मैंने कुछ भ्रष्ट काम किए हैं, जिनके लिए मुझे जेल तो नहीं, पर जुर्माने ज़रुर हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अॉडिट का नियम है कि कागज़ात की बाइंडिंग का खर्च आप रिसर्च ग्रांट से नहीं ले सकते। हमें अक्सर शोध पत्र या विद्यार्थियों द्वारा बार बार इस्तेमाल की गई (फोटोकापी करवाई गई) किताबें या दूसरे कागज़ात बँधवाने पड़ते हैं। पैसे निकलवाने का आसान तरीका है कि आप दूकानदार से कहें कि वह आपको फोटोकापी का बिल बनवा दे। बात छोटी सी लगती है, पर इसके दो नतीजे हैं - एक तो यह कि हमारी कुढ़न कभी इतनी तीखी नहीं हो पाती कि हम इस निहायत ही बेहूदा नियम को बदलवाने के लिए हाथ पैर उछालें; दूसरी बात यह कि लकीर कहाँ खींचें, हम इतनी सी बेईमानी करते हैं तो कोई और संसद में सवाल उठाने के लिए पैसे लेने को तैयार होता है।
यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन पर्क्स या ऊपरी पैसों के पार है, जिन्हें तनख़ाह का हिस्सा मान लिया जाता है।
हम सभी लोग - एक बुज़ुर्ग साथी कहते हैं, खानदानी बदतमीज़ी और बेईमानी से ग्रस्त हैं। इसलिए इन बातों को करते हुए भी संदेह होता है कि क्या सुननेवाला व्यक्ति वाकई इतना कम भ्रष्ट है कि कहने का कोई फायदा भी है!
एक कुलपति सीना चौड़ा कर के भ्रष्ट न होने का दावा करता है। उसके बेटे की पत्नी एम एस सी करके पति के साथ रहने के लिए अमरीका पहुँच गई। पी एच डी के लिए भर्ती हो गई। पी एच डी के लिए शुरुआत में कोर्स करने हैं। कोर्स में होम असाइनमेंट या टर्म पेपर वगैरह होते हैं। ये कन्या से हल नहीं होते। तो हर बार असाइनमेंट मिलते ही फैक्स पहुँचता है और कुलपति का विशेष सहायक किसी अध्यापक के घर पहुँचता है, साब ने भेजा है। अध्यापक नाराज़गी दिखलाता है तो सहायक कहता है - औख्खा क्यों होते हो डाकसाब, किसी और से करवा लेंगे। इसमें क्या? हर बार किसी और से होता रहा।
अजीब बात यह है कि मुझे इस कहानी में यह इतना बुरा नहीं लगता कि कुलपति भ्रष्ट है या इतना नादान है कि अमरीकी यूनिवर्सिटी के सिस्टम के साथ खिलवाड़ कर रहा है, पकड़े जाने पर बहू बेटे को वापस भेज देने की पूरी संभावना है, मुझे सबसे बुरी बात यह लगती है कि वह खुद अध्यापक से बात क्यों नहीं करता, अपने मातहत को क्यों भेजता है ! यानी कि मेरी सोच इतनी भ्रष्ट हो चुकी कि बुनियादी बात से ही मैं भटक चुका हूँ। अंत में, जितने लोग इसमें जुड़े हैं, उनमें से कोई भी खुलकर सामने नहीं आएगा। यह एक और किस्म का भ्रष्टाचार है। ऐेसी घटनाएं देखने सुनने के हम इतने आदी हो चुके हैं कि घोर उदासीनता और असहायता के शिकार हो गए हैं। हर दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट होगा, यही मान कर हम चलते हैं। इसलिए सामान्य काम करने में भी गलत तरीके अपनाने से हम परहेज नहीं करते।
पूरी की पूरी व्यवस्थाओं को भ्रष्ट कर डालने में हिंदुस्तानी दिमाग अव्वल दर्जे की काबिलियत रखता है। वैसे महानता का लबादा ओढ़ने वालों को इसमें आपत्ति होगी और दौड़ में हम थोड़े पीछे हैं बतलाने की उनकी कोशिश होगी। अपने अध्यापन के अनुभव में कई बार मैं ऐसी स्थितियों से वाकिफ हुआ हूँ, जिसमें किसी का नाजायज़ फ़ायदा होता दिख रहा है, कभी विरोध किया है तो कभी तंत्र की विशालता के सामने अक्सर यही मानकर रुक गया हूँ कि पहले ही गर्दन काफी कटवाई है, अब बचे हुए हिस्से से जितना भला खून बहता है, इसे बहने दें।
यह हिसाब कि भला करना चाहते हैं तो ज़िंदा भी रहना है, एक किस्म की अनंत पहेली है। सच भी है कि मेरे जैसे लोग व्यवस्था में वाकई कम हैं, अगर मैं भी पिट गया तो बाकी और भी कम रह जाएंगे। और पारिवारिक या अन्य कमज़ोरियाँ अपनी जगह पर। यह एक डिफीटिस्ट तर्क है, जो हमें दबाए रखता है।
विदेशों में छोटे मोटे कानून तोड़ने में भी हम हिंदुस्तानी ही सबसे आगे हैं। न्यूयार्क की जैक्सन हाइट्स में किसी भी हिंदुस्तानी दूकान में बिना सेल्स टैक्स लगाए सामान का बिल मिल जाता है। यह याद नहीं कि मैंने जब भी जैक्सन हाइट्स से जब भी सामान लिया, माँगकर सही सेल्स टैक्स वाला बिल लिया या नहीं पर ऐसी बातें याद कर भारतीय होने पर शर्म ज़रुर आती है। मुझे याद है कि भारतीय व्यापारियों का ऐसा तरीका देखकर मुझे लगता था कि नस्लभेद की प्रवृत्ति के अलावा शायद यह भी एक कारण था कि अफ्रीकी मुल्कों से उन्हें खदेड़ा गया। आखिर लूट कभी तो जाहिर होती ही है। पहले पहल जब मैं कई साल अमरीका में बिता कर लौटा तो यहाँ हर दूकानदार से लड़ाई हो जाती थी कि बिल क्यों नहीं देते। दूकानदार समझाता कि वह मेरा ही भला चाहता है, बिल देने से मुझे ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान होता कि बंदा मेरा दो पैसा बचाकर खुद सरकार को टैक्स देने से बच रहा है। धीरे धीरे एक दिन मैंने भी यह लड़ाई छोड़ दी। साथ ही अमरीका खुद इतना बड़ा लुटेरा मुल्क है कि वहाँ के औसत आदमी की ईमानदारी का जज्बा अधिक देर तक प्रभाव नहीं छोड़ता।
तो क्या मैं यह कह रहा हूँ कि इस लड़ाई में हार ही हार है, नहीं मैं यह नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ कि अपनी अपनी सीमाओं में रहकर अपनी वैचारिक और वैश्विक समझ में रहकर, हर एक अपनी छोटी लड़ाई लड़ते रहें। अगली बार मैं कोशिश करुँ कि लकीर को और पीछे खींचूँ और गर्दन को और आगे बढ़ाऊँ। यही मेरी कामना है। यह कामना इसलिए नहीं कि इससे मैं किसी बड़े धरातल पर पहुँच जाऊँगा, महज इसलिए कि कुदरत की तमाम खूबसूरत देन में से एक ईमान का अहसास है। ईमान की ज़िंदगी में कई अर्थ दिखते हैं, बेईमानी में इतनी ही अर्थहीनता। बेईमानी और भ्रष्टाचार खुद से नफरत बढ़ाते हैं। बेईमान प्रशासकों ने इतने पेंचीदे नियम कानून बना दिए हैं कि कई छोटी चीज़ों के लिए आदमी कानून को तोड़ने में लग पड़ता है। भ्रष्ट लोग कानूनी शिकंजों से भी और नियमों के प्रपंचों से बचने के गुर जानते हैं। भले लोग जब इससे बच जाते हैं यानी बिना कानून तोड़े कुछ करने में कामयाब हो जाते हैं, तो मन आसमान हो उठता है, वैसा ही जैसा मानसी ने दिखलाया है। जहाँ तक गर्दन कटने की बात है, एक नारी वादी चिंतक का कथन है - Behold the lie of lies - since I am all alone, I cannot change the world. हताशा जब घनघोर हो तो खुद से कहता हूँ कि अकेले नहीं हो, लाखों सर कलम करवा रहे हैं, तुम तो घर से निकलने में ही रोने लग गए, 'चलते चलो कि अब डेरे मंज़िल पर ही डाले जाएंगे।'
इस चिट्ठे को संपादित कर अखबार के आलेख के लिए तैयार कर रहा हूँ। अखबार पहुँचता तो हजारों तक है, पर शब्द-सीमा होती है और तमाम बातें सोचनी पड़ती हैं कि क्या छप सकता है क्या नहीं।
यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन पर्क्स या ऊपरी पैसों के पार है, जिन्हें तनख़ाह का हिस्सा मान लिया जाता है।
हम सभी लोग - एक बुज़ुर्ग साथी कहते हैं, खानदानी बदतमीज़ी और बेईमानी से ग्रस्त हैं। इसलिए इन बातों को करते हुए भी संदेह होता है कि क्या सुननेवाला व्यक्ति वाकई इतना कम भ्रष्ट है कि कहने का कोई फायदा भी है!
एक कुलपति सीना चौड़ा कर के भ्रष्ट न होने का दावा करता है। उसके बेटे की पत्नी एम एस सी करके पति के साथ रहने के लिए अमरीका पहुँच गई। पी एच डी के लिए भर्ती हो गई। पी एच डी के लिए शुरुआत में कोर्स करने हैं। कोर्स में होम असाइनमेंट या टर्म पेपर वगैरह होते हैं। ये कन्या से हल नहीं होते। तो हर बार असाइनमेंट मिलते ही फैक्स पहुँचता है और कुलपति का विशेष सहायक किसी अध्यापक के घर पहुँचता है, साब ने भेजा है। अध्यापक नाराज़गी दिखलाता है तो सहायक कहता है - औख्खा क्यों होते हो डाकसाब, किसी और से करवा लेंगे। इसमें क्या? हर बार किसी और से होता रहा।
अजीब बात यह है कि मुझे इस कहानी में यह इतना बुरा नहीं लगता कि कुलपति भ्रष्ट है या इतना नादान है कि अमरीकी यूनिवर्सिटी के सिस्टम के साथ खिलवाड़ कर रहा है, पकड़े जाने पर बहू बेटे को वापस भेज देने की पूरी संभावना है, मुझे सबसे बुरी बात यह लगती है कि वह खुद अध्यापक से बात क्यों नहीं करता, अपने मातहत को क्यों भेजता है ! यानी कि मेरी सोच इतनी भ्रष्ट हो चुकी कि बुनियादी बात से ही मैं भटक चुका हूँ। अंत में, जितने लोग इसमें जुड़े हैं, उनमें से कोई भी खुलकर सामने नहीं आएगा। यह एक और किस्म का भ्रष्टाचार है। ऐेसी घटनाएं देखने सुनने के हम इतने आदी हो चुके हैं कि घोर उदासीनता और असहायता के शिकार हो गए हैं। हर दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट होगा, यही मान कर हम चलते हैं। इसलिए सामान्य काम करने में भी गलत तरीके अपनाने से हम परहेज नहीं करते।
पूरी की पूरी व्यवस्थाओं को भ्रष्ट कर डालने में हिंदुस्तानी दिमाग अव्वल दर्जे की काबिलियत रखता है। वैसे महानता का लबादा ओढ़ने वालों को इसमें आपत्ति होगी और दौड़ में हम थोड़े पीछे हैं बतलाने की उनकी कोशिश होगी। अपने अध्यापन के अनुभव में कई बार मैं ऐसी स्थितियों से वाकिफ हुआ हूँ, जिसमें किसी का नाजायज़ फ़ायदा होता दिख रहा है, कभी विरोध किया है तो कभी तंत्र की विशालता के सामने अक्सर यही मानकर रुक गया हूँ कि पहले ही गर्दन काफी कटवाई है, अब बचे हुए हिस्से से जितना भला खून बहता है, इसे बहने दें।
यह हिसाब कि भला करना चाहते हैं तो ज़िंदा भी रहना है, एक किस्म की अनंत पहेली है। सच भी है कि मेरे जैसे लोग व्यवस्था में वाकई कम हैं, अगर मैं भी पिट गया तो बाकी और भी कम रह जाएंगे। और पारिवारिक या अन्य कमज़ोरियाँ अपनी जगह पर। यह एक डिफीटिस्ट तर्क है, जो हमें दबाए रखता है।
विदेशों में छोटे मोटे कानून तोड़ने में भी हम हिंदुस्तानी ही सबसे आगे हैं। न्यूयार्क की जैक्सन हाइट्स में किसी भी हिंदुस्तानी दूकान में बिना सेल्स टैक्स लगाए सामान का बिल मिल जाता है। यह याद नहीं कि मैंने जब भी जैक्सन हाइट्स से जब भी सामान लिया, माँगकर सही सेल्स टैक्स वाला बिल लिया या नहीं पर ऐसी बातें याद कर भारतीय होने पर शर्म ज़रुर आती है। मुझे याद है कि भारतीय व्यापारियों का ऐसा तरीका देखकर मुझे लगता था कि नस्लभेद की प्रवृत्ति के अलावा शायद यह भी एक कारण था कि अफ्रीकी मुल्कों से उन्हें खदेड़ा गया। आखिर लूट कभी तो जाहिर होती ही है। पहले पहल जब मैं कई साल अमरीका में बिता कर लौटा तो यहाँ हर दूकानदार से लड़ाई हो जाती थी कि बिल क्यों नहीं देते। दूकानदार समझाता कि वह मेरा ही भला चाहता है, बिल देने से मुझे ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान होता कि बंदा मेरा दो पैसा बचाकर खुद सरकार को टैक्स देने से बच रहा है। धीरे धीरे एक दिन मैंने भी यह लड़ाई छोड़ दी। साथ ही अमरीका खुद इतना बड़ा लुटेरा मुल्क है कि वहाँ के औसत आदमी की ईमानदारी का जज्बा अधिक देर तक प्रभाव नहीं छोड़ता।
तो क्या मैं यह कह रहा हूँ कि इस लड़ाई में हार ही हार है, नहीं मैं यह नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ कि अपनी अपनी सीमाओं में रहकर अपनी वैचारिक और वैश्विक समझ में रहकर, हर एक अपनी छोटी लड़ाई लड़ते रहें। अगली बार मैं कोशिश करुँ कि लकीर को और पीछे खींचूँ और गर्दन को और आगे बढ़ाऊँ। यही मेरी कामना है। यह कामना इसलिए नहीं कि इससे मैं किसी बड़े धरातल पर पहुँच जाऊँगा, महज इसलिए कि कुदरत की तमाम खूबसूरत देन में से एक ईमान का अहसास है। ईमान की ज़िंदगी में कई अर्थ दिखते हैं, बेईमानी में इतनी ही अर्थहीनता। बेईमानी और भ्रष्टाचार खुद से नफरत बढ़ाते हैं। बेईमान प्रशासकों ने इतने पेंचीदे नियम कानून बना दिए हैं कि कई छोटी चीज़ों के लिए आदमी कानून को तोड़ने में लग पड़ता है। भ्रष्ट लोग कानूनी शिकंजों से भी और नियमों के प्रपंचों से बचने के गुर जानते हैं। भले लोग जब इससे बच जाते हैं यानी बिना कानून तोड़े कुछ करने में कामयाब हो जाते हैं, तो मन आसमान हो उठता है, वैसा ही जैसा मानसी ने दिखलाया है। जहाँ तक गर्दन कटने की बात है, एक नारी वादी चिंतक का कथन है - Behold the lie of lies - since I am all alone, I cannot change the world. हताशा जब घनघोर हो तो खुद से कहता हूँ कि अकेले नहीं हो, लाखों सर कलम करवा रहे हैं, तुम तो घर से निकलने में ही रोने लग गए, 'चलते चलो कि अब डेरे मंज़िल पर ही डाले जाएंगे।'
इस चिट्ठे को संपादित कर अखबार के आलेख के लिए तैयार कर रहा हूँ। अखबार पहुँचता तो हजारों तक है, पर शब्द-सीमा होती है और तमाम बातें सोचनी पड़ती हैं कि क्या छप सकता है क्या नहीं।
1 comment:
बहुत ज़बरदस्त लिखे हैं भाई साहब. धन्यवाद!
निश्चय ही हर व्यक्ति विशेष के ईमानदार बने बिना समाज में ईमानदारी नहीं आ सकती. और हर व्यक्ति हमेशा ईमान की राह पर रहे ये सौ फ़ीसदी संभव नहीं लगता. मतलब, कुछ भी कर लो, भ्रष्टाचार रहेगा ही हमारे बीच. हाँ, उसकी मात्रा कम या ज़्यादा ज़रूर ही की जा सकती है.
Post a Comment