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घुघनी


आज से पैंतालीस साल पहले 22 अप्रैल 1969 में, जब मैं 11 साल का था और आठवीं में पढ़ता था, सी पी आई (एम एल) पार्टी बनी। नक्सलबाड़ी में विद्रोह की घटना को करीब दो साल हो चुके थे। बंगाल में '67 की पहली युक्त फ्रंट सरकार के गिरने और राष्ट्रपति शासन से बाद नई बनी सरकार में वाम की ताकत बढ़ी थी। पर संसदीय प्रणाली में रहकर अपने वादों को जल्दी पूरा करने में वाम दल सफल नहीं हो पा रहे थे। कोलकाता शहर युवा क्रांतिकारियों का गढ़ था। हर दूसरे दिन पता चलता कि किसी दादा (बड़े भाई) को पुलिस पकड़ कर ले गई है। हमलोगों को डराया जाता था कि घर से दूर मत जाना, नक्सल बम फोड़ रहे हैं। कहा जाता था कि लंबे बालों वाले किसी लड़के को देखते ही पुलिस उसके बाल काट देती है।

आम जनता की सहानुभूति नक्सलवादियों के साथ थी। आज जो लोग आआपा के प्रति शहरी मध्य-वर्ग के युवाओं के समर्थन से अचंभित हैं, उनकी कल्पना में नहीं आ सकता कि वह क्या वक्त था। इंकलाब की महक हवा में थी। बस अब कुछ समय में ज़माना बदलने को था। जो विरोध में थे, उनके कई तर्कों में एक था कि चीन भारत को हड़पने को आ रहा है।

न इंकलाब आया न चीन आया। बहुत सारे मेधावी युवा हमेशा के लिए धरती से उड़ गए। कई और कई सालों तक जेलों में पुलिसी बर्बरता का शिकार हुए।

जैसा हर आंदोलन में होता है, उस जुनून के भी कुछ महानायक थे। अपने अनुभव से मैंने जाना है कि हर महानायक अंततः एक साधारण आदमी होता है। हमें महान इंसानों को उनकी साधारणता में ढूँढना चाहिए। किसी को असाधारण मानते हुए हम अपनी जिम्मेदारियों से बच जाते हैं।

बहरहाल। यहाँ एक कहानी पेस्ट कर रहा हूँ, यह 1993 में समकालीन जनमत में छपी थी और कई साथियों को एतराज था कि यह मैंने क्या लिखा। एक ने संपादक को ख़त लिखा था कि लाल्टू आधुनिक लू शुन बनने का ख़्वाब देख रहा है - प्रशंसा नहीं, गुस्से में लिखी गई बात थी। पर जैसा मेरे दूसरे काम के साथ हुआ है, इस कहानी का भी कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। इसी शीर्षक से मेरा कहानी संग्रह है, जो 1996 में आया था।

घुघनी

मुहल्ले के लड़के किराए की कुर्सियों पर बैठे गप मार रहे हैं। कैरम खेल खेलकर बोर हो गए हैं। जो ' ब्रिज' खेल रहे थे, वे भी ताश के पत्ते समेट कर अब एक दूसरे को बाबा सहगल से लेकर सुमन के गीतों के बारे में या फिर मोहन बागान – ईस्ट बंगाल के हाल के मैचों के बारे में सुना रहे हैं। सत्यव्रत घोष पूजा मंडप के नीचे एक कुर्सी पर अकेले बैठे हैं, पुराने दिनों की बातें याद आ रही हैं। ज़िंदगी के बासठ सालों में देखी कई पूजाएँ याद आ रही हैं। बचपन के वे दिन, जब अकाल बोधन के अवसर पर नए कपड़े पहनते थे और अब जब खुद नहीं, पर पोती रूना को हर दिन – षष्ठी से दशमी तक पाँच दिन अलग अलग नए कपड़े पहनते देखते हैं। अरे रूना गई कहाँ? यहीं तो बैठी थी! अपनी सुस्त गर्दन हिलाकर सत्यव्रत पीछे की ओर देखते हैं।
रूना एक वृद्ध का हाथ पकड़कर इधर ही आ रही है। वयस्क व्यक्ति का चेहरा जाना पहचाना सा है, पर फिर भी याद नहीं आता। इस मुहल्ले के तो नहीं हैं - कहीं ऐसा न हो कोई रिश्तेदार हो और याद ही नहीं आ रहा कि कौन है - ओफ ! उम्र बढ़ने के साथ साथ दिमाग ऐसा सुस्त होता जा रहा है !
रूना और वह वृद्ध व्यक्ति पास आ गए हैं। सत्यव्रत उनकी ओर देख रहे हैं, रूना कहती है - “ये रहे ठाकुरदा!"
सत्यव्रत 'नमस्कार' करते हैं और होंठों से धीरे से कहते हैं। फिर संकोच के साथ धीरे धीरे कहते हैं - "आप ... पहचान नहीं पा रहा।”
वह वृद्ध हँस रहे हैं। "चारु ... चारु दा ....” अरे ! वही तो हैं - वही दुबली पतली काया ! आँखों में चश्मा ... देखकर लगता है अभी गिर पड़ेंगे पर चारुदा तो...!”
मैं ही हूँ रे ! बहुत सालों के बाद अचानक तेरे पास आने को मन हुआ !”
रूना अपने दादाजी सत्यव्रत की फैलती आँखों को विस्मय से देख रही है, सत्यव्रत हाथ उठा कर कहते हैं, ऊलाल सलाम चारुदा! पर...'
"अरे छोड़ रे! चल जरा अपनी बहू से बोल मेरे लिए अच्छी घुघनी बना दे। छोले की घुघनी वह बढ़िया बनाती है, यह तेरी पोती ने बतला दिया है।”
सत्यव्रत चारुदा को लेकर घर आते हैं। सत्यव्रत की पत्नी दरवाजा खोलती है। शांतश्री सत्यव्रत के साथ दुबले चश्माधारी बुजुर्ग को एक बार देखती हैं और तुरंत कहती हैं - “अरे चारुदा ! तुम ...”
अरे शांतश्री ! सवाल मत करो ! अपनी बहू से कहो जरा मुझे घुघनी खिलाए – बहुत भूख लगी है।”
अरे, बैठिए ..अंदर आइए । ध्रुवा, ओ ध्रुवा ...,” इससे पहले कि वह बहू से सुबह की बनाई घुघनी तश्तरी में डालकर लाने को कहें, अचानक चिंतित होकर शांतश्री पूछती है, ”पर घुघनी में तो मसाला बहुत होगा ...! सुबह की बनी है, बिना मसाले की ताजा बनवा लें तो ठीक रहेगा।”
अरे पागल लड़की ! अब क्या मुझे मसालों से कोई डर है? ला, ला, भूख लगी है और बाद में मुझे पायस भी खिलाना।”
ध्रुवा प्लेट भर छोले रख जाती है। चारुदा प्यार से कहते हैं, ”माँ ! एक हरी मिर्च ले आना!” पानी का ग्लास हाथ में लेकर कहते हैं, ”अब ठंड के दिन आ रहे हैं, फ्रिज का पानी ठीक नहीं। ऐसा करो इसमें आधा ताजा पानी मिला लाओ। और सुनो, चाय मत बनाना, मैं चाय काफी अब नहीं पीता।”
इसी बीच रूना कहीं से एक छोटी डायरी लेकर सामने खड़ी हो गई है। देखते ही सत्यव्रत डाँटते हैं, “अभी नहीं, तू हर किसी को परेशान करने लगी है।"
रुना अकड़कर कहती है, “नहीं, हमारा अगला अंक तो कल ही निकल रहा है, मुझे आज ही इंटरविउ चाहिए।”
चारुदा हँसकर कहते हें, ”! तुम्हारी मिनी मैगज़ीन के लिए ! क्या तो नाम है - रविवार? हाँ, कल तो रविवार है न?”
सत्यव्रत सोच रहे हैं, उन दिनों अगर चारुदा को इस तरह खिला सकते, तो कितना आनंद आता। तब तो उबली सब्जियाँ और रोहू मछली का झोल, बिल्कुल फीका सा, यही बड़ी मुश्किल से खा पाते थे।
चारुदा मुँह में छोले भरकर कहते जा रहे हैं, “लिखो, लिखो, चारु मजुमदार, जन्म ... जन्म कब हुआ मुझे ही नहीं मालूम ... मौत 28 जुलाई 1972....।”
फिर हँस पड़े हैं चारुदा, “बचपन में मैं आम के पेड़ों पर चढ़ना बहुत पसंद करता था। कई कई दिन तो कहानियों की किताब हाथ में लेकर किसी आम के पेड़ पर चढ़कर डालियों पर लेटे लेटे किताब पढ़ता रहता - घंटों तक। फिर मेरे घरवाले मुझे ढूँढ़ने निकलते।
रूना पूछती है, ”आप स्कूल में फर्स्ट आते थे?”
फर्स्ट ? ऐसी बात तो याद रहनी चाहिए ... शायद नहीं ...स्कूल में फर्स्ट आना तो कोई बड़ी बात नहीं ..।“ चारुदा अचानक चिंतित लगे। रूना फिर पूछती है, ”घुघनी कैसी लगी आपको?”
घुघनी .. अरे वाह! बहुत बढ़िया है। जरा अपनी माँ से कहो कि थोड़ा और दे जाए।”
ध्रुवा खुद ही मुस्कराते हुए घुघनी भरा बर्तन ले आती है और कड़छी से डालती है। चारुदा उसको रोक नहीं रहे। सत्यव्रत परेशान होकर कह बैठते हैं - ”इतना खा लेने दो, फिर और देना।”
चारुदा कहते हैं, “अरे और नहीं - इसके बाद पायस खाऊँगा। तुम्हें याद है, पहली बार जब आया था, तब शांतश्री ने पायस ही खिलाया था, बहुत सारा। तुमने खूब कहा था कि सब्जी बना दें, पर रात के डेढ़ बज चुके थे, पायस पड़ा था और मैंने वही खाया।”
सत्यव्रत को याद नहीं। सत्यव्रत को 1971 के दो दिन ही याद आते हैं, जब चारुदा आए थे और मकान की हर खिड़की पर दो दिनों तक उनके साथी हर क्षण तैनात बैठे थे। तब घर में जो तनाव था, सत्यव्रत को लगता है वैसा फिर हो तो उन्हें तुरंत दिल का दौरा पड़ जाएगा। उन दो दिनों चारु दा सिर्फ उबली सब्जियाँ, सूप, रोहू मछली का फीका झोल, यही निगल सकते थे। और शायद दो दिनों में बिल्कुल न सोकर वे लिखते जा रहे थे - बीच बीच में अपने साथियों से मशविरा करते। सत्यव्रत को घर से निकलने से मना कर दिया गया था। कालेज छुट्टी की दरखास्त भेज दी थी, विभाग के साथी शिक्षक इंद्रजीत बनर्जी हाल पूछने आ बैठे तो शांतश्री ने दरवाज़े से ही कह दिया, “वे तो टालीगंज गए हैं। ” और बैठने को भी नहीं कहा।
दीवार की ओर ताक रहे हैं चारुदा। सामने बरामदे की ओर खिड़की पर अब कोई तैनात नहीं। अब कोई पुलिसवाला वर्दी में भी गुज़र जाए तो किसी को परवाह न होगी। फिर भी ऐसा ख्याल मन में आते ही सत्यव्रत काँप उठे। अपनी परेशानी को छिपाते दीवार पर लगे कैलेंडर को दिखाकर कहते हैं - “यह ध्रुवा ने बनाया है। इनका महिला संगठन है, उनके लिए।”
हाँ, हाँ” और चारुदा लपककर उसकी डायरी लेते हैं, ”मैं यहीं बना देता हूं, तुम चिपका लेना।”
चारुदा ने एक बड़ा मेंढ़क बनया है। एक पेड़ और एक गोल-गाल सा चेहरा पेड़ के ऊपर।
रूना पूछती है, “यह मॉडर्न पेंटिंग है ?”
हां, मॉडर्न है, ठहरो, मैं साइन कर दूँ।” चारुदा साइन करते हैं। सत्यव्रत उत्सुकता छिपा नहीं पाते - करीब आकर देखते हैं - चारुदा ने बड़े स्टाइल से लिखा है- सी एम।
शांतश्री अचानक बोल उठती हैं, “आप हमेशा ही ऐसे थे क्या?”
चारुदा हंसते हैं, “पता नहीं क्या-क्या था रे, मुझे सब थोड़े ही पता है! कई दफा लगता है कि मैं चाहता तो चूनी गोस्वामी की टीम में खेलता। अरे! स्कूल में तो खूब खेला करता था मैं। सेंटर फारवर्ड था...।”
सत्यव्रत का मुँह खुला हुआ है। सामने के दाँत टेढ़े मेढ़े हैं। काले हो चुके हैं। अचानक सिगरेट की तलब होती है। पर बेटे ने घर के अंदर सिगरेट पीने से मना किया हुआ है। पूछते हैं, “चारुदा ! आप सिगरेट पिएँगे?”
ना! वह सब तभी छूट गया था !”
अचानक शांतश्री कहती है, “हमलोग तो इंतजार कर रहे थे कि रविवार को आपको हमारे घर आना था, फिर 16 तारीख को रेडियो पर सुना....।” इतनी पुरानी बातें, शांतश्री को कैसे याद रहती हैं, सत्यव्रत सोच रहे हैं।
चारुदा सुन नहीं रहे ...। बरामदे की ओर दरवाजे पर लगा परदा हवा में उड़ रहा है। उस ओर ताक कर बोल उठे, “उन दिनों वह नया लड़का था, सुभाष भौमिक। अच्छा खेल रहा था... बहुत इच्छा थी कभी उसका खेल देखूं।”
सत्यव्रत अचानक पूछते हैं। "चारुदा, कभी तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि सब कुछ ग़लत हुआ – अगर फिर से करना हो तो...।”
चारुदा टोककर रूना से पूछते हैं, “क्यों, मेंढक ठीक बना? मॉडर्न मेंढक है!”
अरे बहू ! पायस तो खिलाओ !”
चाव से पायस खाते हैं चारुदा।
सत्यव्रत उठकर दूसरे कमरे में जाते हैं। वहाँ मेज पर फाइल है - हाल के कई जन आंदोलनों के परचे, सँभालकर रखे हुए हैं। बेटे के काग़जों से निकालकर उन्होंने अपनी फाइल में रखे हैं। मन हो रहा है चारुदा को दिखलाएँ। पर फाइल उठाकर फिर वापस रख देते हैं। हल्के कदमों से वापस आ जाते हैं। चारुदा रूना से पूछ रहे हैं - “इस बार कितने कपड़े लिए पूजा पर?”
चार... नहीं पाँच... चार फ्राक, एक सलवार कमीज़!”
वाह, सलवार कमीज़ कब पहनोगी?”
नवमी के दिन ... कल वो फूलों वाला फ्रॉक पहनूंगी। देखेंगे ?”
चारुदा रूना का फ्राक देख रहे हैं, कहते हैं, ”अगली दफा मैं तुम्हारे लिए नए किस्म के पकड़े लेकर आऊंगा - क्या चाहोगी तुम?”
रूना उछलकर कहती है, ”जीन्स के पैंट।”
अच्छा,” सत्यव्रत की ओर देखकर पूछते हैं चारुदा, ”कितनी कीमत होगी जीन्स के पैंट की ?”
शांतश्री जवाब देती हैं, “सौ रुपए से कम में तो नहीं मिलेगा।”
चारुदा सोच रहे हैं। क्या सोच रहे हैं - सत्यव्रत खुद अर्थशास्त्र पढ़ाते रहे हैं, पर दो साल हुए रिटायर हो जाने के बाद विषय के बारे में कम ही सोचते हैं। चारुदा मुद्रास्फीति के बारे में सोच रहे होंगे, सत्यव्रत का यह ख्याल बिल्कुल झुठलाकर चारुदा शांतश्री से पूछते हैं, “तुमने कभी जीन्स के पैंट पहने हैं?”
शांतश्री खिलाखिला उठी हैं। ध्रुवा भी। रूना भी हंस रही है। सत्यव्रत सिर झुकाकर उदास बैठे हैं। उन्हें अचानक लग रहा है कि वे रो पड़ेंगे। परेशानी में अपनी गर्दन इधर उधर हिला रहे हैं।
चारुदा उठकर सत्यव्रत के कंधों पर हाथ रखते हैं। "यंगमैन, उठो। तुम्हारे बेटे से मुलाकात नहीं हुई। कोई बात नहीं, इस घुघनी का नशा अब छूटेगा नहीं। अब मैं आता रहूंगा - आज चलूं?”
सत्यव्रत अभी भी सिर झुकाए बैठे हैं। काश वे युवा होते, या कोई छोटा बच्चा... मन हो रहा है शांतश्री के वक्ष में सिर छिपाकर फूट फूटकर रोएँ। या चारुदा के सीने पर मुक्के मार मारकर बिलख उठें।
चारुदा चल पड़े हैं। "तुम लोग बैठो, मैं चलूँ।” शांतश्री दरवाजे तक आती हैं। फिर वे सब बरामदे में आते हैं और चारुदा को जाता हुआ देखते हैं। वे तब तक उन्हें देखते हैं, जब तक कि वे दूर कोने वाले मकान पार कर मुड़ नहीं जाते। फिर चारुदा विलीन हो गए।
सत्यव्रत परदा पकड़े हुए खड़े हैं। अचानक कहते हैं - “बहू, जरा मुझे भी थोड़ी सी घुघनी खिलाओ।”
शातंश्री कहती हैं, “सुबह तो तुम्हारा पेट ढीला जा रहा था!”
सत्यव्रत की आँखों में एक उदास आँसू छलकता है।
(समकालीन जनमत - 1994)

Comments

azdak said…
उदासी का सारंगी राग पढ़े.
dr.mahendrag said…
सुन्दर

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