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हम कैसा भविष्य चाहते हैं

 कल जनसत्ता में  प्रकाशित आलेख -


चुनाव का वक्त है। भारत में कहीं दुंदुभी बज रही है तो कहीं संग्राम शुरू हो गया है। पड़ोस में एक और देश अफगानिस्तान में अभी शनिवार को चुनाव हुए हैं। दोनों मुल्कों में माहौल में फर्क गौरतलब है। भारत में अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद लोकतंत्र की जड़ें मजबूत दिखती हैं। मीडिया का बड़ा हिस्सा बिका हो सकता है, पर प्रिंट और दृश्य दोनों माध्यमों में पर्याप्त आज़ादी का दावा है। सभी ताकतवर राजनैतिक दल भ्रष्ट हैं, कोई पैसों के लेन-देन में तो कोई बौद्धिक धरातल पर, हर तरह के भ्रष्टाचार का बोलबाला है। फिर भी हमें अपने लोकतंत्र पर नाज़ है कि कम सही, सामाजिक गैरबराबरी और दकियानूसी सोच के विरोध में उठती आवाज़ें बुलंद हैं। अफगानिस्तान में ऐसा नहीं है। यह वह मुल्क है, जिसे रूस ने थोड़ा बनाया, थोड़ा बिगाड़ा तो अमेरिका ने बिल्कुल ही तबाह कर दिया। फिर अपने ही बनाए दानव तालिबान से लड़ने फौजें भेजीं। इस बार चुनाव तब हो रहे हैं, जब अमेरिकी वहाँ से पूरी तरह से दफा होने को हैं। कोई नहीं जानता कि आगे क्या होने वाला है। अफगानिस्तान हमेशा ऐसा नहीं था। हालाँकि भारत की ही तरह वहाँ के गाँव काफी पिछड़े हुए थे, 1980 तक काबुल जैसे शहर आधुनिक रंगत के बढ़िया नमूने थे। विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राएँ हमारे युवाओं की तरह मिल-जुल सकते थे। खुली सोच और रुढ़ि का द्वंद्व था, पर किसी की कल्पना में भी यह नहीं था कि हालात आज जैसे हो जाएँगे, जब औरतें कैदियों की तरह जी रही होंगीं, पुरातनवादियों का बोलबाला होगा।

उपराष्ट्रपति के पद की प्रार्थी हबीबा सरोबी के साथ कोई 300 स्त्रियाँ प्रांतीय परिषदों के लिए चुनाव मैदान में थीं। इनमें से एक ज़ाकिया वारदाक की बेटी मरियम वारदाक का कहना है कि उसने गाँव जाकर देखा कि एक महिला 25 वर्षों से अपने जेठ-देवरों के सामने बुरखा नहीं उतार सकती। शुक्र है कि हम अफगानिस्तान नहीं भारत में हैं। तमाम खाप पंचायतों के बावजूद अधिकतर लोग अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जीने को आज़ाद हैं। पर भारत में कब तक यह माहौल रहेगा, जो आज है! क्या माहौल सुधरेगा या वह और भी बिगड़ेगा! इस बार के चुनावों में यह सवाल बहुत गंभीर बन कर सामने आ रहा है। कई लोग कहेंगे कि अरे अफगान लोग पिछड़े लोग हैं। वहाँ रुढ़िवाद हो सकता है, हमारे यहाँ नहीं होगा। याद करें कि उन्नीसवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी की शुरूआत तक सारे यूरोप में जर्मन बुद्धिजीवियों की धाक थी। दर्शन, विज्ञान, संगीत, हर क्षेत्र में जर्मनी और दीगर मुल्कों से आगे था। फिर दो दशकों में ही ऐसा हुआ, जिससे आज तक जर्मन लोग उबर नहीं पाए हैं। यहूदियों के खिलाफ भावनाओं को भड़काते हुए नात्सी पार्टी सत्ता में आई और जब तक हिटलर ने आत्महत्या की, जर्मनी ही नहीं, सारी दुनिया बदल चुकी थी। लंदन शहर का आधा तबाह हुआ तो ड्रेस्डेन जैसे शहर मिट्टी में मिला दिए गए। मित्र-शक्ति में शामिल जापान – उफ्फ्! हिरोशिमा, नागासाकी का वह भयानक विनाश, कौन इन बातों को भूल सकता है? आखिर कैसे होता है यह सब कि अच्छे-भले समाज देखते ही देखते इस तरह रसातल में डूब जाएँ कि विनाश और तबाही के बिना उनको वापस लाना संभव ही न हो। इसका मुख्य कारण यह है कि जब विनाशकारी ताकतें सत्ता में आने की प्रक्रिया में होती हैं, अधिकतर लोग, खासकर युवा इस झंझा को ताड़ नहीं पाते। उन्हें लगता है कि जितना भी हो, कुछेक गड़बड़ियाँ होंगीं, पर सारे देश में तबाही लाने की बात कपोल-कल्पना है।

भारत में स्थानीय स्तर पर कभी प्राकृतिक तो कभी इंसानी दरिंदगी से तबाही के नमूने दिखते रहे हैं। पर ऐसा आज तक नहीं हुआ कि सारा देश किसी विनाश लीला से सीधे प्रभावित हो। यहाँ तक कि देश के विभाजन की अंतहीन पीड़ा से भी देश का अधिकांश छूटा हुआ था। अभी हो रहे चुनावों में पहली बार ऐसी स्थिति है कि हम देश के हर कोने में विनाश लाने वाली ताकतों के सत्ता में आ सकने की संभावना देख रहे हैं। देश में हर जगह कम ज्यादा आधार इन ताकतों का है। खाप पंचायत और राम सेने के स्त्री-विरोधी हिंसक कार्य-कलाप, अमदाबाद, कंधमाल, मुजफ्फरनगर आदि अनेक इलाकों में लघु-संप्रदाय पर अत्याचार, पुस्तकों पर ऊल-जलूल तर्कों के आधार पर प्रतिबंध - यह सब जो अब तक टुकड़ों में होता रहा है, हिंदुत्ववादी ताकतें उन सबको संगठित रूप देने को तत्पर हैं। दूर दराज के इलाकों में कहीं स्कूल बनाकर, कहीं भगत सिंह और विवेकानंद का ग़लत इस्तेमाल कर लोगों में जहर फैलाया जा रहा है। खतरनाक बात यह है कि जैसा पिछली सदी में जर्मनी, इटली, स्पेन के साथ और बाद में अफगानिस्तान में देखा गया, थोड़े समय में बड़ा मुनाफा कमाने के लालच से, भारत में भी विश्व-स्तर का पूँजीवाद इन ताकतों की मदद कर रहा है।

भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी भी मजबूत नहीं हैं, इस बात को हम पहली बार तब जान पाए थे, जब भूतपूर्व प्रधान-मंत्री इंदिरा गाँधी ने आपात-काल की घोषणा की थी। आपात-काल के दौरान जिस तरह की ज्यादतियाँ हुईं और नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, उसकी कल्पना पहले किसी ने न की थी। इतिहास हमें संभावनाओं को दिखला देता है, उन पर गौर करना या उन्हें अनदेखा करना हमारा काम है।

सवाल उठ सकता है कि एक पार्टी और उसके लोकप्रिय नेता का ऐसा विरोध हम क्यों कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने बड़ी सावधानी से अपनी नई छवि गढ़ी है। बीस साल पहले से मुख्य-मंत्री बनने तक जैसा सांप्रदायिक जहर वे उगलते थे, उससे बच कर बड़े व्यापारियों के मित्र की इस छवि बनाने में कई पैंतरे उन्होंने अपनाए। कोई पत्रकार गुजरात के 2002 में हुए दंगों पर सवाल करे तो वे चुप्पी साध लेते। उन्हें पता था कि चुप रहने पर जो निंदा होगी वह कुछ कह देने पर होने वाली स्थिति से ज्यादा विकट है। कई जगह देश के इतिहास भूगोल पर अंट-शंट कहकर पहले ही काफी फजीहत हो चुकी थी। जहाँ भीड़ बीजेपी समर्थकों और संघियों की दिखी तो कह दिया कि दंगों का दुख है, पर इसका कोई अपराध-बोध उन्हें नहीं है। उन्हें सचमुच पहले जैसा जहर उगलने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी जो ज़मीनी काम है वह तो संघ के सेवक कर ही रहे हैं। अमित शाह ने मुजफ्फरनगर में अपने सहयोगियों के साथ वह आग लगा ही दी जिसके लिए वे वहाँ गए थे। बाकी जेटली, राजनाथ सिंह से लेकर रामदेव तक अपना काम कर ही रहे हैं। इसलिए मध्य-वर्ग के उस बड़े हिस्से को जो खुले आम सांप्रदायिक होना पसंद नहीं करता, उनको साथ रखने के लिए सावधानी से छवि बनाए रखनी थी। पर महीनों देश-विदेश के पूँजीपतियों के पैसों से धुँआधार चुनाव प्रचार में लगे रहकर दिखने लगा कि लहर सचमुच वैसी है नहीं, जैसा कहा जा रहा था। पार्टी भी पूरी तरह से उनके साथ नहीं है। तो अब बेचारे थकने भी लगे हैं और जहाँ थोड़ा सा भी माहौल अनुकूल लगता है, वहाँ अपनी पुरानी शैली में भड़काने का काम कर आते हैं। जम्मू में केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट घोषित कर दिया। थे। असम के धेमाजी में भाषण देते हुए कहा है कि गैंडों को मार कर बांग्लादेशियों के लिए जगह बनाई जा रही है। कभी कह दिया कि सरकार गोहत्या के लिए बनाए कसाईखानों को बढ़ा रही है। ये सब बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं कि कुछ मतदाता और कुछ समझें न समझें वे सांप्रदायिक भाषा समझते हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश का नाम लेकर मुसलमानों के खिलाफ भावनाएँ भड़काई जा सकती हैं। ऐसा ही गोहत्या का संदर्भ भी है। उन्हें पता है कि आम लोगों की स्मृति में इतना नहीं रहता कि गोहत्या का कारोबार बीजेपी के नेतृत्व वाली एन डी ए सरकार के दिनों में भी वैसा ही चलता था जैसा आज चलता है। उनके अपने राज्य गुजरात से भी मांस का निर्यात बढ़ता चला है। पर सांप्रदायिक सोच तर्क नहीं कुतर्क से नियंत्रित होती है। पड़ोसी देशों के साथ समस्याएँ आपसी विमर्श से सुलझाई जा सकती हैं, यह सोचना सही तो है, पर इसके लिए संयत मानसिकता चाहिए जो खुशहाल माहौल में पनपती है। जहाँ आधी जनता भुखमरी और ग़रीबी का शिकार है, ऐसी बदहाली के माहौल में - वे सब बदमाश हैं हम उनको मजा चखा देंगे जैसी मार-काट की भाषा जल्दी घर करती है। इंसान के अंदर के इसी हैवानियत को भड़काकर मोदी और संघ परिवार अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। लोकतंत्र की कमजोरियों का पूरा फायदा ये लोग उठाएँगे। सत्ता में आने के बाद ये लोग क्या करेंगे? जैसे अफगानिस्तान को विकास के राह से भटका कर उसे मध्य-कालीन स्थितियों में धकेल दिया गया, ऐसा ही यहाँ भी हो सकता है। स्त्रियों के अधिकार छीने जाएँगे। धर्म और जाति के नाम पर लोगों पर ज़ुल्म ढाले जाएँगे। इतिहास की किताबों में अपने ढंग से मनगढ़ंत बातें डाली जाएँगीं। जहाँ पारिस्थितिकी में असंतुलन से समूची धरती के विनाश को लेकर हर ओर इंसान परेशान है, और विश्व-स्तर की मानवीय चेतना के निर्माण की ज़रूरत गंभीर होती जा रही है, वहीं ये संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित भावनाओं को बढ़ाएँगे।

इन मानव-विरोधी ताकतों को आर्थिक समर्थन नवउदारवादी पूँजी के सरगनाओं से मिल रहा है। कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार ने नवउदारवादी नीतियाँ देश पर लागू कीं। एन डी ए सरकार ने उसे आगे बढ़ाया और पिछले दस साल में यू पी ए सरकार ने इसके ढाँचे को और मजबूत किया। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ाया गया, बड़ी तादाद में लोगों को विस्थापित कर खनन का कारोबार बढ़ा। जब इन नीतियों का विरोध बढ़ने लगा तो कुछ कल्याणकारी कदम उठाए गए। इससे कांग्रेस से सरमाएदारों की जमात का भरोसा कम हो गया। मोदी के तानाशाही रवैए में उनको भरोसा है कि जन-विरोध को कुचलने में वे कामयाब होंगे। आखिर अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने नकारा नहीं है। नवउदारवाद और सांप्रदायिकता का यह मेल भारत के लोकतंत्र को ध्वस्त कर देगा। अभी यह देख पाना संभव नहीं है, पर जब ज़ुल्म का दौर शुरू होगा, हम असहाय दर्शक बने रह जाएँगे या एक-एक कर धरती से हमारा निशान मिटता जाएगा।

ऐसा नहीं कि बर्बरता पर हिंदुत्ववादियों का एकाधिकार है। हर समुदाय में कट्टरपंथी हैं और सरमाएदार अपने फायदे के लिए उन सबके साथ समझौता करते रहते हैं। नरेंद्र मोदी जैसे लोग, जिनमें संघ परिवार के अलावा जमाते इस्लामी या ऐसे ही और दलों के नेता भी आते हैं, हमारे अंदर के शैतान को जगाते हैं कि सोचो जो आदमी तुम्हारे समुदाय का नहीं है, वह तुम्हारे बराबर कैसे हो सकता है। जिसे मोदी लहर कहा जा रहा है, उसकी जड़ में यह क्रूर मानसिकता है, जो कभी उदासीनता तो कभी खूँखार हिंसक प्रवृत्ति बन कर सामने आती है। हर हर मोदी जैसे आक्रामक नारे भी सुनाई पड़ने लगे हैं।

यूरोप से लेकर अफगानिस्तान तक का इतिहास हमारे सामने है। अनपढ़ लोगों को भड़काना आसान है। कम से कम हम पढ़े लिखे लोग चुनाव के हक का इस्तेमाल करते हुए एकबार गंभीरता से सोचें कि हम इस मुल्क का कैसा भविष्य चाहते हैं।

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