Thursday, March 16, 2006

अनुनाद की सिफारिश पर

अनुनाद ने टिप्पणी लिखी तो मन खुश हो गया। एक तो अरसे से अनुनाद की टिप्पणी पढ़ी न थी। दूसरे छेड़ा भी तो बिल्कुल निशाने पर तीर क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को लेकर ही मैं वैचारिक रुप से सबसे ज्यादा पीड़ित हूँ। वैसे इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन क्षेत्रों पर कोई विशेष शोध कर रहा हूँ। कर ही नहीं सकता। न वक्त न साधन। इन दो क्षेत्रों की सच्चाइयाँ इतनी स्थूल हैं कि भयंकर शोध की ज़रुरत भी नहीं दिखती। इसलिए सबसे पहले तो मैं अपने एक पुराने चिट्ठे में लिखी लाइनें दुहराता हूँ (आँकड़े तकरीबन सही हैं, पर जिन्हें नुक्ताचीनी करनी है, वे करते रहें, बड़ा सच तो सच ही रहेगा, चाहे ३.२% का आँकड़ा ३.३% बन जाए)

**************दिसंबर के चिट्ठे से************
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है (यह तथ्य शिक्षा और स्वास्थ्य पर होती आम बहस में नहीं बतलाया जाता यानी कि एक भयंकर बौद्धिक बेईमानी और षड़यंत्र।)। इसलिए सवाल यह नहीं कि प्राथमिक और उच्च शिक्षा में लागत का अनुपात कितना है, दोनों ही में ज़रुरत से बहुत कम पैसा लगाया गया है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

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आज ही अपने आई आई टी के अध्यापक प्रोफेसर सत्यमूर्ति जो हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी आए थे और जो राष्ट्रीय विज्ञान संरचना में काफी पहुँचे हुए व्यक्ति हैं, उनसे बात हो रही थी। उनका मानना है कि भारत में शोध कार्य कर रहे लोगों की भयंकर कमी है। पी एच डी प्राप्त करने वालों की कुल संख्या रैखिक पैमाने पर बढ़ रही है और रेखा की ढलान कम होती जा रही है। इसके विपरीत चीन में यह संख्या exponentially बढ़ रही है। २००८-०९ तक भारत में साल भर में पी एच डी करने वालों की संख्या ५००० होगी जबकि यही संख्या चीन में १४००० होगी।
अनुनाद ने छेड़ तो दिया पर यह विषय इतना बड़ा है कि झट से लिखना संभव नहीं है। मसलन क्या पी एच डी करने वालों की संख्या और शोध कार्य के स्तर में कोई संबंध है। आज हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में ही केमिस्ट्री के कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के लिए रीफ्रेसर कोर्स में भाषण देने के बाद जब किसी ने मुझसे सवाल नहीं पूछा तो हारकर मैंने यही कहा कि संभवतः मैं बहुत ही बेकार वक्ता हूँ। मेरे अध्यापक सत्यमूर्ति जो स्नेहवश मेरे भाषण में बैठे हुए थे उन्होंने जरा बहस छेड़ने की कोशिश की तो भी बस मेरे और उनके बीच संवाद होता रहा। पर मैं जानता हूँ कि कलकत्ता में कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के सामने बोलने पर बिल्कुल अलग अनुभव होता है। प्रोफेसर सत्यमूर्ति का कहना था कि यहाँ के साधारण कालेज और यूनीवर्सिटी में केमिस्ट्री पढ़ाने का स्तर वैसा है नहीं जैसा कलकत्ता में है। यानी कि डिग्री चाहे एक हो, स्तर में बड़ा अंतर है। चीन के सालाना १४००० पी एच डी कैसे होंगे क्या पता, पर मेरा मानना है कि वे औसतन इतने बेकार न होंगे जितने हमारे यहाँ हैं। इसकी वजह विशुद्ध राजनैतिक है। चूँकि हमारे देश में वर्ग और जाति के आधार पर अभी भी जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से को शिक्षा से अलग रखा गया है, इसलिए हमारी डिग्रियों का औसत स्तर कभी भी बहुत अच्छा नहीं होगा। पंजाब विश्वविद्यालय में काम करते हुए मैंने देखा है कि उच्च शिक्षा में वर्ग, संप्रदाय और जाति के आधार पर कैसा व्यापक भ्रष्टाचार है। आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए, क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का बड़ा हिस्सा in-bred यानी कि उसी संस्थान में पढ़ा लिखा हुआ मिलेगा। ऐसे अध्यापक निहित स्वार्थ समूह की तरह विश्वविद्यालय की राजनीति पर हावी रहते हैं। इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, सब कुछ ही भ्रष्ट तरीके से हुई होती है और इसमें अक्सर उन तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ होता है जिन्होंने सब कुछ जानते हुए भी निहायत ही छोटी छोटी सुविधाओं के लिए क्षमता होते हुए भी गलत बातों का विरोध नहीं किया होता है।

यानी कि संसाधनों का अभाव, वर्ग-जाति-संप्रदाय आधारित समाज व्यवस्था, घटिया राजनीति - ये क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के पतन के मुख्य कारण हैं। इनसे अलग स्तरीय शिक्षा के जो थोड़े बहुत द्वीप (आई आई टी, आई आई एस सी या केंद्रीय विश्वविद्यालय) हैं, वहाँ या तो फीस बहुत अधिक है या वह सांस्कृतिक कारणों से देश की अधिकतर जनता की पहुँच से दूर हैं।

चीन में गलत तरीके से ही सही, एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था है, जिसके तहत देश की अधिकांश जनता को स्तरीय स्कूली शिक्षा मिलती है। इसी शिक्षित तबके में से ही चुनींदा लोग उच्च शिक्षा के लिए आते हैं और उनकी नियुक्ति या पदोन्नति में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत बहुत कम है। इसलिए दोस्तो, हम चीन को पकड़ लेंगे जैसा झूठ जो हमें पिलाते रहते हैं, उनके प्रति हमें सावधान रहना चाहिए। शोध के स्तर में उनकी तरक्की वास्तविक है, यह अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में उनकी लगातार बढ़ती हिस्सेदारी से स्पष्ट है। इसका नतीजा यह होगा कि कुछ ही वर्षों में जब हम अपने सॉफ्टवेयर कुलियों पर गर्व करते रहेंगे, चीन की होड़ हमसे कहीं आगे पश्चिमी मुल्कों और जापान से हो रही होगी। कुछेक अपवादों को छोड़ कर, हमारे आई टी क्षेत्र के हजारों लोग काल सेंटर्स में पश्चिमी ग्राहकों के सवालों के जवाब देते रहेंगे। चीन के वैज्ञानिक और इंजीनीयर नई तकनीकों को विकसित कर रहे होंगे, जिनपर हमारे सॉफ्टवेयर कुली भाड़े के टट्टुओं जैसे काम कर रहे होंगे।
अनंत सवाल बाकी रह गए। इन पर फिर कभी।

1 comment:

Anonymous said...

लाल्‍टु जी सही सवाल उठाया ही लेकिन इसके साथ शिक्षा के वर्तमान स्‍वरूप को भी बदलने की आवश्‍यकता है।