Friday, April 18, 2014

जादुई यथार्थ जादुई भी था और यथार्थ भी


एक बड़े लेखक का गुज़रना क्या हुआ कि हर कोई ग़म ग़लत में जुटा है। हर किसी को कुछ तो कहना ही है। मैंने मार्ख़ेज़ की चार किताबें पढ़ी हैं। कुछ उनके साक्षात्कार आदि भी पढ़े हैं। दिवंगत किसी को याद करते हुए अपना ही अतीत याद आता है। एक आदमी जो रहा नहीं वह मेरे लिए क्या था, यही सोच पाता हूँ। मैं शायद बाईस साल का था जब 'वन हंड्रेड ईयर्स …' पढ़ी थी। मैं तो हिंदी मीडियम का पढ़ा, कालेज आने के बाद ही अंग्रेज़ी में विदेशी साहित्य पढ़ना शुरू किया था। विदेश में मेरे साथ रह रहे मुझसे चार साल सीनियर मित्र विट्ठल के पास किताबें भी कई थीं और उसने पढ़ा भी बहुत कुछ था। उसी ने 1980 में मुझे वह उपन्यास पढ़ने को दिया। वह शायद पहली किताब थी जिसे पढ़ कर मैंने कहा कि इसे नोबेल मिलने वाला है। उसके दो साल या कि तीन साल बाद मार्ख़ेज़ को नोबेल पुरस्कार मिला था। अब तक ऐसे कम से कम पाँच लेखकों के बारे में मैंने भविष्यवाणी :-) की है और उनको नोबेल पुरस्कार मिला है। इनमें से डोरिस लेसिंग को बहुत बाद में मिला और एलिस मनरो को मेरे अनुमान के बावजूद पुरस्कार मिलना अचंभित करने वाला था, क्योंकि उन्होंने सिर्फ लंबी कहानियाँ लिखी हैं।

मेरी आर्थिक स्थिति कभी भी अच्छी नहीं रही, पर मुझे अच्छी किताब पढ़ने पर जुनून सा हो जाता था (अब कम होता है) और मैं कई दोस्तों को प्रतियाँ खरीद कर देने लगता था कि वे ज़रूर पढ़ें। मुझे वन हंड्रेड ईयर्स … का कथानक इतना याद नहीं आता जितना कि 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा' का कथानक याद आता है, पर मैंने उस किताब (वन हंड्रेड...) की दस प्रतियाँ तो ज़रूर बाँटी होंगीं। बाद में कई बार लगा है कि जिसको दी वह शायद पढ़ेगा भी नहीं, पर देते वक्त कहाँ सोच पाता हूँ। 'डेथ ऑफ अ क्रोनिकल फोरटोल्ड' बहुत बाद में पढ़ी, कोई दस साल पहले ही। इन सभी उपन्यासों में, खास तौर पर 'ऑफ लव ऐंड अदर डीमन्स'‌ में मुझे सबसे ज्यादा प्रेम के प्रसंग ही याद आते हैं। उन कथाओं को याद करते हुए जिस तरह के सघन प्रेम की भावना मन में होती है, उसे शब्दों में नहीं लिखा जा सकता। मुझे याद है कि मुझे सबसे ज्यादा इस बात ने प्रभावित किया था कि वह प्रेम कोई रागात्मक भावनाओं वाला प्रेम मात्र न था, उसे पढ़ते हुए खुद का मानव शरीर में जीने का सुख अद्भुत सुंदर लगने लगता है। अभी यह लिखते हुए मुझे लगता है कि मुझे फिर से उन किताबों को पढ़ना पड़ेगा ताकि मैं उन क्षणों को फिर फिर जी सकूँ।

मार्ख़ेज़ का जादुई यथार्थ जादुई भी था और यथार्थ भी। अन्यथा जादू तो हर किसी परंपरा में भरा पड़ा है। मार्ख़ेज़ पहले न थे जिन्होंने ऐसी शैली का इस्तेमाल किया, पर उनके बाद से कम से कम तीस साल तक लातिन अमेरिकी ही नहीं, विश्व साहित्य में यह शैली धड़ाके से चली। हमारे यहाँ कई लोग उनकी नकल में ही लिखने की कोशिश रहे। सलमान रश्दी की शैली में हम मार्ख़ेज़ देख सकते हैं। मार्ख़ेज़ से पहले बोर्ख़ेज (ख़ोर्ख़े लुइस बोर्ख़ेज़) अमूर्त्त किस्म के जादुई यथार्थ का इस्तेमाल कर कालजयी लेखन कर चुके थे, पर उन तक पहुँच पाना सब के लिए आसान न था। उन में कला के अनोखे प्रयोग थे और उनका जोर दार्शनिक चिंतन पर था। इसके विपरीत गाब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़ आम लोगों तक पहुँचने वाले रचनाकार थे। मार्ख़ेज़ की कला आम पाठक को खींचती है। दर्शन से ज्यादा समकालीन राजनीति उनका विषय रहा। बोर्ख़ेज़ की तरह वैचारिक दुविधा में वे कभी न थे। इसलिए भी वे इतने लोकप्रिय रहे हैं।

1 comment:

रवि रतलामी said...

"...मेरी आर्थिक स्थिति कभी भी अच्छी नहीं रही, पर मुझे अच्छी किताब पढ़ने पर जुनून सा हो जाता था (अब कम होता है)

:)
एक समय था जब मैं भी अपने आधे वेतन जितनी महंगी किताबें खरीद लाया करता था. पर अब इंटरनेट है, निःशुल्क ईबुक्स हैं, शहर में तीन-2 बढ़िया लाइब्रेरी भी हैं, और रचनाकार बंधु अपनी लोकार्पित किताबें थमाते जाते हैं तो इधर भी खरीदने का जुनून प्रायः खत्म सा हो गया है :)