My Photo
Name:
Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, March 25, 2006

लेकिन।

सूचनाः- महज सूचना और अवधारणात्मक समझ के साथ सूचना में फर्क है।

जब साधन कम हों तो रटना भी फायदेमंद है। भारतीय परंपरा में लिखने पर कम और श्रुति पर जोर ज्यादा था। चीन में बड़े पैमाने पर तथ्य दर्ज किए गए, पर वहाँ भी स्मृति पर काफी जोर रहा है। गरीब बच्चे जिनके पास पुस्तकें कम होती हैं, उनके लिए रटना कारगर है। यानी स्मृति का महत्त्व है।

लेकिन।

एक कहानी है, जो मैंने बचपन में सुनी थी - बाद में शायद लघुकथा के रुप में 'हंस' में छपी थी। पंडित का बेटा चौदह साल काशी पढ़ कर आया। गाँव में शोर मच गया। लोग बाग इकट्ठे हो गए। हर कोई बेटे से सवाल पूछे। आखिर चौदह साल काशी पढ़ कर आया है। विद्वान बेटा जवाब दर जवाब देता जाए। आखिर जमला जट्ट भी भीड़ देख कर वहाँ पहुँच गया।
जमले से रहा नहीं गया। कहता कि एक सवाल मैं पूछूँ तो बेटे जी से जवाब नहीं दिया जाएगा। लोगबाग हँस पड़े। बेटे ने नम्रता से कहा पूछो भई। जमला के कंधे पर हल था। उसने हल की नोक से ज़मीन पर टेढ़ी मेढ़ी लकीर बनाई। लोग देखते रहे। जमला ने पूछा - बोल विद्वान भाई,यह क्या है? बेटा क्या कहता, हँस पड़ा - यह तो एक रेखा है। जमला ने सिर हिलाया - नहीं बॉस! no go! बेटा जरा परेशान हुआ बोला वक्र रेखा है और क्या है? जमला बोला नहीं जी नहीं हुआ। कई जवाब देकर आखिर तंग आकर बेटे ने कहा कि चलो तुम ही बतलाओ, हम तो हार गए। सब ने कहा - tell him bro' tell him! तो जमला ने हँस कर कहा - अरे यह है बलदमूतन! (बलद मतलब बैल)।

मात्र सूचना का विकल्प क्या है? सूचना अनपढ़ किसान के पास भी बहुत सारी होती है। गाँव में स्कूल न जा रहे बच्चे के पास भी होती है। पर वह मात्र सूचना नहीं होती। जितना भी सीमित हो, उस सूचना का एक तार्किक आधार होता है। शिक्षाविद मानते हैं कि बच्चों के सीखने की अलग अलग उम्र की खिड़कियाँ होती हैं। चार साल के बच्चे को न्यूटन के नियम नहीं समझाए जा सकते। रटाए ज़रुर जा सकते हैं। चूँकि दिमाग है कि हर कुछ समझना ही चाहता है, इसलिए जब रटा नहीं जाता तो मार पीट कर रटाया जाता है। आखिरकार दिमाग कुछ पैटर्न्स ढूँढ लेता है - कभी ध्वनियों के, कभी आकारों के और उनके माध्यम से रटता रहता है। सालों बाद अचानक एकदिन जब बात समझ आती है तो अजीब लगता है अच्छा तो यह बात थी और मैंने रट कर ही काम चला दिया! चूँकि काम चल जाता है इसलिए कहा जा सकता है कि रटना कारगर है। मैं मानता हूँ कि रटने का महत्त्व है। पर कितना अच्छा होता कि पैसे बम गोलों में खर्च न होते, गरीबी न होती, बच्चों के पास भरपूर किताबें होतीं या गाँव गाँव में पुस्तकालय होते और रटने की जगह बच्चे अपने दिमाग के हर परमाणु का उचित इस्तेमाल कर रहे होते। तो जो नैसर्गिक है, जो निहित है, चीज़ों को समझने का वैसा तार्किक आधार विकसित होता। सूचना का भंडार बढ़ता, पर ऐसे जैसे धोनी के छक्के लग रहे होते हैं।

भाषाविदों में बहस चल रही है कि क्या सभी भाषाओं का एक सा व्याकरण है? अब यह माना जा रहा है कि व्याकरण या विन्यास कुछ नहीं होते, प्रसंग महत्त्वपूर्ण होते हैं। य़ानी कि प्रासंगिक समझ विषय को परिभाषित करती है, कोई नियत परिभाषा प्रसंग की व्याख्या नहीं करती। सूचना आधारित शिक्षा परिभाषाओं के जरिए विषय वस्तु का परिचय करवाती है, जबकि प्राकृतिक रुप से हम अनुभव के जरिए और प्रासंगिक समझ के जरिए विषय वस्तु को समझ कर सूचना का भंडार बढ़ाना चाहते हैं।

यांत्रिक शिक्षा व्यवस्था में पूर्वज्ञान पर आधारित अवधारणाओं का संसार तो हाशिए पर जाने को मजबूर है ही, परिभाषाओं पर आधारित नया जो तर्क संसार बनता है, इसकी अपूर्णता सीखने वाले पर बहुत दबाव डालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में महज सूचना के विशाल तंत्र में पिसता हुआ आदमी मानसिक रुप से बीमार ही होता रहता है। इस तंत्र में पढ़ने-लिखने, प्रयोग करने और मूल्यांकन आदि हर पक्ष की अलग और बँधी हुई भूमिका होती है। जबकि इन सभी पक्षों को शिक्षा के सर्वांगीण स्वरुप की तरह देखा जाना चाहिए। जो सीखा गया है, परीक्षा उसका मूल्यांकन मात्र नहीं, बल्कि सीखने का एक और तरीका भी होनी चाहिए। सर्वांगीण स्वरुप में शिक्षा (जिसे मैंने विद्या कहा था) हमें तंत्र से बाहर भी लगातार अपनी क्षमताओं का स्वतः इस्तेमाल करवाती है। महज सूचना पर आधारित यांत्रिक शिक्षा स्कूल कालेज की इमारतों के साथ जुड़ी होती है। घर पर ही पढ़ लिख रहे हम स्कूल कालेज का काम कर रहे होते हैं। तकरीबन आधी सदी ज़िंदा रहने के बावजूद मुझे आज भी सपने आते हैं जैसे मैं स्कूल या कालेज में भटका हुआ हूँ, कोई इम्तहान छूट गया और पता नहीं क्या क्या!

ज्ञान पाना आनंदमय होना चाहिए। सही है, इसके लिए सूचना का भंडार भी चाहिए। पर प्राथमिकता किस बात की होगी, यह महत्त्वपूर्ण है - आनंद की या भंडार की। बहरहाल अनुनाद ने जो सवाल किया है, उसका जवाब एक तरह से मैं पहले दे चुका हूँ कि हजारों लोग जुटे हुए हैं कि शिक्षा का स्वरुप बदले और उसमें आनंद की मात्रा बढ़े। उन्हीं संस्थाओं का नाम मुझे वापस लिखना पड़ेगा। सांकेतिक रुप से एक जवाब उन नारों में भी है जो मैंने उस कार्टून में लिखे थे, जो फटीचर दढ़ियल बंदे के हिस्से के हैं।

और जमला जट्ट की कहानी में जो छूट मैंने ली है, उसके लिए माफी - अब आधे चिट्ठाकार तो यांक बने अमरीका में घूम रहे हैं, उनके लिए कुछ रोचक बात न हो तो मुझे महाबोर घोषित कर देंगे।

Labels:

1 Comments:

Blogger Pratyaksha said...

आपकी शिक्षा पर सारे लेख पढ गई.इन मुद्दों पर दिमाग में खूब खलबली होती है. पढकर कई प्रश्न उठे, पर फिर कभी

9:56 AM, March 27, 2006  

Post a Comment

<< Home