यह
कोई बारह दिन पहले 'शुक्रवार'
के लिए
लिखा था। इस हफ्ते के अंक में
आ गया होगा।
हमें
ही सही-ग़लत
तय करना है
- लाल्टू
नरेंद्र
मोदी ने असम के धेमाजी में
भाषण देते हुए कहा है कि गैंडों
को मार कर बांग्लादेशियों के
लिए जगह बनाई जा रही है। कोई
नई बात नहीं,
थोड़े
ही दिनों पहले जम्मू में भी
केजरीवाल को वह पाकिस्तान का
एजेंट घोषित कर चुके थे। चुनाव
का समय है,
इसलिए
आरोप-प्रत्यारोप
की भाषा खूब सुनाई पड़ेगी। वैसे
भी नरेंद्र मोदी मौका मिलते
ही हमें याद दिलाने की कोशिश
करते हैं कि हम किसी विशेष
समुदाय के व्यक्ति है और दूसरे
समुदायों के लोगों को लेकर
हमें सचेत रहना चाहिए कि कहीं
कोई हमें टँगड़ी न मार जाए। यह
उनकी विशेषता है। पंद्रह बीस
साल पहले ज्यादा जहर भर कर
कहते थे, अब
कुछ हद तक राजनैतिक दबावों
के कारण और कुछ शायद उम्र का
तकाजा है कि उनका स्वर पहले
से धीमा पड़ा है।
पर
उनकी ये बातें हमें कुछ सोचने
को विवश करती हैं। बेशक
बांग्लादेशी शरणार्थियों
की बड़ी तादाद पिछले दो दशकों
में असम में बस गई है। इससे
वहाँ ज़मीन और अन्य संसाधनों
पर भार बढ़ा है। यह भी सच है कि
इनमें से कई मुसलमान हैं।
पिछले सवा सदी की अवधि में,
खासतौर
से उत्तर भारत में सांप्रदायिक
माहौल कभी पूरी तरह सुलझा नहीं
है। सभी समुदायों में कट्टरपंथियों
ने अपनी जड़ें फैलाई हैं। असम
भी इससे छूटा नहीं है,
हालाँकि
वहाँ ये समस्याएँ आज़ादी के
बाद से ही बढ़ीं। असम के मूल
निवासियों में,
जिनमें
जनजाति के लोग भी हैं,
यह
चिंता दिखती है कि उनके यहाँ
बंगालियों की तादाद बढ़ती गई
है और कई क्षेत्रों में वे
धीरे-धीरे
अल्प-संख्यक
होते जा रहे हैं। यह ऐसा ही
है, जैसे
भारत के कई राज्यों में घुमंतू
कामगारों की वजह से स्थानीय
जनसंख्या में बड़े बदलाव आ रहे
हैं। पंजाब से लेकर केरल और
तमिलनाड जैसे कई राज्यों में
यह दिखता है। हर जगह इन बदलावों
से नए तनाव पैदा हुए हैं।
इस
समस्या को समझने के कई तरीके
हो सकते हैं। एक तो यह कि कई
बांग्लादेशी ग़रीबी और भुखमरी
से तंग लोग हैं और काम की तलाश
में मारे-मारे
भटकते हुए वे सीमा पार कर भारत
में आ गए हैं। यह हर कोई मानता
है कि ये शरणार्थी मेहनती हैं
और कम लागत में अधिक काम करने
की वजह से जोतदार या ठेकेदार
लोग उनको काम देते हैं। कई
वर्षों तक यहाँ रहते हुए वे
भारत की नागरिकता में अधिक
सुरक्षा महसूस करते हैं।
संसदीय राजनीति के खिलाड़ी इस
बात का फायदा उठाकर कि उनको
नागरिकता दिलाने पर एक सुरक्षित
वोट बैंक भी बन जाएगा,
मामले
को और जटिल बना देते हैं।
एक
तरीका यह है कि हम यह मान लें
कि बांगलादेशी तो सारे मुसलमान
हैं और वो एक षड़यंत्र के तहत
भारत में घुसपैठ कर बस रहे
हैं। नरेंद्र मोदी इसी भावना
को भड़काने वाले हैं।
हममें
से हर कोई अपनी भली और बुरी
अस्मिताओं को ढोते हुए जीता
है। हर कोई इतना उदार नहीं हो
सकता कि चारों ओर फैली सच्चाई
को देखे और देश-
दुनिया
में बराबरी लाने के लिए जीवन
समर्पित कर दे। मन में एक पक्ष
कहता है कि क्या किया जाए,
जो
है सो है,
पर
हमें तो अपनी ज़िंदगी को देखना
है, इसलिए
जो दिखता है उसे हम अनदेखा कर
जीना सीख लेते हैं। एक और पक्ष
है जो आक्रोश से फुँफकारता
है कि क्यों ये लोग हमारे जीवन
में घुस आए हैं,
इनको
यहाँ नहीं होना चाहिए। भले-बुरे
की इस लड़ाई में कभी भला तो कभी
बुरा पक्ष हावी हो जाता है।
व्यक्तिगत द्वंद्व से आगे
बढ़कर कभी यह सामूहिक स्वरूप
अख्तियार करता है। इस तरह यह
सांप्रदायिक राजनीति का औजार
बन जाता है।
नरेंद्र
मोदी हमारे उस सामूहिक बुरे
पक्ष को जगाने वाली ताकतों
के प्रतिनिधि हैं। हम जब कोशिश
करते हैं कि बदली हुई स्थितियों
में खुद को मना लें और दूसरे
इंसानों की तकलीफों को पहचानें,
नरेंद्र
मोदी जैसे लोग,
जिनमें
संघ परिवार के अलावा जमाते
इस्लामी या ऐसे ही और कट्टरपंथी
दलों के नेता भी आते हैं,
हमारे
अंदर के शैतान को जगाते हैं
कि सोचो वह आदमी जो अपने बच्चों
की भूख मिटाने तुमसे काम माँग
रहा है, वह
तुम्हारे समुदाय का नहीं है।
आज देश के कई हिस्सों में जो
मोदी लहर दिखती है,
उसकी
जड़ में यह क्रूर मानसिकता है,
जो
कभी उदासीनता तो कभी खूँखार
हिंसक प्रवृत्ति बन कर सामने
आती है।
एक
तर्क यह है कि तो क्या हम बाहरी
लोगों को घुसते ही रहने दें,
कुछ
तो करना ही होगा। सही है,
पर
वह मुंबई में बिहारियों को
मार कर या असम में बंगालियों
को मारकर नहीं होगा। वह नवउदारवादी
नीतियों के तहत नहीं होगा,
जिसके
झंडे को सामने रखकर अपने असली
चेहरे को छिपाते मोदी देश भर
में लोगों को बरगला रहे हैं।
ग़रीब कामगरों और किसानों की
समस्या के स्थाई हल कल्याणपरक
ठोस नीतियों के जरिए ही निकलेंगे।
हमारे सामूहिक विष वमन से कोई
हल नहीं निकलेगा।
पड़ोसी
देशों के प्रति नफ़रत फैलाकर
और अपने देश में लघु समुदायों
को असुरक्षित रखने के जिन संघी
विचारों का प्रतिनिधित्व
मोदी करते हैं,
वह
हमें आगे नहीं,
बल्कि
बहुत पीछे मध्य-काल
की ओर ले जाएगा। सत्ता में आते
ही ये लोग लोकतांत्रिक ढाँचे
पर कुठार चलाएँगे। पाठ्य-पुस्तकों
में कूपमंडुकता और सांप्रदायिकता
पर आधारित सामग्री डालेंगे।
इस अँधेरे से लड़ने के लिए कोई
और मदद नहीं कर सकता,
हमें
ही खुद से लड़ना है कि हमारी
कमज़ोरियों का फायदा ग़लत
लोगों को न मिले।
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