Thursday, November 30, 2006

यह रहा

यह रहा वह पत्थर, जिसका ज़िक्र मैंने किसी पिछली प्रविष्टि में किया था।









और यह वह सूरज जिसे किसी की नहीं सुननी, उन बौखलाए साँड़ों की भी नहीं, जो हर रोज सुबह की नैसर्गिक शांति का धर्म के नाम पर बलात्कार कर रहे हैं। इस निगोड़े को कंक्रीटी जंगलों पर भी यूँ सुंदर ही उगना है।

इन दिनों संस्थान में चल रहे जीवन विद्या शिविर में तकरीबन इस पत्थर की तरह लटका हुआ हूँ। साथ में बाकी काम भी।

इसलिए अभी और कुछ नहीं।

2 comments:

मसिजीवी said...

निगोड़ा सूरज त्रिशंकु पत्‍थर
तिसपर शिविर विव‍र की चूहेमारी़........लटके रहो लाल्‍टू।

Anonymous said...

धर्म के एक वीभत्स पक्ष पर रची कविता देखने के लिये कृपया मेरे ब्लॉग पर तशरीफ़ लाएं.