एक
फेबु मित्र ने शोर मचाया है
कि सामाजिक अन्यायों के विरोध
के बारे में कहते लिखते हम लोग
आज यह क्यों नहीं कह रहे कि
किसको वोट दें। जिनको लक्ष्य
कर यह लिखा है उसमें मेरा भी
नाम डाल दिया है। फेबु में ऐसे
बहुत सारे मित्र दिनभर हल्लागुल्ला
करते रहते हैं। उनके पास वक्त
है, ऊर्जा
है, तो
करते हैं। पर थोड़ा समय पढ़ने
लिखने में भी लगा दें तो किसी
और से मंत्र ढूँढने की बजाय
खुद ही समझ आ जाएगी कि क्या
करना है।
बहरहाल,
बात चली है
तो जिनको कोई शक है, उनके
लिए मैं अपनी समझ बयाँ कर दूँ।
नरेंद्र
मोदी हमारे समाज के सबसे कुत्सित
पक्ष के प्रतिनिधि हैं। सबसे
पहला काटा यानी खारिज का निर्णय
यहीं है। कइयों को लगता है कि
इसलिए कांग्रेस को जिताना
चाहिए। जी नहीं। कांग्रेस
बीजेपी आआपा तीनों पूँजीवाद
समर्थक दल हैं। भारत ही नहीं,
सारी धरती
को विनाश के कगार पर लाने वाली
सबसे बड़ी ताकत पूँजीवाद है।
ये तीनों खारिज।
तो
क्या सपा बसपा वगैरह को वोट
दें?
वोट
उनको दें - जो
स्पष्ट रूप से पूँजीवाद और
नवउदारवाद के खिलाफ हैं। इसमें
हर रंग के कम्युनिस्ट से लेकर
लोहियावादी तक सभी शामिल हैं।
यह सही है कि इनकी ताकत बहुत
प्रभावी नहीं है।
सभी
वाम दल मिलकर जितनी सीटें
जीतेंगे, उसका
एक तिहाई भी आआपा नहीं जीतेगी।
इसलिए प्रभावी होना क्या होता
है, उस
पर सोचें।
यह
सही है कि वाम दलों में भी कहीं
कहीं ग़लत किस्म के लोग हैं। यह समझ कई बार महज सेक्टेरियन
(पंथवादी)
नज़रिए के
कारण होती है। पर सचमुच कहीं
कोई वामपंथी ग़लत टाइप का है,
तो उसे भी
वोट मत दो। इसलिए सपा जैसे
दलों के बहुत सारे बंदे सीधे
खारिज हो जाएँगे। नोटा तो है
ही। या कोई स्वतंत्र भला
प्रार्थी हो तो वह भी सही।
कई
लोग कहेंगे कि इस तरह वोट बँटने
से नमो तो जीतेगा ही। समस्या
नमो नहीं, उसके
पीछे की फौज है। यूपीए की गठबंधन
सरकार के दौरान ही संघ परिवार
ने अपनी ताकत कई गुना बढ़ाई है।
इसलिए नमो का विरोध एक और भ्रष्ट
पूँजीवादी सरकार बनाकर करना
कोई मतलब नहीं रखता। वाम की
ताकत जितनी ज्यादा होगी,
उतना ही
पूँजीवाद और सांप्रदायिकता
पर दबाव बढ़ेगा।
यह
भी सही है कि वाम दलों ने राज्यों
में सत्ता में आने के बाद
पूँजीवाद के साथ समझौते किए
हैं, जनविरोधी
कदम भी लिए हैं। जाति के मुद्दे
पर भी वाम का नज़रिया हमेशा
सही नहीं रहा। इसके लिए वाम
के अंदर रहकर संघर्ष करते रहना
पड़ेगा।
फिलहाल
वाम को ही हमारा वोट मिलेगा। जहाँ एकाधिक वाम प्रार्थी हैं, वहाँ अपनी समझ से जो बेहतर प्रार्थी लगे, उसको। और फेबु मित्रो, सोशल
मीडिया में शोर ठीक है,
पर हम जनांदोलनों
में अपनी भागीदारी और बढ़ाएँ।
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