हरियाणा साहित्य अकादमी के आयोजन से आशा से अधिक संतुष्ट हुआ। प्रेमचंद की एक सौ पचीसवीं वर्षगाँठ पर सुबह व्याख्यान और शाम को रंगभूमि का मंचन। व्याख्यान सुनने देर से पहुँचा और पता चला कि मैनेजर पांडे आए नहीं। विकास नारायण राय और कमलकिशोर गोएनका को सुना। विकास पुलिस के अफसर हैं और अपने बड़े भाई विभूति नारायण राय ('वर्त्तमान साहित्य' के पहले संपादक और प्रसिद्ध उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' के लेखक) की तरह साहित्य में सक्रिय हैं। पहले हरियाणा और वह भी चंडीगढ़ के पास पंचकूला में ही पोस्तेड होते थे तो अक्सर मुलाकात होती थी। पर कल उनको सुनकर कहीं ज्यादा अच्छा लगा। प्रेमचंद की रचनाओं के subtext को सामने लाकर और समकालीन स्थितियों से तुलनाकर बड़े रोचक ढंग से बात रखी, जैसे गोहाना में हाल में लिए किसी साक्षात्कार का हवाला देकर प्रेमचंद के दलित चरित्रों की स्थिति को समझना आदि। कमलकिशोर गोएनका के लेख पढ़े थे, कभी सुना नहीं था। सुनकर अच्छा लगा और मन में पहले से बनी धारणा कि प्रेमचंद के बारे में फैली रोमांटिक किस्म की धारणाओं को गलत सिद्ध करने में उनकी कोई बुरी मंशा नहीं है, को सही पाया। दूसरी तरफ प्रेमचंद के अप्रकाशित रचना संसार से भी परिचय हुआ, जिससे वाकई एक नया प्रेमचंद सामने आता है। कमलकिशोर जी ने बतलाया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से उनका यह काम पुस्तक रुप में प्रकाशित हुआ है। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि साधारण में असाधारणता ही सोचने लायक या प्रेरणा लायक होती है। असाधारण तो कोई भी नहीं होता, कृतियाँ ही असाधारण होती हैं। पहले से ही किसी को असाधारण बना डालना एक तरह से उसका अपमान ही है।
रंगभूमि का मंचन दिल्ली से आई संस्था रंगसप्तक ने किया था। नाटक का मजा तो है ही, खासकर लोक शैली में गायन ('निरगुन' और 'रामायन') और बिदेसिया जैसी नृत्य शैली का समायोजन हो, पर अभिनय में स्टीरियोटाइप शैली से मैं बड़ा हताश होता हूँ। मुश्किल यह कि प्रेमचंद की रचना हो तो नाटक के अर्थ कई बन जाते हैं। वह साहित्य भी है, इतिहास भी है, नाटक से साहित्येतर कलात्मक पक्ष भी उसका है। रंगभूमि पर हाल में बहुत विवाद रहा है और दलितों के एक वर्ग ने उपन्यास की प्रतियाँ जलाई हैं। मैंने उपन्यास बचपन में पढ़ा था, इसलिए आपत्तिजनक क्या है, स्पष्ट याद नहीं। पर चूँकि दलित चरित्र हैं तो उनसे बुलवाई भाषा और उनके व्यवहार पर आपत्ति होगी। नाटक देखते हुए हम आपत्तिजनक अंश ढूँढते रहे। पर या तो वे सब छन चुके थे या उनका परिष्कार हो चुका था, कुछ भी आपत्तिजनक लगा नहीं।
सुनील के छायाचित्रों को देखकर सचमुच अपनी पुरानी कसरत याद आ गई। एक ज़माना था कि ओलिंपस का अपना कैमरा लेकर हम भी निकले होते थे। फॉल के रंग, जाड़ों की बर्फ, भई अब तो लगता है नोस्टाल्जिया में ही खो जाएंगे। एकबार बसंत के मौसम में एक महिला को समरसूट (बिकिनी किस्म की) पहने घर के सामने सड़क बुहारते देखा। इतना अच्छा लगा कि कोई उसे घूर नहीं रहा, स्वच्छंद मन से प्रोफेसर की पत्नी टाइप झाड़ू लगा रही है। उन दिनों कोडाक की कलर स्लाइड्स बनाने की फिल्में आती थीं और मेरे कैमरे में रील भरी हुई थी। तो अपनेराम ने महिला से गुहार की कि आपका फोटू लेना माँगता है। तुरंत न हो गई। बड़ा बुरा सा लगा। मैंने कहा कि दरअसल अपनी माँ और बहन को भेजना चाहता हूँ यह दिखलाने कि यहाँ औरतें कितनी आज़ाद हैं। महिला ने थोडी देर सोचा, फिर पूछा कि किसी पत्रिका (प्लेबॉय) का एजेंट तो नहीं, फिर मेरा थैला देखा और कहा खींचो।
वो स्लाइडें पच्चीस साल के बाद आज भी कहीं पड़ी हैं। कभी देखना चाहिए।
दिसंबर का पहला हफ्ता हाल के भारतीय इतिहास में अंधकार के समय का है। कल एक जहर फैला था भोपाल में और कल एक और जहर फैला था अयोध्या में। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि अयोध्या है कहाँ! वैसे भी जहर की क्या बात करें!
रंगभूमि का मंचन दिल्ली से आई संस्था रंगसप्तक ने किया था। नाटक का मजा तो है ही, खासकर लोक शैली में गायन ('निरगुन' और 'रामायन') और बिदेसिया जैसी नृत्य शैली का समायोजन हो, पर अभिनय में स्टीरियोटाइप शैली से मैं बड़ा हताश होता हूँ। मुश्किल यह कि प्रेमचंद की रचना हो तो नाटक के अर्थ कई बन जाते हैं। वह साहित्य भी है, इतिहास भी है, नाटक से साहित्येतर कलात्मक पक्ष भी उसका है। रंगभूमि पर हाल में बहुत विवाद रहा है और दलितों के एक वर्ग ने उपन्यास की प्रतियाँ जलाई हैं। मैंने उपन्यास बचपन में पढ़ा था, इसलिए आपत्तिजनक क्या है, स्पष्ट याद नहीं। पर चूँकि दलित चरित्र हैं तो उनसे बुलवाई भाषा और उनके व्यवहार पर आपत्ति होगी। नाटक देखते हुए हम आपत्तिजनक अंश ढूँढते रहे। पर या तो वे सब छन चुके थे या उनका परिष्कार हो चुका था, कुछ भी आपत्तिजनक लगा नहीं।
सुनील के छायाचित्रों को देखकर सचमुच अपनी पुरानी कसरत याद आ गई। एक ज़माना था कि ओलिंपस का अपना कैमरा लेकर हम भी निकले होते थे। फॉल के रंग, जाड़ों की बर्फ, भई अब तो लगता है नोस्टाल्जिया में ही खो जाएंगे। एकबार बसंत के मौसम में एक महिला को समरसूट (बिकिनी किस्म की) पहने घर के सामने सड़क बुहारते देखा। इतना अच्छा लगा कि कोई उसे घूर नहीं रहा, स्वच्छंद मन से प्रोफेसर की पत्नी टाइप झाड़ू लगा रही है। उन दिनों कोडाक की कलर स्लाइड्स बनाने की फिल्में आती थीं और मेरे कैमरे में रील भरी हुई थी। तो अपनेराम ने महिला से गुहार की कि आपका फोटू लेना माँगता है। तुरंत न हो गई। बड़ा बुरा सा लगा। मैंने कहा कि दरअसल अपनी माँ और बहन को भेजना चाहता हूँ यह दिखलाने कि यहाँ औरतें कितनी आज़ाद हैं। महिला ने थोडी देर सोचा, फिर पूछा कि किसी पत्रिका (प्लेबॉय) का एजेंट तो नहीं, फिर मेरा थैला देखा और कहा खींचो।
वो स्लाइडें पच्चीस साल के बाद आज भी कहीं पड़ी हैं। कभी देखना चाहिए।
दिसंबर का पहला हफ्ता हाल के भारतीय इतिहास में अंधकार के समय का है। कल एक जहर फैला था भोपाल में और कल एक और जहर फैला था अयोध्या में। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि अयोध्या है कहाँ! वैसे भी जहर की क्या बात करें!
1 comment:
भई लाल्टू तुम छिपे कहॉं थे। प्रिंट में तुम्हें पहले पढा है लेकिन बेव पर पहली बार। याद पडता है बहुत पहले एक बार कहीं भेंट भी हुई है, शायद 1995 में सोलन हिमाचल प्रदेश में।
खैर साधुवाद
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