अनुनाद ने हिंदी शब्दों के अच्छे उदाहरण दिए हैं जो उनके अंग्रेजी समतुल्य शब्दों की तुलना में ज्यादा सहज लगते हैं। मुझे अनुनाद की बातों से पूरी सहमति है। चिट्ठालेखन की यही तो समस्या है कि अक्सर आप थोड़ी सी ही बात कर पाते हैं जिसे पढ़ने वाला सीमित अर्थों में ही ग्रहण करता है। जब मैंने यह लिखा कि reversible के लिए रीवर्सनीय या 'विपरीत संभव' भी तो कहा जा सकता है, मैं यह नहीं कह रहा कि ग्रीक या लातिन से लिए गए कठिन शब्दों को लागू किए जाए, मैं तो इसके विपरीत यह कह रहा हूँ कि जो प्रचलित शब्द हैं, उनका पूरा इस्तेमाल किया जाए। स्पष्ट है कि ऐम्फीबियन हिंदी में प्रचलित शब्द नहीं है, जैसे उत्क्रमणीय भी नहीं है। इसलिए ऐम्फीबियन की जगह अगर उभयचर का उपयोग होता है, तो उत्क्रमणीय की जगह विपरीत संभव नहीं तो रीवर्सनीय या ऐसा ही कोई शब्द व्यवहार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि रीवर्स जैसे शब्द का उद्गम संस्कृत नहीं है, यह तय नहीं करता कि वह हिंदी का शब्द नहीं है। जी हाँ, मेरे मुताबिक लोग जो बोलते हैं, वही उनकी भाषा होती है। उत्क्रमणीय हमारे लिए ग्रीक या लातिन ही है। हिंदी वह नहीं जो भाषा विशेषज्ञ तय करते हैं, हिंदी तो हिंदी क्षेत्र के लोगों की भाषा है, जो सही गलत कारणों से बनती बिगड़ती रहती है।
बात सिर्फ पारिभाषिक शब्दों की नहीं है, अनुनाद ने सही कहा है कि "पारिभाषिक शब्द , चाहे वे हिन्दी के हों या अंगरेजी के, अपने-आप में पूरी बात (फेनामेनन्) कहने की क्षमता नहीं रखते यदि ऐसा होता तो न तो परिभाषा की जरूरत पडती और न ही मोटी -मोटी विज्ञान की पुस्तकों की लोग शब्द रट लेते और वैज्ञानिक बन जाते " बात तो प्रवृत्ति की है। अरे, विज्ञान तो दूर, जो हिंदी मैं लिख रहा हूँ यही हिंदी के कई नियमित चिट्ठाकारों के लिए पत्थर के चनों जैसी है। समूची शिक्षा (हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम) में सूचना पर जोर है।
रटो, रटो, सूचना का बैंक बनाओ। सूचना के भी पारिभाषिक पक्ष पर जोर है। प्रासंगिक है कि हिंदी में लिखी पुस्तकों में यह अपेक्षाकृत ज्यादा है। जैसा मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा है, इस तरह की शिक्षा का मकसद व्यवस्था के पुर्जे बनाना है। जिनके पास पैसे हैं, साधन हैं, उन्हें स्कूल कालेज के पाठ्यक्रम से अलग कुछ सीखने का अधिक अवसर मिलता है। इनमें से अधिकांश ने वैसे भी पुर्जे नहीं बनना है, उन्हें पुर्जों का इस्तेमाल करना है, इसलिए वे अवधारणा के स्तर पर आगे बढ़ जाते हैं। बाकी हर किसी को उस शिक्षा की मार से बचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
बहुत पहले बॉस्टन से निकलने वाली 'साइंस फॉर द पीपल' पत्रिका में देखी सामग्री के आधार पर हमने एक कार्टून बनाया था, जिसमें दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाओं पर टिप्पणी की गई है। एक है पारंपरिक या बहुतायत को मिल रही शिक्षा, जिसमें एक सजाधजा अध्यापक है, और सामने अनुशासित ढंग से छात्र बैठे हैं (उदास, खोए से) और अध्यापक कह रहा है - Answer the questions, pass the exams, your future is at stake -सवालों का जवाब सीखो, इम्तहान पास करो, तुम्हारे भविष्य का सवाल है।
दूसरी ओर एक मेरे जैसा दढ़ियल फटीचर है, जिसको छात्रों ने घेर रखा है और मैं कह रहा हूँ- Question the answers, examine your past, your present is at stake - जो जवाब हैं उनपर सवाल खड़े करो, अपने अतीत को परखो, तुम्हारा वर्त्तमान खतरे में है।
मैं फटीचर नहीं दढ़ियल ज़रुर हूँ।
अब दोस्तों, यह मत कहना कि कार्टून चिट्ठे में डालो। मैं देख रहा हूँ कि बाकी लोग मजेदार बातें लिखते रहते हैं मुझे कहाँ कहाँ फँसा देते हो।
बात सिर्फ पारिभाषिक शब्दों की नहीं है, अनुनाद ने सही कहा है कि "पारिभाषिक शब्द , चाहे वे हिन्दी के हों या अंगरेजी के, अपने-आप में पूरी बात (फेनामेनन्) कहने की क्षमता नहीं रखते यदि ऐसा होता तो न तो परिभाषा की जरूरत पडती और न ही मोटी -मोटी विज्ञान की पुस्तकों की लोग शब्द रट लेते और वैज्ञानिक बन जाते " बात तो प्रवृत्ति की है। अरे, विज्ञान तो दूर, जो हिंदी मैं लिख रहा हूँ यही हिंदी के कई नियमित चिट्ठाकारों के लिए पत्थर के चनों जैसी है। समूची शिक्षा (हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम) में सूचना पर जोर है।
रटो, रटो, सूचना का बैंक बनाओ। सूचना के भी पारिभाषिक पक्ष पर जोर है। प्रासंगिक है कि हिंदी में लिखी पुस्तकों में यह अपेक्षाकृत ज्यादा है। जैसा मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा है, इस तरह की शिक्षा का मकसद व्यवस्था के पुर्जे बनाना है। जिनके पास पैसे हैं, साधन हैं, उन्हें स्कूल कालेज के पाठ्यक्रम से अलग कुछ सीखने का अधिक अवसर मिलता है। इनमें से अधिकांश ने वैसे भी पुर्जे नहीं बनना है, उन्हें पुर्जों का इस्तेमाल करना है, इसलिए वे अवधारणा के स्तर पर आगे बढ़ जाते हैं। बाकी हर किसी को उस शिक्षा की मार से बचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
बहुत पहले बॉस्टन से निकलने वाली 'साइंस फॉर द पीपल' पत्रिका में देखी सामग्री के आधार पर हमने एक कार्टून बनाया था, जिसमें दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाओं पर टिप्पणी की गई है। एक है पारंपरिक या बहुतायत को मिल रही शिक्षा, जिसमें एक सजाधजा अध्यापक है, और सामने अनुशासित ढंग से छात्र बैठे हैं (उदास, खोए से) और अध्यापक कह रहा है - Answer the questions, pass the exams, your future is at stake -सवालों का जवाब सीखो, इम्तहान पास करो, तुम्हारे भविष्य का सवाल है।
दूसरी ओर एक मेरे जैसा दढ़ियल फटीचर है, जिसको छात्रों ने घेर रखा है और मैं कह रहा हूँ- Question the answers, examine your past, your present is at stake - जो जवाब हैं उनपर सवाल खड़े करो, अपने अतीत को परखो, तुम्हारा वर्त्तमान खतरे में है।
मैं फटीचर नहीं दढ़ियल ज़रुर हूँ।
अब दोस्तों, यह मत कहना कि कार्टून चिट्ठे में डालो। मैं देख रहा हूँ कि बाकी लोग मजेदार बातें लिखते रहते हैं मुझे कहाँ कहाँ फँसा देते हो।
3 comments:
कार्टून साथ में डालते तो वाकई यह प्रविष्टि और भी मजेदार हो जाती। देखा आप फिर से फँस गये।
कार्टून अगर डाल देते तो अंतिम दो-तीन पेराग्राफ लिखने की जरूरत ही नही पड़ती।
सूचना (फैक्ट) रटने/रटाने वाली पढाई से निजात दिलाने वाली कोई कारगर और व्यावहारिक उपाय/हल आपके पास है ?
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