्दों के साथ हुसैनी का खेल मन छूता है। देश काल में हुसैनी की खुली दौड़ कुर्रतुलऐन हैदर की याद दिलाती है। शायद थोड़ा लिखा जाए तो नियमित लिखना संभव हो। अभी तक नई जगह में पूरी तरह से बसा नहीं हूँ। बड़ी दौड़भाग में लगा रहत...

इंसान की शिद्दत

मैं स्वभाव से सैलानी नहीं हूँ. कहीं जाता हूँ तो लोग कैमरे लेकर तस्वीरें खींच रहे होते हैं और मैं देख रहा होता हूँ कि एक छोटा बच्चा मिट्टी में लोट कर माँ बाप को तंग कर रहा है. पर घूमने का मौका मिलता है खुशी से साथ हो लेता हूँ. इस बार हमारे मेजबान प्रोफेसर ने रविवार को स्टोनहेंज दिखा लाने का न्योता दिया तो सोचा कि चलना चाहिए, क्योंकि स्टोनहेंज (हैंगिंग स्टोंस) ब्रिटेन की सबसे पुरानी प्रागैतिहासिक धरोहर है. तो इस रविवार हम इस अद्भुत के सामने थे. पता नहीं कितनी बार मानव और धरती पर प्राण के उद्गम के प्रसंग में स्टोनहेंज की तस्वीर देखी थी. कई लोगों ने इसे देवताओं का दूसरे ग्रहों से आकर धरती पर मानव की सृष्टि करने का प्रमाण माना है. अब वैज्ञानिक जगत में यह माना जाता है कि साढ़े पाँच सौ साल पहले समुद्र के जरिए बड़े पत्थरों को लाकर प्रागैतिहासिक मानव ने यह करामात खड़ी की. तीन अलग अलग चरणों में इसका निर्माण हुआ. कोई स्पष्ट कारण तो पता नहीं कि क्यों यह बनाया गया पर कई अनुमान हैं, जिनमें ज्योतिष, धार्मिक रस्म आदि हैं. सबसे अजीब चीज़ मुझे यह लगी कि खड़े पत्थरों के ऊपर छोटे पिरामिड के आकार के wedg...

बकौल फुर्सतिया क्या कल्लोगे भाई

हाल में टी वी पर बी बी सी चैनल पर स्पोर्ट्स रीलीफ की बनाई फिल्म देखी, जो भारत में चल रहे उनके प्रोजेक्ट्स के संदर्भ में है। इंग्लैंड से मुख्यतः मीडीया से जुड़े कुछ लोग भारत में आकर तीन जगहों में क्रिकेट खेलते हैं। पहले दो दक्षिण में त्सुनामी प्रभावित जगहें हैं। रेलवे चिल्ड्रेन नामक बच्चे जो रेलगाड़ियों में भीख माँगकर जी रहे हैँ, उनके लिए भी उनका एक प्रोजेक्ट् है। इंग्लैंड में लोग दौड़ आयोजनों में शामिल होकर पैसा इकट्ठा करते हैं, जिसे स्पोर्ट्स रीलीफ भारत जैसे मुल्कों में ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगाती है। ऐसी फिल्मों में सबसे अद्भुत बात मुझे लगती है कि पश्चिमी मुल्कों के साफ स्वच्छ वातावरणों से आए लोग हमारे मैले कुचैले अस्वस्थ बच्चों को चाहे कैमरा के लिए ही सही, प्यार से गले कैसे लगा लेते हैं। इस फिल्म में आज के एपीसोड में दो मर्द रोते हुए दिखे, जो पश्चिमी संस्कृति के लिहाज से अनोखी बात है। हम अपने गरीबों को यूँ गले क्यों नहीं लगा सकते? मैं जब आई आई टी में पढ़ने आया, तो पहली बार घर से बाहर आने की वजह से अक्सर घर की याद में भावुक हो जाता। उन्हीं दिनों मेरे जेहन में बात बैठ गई कि हो न हो अपन...

समय बड़ा बलवान

सुनील ने अपनी टिप्पणी में अफ्रीका दिवस का जिक्र किया तो पुरानी यादें ताजा हो गईं। एक जमाना था जब पैन अफ्रीकी आंदोलन शिखर पर था और दुनिया भर में आज़ादी और बराबरी के लिए लड़ रहे लोग अफ्रीका की ओर देख रहे थे। सत्तर के दशक के उन दिनों फैज अहमद फैज ने नज़्म लिखी थी 'आ जाओ अफ्रीका।' मैंने फैज को ताजा ताजा पढ़ा था और ऊँची आवाज में पाकिस्तानी मित्र इफ्तिकार को पढ़ कर सुनाता था: आ जाओ अफ्रीका मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग और बाब मार्ली के अफ्रीका यूनाइट पर हम लोग नाचते। पहली मई को अफ्रीका दिवस मनाया जाता था। पता नहीं मैंने कितनी बार जमेकन ग्रुप्स से रेगे टी शर्ट मँगाए और लोगों को बेचे या बाँटे। मेरे पास तो अब कोई टुकड़ा भी नहीँ है, पर हमारे उस जुनून को याद करते हुए मेरे बड़े भाई ने कोलकाता में अभी भी उनमें से एक टी शर्ट सँभाल कर रखा हुआ है। बाब मार्ली का चित्र है और किसी गीत की पंक्तियाँ। मार्ली का एक गीत redemption song जो उसने सिर्फ गिटार पर हल्की लय में गाया था, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं (त्रुटियों से बचने के लिए नेट से ले रहा हूँ): ... Wont you help to sing Th...

आस्था वालों की दुनिया

इस बार इंग्लैंड आया तो पहले चार दिन लंदन में दोस्तों के साथ गुजारे। कालेज के दिनों के मित्र शुभाशीष के घर दो दिन ठहरा। पिछली मुलाकात 1983 में कुछेक मिनटों के लिए हुई थी। उसके पहले 1977 तक हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे। सालों बाद मिलने का एक अलग रोमांच होता है। 1983 में शुभाशीष मुझसे मिलने बर्मिंघम से लंदन आया था। उसके कहने पर मैं उसके लिए भारत से आम लेकर आया था। एक दिन के लिए लंदन ठहरना था। जिस दिन पहुँचा, एयरपोर्ट पर वह मिला नहीं। दूसरे दिन सामान चेक इन कर मैं थोड़ी देर के लिए बाहर आया (उन दिनों आज जैसी सख्ती नहीं थी), तो बंदा मिला। तब तक रसराज कूच कर चुके थे। इस बात का अफ्सोस आज तक रहा। इस बार बर्ड फ्लू की रोकथाम की वजह से आम लाना संभव न था। जब चला था तब तक बढ़िया फल बाज़ार में आया भी न था। चोरी छिपे दोस्तों के लिए मिठाई के डिब्बे निकाल लाया। बहरहाल, लंदन में विज्ञान संग्रहालय देखा, साथ पुराने छात्र मित्र अरविंद का बेटा अनुभव था तो आई मैक्स फिल्म भी देखी। दूसरे दिन विक्टोरिया और ऐल्बर्ट कला संग्रहालय गया। इसके एक दिन पहले एक और पुराने छात्र मित्र अमित और उसकी पत्नी के साथ स्वामीनारायण म...

राममोहन और ब्रिस्टल

एक अरसे बाद ब्लाग लिखने बैठा हूँ। पिछ्ले डेढ महीने से इंग्लैंड में हूँ। ब्रिस्टल शहर में डेरा है। लिखने का मन बहुत करता रहा, पर खुद को बाँधे हुए था कि काम पर पूरा ध्यान रहे। जिस दिन सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने राजा की मूर्ति देखी, बहुत सोचता रहा. यह तो पता था कि राममोहन इंग्लैंड में ही गुज़र गए थे, पर किस जगह, यह नहीं मालूम था। 1774 में जनमे राममोहन 1833 में यहाँ आकर वापस नहीं लौट पाए। उनकी कब्र यहाँ टेंपल मीड रेलवे स्टेशन के पास आर्नोस व्हेल कब्रिस्तान में है । राममोहन का जमाना भी क्या जमाना था! बंगाल और अंततः भारत के नवजागरण के सूत्रधार उन वर्षों में जो काम राममोहन ने किया, सोच कर भी रोमांच होता है। हमने सती के बारे में बचपन में कहानियाँ सुनी थीं। जूल्स वर्न के विख्यात उपन्यास ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एइटी डेज़’ में पढ़ा था। जब झुँझनू में 1986 में रूपकँवर के सती होने पर बवाल हुआ, तो बाँग्ला की जनविज्ञान पत्रिका ‘विज्ञान ओ विज्ञानकर्मी’ ने राममोहन का लिखा ‘प्रवर्त्तक - निवर्त्तक संवाद’ प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भी हुई। यह अल...

प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता

भई वाह! मैंने अभी कुछ ही कहानियाँ पढ़ी हैं, पर सचमुच मजा आ गया। आप लोग भी पढ़ें। रचनाकार की प्रविष्टि असगर वजाहत की कहानियाँ। एक नमूना पेश हैः "लेकिन 'एम` को 'यम`, 'एन` को 'यन` और 'वी` को 'भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।" मात्राओं की गलतियाँ बहुत सारी हैं। मैंने शिकायत दर्ज़ कर दी है। पर ऐसा प्रयास बड़ी मेहनत माँगता है, इसलिए रवि रतलामी को कानपुर वाले ठग्गू के लड्डुओं का ऑफर है मेरी ओर से।

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मसिजीवी को लंबे समय से छेड़ा नहीं। अब टिप्पणी आई तो मन हुआ कि लिख दें - अरुणा राय, लाल सलाम! मैं जब कालेज में था तो अक्सर दोस्त बाग मुझे छेड़ा करते थे। कभी कभी मैं भी छेड़ देता था। मैंने अक्सर पाया है कि कुछ लोग छेड़ना सह नहीं पाते। याद आता है कि कई बार गालियाँ सुनी हैं, एकबार तो निंबोरकर नामक एक बंधु मुझे चौथी मंज़िल की खिड़की से भी धक्का मारकर फेंकने वाला था। मैं अपनी कक्षा में सबसे कम उम्र का था और अच्छे बच्चे से कब शरारती बच्चे में तबदील हो चुका था पता ही नहीं था। स्वभाव से अब भी शरारती हूँ, पर अब नाराज़ होने वालों की संख्या कम और प्यार करने वालों की बढ़ गई है। पर जो नाराज़ हैं वे भयंकर नाराज़ हैं। चलो, कभी कोई तरकीब निकालेंगे कि प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से पीछे की ओर दौड़कर पुरानी घटनाओं को बदल डालें ताकि नाराज़ लोग भी मुझपर खुश हो जाएँ। बहरहाल पिछली बार मैंने प्रसंग के आधार पर समझ की बात की थी। पिछले महीने मेरे मित्र राकेश बिस्वास ने, जो डॉक्टर है और इनदिनों मलयेशिया में कहीं है, एक रोचक उदाहरण भेजा था। पता तो मुझे अरसे से था, पर देखा पढ़ा मैंने भी पहली बार ही है। जरा नीचे लि...

लेकिन।

सूचनाः- महज सूचना और अवधारणात्मक समझ के साथ सूचना में फर्क है। जब साधन कम हों तो रटना भी फायदेमंद है। भारतीय परंपरा में लिखने पर कम और श्रुति पर जोर ज्यादा था। चीन में बड़े पैमाने पर तथ्य दर्ज किए गए, पर वहाँ भी स्मृति पर काफी जोर रहा है। गरीब बच्चे जिनके पास पुस्तकें कम होती हैं, उनके लिए रटना कारगर है। यानी स्मृति का महत्त्व है। लेकिन। एक कहानी है, जो मैंने बचपन में सुनी थी - बाद में शायद लघुकथा के रुप में 'हंस' में छपी थी। पंडित का बेटा चौदह साल काशी पढ़ कर आया। गाँव में शोर मच गया। लोग बाग इकट्ठे हो गए। हर कोई बेटे से सवाल पूछे। आखिर चौदह साल काशी पढ़ कर आया है। विद्वान बेटा जवाब दर जवाब देता जाए। आखिर जमला जट्ट भी भीड़ देख कर वहाँ पहुँच गया। जमले से रहा नहीं गया। कहता कि एक सवाल मैं पूछूँ तो बेटे जी से जवाब नहीं दिया जाएगा। लोगबाग हँस पड़े। बेटे ने नम्रता से कहा पूछो भई। जमला के कंधे पर हल था। उसने हल की नोक से ज़मीन पर टेढ़ी मेढ़ी लकीर बनाई। लोग देखते रहे। जमला ने पूछा - बोल विद्वान भाई,यह क्या है? बेटा क्या कहता, हँस पड़ा - यह तो एक रेखा है। जमला ने सिर हिलाया - ...

दढ़ियल फटीचर

अनुनाद ने हिंदी शब्दों के अच्छे उदाहरण दिए हैं जो उनके अंग्रेजी समतुल्य शब्दों की तुलना में ज्यादा सहज लगते हैं। मुझे अनुनाद की बातों से पूरी सहमति है। चिट्ठालेखन की यही तो समस्या है कि अक्सर आप थोड़ी सी ही बात कर पाते हैं जिसे पढ़ने वाला सीमित अर्थों में ही ग्रहण करता है। जब मैंने यह लिखा कि reversible के लिए रीवर्सनीय या 'विपरीत संभव' भी तो कहा जा सकता है, मैं यह नहीं कह रहा कि ग्रीक या लातिन से लिए गए कठिन शब्दों को लागू किए जाए, मैं तो इसके विपरीत यह कह रहा हूँ कि जो प्रचलित शब्द हैं, उनका पूरा इस्तेमाल किया जाए। स्पष्ट है कि ऐम्फीबियन हिंदी में प्रचलित शब्द नहीं है, जैसे उत्क्रमणीय भी नहीं है। इसलिए ऐम्फीबियन की जगह अगर उभयचर का उपयोग होता है, तो उत्क्रमणीय की जगह विपरीत संभव नहीं तो रीवर्सनीय या ऐसा ही कोई शब्द व्यवहार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि रीवर्स जैसे शब्द का उद्गम संस्कृत नहीं है, यह तय नहीं करता कि वह हिंदी का शब्द नहीं है। जी हाँ, मेरे मुताबिक लोग जो बोलते हैं, वही उनकी भाषा होती है। उत्क्रमणीय हमारे लिए ग्रीक या लातिन ही है। हिंदी वह नहीं जो भाषा विशेषज्ञ तय कर...

'शिक्षा' और 'विद्या'

'शिक्षा' और 'विद्या' में फर्क है। विद्या मानव में निहित ज्ञान अर्जन की क्षमता है, अपने इर्द गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया और इससे मिले सम्मिलित ज्ञान का नाम है। शिक्षा एक व्यवस्था की माँग है। अक्सर विद्या और शिक्षा में द्वंद्वात्मक संबंध होता है, होना ही चाहिए। शिक्षा हमें बतलाती है राजा कौन है, प्रजा कौन है। कौन पठन पाठन करता है, कौन नहीं कर सकता आदि। तो फिर हम शिक्षा पर इतना जोर क्यों देते हैं। व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों में एक यह है कि शिक्षा के औजार विद्या के भी औजार बन जाते हैं। जो कुछ अपने सीमित साधनों तक हमारे पास नहीं पहुँचता, शिक्षित होते हुए ऐसे बृहत्तर साधनों तक की पहुँच हमें मिलती है। जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर ...

एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से

मुसीबत यह है कि एक तो शिक्षा व्यवस्था पर बहुत सारे लोगों द्वारा बहुत सारी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि हिंदी में टंकन की आदत न रहने की वजह से ब्लॉग पर विस्तार से कुछ लिख पाना मुश्किल है। मैंने समय समय पर आलेख लिखे हैं, पर कभी ऐसा शोधपरक काम नहीं किया जिसे गंभीर चर्चा के लिए पेश किया जा सके। मतलब यह है कि अनुभवों के आधार पर कुछ दो चार बातें कहनी एक बात है और वर्षों तक चिंतन कर विभिन्न विद्वानों की राय का मंथन कर सारगर्भित कुछ करना या कहना और बात है। जब उम्र कम थी तो हरफन मौला बनने में हिचक न थी। जहाँ मर्जी घुस जाते थे और अपनी बात कह आते थे। पर अब शरीर भी और दिमाग भी बाध्य करता है कि अपने कार्यक्षेत्रों को सीमित रखें। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य टिप्पणियाँ या विशष सवालों के जवाब तो चिट्ठों में लिखे जा सकते हैं, पर विस्तृत रुप से लिखने के लिए तो अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा (मुख्यतः समय सीमा को ध्यान में रखते हुए)। प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तकें गंभीर शोध पर आधारित हैं और गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण हैं। राज, समाज और शिक्षा से लेकर उनकी दूसरी पुस्तकों मे...

शिक्षा का स्वरुप कैसा हो?

इसके पहले कि इसका कोई जवाब ढूँढा जाए, यह जानना जरुरी है इस सवाल से बावस्ता सिर्फ उन्हीं का हो सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में रुचि के साथ आए हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि भारत में अन्य तमाम पेशों की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक भ्रष्टाचार है और भले लोगों की कम और फालतू के लोगों की ज्यादा चलती है। बी एड, एम एड में पढ़ाया बहुत कुछ जाता है, पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। संस्थागत ढाँचों से बाहर शिक्षा पर बहुत सारा काम हुआ है। या संस्थानों से जुड़े ऐसे लोग जो किसी तरह संस्थानों की सीमाओं से बाहर निकल पाएँ हैं, उन्होंने शिक्षा में बुनियादी सुधार पर व्यापक काम किया है। आज इस चिट्ठे में मैं सिर्फ कुछेक नाम गिनाता हूँ ताकि जिन्हें जानकारी न हो वे जान जाएँ। बीसवीं सदी में बुनियादी स्तर पर दो मुख्य वैचारिक आंदोलन हुए हैं। एक है गाँधी जी का शिक्षा दर्शन, जिसमें पारंपरिक कारीगरी को सिखाने पर बड़ा जोर है। दूसरा रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रकृति के साथ संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय शिक्षा का दर्शन है। दोनों की अपनी अपनी खूबियाँ और सीमाएँ हैं। व्यवहा...

बाकी हर ओर अँधेरा

होली की पूर्व संध्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। बड़ी दिक्कतें आईं। वैसी ही जैसी प्रत्यक्षा ने अपने चिट्ठे में बतलाई हैं। मैंने शुभेंदु से गुजारिश के उसे मनवा लिया था कि वह हमारे लिए एक शाम दे दे। उसका गायन आयोजित करने में मैं बड़ा परेशान रहता हूँ, क्योंकि भले ही दुनिया के सभी देशों में उसके कार्यक्रम हुए हैं, और भले ही जब शुभा मुद्गल को कोई चार लोग जानते थे, तब दोनों ने एकसाथ जनवादी गीतों का कैसेट रेकार्ड किया था, पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बंदे ने गायन को धंधा नहीं बनाया है। और गायन जिनका धंधा है, जो हर दूसरे दिन अखबारों में छाए होते हैं, ऐसे शास्त्रीय़ संगीतकारों को भी जब युवा पीढ़ी बड़ी मुशकिल से झेलती है, तो निहायत ही अपने दोस्तों तक सीमित गायक, जो अन्यथा वैज्ञानिक है, ऐसे गायक को कौन सुनेगा। खास तौर पर जब उनके अपने छम्मा छम्मा 'क्लासिकल सोलो (!)' नृत्य के कार्यक्रमों की लड़ी उसके बाद होनी हो। इसलिए आयोजन में मेरा वक्त, ऊर्जा, पैसा सबकुछ जाया होता है। इसबार मुझे समझाया गया था कि यहाँ लोकतांत्रिक ढंग से सबकुछ होता है और छात्रों के आयोजन में मैं टाँग न अड़...

अनुनाद की सिफारिश पर

अनुनाद ने टिप्पणी लिखी तो मन खुश हो गया। एक तो अरसे से अनुनाद की टिप्पणी पढ़ी न थी। दूसरे छेड़ा भी तो बिल्कुल निशाने पर तीर क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को लेकर ही मैं वैचारिक रुप से सबसे ज्यादा पीड़ित हूँ। वैसे इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन क्षेत्रों पर कोई विशेष शोध कर रहा हूँ। कर ही नहीं सकता। न वक्त न साधन। इन दो क्षेत्रों की सच्चाइयाँ इतनी स्थूल हैं कि भयंकर शोध की ज़रुरत भी नहीं दिखती। इसलिए सबसे पहले तो मैं अपने एक पुराने चिट्ठे में लिखी लाइनें दुहराता हूँ (आँकड़े तकरीबन सही हैं, पर जिन्हें नुक्ताचीनी करनी है, वे करते रहें, बड़ा सच तो सच ही रहेगा, चाहे ३.२% का आँकड़ा ३.३% बन जाए) **************दिसंबर के चिट्ठे से************ भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः- १) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है। २) राष्ट्रीय बज...

गोलकंडा की थकान और एक अच्छे मित्र से मिलना

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की जो हमलोग कालेज के जमाने में पढ़ते थे? वह धूप कुछ और है - उसका जिक्र आखिर में करुँगा। यहाँ जिस धूप की बात है वह वैसे तो अच्छी लगती है पर उस दिन इस निगोड़ी धूप ने थका ही दिया। गर्मियों में गणनात्मक यानी कंप्यूटेशनल भौतिक और जैव विज्ञान पर एक कार्यशाला करनी है - उनके पोस्टर बनवाने के सिलसिले में शहर गया था। वहाँ से लौटते हुए रास्ते में मेंहदीपटनम शुभेंदु की माताजी से दो मिनटों के लिए मिलने पहुँचा कि शुभेंदु की अनुपस्थिति में सब ठीक है कि नहीं - पता चला शुभेंदु आ पहुँचा है। फिर अभिजित का फ़ोन आ गया कि कानपुर से आए मित्र को शहर घुमाने ला रहा हूँ साथ चलो। मेरी क्लास नहीं थी तो कहा चलो एक दिन घूमना सही। पहले सलारजंग संग्रहालय गए। करीब एक घंटा लगाया। पहले दो चार बार हैदराबाद आया हूँ सलारजंग देखा नहीं था। सुना बहुत था। पर देखकर इतनी बड़ी बात लगी नहीं जितना सुना था। बहरहाल राज-रजवाड़ों में से किसी का निजी संग्रह इतना विशाल हो, बड़ी अच्छी बात है। फार ईस्ट यानी जापान से लाए उन्नीसवीं सदी के बर्त्तन...