My Photo
Name:
Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, November 05, 2006

एक दिन का बादशाह

वाह भई वाह! सालगिरह ने तो मुझे एक दिन का बादशाह ही बना दिया। इतनी टिप्पणियाँ!
बहरहाल, एक तो लटके पत्थर की तस्वीर दिखलानी है।
कविता भी। बस सिर्फ मसिजीवी की बधाई का इंतज़ार था। आगे किसी प्रविष्टि में तस्वीर और कविता का वादा रहा।
दूसरी बात आर टी ओ वाली। थोड़ी सी बेईमानी मेरी रही कि कुछ गड़बड़ जो और वजहों से हो रही है, वह बतलाया नहीं।

इसके पहले कि फिर किसी अंजान भाई को तकलीफ हो, कुछ आत्म-निंदा कर लूँ। सुख तो पर-निंदा जैसा नहीं मिलेगा, पर निंदा तो निंदा ही है।

एक जनाब हैं पंकज मिश्र। उसने भारतीय मध्य-वर्ग की निंदा (जिसमें वह खुद शामिल है बेशक) को बाकायदा धंधा बना लिया है। हमारा हीरो है। 'बटर चिकन इन लुधियाना' पढ़ी थी कुछ साल पहले। पता चला बंगाल के छोटे शहर में लुधियाना के बटर चिकन का गुणगान हो रहा है पंजाबी स्टाइल में (इसके बारे में साल भर पहले लिखा था कि गुरशरण जी ने कितना फाइन तय किया है), चिकन निगल रहे हैं हरियाणवी व्यापारी और आ हा हा! भोजन कितना बढिया है इसका पैमाना है कि भोजन के बारे में कितनी घटिया भद्दी गाली निकल सकती है। है न कमाल की खोज। इसलिए पंकज मिश्र मेरा हीरो बन गया है। वैसे मैं आत्म-निंदा के लिए चला था, लगता है पर-निंदा पर रुक गया। ऐसा नहीं है, पंकज ने हमारे जैसे लोगों को कटघरे में खड़े कर सोचने लायक बातें लिखी हैं। अरे, किधर से किधर पहुँच गया। सब लोग बधाई वापस ले लेंगे।

तो आत्म निंदा यह कि सारी गलती आर टी ओ कि है ऐसा नहीं है। आर टी ओ ने सिर्फ परिस्थितियाँ ऐसी बना दी हैं कि हैं जरा सा चूको तो गलतियाँ करो। फिर रोओ। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि आप हैदराबाद में हमारे आस-पास काम कर रहे हैं और दूसरे प्रांत से वाहनों का एन ओ सी मँगवा रहे हैं। आप के लाख कहने के बावजूद दूसरे प्रांत के क्लर्क बाबू कागजों में लिख देते हैं कि आप वाहन हैदराबाद ले जा रहे हैं तो आप फँस गए। क्योंकि आप ने चाहा है कि हैदराबाद का पिन कोड होने पर भी आपका निवास हैदराबाद नहीं रंगा रेड्डी जिले में है यह बात क्लर्क के समझ में आ जाए और आप सही आर टी ओ में कागज़ ले जाएँ। पर बाबू इस बात को क्यों समझे। आपको भी बात समझ में नहीं आई न? तो बाबू बेचारे की क्या गलती। तो दुबारा कागज़ वापस (एक और भी तरीका है - पर यार अब कितना बोर करें - छोड़ते हैं इसे यहाँ - ज्यादा समझना है तो अंजान भाई को ढूँढो, उसे सरकारी बातों का औचित्य मालूम है)। अब गड़बड़ यह हुई कि पंद्रह दिन बाद पता चला कि कागज़ात तो यहीं डिस्पैच ऑफिस में पड़े रह गए। चेतन ने इसे मर्फी के नियमों का प्रमाण माना है। बहरहाल हिंदुस्तान चलमान है।

वैसे संजय के सवाल का जवाब यह है कि जी हाँ एक नियत अवधि के बात भारत के किसी एक प्रांत में पंजीकृत गाड़ी दूसरे प्रांत में चलाने की कानूनी मान्यता नहीं है। नियत अवधि कितनी है कोई ठीक ठीक नहीं जानता - मैंने आर टी ओ से जानने की कोशिश नहीं की है। चूँकि अन्य प्रांतों से आए अधिकतर लोग गैरकानूनी तौर से गाड़ियाँ चलाते रहते हैं, इसलिए नियत अवधि के बारे में हर तरह की समझ व्याप्त है - दो हफ्ते, छः हफ्ते - यहाँ तक कि एक (गलत) राय यह भी कि किसी तरह से रोड टैक्स दे दो तो फिर मूल प्रांत से एन ओ सी की ज़रुरत नहीं है।

यह कहानी फिर सही। पर इधर एक दो बातें ऐसी हुई हैं कि हर किसी को इससे छेड़ा जा सकता है।

हमारे एक उत्साही तेलेगू भाषी छात्र प्रणव ने आंध्र प्रदेश स्थापना दिवस पर तेलेगू संघम (समिति या समाज) स्थापना करने की घोषणा की। दो तरह का विरोध हुआ। एक तो पृथक (अलग) तेलंगाना प्रांत बनाने के समर्थकों की ओर से, दूसरा तथाकथित राष्ट्रवादियों की ओर से। पहली श्रेणी के लोगों का कहना था कि बृहत्तर तेलेगू संस्कृति के नाम पर हमेशा तेलंगाना के लोगों को ठगा गया है। राष्ट्रवादियों का कहना है कि इस तरह की समिति बनने से पृथकतावाद को बढ़ावा मिलता है।

मेरी इस में रुचि थी कि तेलेगू भाषी मित्र मेरे जैसे लोगों के लिए तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु करें और मैं लोगों को छेड़ने लायक कुछ बातें तेलेगू में भी कह सकूँ। अफसोस यह कि तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु हुई नहीं, फालतू का विवाद चल निकला। इस प्रसंग में एक बात याद आई कि पिछले कुछ वर्षों में हिंद-पाक दोनों ओर विश्व पंजाबी सम्मेलनों की बाढ़ आई हुई है। पंजाब विश्वविद्यालय में ऐसे एक विश्व पंजाबी सम्मेलन में भारत के विभिन्न प्रांतों से आए कलाकारों ने नृत्य कार्यक्रम पेश किए। सोचने की बात थी कि सम्मेलन पंजाबी, पर कार्यक्रम हर तरह की संस्कृति के।

प्रणव ने एक राष्ट्रवादी तर्क का जवाब देते हुए बड़ी रोचक बात लिखी है - अगर हमने अंग्रेज़ी क्लब बनाने की घोषणा की होती तो किसी को कोई आपत्ति न होती। हमारे सहपाठी मित्र 'literary club' के सदस्य हैं, जहाँ अधिकतर चर्चाएँ अंग्रेज़ी में होती हैं, पर तेलेगू संघम के नाम पर शोर मच रहा है।

संस्थान के निर्देशक ने प्रणव के समर्थन में मेल भेज दी और यह सवाल उठाया कि साल भर में अपनी मातृ-भाषा में सौ पन्नों से अधिक बड़ी कोई पुस्तक पढ़ी क्या? अगर नहीं तो क्यों नहीं!

इससे मुझे याद आया कि मैं अक्सर दिल्ली वालों को याद दिलाता हूँ कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाली कोई हिंदी पत्रिका सिर्फ दिल्ली वालों पर निर्भर रह कर चल नहीं सकती। जन की बात करते रहते हैं, जन की भाषा पढ़ते नहीं। मैंने कभी निजी दायरे में एक आंदोलन की शुरुआत की थी कि हर कोई कम से कम एक भारतीय़ भाषा में प्रकाशित किसी एक पत्रिका का सदस्य बने।

कल यहाँ विलियम डालरिंपल की बहादुर शाह जफर पर लिखी पुस्तक 'The Last Mughal' का विमोचन और लेखक द्वारा विषय पर स्लाइडों के साथ भाषण हुआ। मैंने उसकी दिल्ली पर लिखी 'The City of Djinns' पढ़ी है और दूसरों को भी पढ़वाई है। बंदा सही लिखता है, जिनको रुचि हो, बेहिचक गोते लगाएँ।

Labels:

5 Comments:

Blogger संजय बेंगाणी said...

पहले तो सालगिरह की बधाई स्वीकार करें.
दुसरे यह की हमारा अनुभव दुसरे प्रांत से वाहन लाकर चलाने का अभी तक हुआ नहीं हिअ, पर लगता नियम बेहद सरल हो तो अच्छा है. रोड़टेक्स भरो और काम खत्म.
शिक्षाक्षेत्र से भी माइग्रेसन सर्टीफिगेट हट जानी चाहिए.

10:15 AM, November 06, 2006  
Anonymous Anonymous said...

जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएं!

11:25 AM, November 06, 2006  
Blogger Pratyaksha said...

the last mughals पढी थी , पर अंत तक नहीं पहुँच पाई , बावज़ूद इसके कि इतिहास की छात्रा रही हूँ ।

11:48 AM, November 06, 2006  
Blogger मसिजीवी said...

नहीं प्रत्‍यक्षाजी, शायद आप the White Mughal रही होगी। Last mughal तो 3-4 दिन पहले ही विमोचित हुई है। यानि आपके हाथ लग भी गई हो तो नहीं पढ़ पाई कहना ठीक नहीं हो सकता।

लाल्‍टू बंधु हो सकता है कि यह हमारे इस जगत में चल रहे उत्‍तर उत्‍तरवाद के खेल के मुझ पर हो गए प्रभाव की वजह से हो पर आपकी इस पोस्‍ट में काफी कुछ होने की वजह से मैं केन्‍द्र खोज नहीं पाया।
पर लिखते रहिए

पढ़ने के मामले में प्रत्‍यक्षा की कहानी हनीमून नया ज्ञानोदय में आई है। पढ़ें और प्रत्‍यक्षा को टिप्‍पणी दें।

5:01 PM, November 07, 2006  
Blogger Pratyaksha said...

टिप्पणी का तो मैं इंतज़ार कर रही हूँ :-)
हाँ , वाकई वो किताब व्हाईट मुगल ही थी , मसिजीवि जी

2:42 PM, November 09, 2006  

Post a Comment

<< Home